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________________ तुलसी शब्द-कोश 95 उनभाय : पूक० (सं० उन्नमय्य) । ऊपर उठाकर, ऊँचा करके । 'कीर्तन उनमाय काय क्रोध कंदिनी।' गी० २.४३.२ उनमे, खुबु, षु : सं०० कए० (सं० उन्मेषम्) । उदय, विकास । 'भ्रमर द्वै रबि किरन ल्याये करन जनु उनमेख ।' गी० ७.६.३ उनये : भू.कृ.पु । लदाव के कारण ऊपर से नीचे को झुके हुए । 'सो मनो उनये घन सावन के ।' कवि० ६.३४ उनरत : वकृ०० (सं० उन्नटत>प्रा० उन्नडंत)। ऊपर को नाचता हुआ, उभरता हुआ, बढ़ता हुआ, विकास लेता हुआ। 'उनरत जोबनु देखि नृपति मन भावइ हो।' रा०न० ५ उनवनि : सं०स्त्री० (सं० उन्नमन>प्रा० उन्नवण)। ऊपर से घेर कर झुकना, छा जाना, उमड़ना । 'लाज गाज, उनवनि कुचालि कलि ।' कृ० ६१ उनहि : उन को । 'जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ।' मा० ३.१७.१४ उनीद : सं० स्त्री० (सं० उन्निद्रा)। उचटी नींद, अधिक सोने की इच्छा, ऊँचा। _ 'लरिका अमित उनीद बस ।' मा० १.३५५ उनीदे : भू००० (सं० उन्निद्रित>प्रा० उन्निद्दीय)। उचटी नींद वाले, ऊँघे हुए, निद्रालस, सोकर उठे पर नींद से भरे हुए । 'आजु उनीदे आए मुरारी।' कृ०२२ । बर० १६ उन्नत : वि० सं०) । उत्तुङ्ग, ऊँचा।गी० ७.१७.४ उन्ह : (१) उन । 'साँचेहुँ उन्ह के मोह न माया।' मा० १.६७.३ (२) उन्होंने । 'छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ।' मा० ३.२२.१ उन्हहि : उनहि । उनको। 'तस फल उन्हहि देउँ।' मा० २.३३.८ उपंग : सं० । वायविशेष, मुरचंग (?) । गी० २.४७ १०.४८.३ उपकार : संपुं० (सं०) । दूसरे के प्रति हित कार्य । मा० ५.३२.६ उपकारा : उपकार । मा० १.८४.४ । उपकारी : वि० (सं.)। स्वार्थरहित परहित करने वाला । मा० १.११२.६ उपकारु, रू: उप कार+कए। अद्वितीय हितकार्य । 'बिधि बस भयउ विश्व उपकारू ।' मा० २.३१०.६ उपखान : सं०० (सं० उपाख्यान) । इतिष्टत्त, प्रासंगिक कथानक । दो० ३९८ उपखानु : उपखान+कए । 'संगति न जाइ पाछिलो को उपखानु हे।' कवि० ७.६४ उपखानो : उपखानु । कवि० ७.१०७ उपचार : सं०० (सं.)। (१) सेवा, विनय, शिष्टता आदि। (२) उपाय । 'तब लगि सुखु सपनेहुं नहीं, किएँ कोटि उपचार ।' मा० २.१०७ (३) चिकित्सा। 'कहहु कवन उपचार ।' मा० २.१०८ (४) छल करने का अर्थ भी है
SR No.020839
Book TitleTulsi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchulal Avasthi
PublisherBooks and Books
Publication Year1991
Total Pages564
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size32 MB
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