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तुलसी शब्द-कोश
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जं : सर्वनाम (सं० यम्>प्रा० जं)। जिसे, जिसको । मा० ३.३२ छं० ४ । जंगम : वि०पू० (सं०) स्थावर का विलोम । (१) गतिशील, चलता-फिरता । 'जो
जग जंगम तीरथराजू ।' मा० १.२.७ (२) परिव्राजक साधु जो चलते रहते हैं।
'जागें जोगी जंगम ।' कवि ७.१०६ जंघ, घा : सं०स्त्री० (सं.)। पैरों के टखने और घुटने के मध्य का मांसल अंङ्ग। ___ 'चरन सरोज, चारु जंघा, जानु, अरु, कटि ।' गी० ७.७३.३ । जंजाल, ला : सं० । पाश, जाल, बन्धन, झंझट । मा० १.२११ .. जंतु : सं०० (सं.)। (१) प्राणी। 'खग मग जीव जंतु जहँ नाहीं।' मा
१.११०.११ (२) छुद्र कीट-पतङ्ग। 'गूलरि फल समान तव लंका। बसहु
मध्य तुम्ह जंत असंका।' मा० ६.३६.३ जंत्र : सं०० (सं० यन्त्र) । (१) बन्धन, शृंखला। (२) बांधने का स्तम्भ ___ आदि । (३),शल्य आदि उपकरण । (४) ज्योतिष के चक्र आदि । (५) तन्त्र __ शास्त्र के रहस्यलेख । 'जंत्र मंत्र' हनु० २६ (६) कोल्हू । 'सुकृत सुमन तिल
मोद बासि बिधि जतन जंत्र भरि घानी।' गी० १.४.१३ जंत्रित : भूकृ० (सं० यन्त्रित)। आबद्ध, नियन्त्रित, संसक्त । 'लोचन निज पंद
जंत्रित ।' मा० ५३० जंत्री : भूक०स्त्री० (सं० यन्त्रिता>प्रा० जतिआ>अ० जंत्री) । बाँध दी, कील दी,
नियन्त्रित कर दी । 'भरत भगति सब के मति जंत्री।' मा० २.३०३.२ . जंबु : सं०० (सं०) । जामुन का वृक्ष, फरेंद वृक्ष । मा० २.२३७.२ . जंबुक : सं०० (सं०) । सियार । मा० ३.२० छं० १ (२) नीच मनुष्य ।। जंबुकनि : जंबुक+संब० । (१) सियारों (ने) । (२) नीच लुरेरों (ने) । 'हाट
सी उठति जंबुकनि लूट्यो।' कवि० ६.४६ जंबुकादि : सियार इत्यादि । कवि०६.२ जइहैं : आ०भ०प्रब० (सं० यास्यन्ति>प्रा० जाइहिति>अ० जाइहिहिं) । जायंगे
(नष्ट होंगे)। 'जइहैं सहित समाज ।' दो० ४१६ जए : (१) जय । 'सुर बिकल बोलहि जय जए।' मा० ६.१०२ छं०
(२) भूक०० ब० । जीत गये । 'रिपु जनु रन जए।' जा०म०छं० १७ जग : सं०० (सं० जगत्)। (१) विश्वप्रपञ्च । 'जग जस भाजन चातक मीना।'
मा० २.२३४.३ (२) जंगम (स्थावर का विलोम) । 'अगजगमय सब रहित विरागी।' मा० १.१८५.७ (३) दोनों का एकत्र प्रयोग : 'अगजगमय जंग मम उपराजा ।' मा० ७.६०.५ जग जगह : (सं० जागति>प्रा० जग्गइ-प्रबुद्ध होना, सोकर संचेतन होना, सावधान होना, जगमगाना) आप्रए । जगमगाती है । 'जग छबि मोतिन माल अमोलन की।' कवि० १.५