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तुलसी शब्द-कोश
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आपुन : (सं० आत्मन् >प्रा० अप्पण) अपने-आप, स्वयम् । 'आपुन होइ न सोइ ।' ___ मा० ७७२ख (२) अपना । प्रापुनि : आपुन (सं० आत्मनि>प्रा० अप्पणी)। स्वयम् । विद्यमान आपुनि
मिथिलेसु ।' मा० २.२६६.७ आपुनु : आपुन । 'आपुनु आवइ ताहि पहिं ।' मा० १.१५६ आपुनो : आपनो। विन० १६१.६ आपुस : सं० स्त्री० । परस्पर, स्वजनों के बीच । 'आपुस में कछु 4 कहिहैं ।' कवि०
२.२३ आपुर्हि : अपने आप ही, स्वयं ही। 'देत चापु आपुहिं चढ़ि गयऊ।' मा० १.२८४.८ आपुहि : अपने आप को । 'आपुहि परम धन्य करि मानहिं ।' मा० १.१२०.७ प्रापू : आपु। 'जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ।' मा० १.२६.३ आबाहन : सं०० (सं० आवाहन) । निमंत्रण, आमंत्रण, देवशक्तियों को मंत्र द्वारा
बुलाने की क्रिया । 'तीरथ आबाहन सुरसरि जस ।' मा० २.२४०.३ आम : (समासान्त में) वि०पू० (सं.)। समान, आभासद्धश आभा वाला।
'नीलकंजाभ' विन० ४६.२ (नील की आभा के समान आभा वाला) मा० ७ __ श्लोक १ आमीर : सं०० (सं.)। (१) अहीर जाति । (२) विन्ध्य के अन्तराल में बसने
वाली एक जाति । (३) एक संकतवर्ण-ब्राह्मण से वैश्यकन्या की सन्तान 'अम्बष्ठ' है; अम्बष्ठ कन्या से ब्राह्मण सन्तति 'आभीर' होती है-दुहरा संकट वर्ण तथा ब्राह्मण योग होने से इसे 'महाशूद्र' भी कहा जाता है । 'आभीर जमन
किरात रवस ।' मा० ७.१३०.छं० १ आम : वि० (सं.)। कच्चा । बिगरत मन संन्यास लेत, जल नावत आम घटो
सो।' १७३.४ आमय : सं०० (सं.)। व्याधि, रोग । मा० ४. श्लोक २ आमरषि : पूकृ० । अमर्ष करके, आवेश में आकर, रुष्ट होकर । 'उठे भूप
आमरषि ।' जा० मं० ८८ आमलक : सं०० (सं.)। आमला, धात्रीफल । मा० १.३०.७ आमिष : सं०० (सं०) । मांस । मा० १.१७३.३ आमोद : सं०पु० (सं०) । सुगन्ध । 'भ्रमत आमोद वश मत्त मधुकर निकर ।' विन.
आय : आइ । आकर । गी० १७६. २ आयउँ : आ०-भूक पु+उए । आया हूँ। 'मैं जाचन आयउँ नृप तोही।'
मा० १.२०७.६ आयउ : भूक पु० कए । आया 'आयउ जहँ सब भूप ।' मा० १.२६८