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तुलसी शब्द-कोश
187 कृपाहीं : कृपा में, कृपा से । 'तात बात फुरि राम कृपाहीं।' मा० २.२५६.१ कृपिन : कृपन। मा० ६.३१.२ कृपिनतर : वि० (सं० कृपणतर)। अतिशय कृपण । 'हमरि बेर कस भयह
कृपिनतर ।' विन० ७.२ कृमि : स०पू० (सं.)। क्षुद्जन्तु=कीट । मा० ७.६५ ख कृशानु : सं०पु० (सं०) । अग्नि । मा० ३.११.५ कृषी : सं०स्त्री० (सं० कृषि) । खेती, सस्य क्षेत्र । मा० ४.१५.८ कृष्न : सं०पु० (सं० कृष्ण) । द्वापर का ईश्वरावतार । मा० १.८८.१-२ कृस : वि. (सं० कृश)। क्षीण, दुर्बल । मा० ५.८.८ कृसगात : वि० (सं० कृशगात्र>प्रा० कसगत्त) । दुर्बल शरीर । कवि० ७.४६ कृसधन : वि० (सं० कृशचन)। अल्प धन वाला । दो० ३३५ कृसानु, नू : कृशानु । मा० १.४.५ कृस्न : कृष्न । विन० १०६.४ के : क्रि०वि० परसर्ग । (१) के पास, के अधीन । 'जिन्ह के बिमल बिबेक । मा०
१.६ । (२) के..... पर । 'तिन्ह के बचन मानि बिस्वासा।' मा० १.७६.५ (३) के..... से । 'कहा हमार न सुनेहु तब नारद के उपदेस ।' मा० १.८६
(४) के..... में । 'पितु के जग्य जोगानल जरी ।' मा० १.६८ छं० (५) के __ यहाँ । 'तेहिं के भए जुगल सुत बीरा ।' मा० १.१५३.४ । केंकरहिं : आ०प्रब० (सं० कें कुर्वन्ति>प्रा० केंकरंति>अ. केंकरहिं) । के-के ध्वनि
करते हैं । 'केंकरहिं फेरु कुभांति ।' रा०प्र० ३.१.५ केंचुरि : सं०स्त्री० (सं० कञ्चुलिका>प्रा० कंचुलिआ>अ. कंचली=कंचुलि) ।
सांप की चमड़ी का खोल जो पूरे शरीर से निकल जाता है = केंचुल = काँचुरी। 'तुलसी केंचुरि परिहरें होत साँपहू दीठि ।' दो० ८२ । (कहते हैं कि केंचल जब
तक नहीं निकलती, सांप को सूझना बन्द हो जाता है ।) के : (१) सम्बन्धार्थक परसर्ग-पुं० । 'नाहिन राम राज के भूखे ।' मा० २.५०.३
(२) उपयुक्त, के निमित्त । 'बरिबे कौं बोले बयदेही बर काज के।'
कवि० १.८ केई : किसने । 'अनहित तोर प्रिया के इ कीन्हा ।' मा० २.२६.१ केउ : (१) कुछ भी । 'मोहि के उ सपनेहुं सुखद न लागा।' मा० २.६८.६ (२) ____ कोई । 'होइहि के उ एक दास तुम्हारा ।' मा० १.२७१.१ केकई : कैकई । मा० १.४१.८ के कि, की : सं०० (सं० केकिन्) । मयूर (जिसकी बोली=के का) । 'तुलसी
केकिहि पेखु ।' मा० १.१६१ ख 'केकी काक अनंत ।' वैरा० ३२ केत : केतु । धूमकेतु । “उदय केत सम हित सबही के ।' मा० १.४.६