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तुलसी शब्द-कोश
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जसु : जस+कए० । कीर्ति । 'निज पुर गवने जय जसु पाई।' मा० १.१७५.८ जसुमति : जसोमति ।। जसोदा : सं०स्त्री० (सं० यशोदा) । कृष्ण की उपमाता=नन्द पत्नी । जसोमति : (सं० यशोमति =यशोदा) जसोदा । मा० १.२०.८ जहँ : अव्यव (सं० यत्र>प्रा० जहं, जहिं) । जहाँ, जिस स्थान पर । मा० १.१.८ जहर : सं०० (फा० जहर) । विष । 'सुधा तजि पीवनि जहर की।' कवि०
७.१७० जहरु : जहर+कए । 'सुधा सो भरोसो । 'एहु दूसरो जहरु ।' विन० २५०.२ जहवां : जहाँ । मा० ३.२३.७ जहां : जहँ । मा० १.३.५ जहाज : सं०० (फा० जहाज) । समुद्री पोत । 'चढ़े विबेक जहाज।' मा०
२.२२० जहाजु, जू : जहाज+कए० । एक मात्र जहाज । 'संकर चापु जहाजु ।' मा०
१.२६१ जहान : सं०० (फा०) विश्व । 'जाहिर जहान में।' कवि० ७.७६ जहाना : जहान । मा० १.३.४ जहानु : जहान+कए । 'जांगरु जहानु भो। कवि० ५.३२ जहि : वि० (सं० जहक)। त्यागने वाला । 'नमत राम अकाम ममताजहि ।'
मा० ७.३०.५ जहिआ : समय बोधक अव्यय (सं० यदा>प्रा० जइआ) । जब 'भुज बल बिस्व
जितब तुम्ह जहिआ।' मा० १.१३६.६ जह नु : सं०पु । मुनि विशेष जिन्होंने गङ्गा जी को पी लिया था और देवों की
प्रार्थना से छोड़ा तो जाह्नवी =जह्न पुत्री नाम से प्रसिद्धि मिली। 'जय
जह नबालिका ।' विन० १७.१ जांगरु : जांगरु+कए० (सं० जङ्गल=निर्जन प्रदेश>प्रा० जंगल>अ० जंगल)।
शून्य, जन धन रहित (अवधी में उड़द, चना आदि के पुआल को कहते हैं जो मड़नी के बाद उलझा हुआ बच रहता है-जाँगर, जगरा-अन्नरहित (खण्डित पुआल) । 'तुलसी तिलोक की समृद्धि सौंज, संपदा, सके लि चाकि राखी रासि,
जांगरु जहानु भो।' कवि० ५.३२ जांघ : जंघ । (१) गुल्फ और जानु का मध्याङ्ग (२) जानु के ऊपर का भाग=
ऊरु । 'महाराज लाज आपु ही निज जांघ उघारे ।' विन०१४७.१ जांचत : जाचत । गी० ३.५.४