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तुलसी शब्द-कोश
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जयमाल : जयमाला । मा० १.१३१ जयमाला : सं०स्त्री० (सं०) । (१) विजेता को विजयोपलक्ष में पहनाई जाने
वाली माला । 'सोहत जन जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला ।' मा० १.२६४.७ (२) वरमाला जो स्वयंवर में कन्या वर को पहनाती है ।
'कुआँरी हरषि मेले उ जयमाला ।' मा० १.१३५.३ जयसील : वि० (सं० जयशील) । विजेता, विजयी। 'कपि जयसील राम बल
ताते ।' मा० ६.८१.३ जये : भूकृ.पु०व० । जीत लिये गये (हारे हुए)। 'प्रभु खात........ आदर जनु
जये।' गी० ३.१७.५ जयो : जयऊ । (१) विजयी हुआ । 'जनक को पनु जयो।' कवि० १.१४ (२) पूर्ण
किया । 'चहत महामुनि जाग जयो।' गी० १.४१.१ जर : (१) सं०० (सं० ज्वर>प्रा० जर) । रोग विशेष+संताप । 'जरहिं दुसह
जर पुर नर नारी ।' मा० २.२६२.२ (२) सं०स्त्री० (सं० जटा>प्रा० जडा >अ० जड) । मूल 'तहाँ क्रोध की जर जरि गई।' वैरा० ५१ (३) जइइ । जलता-ती है । चिता जर छाती।' मा० ४.१२.३ /जर जरइ, ई : (१) (सं० ज्वलति>प्रा. जलइ-दग्ध होना, जलना) आ०प्र० ।
जलता है, भस्म हो रहा है । 'जरइ नगर या लोग बिहाला।' मा० ५.२६.२ (२) (सं० ज्वरति-ज्वर संतापे>प्रा० जरइ-सन्तप्त होना, ज्वर ग्रस्त होना, आर्त होना) 'सूखहिं अधर जरइ सब अंगू ।' मा० २.३८.१ (३) (सं० जीर्यति ज़ वयोहानौ>प्रा. जरइ-जीर्ण होना, क्षीण होना) 'रिस तन जरइ होइ बल हानी ।' मा० १.२७८.६ (यहाँ तीनों अर्थ एक साथ हैं)। (४) जलता है+सन्तप्त होता है+क्षय ग्रस्त होता है । 'महाघोर त्रयताए न
जरई ।' मा० १.३६.६ 'राम रोष पावक सो जरई ।' मा० २.२१८.५ जरउँ : आ० उए । दग्ध+सन्तप्त+क्षीण होता हूं (था)। 'हरिजन द्विज देखें
जरउँ ।' मा० ७.१०५ जर उ : आ०-संभावना-प्रए० (सं० ज्वलत>प्रा० जल उ+सं० जीर्यतु>प्रा०
जरउ) । जल जाय, नष्ट हो जाय । 'जरउ सो संपति सदन सुखु ।' मा०
२.१८५ जरकसी : वि०स्त्री० (सं० जट संघाते.+कस बन्धने) । जड़ाऊ, हीरक-मण्डित,
जड़ाव से खचित । 'सुन्दर बदन सिर पगिया ज रकसी।' गी० १.४४.१ जरजर : जर्जर । हनु० ३८ जरठ : वि० (सं०) । (१) वृद्ध । 'बाल जुवान जरठ नर नारी।' मा० १.२४०.६
(२) जराग्रस्त, जर्जर। 'जाना जरठ जटायू एहा ।' मा० ३.२६.१४