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तुलसी शब्दकोश
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कल्पथालिका : (सं० कल्पस्थालिका) (१) अभीष्ट देने वाली थाली, (२) कल्प
वृक्ष का आलवाल (थाला) । 'भंजन भव भार भक्ति कल्प-थालिका।' बिन०
१७.२ कल्पना : (दे० कलपना) । उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति रूपक, प्रतीक विधान । 'लोक
कल्पना बेद कर अंग-अंग प्रति जासु।' मा० ६.१४ कल्पनातीत : वि० (सं०) । कल्पना से परे, बुद्धि-मन में न आने वाला। विन०
५४.६ कल्पपादप : कल्पतरु । मा० ३.४.२० कल्पशाखी : सं०० (सं०) । कल्पतरु (शाखी=वृक्ष)। विन० २७.४ कल्पाहि : आ.प्रब० । उत्प्रेक्षित करते हैं, कृत्रिम रूप से निश्चित कर लेते हैं।
'कल्पहिं पंथ अनेक ।' मा० ७.१००ख कल्पांत : कल्प का अवसान, प्रलय काल । मा० ७.५७.१ कल्पान्तकारी : प्रलय करने वाला=शिव । मा० ७.१०८.११ कल्पि : पू०कृ० (सं० कल्पयित्त्वा) । कल्पित कर, गढ़ कर, मनगढ़त से उत्प्रेक्षित
कर । 'दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।' मा० ७.६७क कल्पित : भूकृ०वि० (सं०) । मनगढन्त, स्वरचित, उत्प्रेक्षित । 'सब नर कल्पित
करहिं अचारा।' मा० ७.१००.१० कल्मष : सं०० (सं०) पाप, कलुष, दोष मल । मा० ६.श्लो० २. कल्याण : सं०० (सं.)। मङ्गल, शुभ, उत्तम । मा० ६.श्लो० २१ कल्यान, ना : कल्याण । मा० १.२६ कल्यानप्रद : मङ्गलदायक । मा० ४.१०.छं० २ कल्यानमइ, ई : वि०स्त्री० (सं० कल्याणमयी)। कल्याण युक्त । दो० २१२ कल्यानमय : कल्याण रूप, मङ्गल से परिपूर्ण । मा० १.३०३ । कल्यानि, नी : सं०+वि०स्त्री. (सं० कल्याणी) । माङ्गलिक वृक्षणों से सम्पन्न
स्त्री, सौभाग्यवती, परिवारादि के लिए कल्याणप्रद लक्षणों वाली। मी०
७.३२.११ कल्यानु, नू : कल्यान+कए । जेहि बिधि होइ राम कल्यानू ।' मा० २.८.६ । कल्लोलिनी : सं०स्त्री० (सं.)। नदी, तरङ्गिणी, लहराती हुई नदी। मा०
७.१०८.६ कवच : सं०पू० (सं०) । वर्म, सन्नाह, युद्ध में लौह परिधान । मा० ६.८०.१० कवन : प्रश्नार्थक सर्वनाम (सं० किम् >अ० कवण)। क्या, कोन मा० १.५५ कवनि, नी : कवन+स्त्री० (अ० कवणि =कवणी) । क्या, कौन-सी । तिन्ह के
पापहि कवनि मिति ।' मा० १.१८३