________________
तुलसी शब्द-कोश
काहि : काटने पर ही ।' काहि पं कदरी फरह मा० ५.५८
का : भ० (सं० कर्तितुम् > प्रा० कट्टिउं) । काटने । 'श्रवन नासिका का लागे ।'
157
५.५४.४
कार्ट : काटइ । काटे, छिन्न करदे । 'जौं सपनें सिर का कोई ।' मा० १.११८.२ काठ : सं०पु० (सं० काष्ठ > प्रा० कट्ठ) । लकड़ी । मा० २.१००.५ काढ़त : वकृ पु ं० (सं० कर्षत् > प्रा० कढत) । (१) खींचता खींचते । 'प्रति उत्तर ससिन्ह मनहुं काढ़त भट दस सीस ।' मा० ६.२३० (२) निकालता - ते 'काढ़त दंत करंत दृहा है ।' कवि० ७.२६
1
,
काढून भकृ० (सं० क्रष्टुम् > प्रा० कड्दिउ > अ० कड् ढण) | निकालने, खींचने । 'निदरि लगे बहु काढ़ना ।' विन० २१.१
काहि : आ० प्रब० (सं० कर्षन्ति > प्रा० कड्ढति > अ० कइहि) निकालते हैं, खींच बाहर करते हैं । 'कथा सुधा मथि काढ़हिं ।' मा० ७.१२० क
काढ़ा : भूकृ० पु ं० (सं० कृष्ट > प्रा० कड्ढ, कड्ढिअ ) । निकाला । 'सो जनु हमरे मायें काढ़ा ।' मा० १.२७६.३ (२) खींचा, रेखाङ्कित किया । ' मानहुं चित्र माँ लिखि काढ़ा ।' मा० ३.१०.२४
काढ़ि : पूकृ० । (१) निकाल कर । 'निज कर नयन काढ़ि चह दीखा।' मा० २.४६.३ (२) खींच कर । 'तब मैं मारबि काढ़ि कृपाना ।' मा० ५.१०.६ काढ़ि : आ० कर्मवाच्य - प्रए० । निकालिए, खींच बाहर कीजिए। 'बिहगराज
बहन तुरत काढ़ि मिटं कलेस ।' दो० २३५
काढ़ी : भूकृ० स्त्री०ब० । निकालीं, उरेहीं, उत्कीर्णकीं । 'सुरप्रतिमा खंभन गढ़ि काढ़ीं । मा० १.२८८.६
काढ़ी : भूकृ० स्त्री० । (१) निकाली । 'समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ।' मा० ५.५६.८ (२) उरेहीं (चित्रित की या उत्कीर्ण की ) । 'मनहुँ चित्र लिख काढ़ी ।' गी० २.५५.५
काढ़ें : क्रि०वि० | निकाले हुए ( मुद्रा में ) । 'कहाँ लौं कहीं केहि सों रद काढ़ें ।" कवि ० ० ७.२४
1
काढ़े : भूकृ०पु० ( ब०) । (१) निकाले, खींच बाहर किए । 'मीन दीन जनु जल तें काढ़ें ।' मा० २.७०.३ (२) ( रेखाओं में ) खींचे, उरेहे । 'जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़ें ।' मा० २.८४.१
काढ़ोसि : आ - भूकृ पु० + प्र० । उसने निकाला, खींचा। 'काढ़ेंसि परम कराल
कृपाना ।' मा० ३.२६.२१
=
काढ़ें : काढ़हि । निकालते हैं - बाहर करते हैं । 'एक काढ़े सौंजा ।' कवि० ६.६ काढ़ो : काढ्यो । निकाला = बाहर किया । 'सब असबाबु डाढ़ो, मैं न काढ़ो तैं न क. ढ़ो ।' कवि० ५.१२