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तुलसी शब्द-कोश
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गहबर : वि० (सं० गह्वर)। सघन, घोर, दुष्प्रवेश । 'नगरु सकल बून गहबर
भारी ।' मा० २.८४.२ (२) संकुल, भरा हुआ (भावपुञ्जित, भावशबल),
उलझा हुआ । 'गहबर मन पुलक सरीर ।' विन० १६३.८ गहबरि : गहबर+पूक० । भाव संकुल होकर । गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी ।'
मा० २१२१.२ गहरू : सं०पु०कए० (सं० गह्वर =ग्रन्थि, समस्या)। रोक, विलम्ब । 'होइहि __ जात गहरु अति भाई ।' मा० १.१३२.१ गहसि : आ०मए० (सं० ग्रह्लासि>प्रा० गहसि) । तू पकड़ता है । 'गहसि न राम
चरन सठ जाई।' मा० ६.३५.३ गहहि, हीं : आ०प्रब० (सं० गह्णन्ति>प्रा० गहति>अ० गहहिं)। (१) ग्रहण
करते हैं, स्वीकार करते हैं । 'संत हंस गुन गहहिं पय ।' मा० १६ (२) पकड़ते
हैं । 'गहहिं सकल पद कंज ।' मा० ६.१०६ गहहु, हू : आ०मव० (सं० गृह्णीत>प्रा० गहह>अ० गहहु)। (१) ग्रहण करो=
पकड़ो (दबाओ)। 'दसन गहहु तृन ।' मा० ६.२०.७ (२) समझो, मानो। 'सुनि मम बचन हृदयं दृढ़ गहहू ।' मा० ७.४५.१ (३) घेर लो। 'गहहु घाट
भट समिटि सब ।' मा० २.१६२ गहा : भूकृ०० (सं गृहीत>प्रा० गहिअ)। पकड़ा। ‘सर पैठत कपि पद गहा,
मकरी ।' मा० ६.५७ गहागह : वि०+क्रि०वि० । ध्वनिविशेषयुक्त । 'बाज गहागह अवध बधावा ।'
मा० २.७.३ गहागहे : गहगहे। गी० १.६.१ गहाये : भूकृ०० । पकड़ाये (पकड़ाने) । 'गहाये तें गहति ।' विन० २४६.३ गहि : पूकृ० (सं० गृहीत्वा>प्रा० गहिअ>अ० गहि)। (१) पकड़ कर । 'गहि
प्रभु पद गुन बिमल बखाने ।' मा० ६.११७.२ (२) ग्रहण कर चुन कर । 'गहि गुन पय तजि अवगुन बारी ।' मा० २.२३२.७ (३) कस कर । 'अपने कर नि
गाँठि गहि दीन्ही ।' विन० १३६.३ गहिबे : भक० (सं० ग्रहीतव्य>प्रा० गहिअव्व =गहिअव्वय) । ग्रहण करने योग्य ।
'ज्ञान गिरा कूबरी खन की सुनि बिचारि गहिबे ही।' कृ० ४० गहिबो : भक०कए० (सं० ग्रहीतव्यम्>प्रा० गहिअव्वं>अ० गहिअव्वउ)। पकड़ना
(होगा) । 'जीवत दुरित दसानन गहिबो।' गी० ५.१४.२ गहियतु : वक-कवा०-पु०कए० (सं० गृह्यमाणः>प्रा० गहीअंतो>अ० गहीअंतु)।
पकड़ा जाता, ग्रस्त किया जाता। 'ताहू पर बाहु बिनु राहु गहियतु है।' कवि० २.४