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तुलसी शब्द-कोश
अनइस : वि० (१) (सं० आन्याहश > अ० अण्णाइस) अन्य जैसा = प्रतिकूल (२) (सं० अनीश >> अणइस) विपरीता अशुभ, अनचाहा । ' करत नीक फलु अनइस पावा ।' मा० २.१६३.६
अनख : सं० (सं० अनक्ष ? ) आंख न देना, उपेक्षा, अवज्ञा, अनादर, अवज्ञापूर्वक अमर्ष । ‘कस सहि जात अनख तोहि पाहीं ।' मा० ३.३०.१५ 'भायँ कुमायँ अनख आलस हूं ।' मा० १.२८.१
अनखानि : अनख करने की क्रिया । गी० १.२१.२
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अनख हैं : आ० प्र० । अनख मानेंगे, अमर्ष करेंगे । 'खल अनखहैं तुम्हैं सज्जन न
गामि हैं ।' कवि० ७-७१
अनखौंही : वि० स्त्री०.
बातें ।' कवि १.१६
अनगनी : वि० [स्त्री० (सं० अगणिता) असंख्य । 'नर-नारी रचना अनगनी ।"
गी० १.५.१
अद्य : वि० (सं०) अधारहित, निष्कलुष, निर्विकार । मा० १.२२.६
अनचह्यो : भू० कृ० वि० पु० कए० । अनचाहा, अनाहत । 'दूहाँ भलो अनचह्यो
हौं ।' विन २६०.४
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- अनख भरी हुई । 'रोष माखे लखनु अकनि अनखोंहीं
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अनजानत: वकृ० वि० + क्रि०वि० (सं० अजानत् > प्रा० अणजाणंत) । (१) बिना जानते हुए — 'अनजानत हरि लायो ।' गी० ६.२.३ (२) न जानते हुए - 'छमिअ चूक अनजानत केरी ।' मा० १.२८२.४
अनट : सं० पु० ( १ ) ( सं अनर्थ > प्रा० आणट्ट) प्रयोजन-हानि । कार्य-हानि, उलझन, अयोग्य स्थिति । 'मिटिहि अनट अवरेब ।' मा० २.२६.६ (२) सं० अनाट्य>प्रा० अणट्ट) नाट्य में संग्राम, मेला आदि अभिनेय (नाट्य) नहीं होते । रस भङ्ग की सभी बातें अनाट्य होती हैं जिनके आ जाने से सामाजिक को नीरसता ही मिलती है । अतः ऐसी दशा 'अनट' है जो कणेशकर हो । दो० ४६६
अनत : क्रि० वि० अव्यय (सं० अन्यतः > प्रा० अण्णत्तो ) अन्य ओर । (२) (सं० अन्यत्र > प्रा० अण्णत्त ) अन्य स्थान पर । 'सुनत बचन फिरि अनत निहारे ।'
मा० १.२७०.२
अनन्य : वि० (सं०) एक के अतिरिक्त किसी के प्रति निष्ठा हीन + सबके प्रति एक की ही निष्ठा लेकर व्यवहार करने वाला । सो अनन्य जाकेँ असि मति न हनुमंत । मैं सेवक सचराचर रूपरासि भगवंत || ' मा० ४.३ अनन्यगति: वि० (सं० - नास्ति अन्यागतिर्यस्यसः ) एक को छोड़ अन्य आश्रय
न मानने वाला | 'सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ।' मा० ४.३.८