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तुलसी शब्द-कोश
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ईस : सं०+वि० (सं० ईश) । (१) परमात्मा। 'नाम रूप दुई ईस उपाधी।'
मा० १.२१.२ (२) शिव । कवि० ५.३२ (३) स्वामी, पति । 'ईस बकसीस जनि खीस करु ईस सुनु ।' कवि० ६.१६ (४) राजा। जैसे, कोसलेस आदि । (५) ऐश्वर्य सम्पन्न । (६) (समासान्त में) राजा तथा श्रेष्ठ । जैसे, कपीस
आदि । ईसन : ईस+संब० (सं० ईशानाम् >प्रा० ईसाण) । स्वामियों, ईशों । 'ईसन के
ईस ।' कवि० ७.१२६ ईसा : ईस । मा० १.४६.३ ईसु : ईस+कए । 'ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।' मा० १.२४०.१ ईस्वर : सं०+वि० पु. (सं० ईश्वर)। (१) सर्वशक्तिमान् (२) सर्वसम्पत्ति
सम्पन्न (३) शिवरण (४) विष्णु (५) राजा, प्रभु । मा० १.१७४.२ (शांकर वेदान्त में मायशबल विराट् ब्रह्म को 'ईश्वर' कहते हैं परन्तु वैष्णव दर्शनों में परमात्मा और ईश्वर एकार्थक हैं। रामानुज मत में कार्यकारी ब्रह्म ईश्वर है ।
'ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कही समुझाइ ।' मा० ३.१४ । ईस्वरहि : ईश्वर को 'कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ।' मा० ७.४३
उजिआरा : उजिआर । मा० ७.११८.४ । उ : अव्यय । भी । सोउ, केउ, जोउ, जेउ आदि । ‘भलेउ पोच सब ।' मा० १.६३
'खलउ' मा० १.७.४ उहि : आ० प्रब० । उदय लेते हैं, उदित हों । 'एकापति षोडस उअहिं ।' मा०
७.७८ उएं उदित होने से, उदित होने पर । 'जिमि रबि उएँ . जाहिं तम फाटी।' मा०
६.६७.१ उए : भू०० पु० (बहु०) (सं० उदित>प्रा० उइअ) (१) उदित हुए । 'मनहुँ
इंद्रधनु उए सुहाए।' मा० ६.८७.५ (२) उएँ (सं० उदिते>प्रा० उइए)।
उदित होते ही। 'वा के उए मिटति रजनि जनित जरनि ।' कृ० ३० उकठि : पू० ० । उकठ कर, अपकाष्ठ होकर, सूखते-सूखते सारहीन होकर । 'पुनि .
न नवइ जिमि उकठि कुकाठू।' मा० २.२०.४