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तुलसी शब्द-कोश
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घनेरे : 'घनेरा' का रूपान्तर । (१) प्रचर तथा सघन -संघर्ष यक्त अविरल । 'चले
मत्त गजजूथ घनेरे । मा० ६.७९.३ (२) बहुसंख्यक । 'जे आचरहिं ते नर न
घनेरे ।' मा० ६.७८.३ घनेरो : घनेरा+कए० । अत्यन्त घना । तिन्ह सों प्रेम घरो।' विन० १४३.३ घने : घनहि । मेघ को । 'भयो जातक राम स्याम सुदर घने ।' गी० ५.४०.४ घनो : घना+कए० । प्रचुर, अधिक । 'हाटकु पिघिलि चलो घी सो घनो।' कपिल
५.२४ घमंड : सं० । (१) धमड़ना, गर्वारेक से घुमड़ने-घेरने की क्रिया, आवरणकारी
आडम्बर या आटोप । 'घन घमंड गरजत नभ घोरा।' मा० ४.१४.१ (२) उत्साहतिरेक, समारोह, अतिशय उल्लास । 'भूप भवन घर घर घमंड ।'
गी० १.४६.४ घमंड : घमंड+कए । अद्वितीय आडम्बरपूर्ण घेरा । 'सावन घन घमंडु जन
ठयऊ ।' मा० १.३४७.१ घमोई : सं०० (सं० गमत्) । (१) तण विशेष जो बांस के समान होता है।
(२) बांस को ही जाति का वनस्पति विशेष । 'बाँस बंस सुत भयहु घमोई।'
मा० ६.१०.३ 'घर : सं०० (१) (सं० घर = गृह>प्रा० घर) । मा० १.७५.३ (२) (सं० घट
>प्रा० घड) । घड़ा । 'करि पुटपाक नाक-नायक हित, घने घने घर घलतो।'
गो० ५.१३.२ (यहाँ घर रूपी घट का श्लेष है) घरजायऊ : घर जाया भी। 'घरजायऊ है घर को।' कवि० ७.१२२ घरजाया : सं०पु० (सं० घर जात>प्रा० घर जाय) । घर में ही पैदा हुआ सेवक । घरनि : (१) घरनी। पत्नी । 'जपत सादर संभ सहिति घरनि ।' विन० २४७.२
(२) घर+संब० । घरों (में)। 'जग जगदीस घर-घरनि घनेरे हैं।' विन०
१७६.२ घरनी : सं०स्त्री० (सं० गृहिणी>प्रा० घरिणी)। पत्नी 'स्रवहिं गर्भ रजनीचर
घरनी।' मा० ५.३६.७ घरन्यो : घरनीभी। 'घरन्यो बरदा है।' कवि० ७.१५५ घरफोरी : वि०स्त्री० (सं० घरस्फोटी>प्रा० घडप्फोडी+घरस्फोटी>प्रा
घरप्फोडी)। घर (परिवार) में फूट डालने वाली+घडे फोड़ने वाली
(बेशऊर)-दासी । 'घरेहु मोर घरफोरी नाऊँ ।' मा० २.१७.३ ।। घरबसी : वि०स्त्री० (सं० गृहोषिता) । घर बैठी, उपपति के घर जाकर रहने
वाली या घरजाई दासी (एक प्रकार को गाली)। दुष्ट, नीच । 'डारि दै घरबसी लकुटी बेगि कर तें।' कृ० १७