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तुलसी शब्द-कोश
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असोका।' मा० ७.६८.२ (३) श्लिष्ट प्रयोग-'सुनहि बिनय मम बिटप
असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका ।' मा० ५.१२.१० । असोको : वि. पु. (सं० अशोकिन्) । शोकरहित । मा० १.१६४.८ असोच : वि० (सं० अशोच्य>प्रा० असोच्च)। निर्द्वन्द्व (जिसके लिए कुछ भी
शोचनीय न रह जाय)। निश्चिन्त । 'रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें।' मा
असो : सर्वनाम-कए (सं.)। वह । मा० ६ श्लोक ३ असौच : सं० पुं० (सं० अशौच) अपवित्रता, मलिनता। मा० ६.१६.३ अस्त : वि० पुं० (सं०) सूर्य का सन्ध्या समय अदृश्य होना । मा० १.१५६.२ अस्तु : आ० शुभकामना-प्रए० (सं०) । हो, होवे । मा० २ श्लोक २ अस्तुति : सं० स्त्री० (सं० स्तुति)। प्रशंसा, प्रार्थना । मा० १.८३.८ । अस्त्र : सं० पु० (सं.)। फेंककर चलाया जाने वाला आयुध बाण आदि । मा०
३.१६ अस्थाना : सं० ० (सं० स्थान) मा० ६.१२०.२ अस्थि : सं० पु० (सं.)। हड्डी । मा० ३.६.६ अस्थिमात्र : केवल हड्डी, अस्थिशेष । मा० १.१४५.४ अस्ताना : सं० पुं० (सं० स्नान) । नहाना, नहान । मा० ७.२६.२ अस्मदीय वि० ० (सं.)। हमारा-हमारे । मा० ५ श्लोक २ अस्व : सं० पु. (सं० अश्व) । घोड़ा । मा० २.२०३.५५ अस्विनि : सं० स्त्री० (सं० अश्विनी) सत्ताईस नक्षत्रों में से एक । पा० मं० ५ अस्विनीकुमार : सं० पु. बहु० (सं० अस्विनी कुमारौ)। देवद्वय जो घोड़ी के रूप
में परिवर्तित सूर्य पत्नी संज्ञा की नासिका से उत्पन्न बताये गये हैं। वैदिक तथा नसक्तिक धारा के अनुसार प्रातःकाल में अन्धकार और प्रकाश के मिश्रित रूप का नाम है । पुराणों में इन्हें देवों का वैध बताया गया है अतः 'देव
भिषजी' भी कहते हैं । 'जासु घ्रान अस्विनीकुमारा ।' मा० ६.१५.३ अहंकारी : वि० पुं० (सं० अहंकारिन्) । अभिमानी, आत्ममानी । मा० ६.४०.१ मह : अहं । अहंकार, अभिमाना 'अह मम मलिन जनेषु ।' मा० २.२२५ अहं : (१) अहम् । मैं । मा० १ श्लो० ५ (२) अहंकार । 'अहं अगिनि नहिं दाहै ___ कोई। पैरा० ५२ अहंकार : सं० पु० (सं.)। (१) अभिमान, घमण्ड । 'अहंकार अति दुखद
डमरू का ।' मा० ७.१२१.३५ (२) चार अन्तःकरणों में से एक जो महत्तत्त्व या बुद्धि से जनित बताया गया है । वेदान्त तथा सांख्य दर्शनों में अहंकार से ही मन, इन्द्रियों तथा भौतिक प्रपञ्च की सृष्टि बताई गई है। मा० ६.१५ (दे० अन्तःकरण)।