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________________ 10 तुलसी शब्द-कोश अखयबटु : प्रयाग तीर्थ का वटवृक्ष विशेष जिसको 'अक्षयवट' कहते हैं। मा० २.१०६.७ अखारा : सं० पु० (सं० अक्षवाटरप्रा० अक्खाड) मल्लयुद्ध का स्थान विशेष, मनोरंजन का सामूहिक स्थान या पंडाल । 'तहं दसकंधर केर अखारा।' मा० ६.१३.४ अखारेन्ह : अखाड़ों में, कुश्ती के स्थानों में । मा० ५.३.छं० अखिल : वि० (सं०) सम्पूर्ण, अशेष, सकल (खिल =शेष) । मा०।१।१६१ अखिलविग्रह : जिसका शरीर (विग्रह) सब कुछ हो: विश्वरूप; विराट; परमेश्वर (जिसके चित् और अचित् शरीर रूप हैं)। विन० १०.७ अखिलेश्वर : सं० पु० (सं० अखिलेश्वर)। सर्वेश्वर, चराचर विश्व का स्वामी । मा० १.४८.२ अखेटकी : सं० स्त्री० (सं० आखेटिकी) आखेट कर्म मगया। 'अटत गहनगन __ अहन आखेटकी ।' कवि० ७.६६ अग : वि० (सं०)। स्थावर, वृक्ष-पर्वत आदि अचर पदार्थ, जड़ प्रकृति । ___ 'अग जगमय सब रहित बिरागी।' मा० १.१८५.७ अगति : गतिहीनता, निर्गति, गतिरोध । गी० २.८२.३ अगनित : वि० (सं० अगणित) । असंख्य, अमित । मा० १.६३.छं० अगम : वि० (सं० अगम्य>प्रा० आगम्य) । पहुंच से परे । 'उभय अगम जुग सुगम नामते ।' मा० १.२३.५ अगमनो : वि. पु. कए । अपमामी, प्राथमिक, सामने आया हुआ । गी० ५.१५.३ अगम : 'अगम'+कए। 'अगमु न कछु' मा० १.३४२.५ अगर, अगर : सं० पु. (सं० अगरु, अगुरु) । सुगन्धित काष्ठ विशेष जिसका धूप के समान उपयोग होता है। मा० १.१६५.५; १.१०.६ अगलगे : वि०पू० (सं० अग्नि लग्न या अग्रलग्न)>प्रा० अग्नि लग्न या अग्ग लग्न) दाहयुक्त तथा आगे-आगे विषयों में संलग्न ।' 'अवन-नयन-मग अगलगे, ___सब थल पतितायो।' विन० २.७६.५ अगवान, ना : सं० पु-आगे जाकर बरात आदि का स्वागत करने वाले ।' मा० १.६५.२; ६६.१ अगवान्ह : सम्ब ५० अगवानों (ने)। 'अगवानन्ह जब दीखि बराता।' मा० १.३०५.७ अगवानी : सं० स्त्री० । आगे जाकर स्वागत करने की क्रिया । 'नियरानि नगर बरात हरषी लेन अगवानी गए।' जा० मं० १३५ अगरत्ति : सं० पु. (सं.)। एक ऋषि जो पौराणिक परम्परा में प्रथम दक्षिण यात्रा के लिये प्रसिद्ध हैं। समुद्र पीने के लिये भी वे विख्यात हैं। मा० ३.१२.६
SR No.020839
Book TitleTulsi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchulal Avasthi
PublisherBooks and Books
Publication Year1991
Total Pages564
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size32 MB
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