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तुलसी शब्द-कोश अखयबटु : प्रयाग तीर्थ का वटवृक्ष विशेष जिसको 'अक्षयवट' कहते हैं।
मा० २.१०६.७ अखारा : सं० पु० (सं० अक्षवाटरप्रा० अक्खाड) मल्लयुद्ध का स्थान विशेष,
मनोरंजन का सामूहिक स्थान या पंडाल । 'तहं दसकंधर केर अखारा।'
मा० ६.१३.४ अखारेन्ह : अखाड़ों में, कुश्ती के स्थानों में । मा० ५.३.छं० अखिल : वि० (सं०) सम्पूर्ण, अशेष, सकल (खिल =शेष) । मा०।१।१६१ अखिलविग्रह : जिसका शरीर (विग्रह) सब कुछ हो: विश्वरूप; विराट; परमेश्वर
(जिसके चित् और अचित् शरीर रूप हैं)। विन० १०.७ अखिलेश्वर : सं० पु० (सं० अखिलेश्वर)। सर्वेश्वर, चराचर विश्व का स्वामी ।
मा० १.४८.२ अखेटकी : सं० स्त्री० (सं० आखेटिकी) आखेट कर्म मगया। 'अटत गहनगन
__ अहन आखेटकी ।' कवि० ७.६६ अग : वि० (सं०)। स्थावर, वृक्ष-पर्वत आदि अचर पदार्थ, जड़ प्रकृति । ___ 'अग जगमय सब रहित बिरागी।' मा० १.१८५.७ अगति : गतिहीनता, निर्गति, गतिरोध । गी० २.८२.३ अगनित : वि० (सं० अगणित) । असंख्य, अमित । मा० १.६३.छं० अगम : वि० (सं० अगम्य>प्रा० आगम्य) । पहुंच से परे । 'उभय अगम जुग
सुगम नामते ।' मा० १.२३.५ अगमनो : वि. पु. कए । अपमामी, प्राथमिक, सामने आया हुआ । गी० ५.१५.३ अगम : 'अगम'+कए। 'अगमु न कछु' मा० १.३४२.५ अगर, अगर : सं० पु. (सं० अगरु, अगुरु) । सुगन्धित काष्ठ विशेष जिसका
धूप के समान उपयोग होता है। मा० १.१६५.५; १.१०.६ अगलगे : वि०पू० (सं० अग्नि लग्न या अग्रलग्न)>प्रा० अग्नि लग्न या अग्ग
लग्न) दाहयुक्त तथा आगे-आगे विषयों में संलग्न ।' 'अवन-नयन-मग अगलगे, ___सब थल पतितायो।' विन० २.७६.५ अगवान, ना : सं० पु-आगे जाकर बरात आदि का स्वागत करने वाले ।' मा० १.६५.२; ६६.१ अगवान्ह : सम्ब ५० अगवानों (ने)। 'अगवानन्ह जब दीखि बराता।'
मा० १.३०५.७ अगवानी : सं० स्त्री० । आगे जाकर स्वागत करने की क्रिया । 'नियरानि नगर
बरात हरषी लेन अगवानी गए।' जा० मं० १३५ अगरत्ति : सं० पु. (सं.)। एक ऋषि जो पौराणिक परम्परा में प्रथम दक्षिण
यात्रा के लिये प्रसिद्ध हैं। समुद्र पीने के लिये भी वे विख्यात हैं। मा० ३.१२.६