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तुलसी शब्द-कोश
घृत : भूकृ.पु० (सं.)। धारण किये हुए । 'धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि ।' मा०
७.३०.४ धृति : सं०स्त्री० (सं०) । धैर्य, मानसिक स्थिरता । मा० ७.११७.१४ (इस की
गणना दस मानव धर्मों में प्रथम है)। घेइ : पूकृ० । ध्यान करके । 'सेइ न धेइ न सुमिरि के पद प्रीति सुधारी।' विन
१४८४ धेनु : सं०स्त्री० (सं०) । दूध देने वाली गाय । 'निरखि बच्छ जिमि धेनु लवाई ।'
मा० ७.६.६ (गोस्वामी जीने धेनुरि, धेनुमति आदि में इसे केवल गो-पर्याय
माना है)। धेनुधूरि : सं०स्त्री० (सं० गोधूलि)। सन्ध्या का झुटपुटा, जब चर कर लौटी हुई
गायों के खुर की धूल आकाश में छा जाती है। मा० १.३१२ धेनुपद : गोपद । गाय के खुर का चिन्ह । 'नाथ कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि
सिरावौं ।' विन० १४२.११ धेनुमति : सं०स्त्री० (सं० गोमती)। लखनऊ होकर बहने वाली एक नदी। मा०
१.१४३ ५ धेन : धेनु । मा० १.१४६.१ धैया : धाई (सं० धाविता>प्रा० धाविया=धाइया) । दौड़ पड़ी। सुनि कल बेनु
धेनु धुकि धेया।' कृ० १६ घहै : आ० भ० प्रए । दौड़ेगा । 'बिबुध समाज बिलोकन धेहै ।' गी० ५.५०.२ घेही : आ०भ०मब० । दौड़ोगे । 'ठुमक ठुमुक कब धेहौ ।' गी० १.८.३ धोइ : पूकृ० । धो कर, प्रक्षालित कर । 'कलिमल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम ___सिधावहीं।' मा० ७.१३० छं० २ धोएँ : क्रि०वि० । धोए हुए । 'बिना पग धोएँ नाथ नाव ना चढ़ाइहौं ।' कवि० २.८ धोए : (१) भूकृपु०ब० । प्रक्षालित किये । 'जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए।'
मा० १.४३.७ (२) धोएँ । धोने से । ह है कोच कोठिला धोए।' कृ० ११ धोख : सं०पू० । धोखा, छल, भूल, भ्रम । 'भाइहु लावहु धोख जनि ।' मा०
२.१६१ (खेत में पशुओं से रक्षा हेतु बनायी हुई मानवाकृति को भी धोख'
कहते हैं)। धोखें : कि०वि० । धोखे से, भ्रमवश । जिमि धोखें मदपान करि ।' मा० २.१४४ धोखे : धोख+ब० । तृण-मानव (दे० धोख) । 'जहां तहाँ भे अचेत खेत के से धोखें __ हैं।' गी० १ ६५.३ घोखेउ : धोखे से भी, अनजान में भी । 'धोखेउ निकसत राम ।' वैरा० ३७ धोखेहु : धोखेउ । 'सो धोखेहु न बिचार्यो।' विन० २०२.१