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तुलसी शब्द-कोश
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अपसरा : अपछरा । गी० १.३.२ अपह : वि० पु० (सं०) । नाशक (समासान्त में) । 'ध्वान्तापहं तापह्म'। मा० ३
श्लोक १ अपहर, अपहरई : (१) (सं० अपहरति-दूर करना, नष्ट करना, हर लेना) आ०
प्रए । हरण करता है। दूर करता है। 'सरदातप निसि ससि अपहरई ।' मा० ४.१७.६ (२) छीन लेती है+अपने वश में करती है । 'जो ग्यानिन्ह कर
चित अपहरई ।' मा० ७.५६.५ अपहरत : (१) वकृ० पु० । अपहरण करता है-दूर या निरस्त करता है।
'अपहरत विषादा।' मा० २.२७६.१ (२) क्रियाति० पु०। 'दुख दाह दारिद..... अपहरत को।' मा०
२.३२६ छं० अपहरति : (१) वक स्त्री० । हरण करती। (२) आ० प्रए (सं०) दूर करता-ती
है। 'दर्शनादेव अपहरति पाप ।' विन० ५५.८ अपहरन (पा) : वि० । हरने वाला । विन० ५३.६ अपहरहि, ही : आ० प्रब । दूर करते हैं, छीन लेते हैं । 'भानु जान सोभा अपहरहीं।'
मा० १.२६६.४ अपहारी : वि० (सं० अपहारिन्) दूर करने वाला, हरने वाला । विन० ४४.३ अपाउ : सं० पु० (सं० अपाय)+कए। हानि, उत्पात, उपद्रव । 'जोगवत अनट
अपाउ।' विन० १००.३ अपान : सं० पु. (सं० आत्मन् >प्रा० अप्पाण) अपनापन, स्वयम्, निज की
सत्ता । 'अपान सुधि भोरी भई ।' मा० १.३२१.छं० अपाय : (१) सं० पू० (सं०) । क्षति, विकार, नाश, व्याधि । (२) विघ्न, बाधा
(उपाय का विलोम)। 'कलि-काल अपर उपाय ते अपाय भए।' विन०
१८४.१ अपार : वि० (सं.) जिस का पार (छोर) न हो, असीम । मा० १.६.१ अपारा : अपार । मा० १.६.१० अपारि : अपार (सं० अपारिन् ) जो 'पारी' =पारयुक्त न हो । असीम । 'सब गुन
उदधि अपारि ।' कृ० २७ अपारू : अपार+कए। ‘राम बियोग पयोधि अपारू ।' मा० २.१५४.५ ।। अपारो : अपारू । विन० ११७.३ अपावन : वि० (सं०) । अपवित्र, मलिन, बीभत्स । मा० १.६३ छं० अपावनि, नो : अपावन+स्त्री० । 'सहज अपावनि नारि ।' मा० ३.५ अपि : अव्यय (सं०) । भी । 'रिपु तेजसी अकेल अपि ।' मा० १.१७० अपी : अपि । भी । 'धनवंत कुलीन मलीन अपी।' मा० ७.१०१.७