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तुलसी शब्द-कोश
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गेहु, हू : गेह+कए । 'गुर गृहँ बसहं राम तजि गेहू ।' मा० २.५०.४ गै : गइ। (१) गई। बीती। 'मुरुछा गै बहोरि सो जागा।' मा० ६.८४.३
(२) खोई हुई। 'गै मनि मनहुं फनिक फिरि पाई।' मा० २.४४.३
(३) (सहायक क्रिया) । खेलत रहा सो होइ गै भेदा ।' मा० ६.१८.३ गया : गाय । 'हेरि कन्ह गोबर्धन चढ़ि गया।' कृ० १६ गैहहिं : गाइहैं (सं० गास्यन्ति>प्रा० गाइहिंति>अ० गाइरिहिं)। गायेंगे, कीर्तन ___करेंगे । 'नारदादि जस गैहहिं ।' मा० ५.१६.५ गैहैं : गाइहैं । 'कबि कुल कीरति गैहैं ।' गी० १.५०.३ गहै : आ०भ० प्रए० (सं० गास्यति>प्रा० गाइहिइ)। गायेगा, कीर्तन करेगा।
'तुलसीदास पावन जस गैहै ।' गी० ५.५०.६ गहौं : आ०भ० उए० (सं० गास्यामि>प्रा० गाहिनि =गाइहिमि>अ० गाइहिउँ
>गाइहउँ.> गाइहौं)। गाऊँगा। गाऊँगी। 'रसना और न गैहौं ।' विन०
१०४.३ गोंड़ : सं०पु० (सं० गोण्ड) । शूद्र जाति विशेष । 'गोंड़ गार नृपाल महि ।'
दो० ५५६ गो : सं००+स्त्री० (सं.)। (१) गाय । 'गो द्विज हितकारी ।' मा०
१.१८६.छं १ (२) इन्द्रिय । 'माया गुन गो पार ।' मा० १.१६२ (३) पृथ्वी। 'गो खग, खे खग, बारि खग।' दो० ५३८ (४) गयो । गया। 'बंक गढ़ लंक सो ढकां ढके लि ढाहि गो।' कवि० ६.२३ (५) बीता । 'न कूदिबे को पलु गो।' कवि० ४.१ (६) समाप्त हुआ। 'औरनि को कलु गो।' कवि० ४.१ (७) भविष्य सूचक बिकारी शब्द-पु०ए० । 'टूट्यो सो न जुरैगो ।' कवि० १.१६ (८) रूप में बदला, परिणत होकर समाप्त हो गया । 'सब होइ न गो।'
मा० ६.१११.१५ गोइ : पूकृ० (सं० गोपित्वा>प्रा० गोविअ>अ० गोवि)। गुप्त रखकर, छिपा __ कर । 'राखेउँ कछु नहिं गोइ ।' मा० ७.१२३ ख गोइयाँ : सं०० ब० । खेल के साथी जो एक पाली में साथ-साथ विपक्ष पाली के
विरुद्ध खेलते हैं। गमि गनि गोइयाँ बांटि लये।' गी० १.४५.१ गोहहहिं : आ०भ०प्रब० (सं० गोपिष्यन्ति>गोविहिति>अ. गोविहिहिं)
छिपाएंगे । 'निरखि नगर नर नारि बिहँसि मुख गोइहहिं ।' पा०म० ५७ गोई : भूकृ०स्त्री०बहु । छिपाईं, रक्षित की। ‘फनिकन्ह जनु सिर मनि उर गोईं।' __मा० १.३५८.४ गोई : (१) गोइ । छिपा कर । 'लोचन ओट बैट मुहु गोई ।' मा० २.३६.६