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तुलसी शब्द-कोश गलानि : सं०स्त्री० (सं० ग्लानि>प्रा० गिलाजि-ग्ल हर्षक्षये) । उल्लासहीनता।
(१) कुंभलाहट, भुरझाहट । (२) मानसिक क्लान्ति, एक प्रकार की मन की
पश्चात्तापपूर्ण स्थिति । 'गरइ गलानि कुटिल कैकेई ।' मा० २.२७३.१ मलानिन्ह : गलानि+संब० ग्लानियों, विविध अवसादों (से)। 'जात गलानिन्ह __ गर्यो।' गी० ५.२७.१ गलानी : गलानि । मा० १.४३.३ गलित : भूकृ०वि० (सं०) । घुला, समान्त । 'तुम्ह सरिखे गलित अभिमाना । मा०
१.१६१.१ गलिन, न्ह : गली+संब० । गलियों, वीथियों (में)। 'तुलसी गलिन भीर ।' गी०
१.६२.४ 'गलिन्ह रह्यो पूरि ।' गी० ७.२१.२३ गली : (१) गलियाँ । 'मग गृह गली संवारन लागे।' मा० १.२६६.४ (२) गली
में 'बलवान है स्वानु गली अपनी ।' कवि० ६.१३ गली : सं०स्त्री० (सं० गति>प्रा० गई गइल्ली)। गैल, बीथी, पतला मार्ग ।
गी० १.२.५ गले : (सं० पद) । गले में । मा० २ श्लोक १ नवं सं०० (सं० गम>प्रा० गम>१० गवे) । (१) उपाय, लक्ष्य, ताक, दावें।
जिमि तकइ लेउँ केहि भांती ।' मा० २.१३.४ (२) बहाना, ब्याज, छल । गहि : गर्व से, बहाने से । “गहिं जोहारहिं जाहिं।' मा० २.१५८ गवन : गमन (अ० गवण) । प्रस्थान, यात्रा । मा० १.१४३ गवनत : गवन+वकृ०० । गमन करता-ते। 'तुरत पवनसुत गवनत भयऊ ।' मा०
६ १२१.३ गवनब : गवन+ भक० पु । जाना (होगा)। “गवनब अवहिं कि प्रात ।' मा.
२.११४ मवनहिं : गवन+आ०प्रब० । (१) प्रस्थान करते हैं। 'मकर भज्जि गवनहिं मुनि
बदा ।' मा० १.४५.२ (२) जाते हैं =बीतते हैं । 'पात खात दिन गवनहिं ।'
पा०म०३८ पवनहु : गवन+आ० मब० । जाओ, प्रस्थान करो। 'तुम्ह गृह गवनहु भयउ ___ बिलंबा ।' मा० १.८१.७ गवनि : गवन =पूकृ० । जाकर । 'गृह तें गवनि परसि पद पावन घोर साप तें
तारी।' विन० १६६.२ गवान हैं : गवन+आ०भ०प्रब० । प्रस्थान कर जायेंगे। 'गवनि हैं गहि गवाँइ गरब
गृह ।' गी० १.७०.६