________________
तुलसी शब्द-कोश
जगत जहाज है जा के राग न दोष ।' वैरा० १६ (४) (सं० दोष ) । तापत्रय । 'त्रिविध दोष दुख दारिद दावन ।' मा० १.३५.१०
479
दोष : दोष भी । 'दोषउ गुन सम कह सब कोई ।' मा० १.६६.४
दोषमई : वि०स्त्री० (सं० दोषमयी) । दोषपूर्ण । 'गुन- दोषमई बिरची बिरंचि ।' हनु० ४४
दोषमय : वि०पु० (सं० ) । दोषयुक्त, दोषरूप । 'जड़ चेतनः गुन-दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।' मा० १६
दोषा : दोष । मा० १.४.८
दोषिबे : भकृ०पु० । दूषित करने, बिगाड़ने । 'खल दुख दोषिब को जन परितोषिबे
:
P
को ।' हनु० ११
दोष, दोष : दोष + कए० । एक दोष = एक ही दोष + एक भी दोष । 'यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी ।' मा० २.३१४.७ 'तुम्ह कहँ सुकृतु सुजसु नहि दोषू ।' मा० २.१७५.२
दोस : दोष ( प्रा० ) । मा० ७.४३
दोसक : दोष का । 'सपनेहुं दोसक लेसु न काहू ।' मा० २.२६१.५
दोसा : दोषा । मा० २.१३१.३
दोसु, सू: दोषु । 'दोसु देहि जननिहि जड़ तेई ।' मा० २.२६३.८; १.२७२.३
वोह : ( समासान्त में ) वि०पु० (सं० द्रोह) । द्रोह करने वाला । 'साईं- दोह मोहि कीन्ह कुमाता ।' मा० २.२०१६ ( स्वामिने दुह्यति इति स्वामिद्रोह: ) ।
दोहा : सं०पु० (सं० दोघक > प्रा० दोहअ ) । छन्दविशेष जिसके प्रथम- तृतीय चरणों में १३ -१३ तथा द्वितीय चतुर्थ में ११-११ मात्राएँ होती हैं । मा० १.३७.५ दोहा : दोहाई से, द्रोहबुद्धि में, द्रोहशीलता में 'स्वामि गोसाइँहि सरिस गोसाईं मोहसमान मैं साईं- दोहाई ।' मा० २.२६८.४ (दे० दोह)
1
दोहाई : (१) दोह + भाववाचक सं० (सं० द्रोहता ) । द्रोहशीलता । 'स्वामी की सेवक - हितता सब, कछु निज साइँ दोहाई ।' विन० १७.६ ( २ ) सं० स्त्री० (सं० द्रोध = विनाश, द्रोह = विरोध योजना > प्रा० दोह ? ) शत्रुविनाश का आतङ्ककारी प्रभाव, धाक । 'फिरी दोहाई राम की गे कामादिक भाजि ।' वैरा० ६१ (३) शपथ। ' तो मारौं रन राम दोहाई ।' मा० २.२३०.८ (४) (सं० द्विधाकृत > प्रा० दोहइअ ) अपने ऊपर संकट आने पर कहा हुआ शब्द = शरणागति ।
दौन : (१) भकृ० अव्यय । झुलसने (दु उपतापे - दवन ) । 'कहा भलो भयो भरत को लगे तरुन तन दोन ।' गी० २.८३.२ (२) वि०पुं०: ० = दवन | दमनकारी + सन्तापकारी । 'हो तुम्ह आरत आरति दोन ।' गी०५.२०.४