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तुलसी शब्द-कोश
221 गजाली : सं०स्त्री० (सं०) । गज समूह, हाथियों की श्रेणी। 'केहि सोहाति रथ
बाजि गजाली।' मा० २.२२८.७ गजु : गज+कए० । एक वह हाथी=गजेन्द्र जिसका भगवान् ने उद्धार किया था। ____ 'अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ ।' मा० १.२६.७ गज्जत : गर्जत (सं० गर्जत् >प्रा० गज्जत) । 'बीरु बारिदु जिमि गज्जत ।' कवि.
६.४७ गठिबंध : सं०० (सं० ग्रन्थिबन्ध>प्रा. गंठबंध) । गठजोड, गठबन्धन (विवाह
का ग्रन्थि बन्धन) । मेल-मिलाप । 'गठिबंध ते परतीति बड़ि ।' दो० ४५३ गढ़त : वकृ.पु । (गर्त में) फँसता-ते । 'गड़त गोड़ मानो सकुच पंक महँ ।' गी..
गड़ी : भूकृ०स्त्री० । धंसी, चुभ गई, प्रविष्ट होकर (मानों गर्त में) अदृश्य होकर
बैठ गई । 'छबि गड़ी कबि जियरे ।' मी० १.४३.२ गड़े : भूक०० (ब०)। (मानों गर्त में) धंस गये । 'जिय जात जनु सकुचनि
गड़े।' विन० १३५.४ गढ़ : सं०पू० (प्रा०) । दुर्ग, किला। मा० १.७६.३ /गढ़ गढ़ : (सं० घटयति>प्रा० घडइ= घढ़इ-रचना, संवार कर बनाना,
कलात्मक निर्माण करना) गढ़त : वकृ.पु. (सं० घटयत्>प्रा० गत) (१) रचना, रचते । (२) बातें
बनाताते । 'अब ये गढ़त महरि मुख जोए ।' कृ० ११ गडाइहौं : आ० भ० उए० (सं० घटयिष्यामि>प्रा० गढाविहिमि>अ० गढाविहिउँ)।
गढाऊँगा, बनवाऊँगा । 'हौं दीन बित्तहीन कैसें दूसरी गढ़ाइहौं ।' कवि० २.८ गढायो : भूकृ००कए । बनवाया। 'आनि के सबै को सारु धनुष गढ़ायो है।'
कवि० १.१० गढ़ि : पूकृ० (सं० घटयित्त्वा>प्रा० गढ़िअ>अ० गढि) । रचकर । 'सुर प्रतिमा
खंभन गढ़ि काढ़ीं।' मा० १.२८८.६ गढ़ीवै : गढ़ी हुई बातें (दे० गढ़ोवै) गढ़ : गढ़+कए । एकमात्र (अद्वितीय) दुर्ग । 'छेत्रु अगम गढ़ गाढ़ सुहावा ।'
मा० २.१०५.५ गढ़े : भूकृ०० (ब०) (सं० घटित>प्रा. गढिय)। (१) छील डाले, रन्द
दिये। 'रावन राढ़ सुहाड़ गढ़े।' कवि० ६.६ (२) कृत्रिम रूप से छील छाल
कर रचे हुए । 'चित्र से नयन अरु गढ़े से चरन कर ।' गी० ५.१८.२ गया : वि० गढ़ने वाला, कृत्रिम रचना करने वाला, कपोल कल्पित करने
वाला । 'ग्यान को गढ्या ।' कवि० ७.१३५