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तुलसी शब्द-कोश
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अगह : वि० (सं० अग्रह) अग्राह्य, अज्ञेय, पकड़ से बाहर । 'नृपगति अगह, गिरा
जाति न गही है।' मी० १.८७.२ अगह : 'अगह'+कए। एकमात्र अग्राह्य =अज्ञेय । 'सब विधि अगहु अगाध
दुराऊ ।' मा० २.४७.७ अगहुड़, अगहुंड : वि०+क्रि० वि० आगे की ओर, आगे गति लेने वाला। 'भय बस __ अगहुड़ परइ न पाऊ।' मा० २.२५.१ 'मन अगहुंड, तन पुलक सिथिल भयो।'
गी० २.६६.३ अगाऊ : वि०+क्रि० वि० । आगे, अग्रगामी। 'उलटि बिबादन आइ अगाऊ ।'
कृ० १२ अगाध : वि० (सं०) अथाह; जिसमें अवगाहन न किया जा सके । मा० १.२३.१ अगाधा : अगाध । मा० १.३७.२ अगाधु, धू : एक । 'सुमति भूमि थल हृदय अगाधू ।' मा० १.३६.३ अगार : सं० पु० (सं० आगार) घर, भण्डार । गी० १.७१.२ अगारु : कए । एकमात्र भण्डार । 'अपकार को अगारु जग।' कवि० ७.६८ अगारे : अगार+बहु० । 'सील सुधा के अगारे ।' गी० १.६४.३ अगिनि : सं० पुं० (सं० अग्नि<प्रा० अगिणी) (१) आग । मा० १.६४.८
(२) आग्नेय दिशा के दिगपाल=अग्निदेव । मा० १.१८२.१० अगिले : वि० पु० (सं अग्रिम-प्रा० अग्गिल्ल) आगामी, प्रथम, आगे होने
वाले । विन० २४.४ अगाई : क्रि० वि० । अग्रभाग में, अगुआ (अग्रगामी) के रूप में। ‘कियउ
निषादनाथु अगुआई।' मा० २.२०३.१ अगुन : (१) सं० । गुणाभाव, अवगुण । 'खल अघ अगुन, साधु गुन
गाहा।' मा० १.६.१ (२) वि० । उत्तम गुण, कौशल आदि से रहित । 'अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पितां बनवास ।' मा० ६.३१क (३) गुणरहित= निर्गुण । वैष्णव दर्शन में माया गुणों से रहित (कल्याण गुणों से युक्त) ब्रह्म। 'अगुन अनुपम गुन निधान सोए मा० १.१६.२ ब्रह्म के सर्वथा निर्गुण स्वरूप
को वैष्णव मत में अमान्य किया जाता है-दें मा० ७.१११ अगेह : वि० (सं०) गृहहीन । मा० १.७६.६ अगेहा : अगेह । मा० १.१६१.४ अगोचर : वि० (सं०) जो इन्द्रियां (गो) की गति (चर) से परे हो; अतीन्द्रिय, ___अप्रमेय । 'मन बुद्धिबर बानी अगोचर प्रकट कवि कैसे करें ।' मा० १.३२२.छं० अग्य : वि० (सं० अज्ञ) अग्यानी, मूढ़। मा० १.५१.२ अग्यता : सं० स्त्री० (सं अज्ञता) मूढता । मा० ७.३४.६