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तुलसी शब्द-कोश
(३) कठोर ( ४ ) परिपक्व । ' मिलहि जोगी जरठ तिन्हहि दिखाउ निरगुन खानि ।' कृ० ५२ (सभी अर्थ मिले रहते हैं ।)
जरठपनु: (जरठ + पनु – दे० पन) कए० । बुढ़ापा । 'मनहुं जरठपनु अरु उपदेसा ।'
मा० २.२.७
जरठाइ, ई : सं० स्त्री० (सं० जरठता) । बुढ़ापा । 'जरठाइ - दिसाँ रबि कालु उग्यो ।' कवि० ७.३१
जरत : वकृ०पु ं० (१) (सं० ज्वरत् > प्रा० जरंत ) । संतप्त । 'अय इव जरत परत पग धरनीं ।' मा० १.२९८.५ (२) (सं० ज्वलत् > प्रा० जलंत ) । प्रज्वलित होता-ते । 'पावक जरत देखि हनुमंता । मा० ५.२५.८ (३) दग्ध होता-ते । 'जरत निकेतु धावो धावो लागि आगि रे ।' कवि० ५.६ ( ४ ) संतप्त + दग्ध हो रहा है । 'अजहूं हृदउ जरत तेहि आँचा । मा० २.३२.५ (५) जाज्वल्यमान, ज्वालाकुल + संतप्त 'आगें दीखि जरत रिसि भारी ।' मा० २.३१.३
जरती : क्रियाति० स्त्री०प्र० । 'यदि जलती + सन्तप्त होती + क्षीण होती रहती ! 'घरहीं सती कहावती जरती नाह बियोग ।' दो० २५४
जरनि, नी : सं०स्त्री० (दे० / जर- सं० ज्बलन > प्रा० जलण + सं० जरण, जरण > प्रा० जरण) । (१) दाह । 'जिय के जरनि न जाइ । मा० २.१८२ (२) सन्ताप । 'राम स्याम सावन भादौ बिनु जिय के जरनि न जाई ।' कृ० २६ ( दोनों प्रयोगों में तीनों अर्थ गुथे मिलते हैं ) ( ३ ) परसन्ताप, ईर्ष्या । 'पर सुख देखि जरनि सोइ छई ।' मा० ७.१२१.३४ ( यहाँ तीनों अर्थ सम्पृक्त हैं - क्षीण होना + सन्तप्त होना + दग्ध होना )
जहि : आ०प्र० (१) (सं० ज्वलन्ति > प्रा० जलंति > अ० जलहि ) । दग्ध होते हैं । 'जहि पतंग मोह बस ।' मा० ६.२६ (२) (सं० ज्वरन्ति > प्रा० जरंति > अ० जरहिं) सन्तप्त होते हैं । 'जरहिं विषमजर लेहिं उसासा ।' मा० २.५१.५ (३) दग्ध + सन्तप्त + क्षीण होते हैं = ईर्ष्याग्रस्त हो जाते हैं । 'सुरत जरहि खल रीति ।' मा० १.४
ज: जरा से, बुढ़ापे के कारण । 'अधरो अधम जड़ जाजरो जराँ जवनु ।' कवि०
७.७६
जरा : (१) सं० स्त्री० (सं० ) । बुढ़ापा । 'जरा मरन दुख रहित तनु । ' मा० १.१६४ (२) भूकृ०पु ं० (सं० ज्वलित + ज्वरित > प्रा० जलिअ + जरिअ ) : भस्म हो गया + सन्तप्त हुआ । 'सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ।' मा० ३.२६.१ जए, ये : दे० जराय । जड़ाऊ । नगों से खचित ।' गी० १.३२.२
जराय: सं०पु० । जवाव, नगों की पच्चीकारी । 'हिएँ जग जीति जराय की
चौकी ।' कवि० ७.१४३