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तुलसी सन्दकोश घरबात : सं०स्त्री० (सं० गृहवार्ता>प्रा० घरवता>अ० घरवत्त)।-घरेलू आजीविका,
कृषि या वाणिज्य के उपकरण, जीवन साधन । 'घरबात घरे खुरपा खरिया।'
कवि०७ ४६ घरिक : घरी+इक । एक घड़ी, घड़ी भर । घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं।'
मा० २.११५.३ घरिनि : घरनि । मा० २.२८५.२ घरिनी : घरनी । मा० २.१००.६ घरी : (१) घरी+ब० । घड़ियां । 'मान हुं मीच घरी गनि लेई ।' मा० २.४०.२
(२) घरी+अधिकरण कारक । घड़ी में । केहि सुकृती केहि घरी बसाए।'
मा० २.११३.२ घरी : संस्त्री० (सं० घटी>प्रा० घडी) । दिन का सातवां भाग, दण्ड। 'घरी
पंच गइ राति ।' मा० १.३५४ (२) प्रतीक्षा (का समय) । 'घरी करोहम जोही।' कृ० ४१ (३) अवसर । 'घरी कुघरी समुझि जियं देखू ।' मा०
२.२६.८ धरीक : घरोक । घड़ी भर, थोड़ी देर । परिखो पिय छाहे घरीक ह ठाढ़े।' कवि०.
२.१२
घर : घर+कए । “घरुन सुगम बनु बिषमु न लागा।' मा० २.७८.५ घरें : घर में । 'घरबात घरे खुरपा खरिया। कवि० ७.४६ घरो : सं००कए । (१) (सं० घट:>प्रा० घडो)। मिट्टी का घड़ा । (२) घर
+कए० । वृक्ष आदि के आस-पास बनाया हुआ मिट्टी का घेरा। 'बिगरत मन
संन्यास लेत, जल नावत आम घरो सो।' विन० १७३.४ घरौंधा : सं.पु । बच्चों के खिलवाड़ का घर जो धूल से थोड़ी देर के लिए बनाया
और साँझ होते ही बिगाड़ दिया जाता है । 'बापुरो बिभीषनु घरौंधा हुतो बालु
को।' कवि० ७.१७ घाशु : सं०० (सं.)। उष्ण किरणों वाला सूर्य । विन० २८.६ घलतो : क्रियाति०पू०ए० । यदि तो नष्ट कर देता। 'घने घने घर घलतो।'
गी० ५.१३.२. घवरि : सं०स्त्री० (सं० गह्वर ?)। फलों या फलियों का गुच्छा (प्रायः कदली
फल-स्तवक के अर्थ में चलता है; आम्रफल-गुच्छ आदि अर्थ भी प्रचलित हैं)।
'हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि ।' मा० १.२८८ घसीटन : भकृ० (संघर्ष+इट गो) । घसीटने, घिसते हुए भूमि पर खींचने, घर्षण
पूर्वक चलाने । 'लगे घसीटन धरि धरि झोटी।' मा० २२१६३.७