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तुलसी शब्द-कोश
कवनिउ : कोई भी (स्त्री०) । 'नर तन सम नहिं कवनि उ देही।' मा० ७.१२१.६ कवनिहुं : किसी भी (स्त्री०)। 'चिता कबनिहुं बात के ।' मा० २.६५ कवनु : कवन+कए० । कौन-सा, कोई एक । 'कारनु कवन बिसेषि ।' २.३७ कवनें : किस से, में, पर (अ० कवणे) । 'कवने अवसर का भयउ।' मा० २.२६ कवने : किस, किन । 'भजन हीन सुख कवने काजा ।' मा० ७.८४.१ कवनेउँ, हुं : किसी भी (०)। 'कवनेउँ जन्म मिटिहि नहि ग्याना।' मा० - ७.१०६.८ 'कवनेहुं जन्म अवध बस जोई।' मा०७ ६७.६ कवल : सं० (सं०) । ग्रास । मा० १.३२६.१ कवलित : भू००वि० (सं०) । ग्रास किया (हुआ) । 'कवलित काल कराल ।'
रा०प्र० ६.३.६ कवलु : कवल+कए। एक ग्रास । 'काल कवलु होइहि छन माहीं।' मा०
१.२७४.३ कवीश्वर : श्रेष्ठ कवि = वाल्मीकि । मा० १.श्लो० ४ कषाय : सं०+वि० (सं.)। (१) भूराग (२) विशेष प्रकार की कड़बाहट जिस
में मुह सूखने लगे, जीभ बंध सी जाय, कण्ठ रुंध जाय । हृदय तक पीड़ित हो उठे। (३) तत्सहश अनुभूति विशेष जो भावावेश में होती है (४) रोषावेश जनित मुख शोष+कण्ठ रोध+जिह्वास्तम्मन+हृदय-पीडन । 'अरुन मुख
भ्रू विकट, पिंगल नयन, रोष कषाय।' विन० २२०.८ कष्ट : सं०० (सं०) । क्लेश, कठिनाई । 'जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई ।' मा०
१.३६.४ कष्ट-साध्य : क्लेश से प्राप्य, कठिनता से सिद्ध होने वाला-जे । मा० १.१६७.१ कष्टी : वि०० (सं०) । कष्ट युक्त । 'त्राहि हरि दास कष्टी ।' विन० ६०.८ कस : (१) वि०० (सं० कीदृश>प्रा० केरिस>अ० कइस) । किस प्रकार का
कैसा । 'ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ।' मा० ७.७८.५ (२) क्रि०वि० । कैसे, किस प्रकार । 'जेहि उर बस स्याम सुन्दर घन तेहि निर्गुन कस आवै ।' कृ० ३३ (३) क्यों। · कस न भजहु भ्रम त्यागि ।' मा० ७.७४ख (४) सं०० (सं० कष, कर्ष>प्रा०कए० कस्स)। निचोड़, निचोड़ा हुआ रस, स्वाद ।
'बिषय बिरत खटाई नाना कस ।' विन० २०४.२ /कसक, कसकइ : (सं० कषाति-कष हिंसत्याम्>प्रा० कसइ, कसक्कइ
चुभना, टीसना) । आ०प्रए० । कसकता है, टीसता है, चुभता है, व्यथित करती
है । 'जानै सोई जाके उर कसकै करक सी।' गौ० १.४४.२ . कसकतु : वकृ० पु०कए० । कसक अनुभव करता, टीसता । 'करे जो कसकतु है।'
कवि० ६.१६