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________________ तुलसी शब्द-कोश अबिगत : वि० (सं० अ-विगत ) जो कहीं भी विगत ( रहित ) न हो = सर्वव्यापी | 'अबिगत अलख अनादि अनूपा ।' मा० २.६३.७ 37 बिचल : वि० (सं० अविचल ) । स्थिर, अटल । मा० १.७६.४ अबिचारे : क्रि० वि० (सं० अविचारित) । बिना विचार किये हुए; सत्-असत् की विवेचना किये विना (दे अनबिचार - रमणीय ) । स्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक प्रगट होइ अबिचारे ।' विन० १२२.३ छिन : वि० (१) (सं० अविक्षीण) जो क्षीण न हो, प्रचुर, अविरल, सघन, पुष्ट (२) (सं० अविच्छिन्न) अटूट, निरन्तर अखण्ड, धारा प्रवाहवत् व्याप्त : "राम पद प्रीति सदा अविछीन ।' मा० ७.११६ farart: an (सं० अविद्यमान ) असत्, सत्ताहीन । 'अर्थ अविद्यमान जानिय संसृति नहि जाइ गोसाईं ।' विन० १२०.२ अविद्या : सं० पु ं० (सं० अविद्या) व्यामोहिका माया (सात्त्विक विद्या से भिन्न ) राजस तथा तामस प्रकृति जिसकी क्रमशः विक्षेप और आवरण शक्तियाँ हैं । आवरण से सत्य का बोध तिरोहित होता है और विक्षेप से असत् में सत् का आरोप होता है— जैसे रज्जु में सर्प का बोध हो तो रज्जुबोध तिरोहित हो जाता और सर्प (असत्) का बोध हो चलता है । मा० ३.१५.३-४ अविद्या पंथ : राग, द्वेष, अस्मिता, अभिनिवेश सहित अविद्या का योग शास्त्रीय पञ्चका । मा० ७ । उपसंहार अविद्या पंच जनित विकार भी रघुपति हैं । अविनय : सं० (सं० अविनय ) । अशिष्टता, दुराग्रह, धृष्टता । 'छमबि देबि बड़ अबिनय मोरी ।' मा० २.६४.६ अबिनासिनि : वि० स्त्री० (सं० अविनाशिनी) कभी नष्ट न होने वाली (आदि शक्ति) । मा० १.६८.३ अबिनासिहि : अविनाशी तत्त्व को । मा० ७.३०.६ अबिनासी : वि० पु० (सं० अविनाशिन् ) । अनश्वर, अनन्त । मा० १.१३.६ अबिबेक, का: सं० पुं० (सं० अविवेक) विवेकहीनता, सत् तथा असत् में अन्तर करने की शक्ति का अभाव । मा० १.१५.२ अबिबेकी : वि० | विवेकहीन । मा० २.१४.२ अबे : अबिक + कए । एक ( विचित्र ) अविबेक, अद्वितीय नासमझी । 'देख हु मुनि अबिबेकु हमारा ।' मा० १.७८.७ अबिरल : वि० (सं० अविरल) सघन, अधिक, संहत, प्रचुर । 'रति होउ अबिरल ।' मा० २.७५ छं० अबरोध : वि० (सं० अविरोध ) | विरोध-रहित, अनुकूल, निर्विरोध । 'समय समाज धरम अबिरोधा ।' मा० २.२६६.३
SR No.020839
Book TitleTulsi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchulal Avasthi
PublisherBooks and Books
Publication Year1991
Total Pages564
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size32 MB
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