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तुलसी शब्द-कोश
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कढ़त : वकृ०पु । निकलता, निकलते । 'कढ़त प्रेम बल धीर ।' गी० २.६६.३ । काढ़इ : पूक० । खिंचवा कर, निकलवा कर । 'खाल कढ़ाइ बिपति सह मरई ।'
मा० ७.१२१.१७ कढ़ाव : आ० उए । खिचवालूं । तो धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।' मा० २.१४.८ कढ़ावन : भकृ० अव्यय । खिचाने, रेखित कराने । 'तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका।'
मा० २.१८१.३ कढ़या : वि० । खींचने वाला, निकालने वाला । 'बार खाल को कढ़या सो बढ्या
गुर-साल को।' कवि० ७.१३५ कढ़ोरि : पू०० । घसीटकर, खींचकर, बाहर निकालकर । तोरि जम कातरि __ मदोदरी कढ़ोरि आनी ।' हनु० २७ कत : अव्यय (सं० कुतः>प्रा० कर्ता)। किस कारण । 'तौ कत दोष लगाइअ
काहू ।' मा० १.६७.७ (२) कहाँ, किधर । कतहु, हूं : कहीं भी, किसी ओर । 'खोजत कतहुं मिलइ नहिं धूरी।' मा० ४.१५.४ कति : वि० स्त्री० (सं० कियती>प्रा० कियत्ती)। कितनी । यह लघु जलधि
तरत कति बारा ।' मा० ६.१.१ Vकथ कथइ : (१) सं० कथयति-कथ वाक्य प्रबन्धे-कहना; (२) कत्थते
कत्थ श्लाघायम् - आत्म प्रशंसा करना। आ०प्रए। कहता है, प्रशस्तिगान
करता है। 'जि.मि जिमि तापसु कथइ उदासा ।' मा० १.१६२.५ कथक : सं०० (सं०) । नाट्य-निर्देशक, मुख्य नर्तक जो टोली के बीच में अङ्गलि
संकेत से या छड़ी घुमाकर सबको लय-ताल का अनुशासन देता है जिसके इङ्गित पर सब नाचते हैं। कियो कथक को दंड हौं जड़ करन कुचाली।'
विन० १४७.३ कथन : सं०० (सं०)। कहना, वर्णन । मा० १.४१ कथनीया : वि० (सं० कथनीय)। कहने योग्य, वर्णन-शक्य । 'सो सपनेहुं सुख नहिं
कथनीया।' मा० १.२४२.६ कथरी : सं०स्त्री० (सं० कन्था>प्रा० कंथा>अ० कंथडी)। वस्त्रखण्ड-निर्मित
बिछावन । 'मलीन धरें कथरी करवा है ।' कवि० ७.५६ कहिं : आ०प्रब० (सं० कत्थन्ते>प्रा० कत्थंति >अ. कत्थहिं) । प्रशस्ति गान
करते हैं । 'कायर कहिं प्रतापु।' मा० १.२७४ कथहि : कथा को । 'जो एहि कथहि..... कहिहाहीं ।' मा० १.१५.१० कथा : सं० स्त्री० (सं.)। (१) आख्यान, इतिहास । 'राम कथा जगमंगल
करनी ।' मा० १.१०.१० (२) वर्णन । 'करम कथा बिनदिनि बरनी।' मा०