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तुलसी शब्द-कोश
त्रिभंग : सं०पु० (सं० )
। खड़े होने की विशेष मुद्रा जिसमें घुटने, कटि और ग्रीवा टेढ़े रहते हैं । (२) उस मुद्रा में खड़ा होने वाला - ली (कृष्ण) । 'जो हैं मूरति त्रिभंग ।' कृ० २०
त्रिभुअन : त्रिभुवन । मा० ६.८३ छं०
त्रिभुवन : सं०पु० (सं० ) । स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोकों का समुदाय । मा०
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६.११६.४
त्रिय : तिय । मा० १.६७.६
त्रिरेख : त्रिबली । 'उदर त्रिरेख मनोहर ।' गी० ७.२१.११
त्रिलोक : त्रिभुवन | मा० ३.४ छं०
त्रिलोचन: वि० सं० (सं० ) । तीन नेत्रों वाला = शिव । कवि० ७.१४६ त्रिविधाति : ( त्रिविध + आर्ति) = त्रिताप । विन० ४३.६
त्रिसंक : सं०पु० (सं० त्रिशङ कु ) । एक सूर्यवंशी राजा हरिश्चन्द्र का पिता ।
मा० २.२२६.१
त्रिसिरा : सं०पु० (सं० त्रिशिरस् - त्रिशिरा : ) । खर-दूषण बन्धु एक राक्षस ।
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मा० ५.२१.६
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त्रिसिरारि : (सं० त्रिशिरोडरि ) त्रिसिरा के शत्रु – राम । मा० ४.३० क त्रिसिरु : त्रिसिरा + कए० । कवि० ६.४
त्रिसूल : सं०पु० (सं० त्रिशूल ) । (१) आयुध विशेष जिसमें तीन नोकेँ होती हैं । मा० ६.७६.४-६ (२) शिव का आयुध जो तापत्रय का प्रतीक है । मा० १.६२.५
त्रिसूलन्हि : त्रिसूल + संब० । त्रिशूलों (से) । 'ब्याकुल किए भालु कपि परिध त्रिसूलन्हि मारि ।' मा० ६.४२
त्रेताँ : त्रेता युग में । ' त्रेतां ब्रह्म मनुज तनु धरिही । मा० ४.२८.७
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त्रेता : सं० स्त्री० + पुं० (सं० ) । चतुर्युगी का दूसरा युग । 'सत्त्व बहुत, रज कछु, रतिर्मा । सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ।' मा० ७.१०४.३
त्रैकटक : (सं० त्रयकटक) तीन तत्त्वों की सेना । 'सत्त्वगुण प्रमुख त्रैकटक कारी ।'
विन० ५८.२
नैन : त्रिनयन | त्रिलोचन = शिव । विन० ४६.५
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त्रैलोक : त्रैलोक्य | मा० १.१६७.५
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त्रैलोका : त्रैलोक | मा० १.८७.५
त्रैलोक्य : (सं०) तोनों लोकों का समूह - दे० त्रिभुवन । कृ० २१
वर्ग: (सं० त्रिवर्ग = वर्गत्रय) अर्थ, धर्म और काम पुरुषार्थों का गण जिसे
'अभ्युदय' कहते हैं (लौकिक मूल्य ) । विन० ५७.२
tours : (सं० व्याधित्रय ) = त्रिविधाति - दे० तापत्रय । विन० ५७.६