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तुलसी शब्द-कोश
कपूतन : कपूत + संब० । कपूतों । 'कायर क्रूर कपूतन की हद ।' कवि० ७.१ कपूर : कर्पूर । दो० २५५
कपोत : सं०पु० (सं० ) । भूरा पारावत, कबूतर । मा० ३.३०.१०
कपोल : सं०पु० (सं० ) । गाल । मा० १.१४७.१
कपोलन, ति : कपोल + सं०ब० । कपोलों । 'कुंडल लोल कपोलन की ।' कवि०
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१.५
कपोला : कपोल | मा० १.१६६.६
कफ : सं०पु ं० (सं०) । त्रिदोष में, अन्यतम । श्लेष्मा । मा० ७.१२१.३०
कव : अव्यय (सं० कदा > प्रा० कआ; सं० कुतः > प्रा० कओ > अ० कउ > कव) । किस समय । मा० २.११.६
कबंध : सं०पु० (सं०) । (१) एक राक्षस जिसका धड़ ही था, सिर वृक्ष पर लटकता लगा था । मा० ३.३३.६ ( २ ) शरीर का धड़ भाग, शिरोरहित शरीर । 'कूदत कबंध के कदंब बंस सी करत ।' कवि० ६.४८
बंधु : कबंध + कए । कबन्ध नामक राक्षस । कवि० ६.११ कह: निश्चित रूप से कब, भला कब । 'कबहिं देखिबे नयन भरि । मा० 1 १.३००
कबहुँ, हूँ : कभी, किसी समय । 'कबहुं पालने घालि झुलावै ।' मा० १.२००.८ Tag: कभी एक बार ( कबहुं + इक ) । कभी तो । 'कबहुँक ए' आवह एहि नातें ।' मा० १.२२२.८
कबार : सं०पुं० । लेन देन का लघु व्यवसाय, छोटी मोटी दुकानदारी, क्रय विक्रय धंधा । 'मागध सूत भाट नट जाचक जहँ तहँ करहिं कबार । मी० १.२.२१ कबारू : कबार+कए० । 'नहिं जानउँ कछु अउर कबारू ।' मा० १.१०० ७ कवि : सं० (सं० कवि) । (१) ऋषि तत्त्व दृष्टा (२) विद्वान्, विवेकी । (३) शब्दों में भाव व्यक्त करने वाला = साहित्यकार । मा० १.६.८ कति सं०पु० (सं० कवित्त्व > प्रा० कवित्त ) । कविकर्म, काव्य कौशल, कविता कला । मा० १.६.११
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कबितरस: (दे० नवरस ) परम्परागत काव्य रस जिनमें सहृदय विषय-वासना का रस- निष्पत्ति की प्रणाली से आस्वादन करता है; वासना की सूक्ष्म अनुभूति से पृथक कोई बाह्य प्रयोजन नहीं माना जाता । 'जदपि कबित रस एकउ नाहीं ।' मा० १.१०.७
कबितरसिक : वे रसिक जो स्वागत वासना का ही काव्य के माध्यम से रस रूप में आस्वादन करते हैं, इस रसास्वाद से पृथक् किसी काव्य प्रयोजन को मान्य न हीं