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तुलसी शब्द-कोश
चराचर : (१) वि० (सं० चराचर=चर+अचर)। स्थावर तथा जंगम । ____ सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी।' मा० १.११६.२ (२) सं०० (सं०) = __चर । गतिशील, जंगम । 'सेवहिं सकल चराचर ताही ।' मा० १.१३१.४ ।। चरिअ, ऐ : आ०-कवा०-प्रए । आचरण-विचरण कीजिए, रहिए । 'दुख सो
सुख मानि सुखी चरिऐ।' मा० ६.१११ छं० चरित : (१) सं०पू० (सं०) । आचरण, व्यवहार, कार्यकलाप, जीवनचर्या, क्रिया
चिति, कार्यपद्धति, शील-सम्पति, शास्त्रीय मर्यादा । (२) (सं० चारित्र>प्रा०
चरित्त)। कर्तव्य, प्रकृति, व्यवहार आदि । मा० १.१२.२ चरिता : चरित । मा० १.१५.१ चरित्र : चरित्र (सं०) । आरचण, व्यवहार, लीला आदि । मा० १.२०५ चग्यि, ये : चरिऐ। चरू : सं०पु० (सं० चरु) । (१) खीर, पायस जो दूध-चावल तथा घी के मिश्रण
से बनता है। (२) पायस-पाय । 'प्रगटे आगिनि चरु कर लीन्हें ।' मा०
१.१८६.६ चरेरी : वि० स्त्री० । सूखी पत्तियों के समान 'चरचर' ध्वनि करने वाली, नीरस,
सूखी-रूखी । 'यह बतकही चपल चेरी की निपट चरेरीऐ रही है।' कृ० ४२ चरें : चरहिं । भक्षण करते हैं । 'मानो हरे तृन चारु चरै ।' लवि० ७.१४४ चरं : चरइ । भक्षण करे । 'तेइ तृन हरित चरै जब गाई।' मा० ७.११७ ११ चर्म : सं०० (सं० चर्मन्) (१) चमड़ा, खाल । 'आनहु चर्म कहति बैदेही ।' मा०
३.२७.५ (२) ढाल । 'बिरति चर्म संतोष कृपाना ।' मा० ६.८०.७ चर्माम्बर : वि० (सं०) । चर्म-वस्त्र बाला। विन० ११.६ चर्मासि : (चर्म+असि) ढाल-तलवार । विन० ४४४ चल : (१) वि० । चञ्चल । 'अजामिल की चलिग चल चूकी।' कवि० ७.८६
(२) चलइ । 'चल न ब्रह्म कुल सन बरिआई ।' मा० १.१६५.५ /चल, चलइ : (सं० चलति>प्रा० चलइ-गति करना, प्रस्थान करना, विचलित
होना, काँपना) आ०प्रए । चलता-ती है । ‘पद बिनु चलइ सुनइ बिनु काना।'
मा० १.११८.५ चलउँ, ऊँ : आ०उए० (सं० चलामि>प्रा० चलमि>अ० चलउँ)। चलता हूं,
चलू । 'चलउँ भाजि तब पूप देखावहिं।' मा० ७.७७.१० चलत : वकृ०० (सं० चलत्>प्रा०चलंत) । चलता, चलते । मा० १.१२.२ चलति : चलत+स्त्री० । चलती। मा० २.१२३.५ । चलते : चलत+ब० । चलते थे, चला करते । 'जे चलते बहु छत्र की छाहीं।'
कवि० ७.१३२