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तुलसी शब्द-कोश
तीब्रता के साथ लीक बना गई । 'लहकी कपि लंक जथा खरखोकी ।' कवि०
७.१४३ खरगोस : सं०पु०कए० (फ्रा० खरगोश) । गधे (खर) के समान कान (गोश)
वाला जंगली जन्तुविशेष सशक । 'चहत केहरि जसहि सेइ सुगाल ज्यों
खरगोसु ।' विन० १५६.३ खरच : सं०० (अरबी-खर्ज=फा० खर्च-प्रवास में जाना अरबी अर्थ है,
फारसी में व्यय में आया धन अर्थ हे) । (हिन्दी में) व्यय । दो० ४७१ खरतर : वि० (सं०) । तीव्रतर, अति तीक्ष्ण । 'अवलोकि खरतर तीर ।' मा०
३.२०.३ खरनि : खर+संब० । गधों (पर)। 'भए खर निमि असवार ।' गी० २ ४७.१५ खरभर : सं०० (ध्वनि-चेष्टानुकरण)। खलभली, कान्दिशीकता, किंकर्तव्यमूढ
दशा में एक प्रकार का कलख, क्षुब्ध ध्वनि । 'कपिदल ख रभर भयउ धनेरा। मा० ६.१००.१० ('खर' तिनकों के 'भर' भार का-सा शब्द तथा अव्यवस्था
का अर्थ अभिप्रेत रहता है।) खरभरी : खरभर । विफलता । 'सिय हिय की बिसेषि बड़ी खरभरी है।' गी०
१.९२.३ यहां घड़े में जल की खलभलाने वाली ध्वनि का अर्थ आता है जिससे
हृदय के उमथने का अभिप्राय निकलता है। खरभरु : खरभर+कए । समुदित खलभली, सामूहिक विकलता। 'खरभरु नगर
सोचु सब काहू ।' मा० २.४६.२ खरभरे : भूकृ०पु०३० । क्षुब्ध हो उठे, खलभल ध्वनिपूर्ण हुए। 'लोल सागर
खरभरे।' मा० ५.३५ छं० १ खरारि, री : खर राक्षस के शत्रु =राम । मा० ५.२२ खरि : (१) सं०स्त्री० (सं० खलि, खली)। तिल आदि का वह बचा भाग (या
तलक्षट) जो तेल निकालने के बाद रह जाता है । 'दै दै सुमन तिल बासि के खरि परिहरि रस लेत ।' विन० १६०.३ (२) वि०स्त्री० । तीव्र, खरी, तीखी।
'झरि झकोर खरि खीझि ।' दो० २८४ खरिया : सं०स्त्री० (सं० क्षारिका>प्रा० खारिया)। (१) घास-भूसा आदि
बाँधने की जाली । 'घरबात घरे खुरपा खरिया ।' कवि० ७.४६ (२) झोली
(साधुओं की)। 'खरिया खरी कपूर सब उचित ।' दो० २५५ ।। खरी : (१) सं०स्त्री० (सं.)। गधी । 'खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी।' मा०
७.११०.७ (२) सं०स्त्री० (सं० खटिका, खडिका, खडि)। खड़िया मिट्टी