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तुलसी शब्द-कोश
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खपुमा : वि०पू० (सं० खपुर=आकाश में नगर बसाने वाला) । जो विजय आदि __ की हवाई कल्पना (मनोराज्य) करता है पर युद्ध से घबराता है=कायर ।
खग्ग खगे खपुआ खरके ।' कवि० ६.३५ ।। खप्पर : सं०० (सं० खर्पर>प्रा० खप्पर) । कपाल, कपालाकार पात्र । 'जोगिनि
भरि भरि खप्पर संचहिं ।' मा० ६.८८.७ खप्परिन्ह : खप्परी+संब० । छोटे खप्परों (में, से)। 'खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि
जज्झहिं ।' मा० ६.८८ छं० । खबरि : सं०स्त्री० (अरबी-खबर) । सन्देश, समाचार । 'खबरि लेत हम पठए
नाथा ।' मा० २.२७२.७ खभार : सं०० (सं० अक्षभार>प्रा० अन्मवभार-शकटभार)। एक बैलगाड़ी
का बोझ, मानसिक बोझ जो दबोच दे, अनिश्चय या हड़बड़ी, इन्द्रिय यामन (अक्ष) का भार (तुर्की-खाबूर=पच्चर या खूटी)। 'देखि निबिड तम दहुं
दिसि कपिदल भयउ खभार ।' मा० ६.४६ खभारु : खभार+कए । (१) एकमात्र दुश्चिन्ता का बड़ा बोझ, मनोव्यथा । 'फिरहु
त सब कर मिट खभारु ।' मा० २.६७.३ (२) अद्वितीय खभार=अनिश्चय का दबाव । 'लखन लखेउ प्रभु हृदय खभारु ।' मा० २.२२७.६ (३) सन्नाटा,
अवसाद का भार । 'सोक मगन सब सभा खभारु ।' मा० २.२६३.२ खय : सं.पुं० (सं० क्षय>प्रा०खय) । विनाश । 'नपति निकर खयकारी ।' गी०
१.१०६.४ खये : सं०० (सं० ख) ब० । अङ्ग-विशेषतः भुजमूल तथा पादमूल जिन्हें
पहलवान लोग लड़ाई में ठोंकते हैं। 'मन कसि कसि ठोंकि ठोंकि खये।' गी०
१.४५.२ खर : (१) वि०० (सं.)। तीक्ष्ण । 'खर कुठारु मैं अकरुन कोही।' मा०
१.२७५.६ (२) तीब्र, दुःसह । 'पंथ कथा खर आतप पवनू ।' मा० १.४२.४ (३) शुद्ध, निर्दोष । 'परख्यो न फेरि खर खोट ।' विन० १६१.८ (४) वि०पू० (सं०) गधा । 'खर स्वान सुअर सुकाल ।' मा० १.९३ छं० (५) एक राक्षस जिसे जनस्थान में राम ने मारा था। 'खर दूषन पहिं मइ बिलपाता ।' मा०
३.१८.२ खरके : भूकृ०० (बहु०) । खिसक गये, चुपके भाग खड़े हुए। 'खग्ग खगे खपुआ
खरके ।' कवि० ६.३५ खरखौको : भूकृ० स्त्री० (सं० खर+खोल्का तीव्र पुच्छल तारा) । पुच्छल तारे के
समान आकाशव्यापी रेखा बनाती हुई दमक उठी; धूमकेतू के समान आर-पार