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तुलसी शब्द-कोश
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प्रस : वि० ० (सं० ईदश>प्रा० एरिस>० अइस) ऐसा । 'अस बिबेक जब
देइ बिधाता ।' मा० १.७.१ (२) इस प्रकार । 'अस बिचारि उर छाड़ह
कोहू ।' मा० २.५०.१ असंक : वि० पु० (सं० अशङक) । शङ कारहित, निःशङ क, निर्भय । 'अति असंक
मन सदा उछाहू ।' मा० १.१३७.३ असंका : (१) असंक । 'तह रह रावन सहज असंका।' मा० ४.२८.११ (२) सं० ___ स्त्री. (सं० आशङ का) । सन्देह, संशय । 'अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका ।'
मा० १.७२.४ असंकू : असंक+कए । मा० १.२७३.२ असंग : वि० (सं.)। सङ्गरहित, अनासक्त, उदासीन, निर्लेप । 'मीन जल बिन
तलकि तनु तर्ज, सलिल सहज असंग ।' कृ० ५४ असंगत : वि० (सं०) । अनुपयुक्त, अयुक्त, अयोग्य । विन० ६०.८ पसंत : (संत का विलोम) । अशान्तचित्त, असज्जन । मा० ७.३७.५ असंतन्ह, न्हि : असंत+संब० । असंतों। 'संत असंतन्ह के गुन भाषे ।'. मा०
७.४१.८ 'संत असंतन्हि के असि करनी।' मा० ७.३७.७ .. प्रसंभावना : सं० स्त्री० (सं.)। अनिश्चय, उलझन, नैराश्य । 'दारुन असंभावना
बीती।' मा० १.११६.८ प्रसंमत : वि० (सं.)। अविहित, अमान्य । 'कहहिं ते बेद असंमत बानी ।' मा०
प्रसगुन : (सगुन का विलोम) । दुनिमित्त, अशुभसूचक प्राकृतिक संकेत । मा०
२.१५८.४ असज्जन : (सज्जन का विलोम) । असाधु, असंत । मा० १.५.३ असत् : अवियमान । वास्तव सत्ता से शून्य, पारमार्थिक दृष्टि से असत्य । अन्य की
सत्ता से सत्तावन्-जैसे, पुरुष की छाया। भ्रान्त प्रतीत-जैसे, रस्सी में साँप । संसार या जरामरण आदि सांसारिक सम्बन्ध जो जीव के सन्दर्भ में नश्वर हैं । विन० १२०.४
शङकरमत में जगत्प्रपञ्च अनिवचनीय है-वह 'सत्' नहीं क्योंकि परिवर्तमान है और ज्ञानी के लिए सत्ताहीन है ; 'असत' भी नहीं क्योंकि प्रतीत होती है। वैष्णवमत में प्रपञ्च नित्य सत् है-यद्यपि परिवर्तमान है क्योंकि परिवर्तन भी नित्य है। संसार अनित्य है क्योंकि वह जीव द्वारा
स्थापित सम्बन्धों-पितापुत्र, जरामरण आदि-से बनता है । प्रसत्य : वि०=असत्, मिथ्या । 'जदपि असत्य देत दुख अहई ।' मा० १.११८.१