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तुलसी शब्द-कोश
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उघरहिं : आ०प्रब० । (१) खुलते हैं। 'उघरहिं बिमल बिलोचन ही के ।' मा०
१.१.७ (२) ज्ञात हो जाते हैं । 'उघरहिं अंत न होइ निबाहू ।' मा० १.७.६ उघरि : पूकृ० । खुलकर, अनावृत होकर (लज्जा संकोच छोड़कर)। 'हरि परे
उघरि संदेसहु ठठई ।' कृ० ३६ उघरे : भू०० पु० (बहु०) । खुल गये। 'उघरे पटल पर सुधर मति के ।' मा०
१.२८४.६ उघार : वि.पु । निरावरण, निर्वसन, नग्न या नग्नप्राय । 'द्विज चिन्ह जनेउ;
उघार तपी।' मा० ७.१०१.७ उघारा : भू०कृ० पु० (सं० उद्घाटित>प्रा० उग्घाडिअ)। खोला। 'तब f सर्व
तीसर नयन उघारा।' मा० १.८७.६ उघारि : (१) उघार+स्त्री० । नग्न, निर्वसन । 'नस्नारि उघारि सभा महुँ होत।'
कवि० ७.६ (२) पूकृ । उघाड़कर, खोलकर । 'नयन उघारि सकल दिसि
देखी ।' मा० १.८७.४ उघारी : उघारि। (१) नग्न । 'समरधीर महाबीर पांच पति क्यों दैहैं मोहि होन
उघारी ।' कृ० ६० (२) खोलकर । 'छिन मूंदत छिन देत उघारी ।' कु० २२ 'बहुरि बिलोके उ नयन उघारी ।' मा० १.५५.७ (३) आवरणहीन, (म्यान से
बाहर) निकाली हुई । 'मनहुं रोष तरवारि उघारी ।' मा० २.३१.१ उघारें : उघाड़ने पर, खोलने से । 'मूदें आँखि हिये मैं उघारें आँखि आगे ठाढो।' ___कवि० ५.१७ उघारे : भू०० पु. (बहु०) । (१) खोले । 'सकुचि सीये तब नयन उघारे ।'
मा० १.२३४.३ (२) उघारें । लाज आपु ही निज जांघ उघारे ।' विन०
२४७.१ (३) खोले हुए (निरावरण) । 'छूटे बार बसन उघारे ।' कवि० ५ १५ उचकि : पूक० । ऊपर को झटके से गति लेकर । 'उचके उचकि चारि अंगुल अचल ___ अचल गो।' कवि० ४.१ उचकें : उचकने से, झटके के साथ ऊपर उड़ने पर । 'उचकें उचकि चारि अंगुल
अचलु गो।' कवि० ४.१ उचाट : सं० पु० (सं० उच्चाट-चट भेदने) (१) मन के उखड़ जाने की क्रिया
(२) उच्चाटन मन्त्र आदि से होने वाली मानसिक शून्यता या अस्थिरता (३) कहीं से भाग खड़े होते भी उदास इच्छा। 'भय उचाट बस मन थिर
नाहीं ।' मा० २.३०२.५ उचाटि : सं० स्त्री० । उचाट । विन० १०८.४ उचाटु : उचाट+कए । अभूतपूर्व उच्चाट। 'भय भ्रम अरति उचाटु ।' मा०
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