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तुलसी शब्द-कोश
करते - भक्ति को काव्यरस बनाकर नहीं ग्रहण कर पाते । 'कबित रसिक न रामपद नेहू ।' मा० १.६.३
कबिता : सं० स्त्री० (सं० कविता ) । काव्य, कविस्व । ' चली सुभग कविता सरिता सो ।' मा० १.३६.११
कबित्त : कबित । 'निज कबित्त केहि लाग न नीका मा० १.८.११
बिन्ह : कबि + संब० । करियों ( ने) ।
१.१४.८
कबी : कवि । मा० ६.१११ छं०
( अरबी
कबुली : वि०स्त्री० (१) (अरबी - कबूल = मानना ) । बात मान्य कराई हुई । (२) (अरबी – कुबूल = आगे आना ) । आगे की हुई । ( ३ ) ( अरबी क़बूली = बिना गोश्त का पुलाव ) । पुलाव = खाद्य पदार्थ बनाई हुई । (४) कबुला = मछली या चूहा ) | मछली के समान फँसाई हुई । ( ५ कब्ल = पहले ) । पहल कराई हुई । 'कुबरीं करि कबुली कैकेई । उर पाहन टेई ।' मा० २२२१ (छुरी का सम्बन्ध मछली वाले अतः श्लेष से कई अर्थ अभीष्ट हैं ।)
)
( अरबी -
' कपट छुरी
अर्थ से है ।
'कबिन्ह प्रथम हरि की रंति गाई ।' मा०
-
कबूतर : सं०पु ं० (फा० ) । पारावत पक्षी (जिसकी एक जाति, कपोता है जो भूरा होता है) । गोस्वामी जी ने कपोत से भिन्न उसी जाति के पक्षी को 'कबूतर' माना है । 'हँस कपोत कबूतर बोलत ।' गी० २.४७.११
कबूलत: वकृ०पु० ( अरबी – कबूल = स्वीकार करना) | मानता, स्वीकार करता । 'हौं न कबूलत ।' विन० १४६.२
कमंडल : सं०पु० (सं० कमण्डलु ) । विशेष प्रकार का जल पात्र । मा० ६.५७ ७ कमठ : सं०पु० (सं० ) । कच्छप । मा० १.२०.७
कमठी : कमठ + स्त्री० (सं० ) । कच्छपी । कृ० ६०
कमुठ : कमठ+कए० । कच्छप भगवान् । 'कोलु कमठु अहि कलमल्यो ।' कवि०
१.११
कमनीय : वि० (सं०) । मनोहर स्पृहणीय, रुचिर, उत्तम । 'कीरति अति कमनीय ।' मा० १.२५१
कमनीया: कमनीय + स्त्री० । वाञ्छनीया, मनोहारिणी, सुन्दरी । ' जग असि जुवति कहाँ कमनीया ।' मा० २.२४७.४
कमल : सं०पु ं० (सं०) । (१) पुष्पविशेष जो जल में होता है । (२) नीलकमल के सादृश्य से 'कृष्ण' के लिए भी प्रयोग हुआ है । 'तू जो हम आदर यो सो तौ नव कमल की कानि ।' कृ० ५२