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तुलसी शब्द-कोश
('चित्त' उक्त तीनों- मन, अहंकार और बुद्धि की समदशा है जिसकी
विषमता तीन व्यापारों में प्रकट होती है।) चितभंग : सं.पु० (सं० चित्तभङ्ग)। (१) चित्त की टूटन, समूचे अन्त:करण
मन अहंकार और बुद्धि-की शक्तियों का भङ्ग उत्साह की पूर्ण हानि+ (2) वदरिकाश्रम के मार्ग की एक पर्वतमाला जो यात्रियों का उत्साह भङ्ग करती है (चित्त को तोड़ देती है) । 'मान मनभंग, चितभंग मद, क्रोधलोभादि
पर्वत दुर्ग ।' विन० ६०.६ चितय : आ० भूकृ०पु०+उए । मैंने देखा ।' चितयउँ आँखि उधारि ।' मा०
७.७६ क चितयउ : भूकृ०पु०कए० । देखा । 'नपु चितयउ आँखि उधारि ।' मा० २.१५४ चितव, चितवइ : (सं० चित्रयति>प्रा० चित्तवइ-विस्मय आदि से देखना, ताकना) आ० प्रए । साश्चर्य देखता है या देखती है । 'चकित चितव मुदरी
पहिचानी।' मा० ५.१३.२ चितवत : वकृ०० (सं० चित्रयत्>प्रा. चित्तवंत)। (१) देखता, देखते ।
'चितवत चकित धनुष मखसाला।' मा० १.२६८.६ (२) देखते ही। 'चितवत
कामु भयउ जरि छारा ।' मा० १.८७.६ चितवति : चितवत+स्त्री० । देखती। चितवति चकित चहूँ दिसि सीता ।' मा०
१.२३२१ चितवनि : सं०स्त्री० (सं० चित्रण>प्रा० चित्तवण) । ताकने या देखने की क्रिया
जिसमें विस्मय का चित्र रंग हो । 'चितवनि चारु मार मन हरनी।' मा०
१.२४३.३ चितवनियां : चितवनि+ब० । चितवने । गी० १.३४.५ चितवनिहारा : वि.पु । देखने वाला, ताकने वाला (दृष्टि डालने वाला)। 'को
प्रभुसँग मोहि चितवनिहारा।' मा० २.६७.७ चितर्वाह : आ०प्रब० (सं० चित्रयन्ति >प्रा० चित्तवंति>अ० चित्तवहिं) देखते-ती.
हैं । 'जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना ।' मा० १.५४.६ चितवा : भूकृ.पु । ताका, साश्चर्य निहारा। 'फिरि चितवा पाछे प्रभु देखा।'
मा० १.५४.५ चितवै : चितवहिं । ताकते हैं । 'मृग चौंकि चकै चितवं चितु दै।' कवि० २.२७ चितहि : चित्त को । 'चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं ।' मा० १.२१६.७ चिता : सं०स्त्री० (सं.)। शवदाह की काष्ठ रचना विशेष । मा० २.१७०.४ चितु : चित+कए । अन्तःकरण । 'रघुपति पद सरोज चितु राचा।' मा०
१.२५६.४