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तुलसी शब्द-कोश
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कल : वि० (सं०) (१) मनोहर । 'भगति सुतिय कल करना बिभूषन ।' मा०
१.२०.६ (२) मधुर-सूक्ष्म (ध्वनि) । 'सुर सुदरी करहिं कल गाना ।' मा० १.६१.४ (३) कोमल सुकुमार । 'बाल मरालन्ह के कल जोरा।' मा० १.२२१.३ (४) कौशल युक्त । 'कल बल छल करि जाहिं समीपा। मा०
७.११८.८ कलंक : सं०० (सं०) । लाञ्छन, लोकनिन्दा, दोष । मा० २.५०.१. कलंका : कलंक । मा० ५.२३.२ कलंकी : विपु० (सं.)। लाच्छित । मा० २.२६६.२ कलंकु, कू: कलंक+कए। विशेष लाच्छन । 'तब कलंकु अब जीवन हानी।' मा०
२.१८६.२ कलई : सं०स्त्री० (अरबी-कलई =सज्जी, एक प्रकार की खारी मिट्टी)।
(हिन्दी में) बर्तन आदि पर लगाया जाने वाला विशेष पदार्थ जिससे चमक आ जाती है; दिखावटी रङ्ग, दिखावा । 'बढ़ी कुरीति कपट कलई है ।' विन०
१३६.५ कलकंठ : सं०० (सं.)। (१) कोकिल पक्षी । 'काक कहहिं कलकंठ कठोरा ।'
मा० १.६.१ (२) सुन्दर कण्ठ, उत्तम स्वर । 'रिषिबर 'गावत कलकंठं हास।"
गी० २.४३.२ कलकंठि : (सं० कलकण्ठी) । कोकिला । 'सुनि कलख कलकंठि लजानी' मा०.
१.२६७.३ कलकी : सं०० (सं० कल्कि) । दशावतार में अन्तिम भावी अवतार । विन० ५२.६ कलत्र : सं० (सं.)। पत्नी। विन २०४.१ कलधौत : सं०० (सं०) । सुवर्ण । गी० २.१६.१ कलप : सं.पु. (सं० कल्प) । (१) ७२ चतुर्युगी का समय । (२) १००० युगों
का समय (३) ब्रह्मा का दिन (४) सृष्टि से प्रलय तक का समय । 'परहिं
कलय भरि नरक महुँ ।' मा० १.६६ कलपतरु : सं०० (सं० कल्पतरु) । कल्पवृक्ष = स्वर्ग का एक वृक्ष जो अभीष्ट
वस्तु देने वाला कहा गया है । मा० १.१०७ कलपद्रुमु : कल्पद्रम<कलपद्रुम+कए । कल्पवृक्ष । 'कलपद्रुमु काटत मूसर को।'
कवि० ७.१०३ कलपना : सं०स्त्री० (सं० कल्पना) (१) चित्त, अवियमान वस्तु की मानस
रचना । 'जागि करहि कटु कोटि कलपना ।' मा० २.१५७.६ (२) कलात्मक कृति के लिए मन में स्वरूप-संभावना। 'मोरे हृदयें परम कलपना।' मा०