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तुलसी शब्द-कोश
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चिक्कन : वि० (सं० चिक्कण) । स्निग्ध । मा० १.१६६.१० चिक्करत : वकृ०० (सं० चीत्कुर्वत् >प्रा० चिक्करंत)। (१) चिंघाड़ते । 'गज
चिक्करत भाजहिं ।' मा० ६.७८ छं० (२) चीखतें, चीं-ची ध्वनि करते ।'
'चिक्करत लागत बान ।' मा० ३.२०.१० चिक्करहिं : आ०प्रब० (सं० चीत्कुर्वन्ति>प्रा० चिक्करंति>अ.चिक्करहिं) ।
चीत्कार करते हैं, चिंघाड़ते हैं। चिक्करहिं दिग्गज ।' मा० १.२६१ छं०
(२) चिखते हैं, चिचियाते हैं । 'चिक्करहिं मर्कट भालु । मा० ६.८१ छं० १ चिक्करहीं : चिक्करहिं । मा० ५.३५.१० चिच्छाक्ति : (चित्+शक्ति-सं०)। चैतन्य, जीव, पुरुष तत्त्व । विन० ५४.२ चित : (१) चित्त । मा० १.३ क (२) सं० स्त्री० (सं० चित्) । चैतन्य, आत्मा ।
'सीतानाथ नाम नित चितहू को चितु है।' विन० २५४.३ चितइ : (१) पू० (सं० चित्रयित्वा>प्रा० चित्तविअ>प्रा० चित्तवि)। विस्मय
पूर्वक देख कर, ताक कर । 'प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि ।' मा० १.२५८ (२) चिनई ।। देखी । 'तुलसी प्रभु सुग्रीव की चितइ न कछू कुचालि ।' दो०
१५७ चितइए, ये : आ०कवा०प्रए० (सं० चिन्यते>प्रा. चित्तवीअइ)। देखिए । 'जो
चितवनि सौंधी लगे, चितइये सबेरे ।' विन० २७३.३ चितइहो : आ०भ०मब० (सं० चित्रयिष्यथ>प्रा० चित्तइहि>अ० चित्तइहिहु)।
देखोगी। 'तुम अति हित चितइही नाथ तनू ।' गी० ५.५१.६ चितई : भूकृ०स्त्री.<सं० चित्रिता>प्रा. चित्रविआ)। देखी। चितइ सीय
कृपायतन ।' मा० १.२६० चितए : भूकृपु०ब० । देखे । 'जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे ।' मा० २.२१७.१ चितग्रंथि : सं०स्त्री० । चित्त की गांठ, मनोग्रन्थि, कुण्ठा (जो मन की असामान्य
निम्न अवस्था है); अनाचार की ओर ले जाने वाली मनोवृत्ति (जिसे मानस शास्त्र तथा दर्शन में गहित माना गया है)। 'भ्रमित पुनि समुझि चितग्रंथि
अभिमान की।' विन० २०६.४ चितष्टत्ति : सं०स्त्री० (सं० चित्तवृत्ति)। अन्तःकरण के व्यापार--(१) मनो
व्यापार = संकल्प-विकल्प, मनोवेग; (२) अहंकार-वृत्ति =बोध के साथ 'अहं' का केन्द्रीभूति प्रत्यय; (३) बुद्धि =निश्चयात्मक बोध व्यापार । विषयों के प्रति चित्त की प्रतिक्रियाओं का समवायात्मक व्यापार । विन० ५६.३ बिबिध चितवृत्ति खग निकर श्येनोलूक काक बक गृध्र आमिष अहारी । वृत्तयः पत्यतच्यः क्लिष्टाः आबिलष्टा। प्रमाण-विपर्चम-विकल्प-निद्रा-स्मृतयः। योग १.५-६