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तुलसी शब्द-कोश
कहा : कहसि । कहते हैं । 'ब्रह्म लोक सब कथा कहाहीं ।' मा० ७.४२.५ कहि : (१) पूकृ० (सं० कथयित्त्वा > प्रा० कहिअ > अ० कहि ) । कह कर । 'तौ कहि प्रगट जनावहु सोई ।' मा० २.५०.६ (२) आ० - आज्ञा, प्रार्थना - म० । तू कह । 'जन की बिनती मानि मातु कहि, मेरे हैं ।' कवि० ७.१६४ कहिअ : आ० कर्मवाच्य - प्रए० (सं० कथ्यते > प्रा० कहीअइ ) । कहा जाय,
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कहना चाहिए | 'इंद्रजालि कहुं कहिअ न बीरा ।' मा० ६.२६.१० कहिअत: वकृ० - कर्मवाच्य – पुं० । कहा जाता, कहे जाते । 'कहिअत भिन्न न
भिन्न ।' मा० १.१८
कहिउँ : आ० - भूकृ० स्त्री० + उए० । मैंने कही । 'उमा, कहिउँ सब कथा सुहाई ।' मा० ७.५२.६
कहिए : कहिअ । 'सो सीतल कहिए जगमाहीं ।' वैरा० ४६
कहिबी : भकृ० स्त्री० (सं० कथयितव्या > प्रा० कहिभव्वा > अ० कहिअव्वी ) । कहनी ( चाहिए ) । 'कहिबी नाम दसा जलाइ ।' विन० ४१.३
कहिबे : भकु०पु० (सं० कथयितव्य > प्रा० कहिअव्वय) । कहने योग्य । 'कहिबे
कछू कछू कहि जैहै ।' कृ० ४७
कहिबो : भकृ०पु०कए० (सं० कथयितव्यम् > प्रा० कहिअव्वं < अ० कहिव्बउ ) | कहना । 'समुह ही भलो कहिबो न रखा है ।' कवि० ७.५६
कहियत : अहिअत । 'मधुकर रसिक सिरोमनि कहियत ।' कृ० ५०
कहियो : कहेहु । तुम कहना । 'पथिक कहियो मातु संदेसो ।' गी० २.८७.४ कहिसि : आ० भूकृ ० स्त्री० प्र० । उसने कही कहीं । 'कहिसि कथा सत सवति कं ।' मा० २.१८
(सं०
कहिहउ : आ०भ० उ० कहूंगा । 'कहिउँ नाइ
कथथिव्यामि >> प्रा० कहिहिम > अ० कहिहिउँ ) | राम पद माथा ।' मा० १.१३.६
- कहिहहि :- आ० भ० प्रब० (सं० कथयित्यप्ति > प्रा० कहिहिति >> अ० कहिहिहिं ) |
कहेंगे 'कहिहहि सुनिहहिं समुझि सचेता ।' मा० १.१५.१०
कहिहि : आ०म०प्र० (सं० कथयिष्यति > प्रा० कहिही, कहिहिइ ) | कहेगा | 'गिरि जड़ सहज कहिहि सब लोगू ।' मा० १.७१.५
कहिहु : आ०भूकृ० स्त्री० + मब० । तुमने कही ( थी ) । 'स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं ।' मा० २.२२.४
कहिहैं : कहिहहि ।
कहेंगे,
बातचीत करेगे ।
'आपुस में कछु पं कहिहैं ।'
कवि० २.२३
कहि है : कहिहि । कहेगा-गी । 'क्यों कहिहै बर नारी ।' कृ० ६ ॥ कहिौं : कहिहउँ । 'और मोहि को है, कहि कहिहौं ।' विन० २३१.१