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तुलसी शब्द-कोश
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उनभाय : पूक० (सं० उन्नमय्य) । ऊपर उठाकर, ऊँचा करके । 'कीर्तन उनमाय
काय क्रोध कंदिनी।' गी० २.४३.२ उनमे, खुबु, षु : सं०० कए० (सं० उन्मेषम्) । उदय, विकास । 'भ्रमर द्वै रबि
किरन ल्याये करन जनु उनमेख ।' गी० ७.६.३ उनये : भू.कृ.पु । लदाव के कारण ऊपर से नीचे को झुके हुए । 'सो मनो उनये
घन सावन के ।' कवि० ६.३४ उनरत : वकृ०० (सं० उन्नटत>प्रा० उन्नडंत)। ऊपर को नाचता हुआ, उभरता
हुआ, बढ़ता हुआ, विकास लेता हुआ। 'उनरत जोबनु देखि नृपति मन भावइ
हो।' रा०न० ५ उनवनि : सं०स्त्री० (सं० उन्नमन>प्रा० उन्नवण)। ऊपर से घेर कर झुकना,
छा जाना, उमड़ना । 'लाज गाज, उनवनि कुचालि कलि ।' कृ० ६१ उनहि : उन को । 'जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ।' मा० ३.१७.१४ उनीद : सं० स्त्री० (सं० उन्निद्रा)। उचटी नींद, अधिक सोने की इच्छा, ऊँचा।
_ 'लरिका अमित उनीद बस ।' मा० १.३५५ उनीदे : भू००० (सं० उन्निद्रित>प्रा० उन्निद्दीय)। उचटी नींद वाले, ऊँघे
हुए, निद्रालस, सोकर उठे पर नींद से भरे हुए । 'आजु उनीदे आए मुरारी।'
कृ०२२ । बर० १६ उन्नत : वि० सं०) । उत्तुङ्ग, ऊँचा।गी० ७.१७.४ उन्ह : (१) उन । 'साँचेहुँ उन्ह के मोह न माया।' मा० १.६७.३ (२) उन्होंने ।
'छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ।' मा० ३.२२.१ उन्हहि : उनहि । उनको। 'तस फल उन्हहि देउँ।' मा० २.३३.८ उपंग : सं० । वायविशेष, मुरचंग (?) । गी० २.४७ १०.४८.३ उपकार : संपुं० (सं०) । दूसरे के प्रति हित कार्य । मा० ५.३२.६ उपकारा : उपकार । मा० १.८४.४ । उपकारी : वि० (सं.)। स्वार्थरहित परहित करने वाला । मा० १.११२.६ उपकारु, रू: उप कार+कए। अद्वितीय हितकार्य । 'बिधि बस भयउ विश्व
उपकारू ।' मा० २.३१०.६ उपखान : सं०० (सं० उपाख्यान) । इतिष्टत्त, प्रासंगिक कथानक । दो० ३९८ उपखानु : उपखान+कए । 'संगति न जाइ पाछिलो को उपखानु हे।' कवि०
७.६४ उपखानो : उपखानु । कवि० ७.१०७ उपचार : सं०० (सं.)। (१) सेवा, विनय, शिष्टता आदि। (२) उपाय ।
'तब लगि सुखु सपनेहुं नहीं, किएँ कोटि उपचार ।' मा० २.१०७ (३) चिकित्सा। 'कहहु कवन उपचार ।' मा० २.१०८ (४) छल करने का अर्थ भी है