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________________ तुलसी शब्द-कोश' उपठे : वि.पु. बहु० (सं० अपकाष्ठ>प्रा० ओक्ट) । सूख कर सारहीन तथा रस हीन हुए । 'उकठे तरु फूले फले ।' गी० ५.४१.३ उकठेउ : उकठे भी। 'उकठेउ हरित भए जल थल रुह ।' गी० २.४६.३ उकसहि : आ० प्रब० (सं० उत्कसन्ते>प्रा० उक्क संति>अ० उक्क सहिं) उमसते हैं, अङ्गों को ऊपर उठाते हैं, तिलमिलाकर ऊर्वाङ्गचालन करते हैं। 'पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं।' मा० १.१३५.२ उकुति : उक्ति । मा० ६ १.४ उक्ति : सं० स्त्री० (सं.)। कथन । मा० ६.२३.६० उखरैया : वि० । उखाड़ने वाला, उन्मूलनकारी । 'भूमि के हरैया, उखरैया भूमि-- धरन के।' गी० १.८५.३ उखारिए : आ०क-वा०-प्रए । उखाड़ फेंकिए । हनु० २४ उखारी : (१) पृ०कृ० । उखाड़कर, उन्मूलित कर । 'बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी।' मा० १.१२६.५ (२) भू०० स्त्री० । उखाड़ी, उन्मूलित की। 'जरि तुम्हारि चह सवति उखारी।' मा० २.१७.८ उखारे : भू०० पु। (१) उन्मूलित किए। (२) उखाड़ने पर। 'गाड़े भली उखारे अनुचित।' कृ०४० उखारो : भू.कृ० पुं० कए । उखाड़ा, उपार लिया । कवि० ६.५५ उगिलत : वकृ० पू० (सं० उगिलत्>प्रा० उग्गिलंत)। उगलता, मुख से निकलता । 'मनहुं क्रोध बस उगिलत नाहीं।' मा० १.१५६.६ उगिल्यो : भू० कृ० पू० कए । उगल दिया, उगला हुआ। कवि० ७.१०२ उग्यो : भू०० पुं० कए। (सं० उद्गतः>प्रा० उग्गओ) । उदित हुआ, उगा। 'जरठाइ दिसाँ र बिकालु उग्यो ।' कवि० ७.३१ उन : (१) वि० (सं०) । तीव्र , निष्ठुर, उत्तेजित, घोर । 'परम उम्र नहिं बरनि सो जाई।' मा० १.१७७.१ (२) सं० पु. (सं.)। शिव । विन० १०.७ उग्रकर्मा : वि० (सं.)। घोर कर्म करने वाला, क्रूर । विन० ५६.४ । उग्रबुद्धि : वि० (सं०) । निष्ठुर बुद्धि वाला, तीखे तर्क करने वाला । मा० ७.६७.३ उग्रसेन : सं० पु. (सं.)। कंस का पिता तथा कृष्ण का मातामह । विन० १८.७ उघटत : वकृ० पु० (सं० उद्घाटयत्) । उघाड़ता-उघाड़ते, प्रकट करता-करते । 'बल उपाय उघटत निज हिय के ।' गी० ४.१.४ ।। उघहि : आप्रब० । उद्घाटित करते हैं, प्रकट करते हैं । 'उघटहिं छंद प्रबंध गीत पद राग ताल बंधरन ।' गी० १.२.१५ उघरत : वक००। खुलता, खुलते, प्रकट होते। 'बक उघरत तेहि काल ।' दो० ३३३
SR No.020839
Book TitleTulsi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchulal Avasthi
PublisherBooks and Books
Publication Year1991
Total Pages564
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size32 MB
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