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तुलसी शब्द-कोश
483 आनन्दरूपा भक्ति है। 'सपनेहुं नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै ।'
विन० १३६.१२ द्वौ : दोउ । दो या दोनों। 'ते द्वौ बंधु तेज बल सीवा।' मा० ४.७.२८
ध
घसति : वकृ०स्त्री० । धंसती, प्रवेश करती। 'धंसति लसति हंस स्रनि ।' गी०
७.४.४ सनि : सं०स्त्री० । धंसने की क्रिया, गर्त आदि में प्रवेश । 'तुलसी भेंड़ी की धंसनि
जड़ जनता सनमान ।' दो० ४६५ सि : पूर्व० । निकल कर । 'सैल तें धंसि जनु जुग जमुना अवगाहैं ।' गी० ७.१३.२ घंध : सं०० (सं० धान्ध्य द्वन्द्व) । मायाजाल, प्रपञ्च, छलना । 'धंध देखिअत
- जग, सोचु परिनाम को।' कवि० ७.८३ घंधक : धंध+क । धंधे की, द्वन्द्वमय । 'धींग धरमध्वज धंधक धोरी।' मा०
१.१२.४ धकधकी : सं०स्त्री० । हृदय की तीव्र गति । 'सुरगन सभय धकधकी धरकी ।' मा०
२.२४१.७ धका : धक्का । 'नेकु धका दैहैं, ढं हैं ढेलन की ढेरी-सी।' कवि० ६.१० धकान : धका+संब० । धक्कों से । 'धरनीधर धौर धकान हले हैं।' कवि० ६.३३ धक्का : सं०पु० (सं० धक्क नाशने) । वेगयुक्त ढेलने की क्रिया । 'दै दै धक्का ___ जमघट थके, टारे न टर्यो हौं ।' विन० २६७.२ ।। धतूर : सं०पु० (सं० धत्तूर, धुत्तर) । एक पौधा जिसके बिसैले बीज भांग में डालने
से नशा अधिक होता है । 'भांग धतूर अहार छार लपटावहिं।' पा०म० ५१ धतूरे : धतूर । 'पात द्वे धतूरे के ।' कवि० ७.१६२ धतूरो : धतूर+कए० । 'धाम धतूरो बिभूति को कूरो।' कवि० ७.१५५ धतूरोई : धतूरा ही । 'भौन में भांग, धतूरोई ऑगन ।' कवि० ७.१५४ धन : सं०० (सं०) । मा० १.४.५ धनद : सं०० (सं०) । कुबेर । मा० १.२१३.३ घनदु : धनद+कए । 'दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई।' मा० २.३२४.६