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तुलसी शब्द-कोश
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छाउ : छाए+कए० (सं० छाद:>प्रा० छाओ>अ० छाउ)। आवरण, दुराव ।
'तिन न तज्यो छल छाउ ।' विन० १००८ छाए : भूक.पु. (सं० छादित>छाइय) ब०। (१) भर गये । 'आश्रम देखि नयन
जल छाए ।' मा० १.४६.६ (२) फैल गये, व्याप्त कर रहे। 'जथा जोगु जहं तहं सब छाए।' मा० १.६४.७ (३) परिपूर्ण हुए । 'सकल लोक सुख संपति छाए।' मा० १.१६०.६ (४) आवृत । 'मनहुं मनोहरता छबि छाए।' मा० १.२४१.१ (५) घेरे हुए । 'मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए।' मा० १.३२७.२ (६) रहे, विराजमान हुए । 'चित्रकूट रघुनंदनु छाए । मा० २.१३४.५ (७) छावनी डाल कर रहे । 'जनु भट बिलग-बिलग होइ छाए।' मा० ३.३८.४ (८) (छप्पर आदि) डाल कर बनाए। 'ताल समीप मुनिन्ह गृह
छाए।' मा० ३.४०.५ छाक : सं०स्त्री० (सं० चक्षा>प्रा० चक्खा)। तृप्तिकारी भोजन । 'बलदाऊ
देखियत दूरि ते आवति छाक पठाई मेरी मैया ।' कृ० १९ (सं० चक्षण दो अर्थ देता है-(१) भूख उद्दीप्त करने वाला खाद्य पदार्थ, चटनी आदि । इसी 'चखना' या 'चीखना' हिन्दी में चलता है जिसका 'चक तृप्ती' से भी सम्बन्ध है। (२) मदिरा पीने के साथ जो नमकीन आदि खाते हैं उसे भी 'चक्षण' कहा . गया है। इस 'चक्ख>छक्क>छाक' मद्य, मद्यपान तथा मद के अर्थों में
ब्रजभाषा में चलता है-'छाके' में इसी का प्रयोग है।) छाके : भूक०० ब० (दे० छाक) । नशे में धुत्त, मत्त, पान किये हुए । 'जाहिं सनेह
सुरा सब छाके ।' मा० २.२२५.३ छाछी : सं०स्त्री० । छाछ, दही का तोड़, तक्र । 'चहिअ, अमिअ जग जुरइ न छाछी।'
मा० १.८.७ छाज, छाजइ : (सं० छाद्यते-विराजते>प्रा० छज्जइ-सुशोभित होना, विराजना)
आ०प्रए । सोहता है, फबता है, फबती है। 'छोनी में के छोनीपति, छाजे जिन्हें
छत्र छाया ।' कवि० १.८ छाजति : वक०स्त्री० । सुशोभित होती । 'पीत दुकूल अधिक छबि छाजति ।' गी०
७.१७६ छाजा : छाजइ । फबता है । 'जो कछु करहिं उन्हहि सब छाजा ।' मा० ३.१७.१४ छाड़ : आ०-आज्ञा-मए । तू छोड़ दे। 'नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।' मा०
१.२८१.२ /छाड़, छाड़इ : (सं० छर्दयति-मुच्चति>प्रा० छड्डुइ-छोड़ना, फेंकना, बाहर
करना) आ०प्रए । छोड़ता या छोड़ती है (उगलती है) । 'छाड़इ स्वास कारि जनु सांपिनि ।' मा० २.१३.८