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तुलसी शब्द-कोशा
अपुनीत : अपावन,- अपवित्र । मा० १.६६.७
अपेल : वि० (सं० – पेल गतौ ) अचल, अनुल्लङ्घनीय । 'प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई ।' मा० ५.५६.८
अप्रतिहत: वि० (सं० ) । अव्याहत, निर्बाध, बेरोक । 'अप्रतिहत गति होइहि तोरी ।' मा० ७.१०९.१६
अप्रमेय : वि० (सं० ) । अज्ञेय, अनिर्वचनीय ( जो प्रमाणों - प्रत्यक्ष इन्द्रिय, अनुमान आदि-से प्रमेय न हो) । प्रमाता द्वारा जो स्वसंवेद्य (साक्षिमास्य) तो हो पर वह उसे अन्य संवेद्य न बना सके । मा० ३.४ छं० .
फल : वि० (सं० ) । निष्फल, निरर्थक । 'अफल उपाय- कदंब ।' रा० प्र० ७.५.३
अब : अव्यय (सं० अतः >> प्रा० अओ > अ० अउ > अव) ।
अबर्त: सं० पु ं० (सं० आवर्त ) । भौंर, घुमावदार धारा प्रवाह चक्र । मा०
२.२७६.३
अबल : वि० (सं० ) । बलहीन, अशक्त । 'अबला अबल सहज जड़ जाती ।' मा०
७.११५.१६
बलनि : (१) अबल + सं०ब० । ( ने । 'हम अबलनि सब सही है ।' कृ० ४२
बन्ह : अबलनि । अबलाओं (के) ( + अबलों के ) । ' अबलन्ह उर भय भयउ
बिसेषा ।' मा० १.६६.४
अबला : सं० [स्त्री० (सं०) स्त्री ( पुरुष की अपेक्षा में अल्प बल वाली) । मा०
२ ) अबला + सं०ब० । अबलों ने + अबलाओं
७.११५.१६
अबस : वि० (सं० अवश्य ) । जो वश में न किया जा सके । 'अब सहि बस करी । " मा० ३.२६ छं०
बह, हीं : अभी, इसी समय । मा० २.३४.७
अबहुं हूं : अब भी, इस समय भी । 'तुम्ह अबहुं न जाना ।' मा० २.१६.२ अवध धा: वि० पुं० । बाधारहित, अविच्छिन्न, अप्रतिहत । मा० १.३६२ अबाधी : वि० स्त्री (सं० अबाधा ) । दोषों से व्याहत न होने वाली, निर्बाध
मा० ७११६.६
अबासू : सं० पु ं० (सं० आवास ) + कए । भवन । 'बिन रघुबीर बिलोकि अत्रासू ।'
मा० २.१७६.६
for: वि० (सं० अविकारिन् ) विकार रहित, माया के त्रिगुणात्मक परिवर्तनों से परे ( वैष्णव मत में जगत् ब्रह्म का परिणाम है-विवर्त नहीं - परन्तु उसमें वैसा विकारात्मक परिवर्तन नहीं आता जैसा कि दूध से दही में देखा जाता है । इस सिद्धांत को 'अविकृत- परिणामवाद' कहते हैं- जैसे, जल हिम रूप में भी जल ही रहता है) 'अस प्रभु हृदयँ अछत अधिकारी ।' मा० १.२३.७