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तुलसी शब्द-कोश
क
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कंगाल : वि० (सं० कङ काल = अस्थिपञ्जर ) । बुभुक्षा-जीडित (जो कङ्काल शेष रह गया हो ), अतिशय दरिद्र तथा भूखा । 'ललकत लखि ज्यों कँगाल पातरी सुनाज की ।' कवि० ६.३०
कँगूर न्हि : ' कँगूरा' + संब० । कँगूरों (पर) । 'कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए। मा०
६.४०
कँगूरों: कँगूरे पर । 'कोतुकी कपीसु कूदि कनक कँगूरों चढ़ यो ।' कवि० ५.४ कँगूरा : सं० (सं० कङ्ग ुल= हाथ; फा० कंगुर = बाजू, बाँह ) । भवन के ऊपर हस्ताकार उन्नत रचनाविशेष । 'रचे कँगूरा रंग रंग बर ।' मा० ७.२७.४ कँगूरें : कँगूरा + ब० । कँगूरों को "ढै हैं ढलन की ढेरी सी । '
।
'कोट के कँगूरें -
कवि० ६.१०
कँपकँपइ : (सं० कम्पते > प्रा० कंपइ – काँपना ) । आ०प्र० । काँपता है । 'कँपै कलाप बर बरहि फिरावत ।' गी० ३.१.२
कँवल : कमल (सं० कमल > प्रा० कमल > अ० कवल ) । 'नवल कँवलहू तें कोमल
चरन हैं ।' कवि० २.१७
क : (१) 'का' का लघुरूप । 'मित्र क दुख रज मेरु समाना । मा० ४.७.२ (२) 'इक' का रूपान्तर । कोटिक, कछुक । (३) 'कर' का लघु रूप (पूकृ० ) । 'जावक रचिक अँगुरियन्ह मृदुल सुठारी हो ।' रा०न० १५ (४) (सं० किम् ) सर्वनाम जिससे को, केहि, कब आदि रूप बनते हैं । (५) स्वार्थिक प्रत्यय कटुक आदि ।
कंक : सं०पु० (सं० ) । गृध । 'काक कंक ले भुजा उड़ाहीं ।' मा० ६.८८.२ कंकन : सं०पु० (सं० कङ्कण ) । हस्ताभरण विशेष, कंगन । मा० १.६२-२ कंकर : काँकर । विन० २३१.३
कंचन : सं०पु० (सं० ) । सुवर्ण । मा० १.१२.३
कंचुकि : सं० स्त्री० (सं० कञ्चुकी) । (१) स्त्रियों के वक्षस्थल का परिधान विशेष ।
' श्रीफल कुच कंचुकि लता जाल ।' विन० १.४१५ (२) चोगा, लम्बा अंगरखा । 'बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भर् यौ ।' विन० ६१.२
कंज : सं०पु० (सं० ) । कमल । मा० १.२०.८
कंजन, नि, न्ह, व्हि : कंज + संब० । कमलों (पर, में, से आदि) । 'पग नूपुर औ पहुँची कर कंजनि ।' कवि० १.२
- कंजकोस: कमल की पंखड़ियों के समूचे आकार का भीतरी भाग । गी० ७.७४