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तुलसी-शब्द-कोश
मनु ने यज्ञ की हिंसा को अहिंसा बताया है-५.४४ गीता १०.५ में अहिंसा को उत्तम बताया गया है-शङकराचार्य ने "प्राणियों को पीडा न देने को
'अहिंसा' कहा है।' 'परम धरम श्रुति बिदित अहिंसा ।' मा० ७.१२२.२२ अहित : वि०+सं० (सं०) (१) हिन विरोधी, अनिष्टकारी। शत्रु । 'ये अति ___ अहित राम तेउ तोही।' मा० २.१६२.७ (२) अकल्याण । 'अहित न होइ
तुम्हार ।' मा० ५.४० अहिनाथ : शेषनाग । गी० ७.२०.२ अहिनाहु, हू : अहिनाथ+कए । 'बरनि न सकहिं गिरा अहिनाइ।' मा० १.२६१.६ अहिनी : सं० स्त्री०-सपिणी । मा० ३.१७.३ अहिन्ह : अहि+सं०ब० । सो । 'अहिन्ह के माता ।' मा० ५.२.३ अहिप, पति : सं० पु० (सं०) सर्पराज, शेषनाग । मा० २.२५४.७ अहिपति : अहिप (सं.)। मा० ५.३५ छं० अहिबात, ता : सं० पु. (सं० अविधवात्व>प्रा० अविहवत्त) स्त्री का पति सहित
जीवन-सौभाग्य । मा० १.३३४.४ अहिबेलि : सं० स्त्री० (सं० अहिवल्ली=नागवल्ली)। पान की लता, ताम्बल
लता । मा० २.१८८.२ अहिमवन : सं० पु (सं.)। सर्पो के रहने का स्थान, बाषी, मिट्टी का स्तूप जिसमें
साप रहते हैं । मा० १.११३.२ । अहिभामिनी : सर्पिणी। मा० ३.३०.११ अहिराजा : सं० पुं० (सं० अहिराज) सर्पराज, शेषनाग । मा० ३.१४.४ अहिरिनि : अहीर स्त्री० । रा० न० ४ अहिवात : अहिवात । मा० ६.१५ अहीर : सं० पु. (सं० आभीर) । गोपालन व्यवसायी जातिविशेष । मा०
७.११७.१२ अहीसा : सं० पु. (सं० अहीश)। सर्पराज, शेषनाग । मा० १.१०५.३ अहीसु : अहीस+कए । मा० २.१२६ छं. अहेर : सं० स्त्री० (सं० आखेट>प्रा० आहेद्र-पु०) । मृगया । 'तह तह तुम्हहि ___ अहेर खेलाउब ।' मा० २.१३६.७ अहेरि, री : वि० पृ० (सं० आखेटिक >प्रा० आहेउिअ) । शिकारी। मा०
२.१३३.४ अहेरें, रे : अहेर में । 'फिरत अहेरें परेउँ भुलाई ।' मा० १.१५९.६ ___'राम अहेरे चलेंगे।' गी० १.२२.१४ अहैं : अहहिं । हैं । 'इन्ह से एइ अहैं ।' मा० १.३११ छं० महै : अहइ । है । 'बिदित गति सब की अहै ।' मा० १.३३६ छं०