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तुलसी शब्द-कोश
391 डाटन : भक० अव्यय । डाटने, भर्त्सना देने । 'मोहि दास ज्यों डाटन आयो ।' गी०
डाहिं : आ०प्रब० । डाटते हैं, भत्संना देते हैं । 'कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं ।'
मा० ६.५३.५ डाटि : पूक० । डपट कर, भत्सित करके । 'आँखि देखावहिं डाटि ।' मा० ७.६६ ख डाटे : भूक००ब० । डपटे हुए, भत्सित हुए (पर) । डाटे नवहिं अचेत ।' रा०प्र०
डाटेहि : डाटने पर ही, डपटने से ही । 'डाटेहिं पै नव नीच।' मा० ५.५८ डाढ़ : सं०स्त्री० (सं० दाढ़ा-दंष्ट्रा)। दाढ़। जबड़ा । डाढ़त : वकृ० (सं० दग्ध>प्रा० डड्ढ+वक०= डड्ढंत)। जलता-ते । कवि०
५.१२ डाढ़न : भकृ० अव्यय (अ० डड्ढ+ अण=डड्ढण) । जलाने । 'तुलसीदास जगदध ___ जवास ज्यों अनघ मेघ लगे डाढ़न ।' विन० २१.२ डाढ़नि : डाढ़+संब० । दाढ़ो, दंष्ट्राओं, जबड़ों । 'बैठो काज डाढ़नि बीच ।' गी०
५.६.२ डाढ़ा : सं०० । दाहक अग्नि जो दूर.दूर तक तिनकों में फैल जाती है। जिमि
तन पाइ लाग अति डाढ़ा ।' मा० ६.७२.२ डाढ़े : भूकृ००ब० । दग्ध हुए, जले । 'तुलसी तिहुं ताप न डाढ़े।' कवि० ७.१२७ डाढ़ो : भूक.पु०कए० (सं० दग्धः>प्रा० डड्ढो)। जल गया। 'सब असबाबु
डाढ़ो।' कवि० ५.१२ डाबर : सं०पू० । पोखर, क्षुद्र तालाब । मा० २.१३६.७ डार : (१) सं०स्त्री० (सं० दाला>प्रा० डाला>अ० डाल)। शाखा । 'प्रभु तरु
तर कपि डार पर।' मा० १.२६ क (२) डारि । फेंक कर । 'निज निज
मरजाद मोटरी सी डार दी।' कवि० ७.१८३ Vडार, डारइ, ई : (सं० दालयति, द्राडयति-दल विशरणे, द्राट विशरणे>प्रा.
डालइ) आ०प्रए । डालता है, फेंकता है, गिराता है । 'डारइ परसु परिध
पाषाना।' मा० ६.७३.२; ८५ छं० डारउ : आ-आशंङ का, संभावना-प्रए० (सं० द्राडयतु>प्रा० डालउ)।
गिराये, डाले । 'जाचत जल पबि पाहन डारउ ।' मा० २.२०५.३ डारत : वक०० (सं० द्राडयत्>प्रा० डालंत)। गिराता-ते । 'डारत कुलिस
कठोर ।' दो० २८३ डारन : डार+संब० । डालों, शाखाओं (पर)। 'अवनि कुरंग बिहग द्रुम डारन ।'
गी० २.१४.२