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तुलसी शब्द-कोश गहिसि : आ-भूकृ०स्त्री०+प्रए० । उसने पकड़ी। 'गहिसि पूंछ कपि सहित
उड़ाना ।' मा० ६.६५.५ गहिहौं : आ० - भ०-उए० (सं० ग्रहीष्यामि>प्रा० गहिहिमि>अ० गहिहिउँ) । __पकड़ लगा । 'कहत पानहो गहिही ।' विन० २३१.४ गही : भू० कृ०स्त्री० । पकड़ी, स्वीकार की। 'अब निर्गुन गति गही है।' कृ० ४२ गहीले : वि०० (स० अहिल>प्रा० गहिल्लय) । आग्रही, हठी (अभिमानी) । हठ
पकड़े हुए । 'सो बल गयो, किधौं भये अब गरब गहीले ।' विन० ३२.३ गहु : आ०-आज्ञा-मए० (सं० गृहण>प्रा० गह>अ० गहु) । तू पकड़। 'सखीं ___ कहहिं, प्रभु पद गहहु सीता।' मा० १.२६५ ८ गहें : (१) पकड़ने से। 'मम पद गहें न तोर उबारा।' मा० ६.३५.२ (२) पकड़े
हुए (तत्पर मुद्रा में) । 'चहरि चपेटे देत नित केस गहें कर मीच ।' दो० २४८ गहे : भूकृ००ब० । पकड़े । 'गहे राम पद कंज।' मा० ६.३५ ब गहेउ : भूकृ००कए० (सं० गृहीतः>प्रा० गहिओ>अ० गहियउ)। पकड़ लिया। _ 'गहेउ चरन गहि भूमि पछारा।' मा० ६.६६.७ गहेसि : आo-भूक००+प्रए । उसने पकड़ा-पकड़े। 'यातुर सभय गहेसि पद
जाई ।' मा० ३.२.११ गहेहु, हू : आ०भ०+आज्ञा-मब० । तू पकड़ना । 'बार बार पद पंकज गहेहू ।'
मा० २.१५१.६ गहौं : आ०उए० । ग्रहण करता हूं। 'उलूक ज्यों....'कुतरु कोटा गहौं ।' मा०
२.१५१.६ गहोंगो : आ०भ००उए । ग्रहण करूंगा । 'संत सुभाव गहौंगो।' विन० १७२.१ गह, यो : गहेउ । (१) ग्रहण किया। 'कारण इहै गह्यो गिरिजाबर ।' कृ० ३१
(२) पकड़ा हुआ । 'गरीबी गाढ़ें गह्यो हौं ।' विन० २६०.२ गांठरी : सं०स्त्री० (सं० ग्रन्थि>प्रा० गंठी>अ. गंठडी) । गठरी, बकुचा, पोटली।
'लियो रूप दे ज्ञान गाँठरी ।' कृ० ४१ गांठि, ठी : सं०स्त्री० (सं० ग्रन्थि>प्रा० गंठि, गंठी) । (१) पोटली या उसकी
घुडी । 'मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी।' मा० १.१३५.५ (२) रस्सी की घुडी । 'ऐसी हठ जैसी गाठि पानी परे सन की।' विन० ७५.१ (३) पोटली। 'गाँठी बाँध्यो दाम ।' विन० १६१८ (४) विवाह में वर-वधू के वस्त्र की
माङ्गलिक ग्रन्थि । 'गाँठि जोरी, होन लागी भांवरीं ।' मा० १.३२४ छं० ४ गांडर : सं० । तृण विशेष जो 'गण्ड' ग्रन्थियों से युक्त नाल वाला होता है
और जिससे सीक निकलती है। 'बाज सुराग कि गांडर तांती।' मा० २.२४१.६