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तुलसी शब्द-कोश
कच : सं०० (सं०) । केश । मा० १.१६६.१० कचनि, न्हि : कच+संब० । केशों (ने) । 'कचनि अनुपम छबि पाई ।' गी०
१.१०८.८ कच्छ : संपु (सं० कक्ष) । तिनकों (या पुआल का) ढेर । 'राम प्रताप हुतासन,
कच्छ विपक्ष ।' हनु० १६ कच्छप : संपु० (सं०) कमठ, कछुआ। कच्छपु : कच्छप+कए । कच्छपावतार भगवान् । मा० १.२४७.७ कछ, : वि०+क्रि०वि० । कुछ, अल्प । मा० २.५०.६ कछ क : (कछु+इक)। कुछेक, थोड़ा, अत्यल्प । 'कछुक दिवस जननी धरु धीरा।'
मा० ५.१६.४ कछ : कछु । मा० ५.३३.६ कछोटी : सं०स्त्री० (सं० कक्षपट्टी>प्रा० कच्छपट्टी) । कटि भाग के पास का
परिधान । 'छोटिय कछौटी तटि ।' गी० १.१४४.१ कज्जल : सं०० (सं०) । आँखों का मलहम विशेष, काला उजन, परे के मिश्रण
से बनाई कजली । 'जनु कज्जल के आँधी चली।' मा० ६.७८.८ कज्जलगिरि : कज्जल या सुरमे का पहाड़। मा० ६.१६.४ कज्जली : संस्त्री० (सं०) । धुएं से जमी कालिख । दो० ५७१ कजनाभ : सं०० (पद्मनाभो) । जिसकी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ विष्णु । _ विन० ५३.७ /कट कटइ : (सं० कर्त>प्रा० कट्ट) आ०प्रए । कटता है, कट सकता है । 'तुब
हित होइ कटै भव बंधन ।' विन ० १६६.३ कटक : सं०० (सं०) । (१) सेना। मा० ३.२२.११ (२) कड़ा, हस्ताभरण
- तथा पादाभरण । 'कनक कटकांगदादी ।' विन० ५४.४ कटकई : कटक । सेना । 'मन हुं क रुन रस कटकई उतरी अवध बढ़ाइ ।' मा २.४६ कटकहिं : आप्रब० (सं० कटकटायन्ते) । दातों की ध्वनि करते हैं । 'कटकट हिं
जंबुक भूत प्रेत ।' मा० ३.२० छं० कटकटाइ : पू० । दाँत पीसकर, दन्त ध्वनि करके (क्रुद्ध होकर) । 'कट कटाइ
गर्जा अस धावा।' मा०५१६.४ कटकटात : वकृ००। क्रोध से दाँत पीसने की ध्वनि करने । 'कटकटात भर
भालु ।' गी० ५ २२ ४ . कटकटान : भूक.पु । दाँत पीसता हुआ क्रुद्ध हुआ। 'कटकटान कपि कुंजर
भारी।' मा० ६.३२.३ कटकटाहि : कटकटाहिं । 'कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं ।' मा० ६.४१.६