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तुलसी शब्द-कोश
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अनुचित : वि० (सं०) उचित का विलोम, अनर्ह अयोग्य । मा० १.६२.१ अनुचितु : अनुचित+कए । एकमात्र =प्रथम अनुचित आचरण । 'अनुचितु छमब
जानि लरिकाई।' मा० २.४५.६ अनुज : सं० पु. (सं०-अनु पश्चात् जमः) । छोटा भाई। अनुजन्ह : अनुज+सं०बं० । अनुजों (के प्रति) । 'आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई।'
मा० १.२०५.६ अनुजहि : अनुज को। मा० १.२२५.३ अनुजा : सं० स्त्री (सं.)। छोटी बहन । मा० ७.१०२ छं० अनुदिन, अनुदिनु : क्रि० वि० (सं० अनुदिनम्) प्रतिदिन । मा० २.२०५.२
जा०मा० अनुपम : वि० (सं.)। उपमा रहित, अप्रतिम, अद्वितीय। मा० १.३६ अनुबाद, दा : सं० पु० (सं० अनुवाद) अनुकथन, पुनर्वचन, व्याख्याओं द्वारा
वस्तुनिरूपण, प्रमाणीकरण । 'सुनत फिरउ हरिगुन अनुबादा।' मा० ७.११०.१२ दर्शनों में चार प्रकार के 'अनुवाद' बताए गए हैं-(१) यथार्थ कीर्तन (२) स्तुतिपरक कथन (३) गुण विवेचन और (४) अर्थवाद=
अतिशयोक्तिपरक कथन । अनुभयउ : भू० कृ० पुं० कए । अनुभव किया, भोगा। 'मोहिसम यहु अनु भयउ
न दूजें।' मा० २.३.६ अनुभूये-अनुभव किये, भोगे । 'नये-नये नेह अनुभये देह गेह बसि ।' विन० २६४.२ अनुभव : सं० पु० (सं०) बोध-प्रत्यक्ष अनु मिति तथा शाब्द प्रत्यय । 'उमा कहउँ ___ मैं अनुभव अपना ।' मा० ३.३६.५ (२) आत्म साक्षात्कार, स्वसंवेदन,
स्वानुभूति । 'अनुभव-गम्य भईि जेहि संता । मा० ३.१३.१२ अनुभव, अनुभवइ : (स० अनुभवति>प्रा० अणुहवइ) आ० प्रए। अनुभव करता
है, स्वसंवेदा बनाता है-'सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख ।' विन० १६७.४ अनुभवगम्य : वि० (सं०) स्वसंवेदनमात्र से ज्ञातव्य, साक्षिमास्य =जिसे दूसरे को
इन्द्रियगम्य नहीं बना सकते, स्वयं ही जान सकते हैं, स्वानुभूति के अतिरिक्त
अन्य प्रमाणों से प्रमेय न होने वाला, अप्रमेय, अनिर्वचनीय । मा० ७.१११.४१ अनुभवति : वकृ० स्त्री । स्वयम् अनुभूति में जाती स्वसंवेदा बनाती । 'उर अनुभवति __ न कहि सक सोऊ ।' मा० २.४२ अनुभवहिं, हीं : आ० प्रब० । अनुभव करते हैं, स्वानुभूति में जाते हैं, स्वसंवेदा ___ बनाते हैं । 'बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं । मा० २.१०८.४ । अनुभवहि : आ० मए । तू अनुभव कर, साक्षात् जान ले । 'तुलसी तू अनुभवहि
अब राम बिमुख की रीति ।' दो० ७३