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तुलसी शब्दकोश
बात : (१) भूकृ०वि० (सं०) । उत्पन्न । जल जात आदि । (२) वकृ०० (सं०
यात्>प्रा० जंत) । जाता, जाते । 'होइहि जात गहरू अति भाई ।' मा० १.१३२.१ (३) सं०० (सं.)। समूह । एक बन बेगि ही उड़ाने जातु
धान-जात ।' गी० १.६७.२ जातक : सं०० (सं०) । शिशु । 'नेन सु खंजन जातक से ।' कवि० १.१ जातकरम : स०पु० (सं० जातकर्म)। षोडश संस्कारों में अन्यतम=पुत्र-जन्म
सम्बन्धी कर्णकाण्ड विशेष । मा० १.१६३ जातना : सं०स्त्री० (सं० यातना)। (१) यन्त्रणा, पीडा । 'जमजातना सरिस
संसारू ।' मा० २.६५.५ (२) नरक । 'उदर उदधि अधगो जातना।' मा० ६.१५.८ ('याचना' मूलत: यातित या चकता करने-निर्यातन-का अर्थ देता
है। पापों के भुगताक का मूल अर्थ है अतः 'नरक' का पर्याय-सा बन गया है।) जातरूप : सं०पू० (सं०) । सुवर्ण । मा० ७.२७.३ जातहिं : जाते ही । 'जातहिं नींद जुड़ाई होई ।' मा० १.३६.१ जातहि : जातहिं । 'जिन्ह जातहि जदुनाथ पढ़ाए।' कृ० ५० माता : जात । (१) दे० जल जाता । (२) 'चले मग जाता।' मा० २.२३४:४
(३) जाते हुए, जाते समय । 'सती दोख कौतुक मग जाता।' मा० १.५४.४ जाति, ती : संस्त्री० (सं० जाति)। (१) काव्य कल्पना विशेष जिसमें दोष न
होने पर भी दोष का आभास होता है । 'कवित गुन जाती।' मा० १.३७.८ (२) वर्ग विभाग । 'गनै को पार निसाचर जाती।' मा० १.१८१.३ (३) जन्म । 'अबला अबल सहज जड़ जाती ' मा० ७.११५.१६ (४) उत्तम जाति । 'सब जाति कुजाति भए भगता।' मा० ७.१०२.६ (५) (सं० ज्ञाति)। बन्धु वर्ग, सजातीय । 'जनक जाति अवलोकहिं कैसे।' मा० १.२४२.२ (६) वकृ० स्त्री० । जाती (है)। 'सोभा किमि कहि जाति ।' मा० १.२१३
(७) क्रियाति० स्त्री० । 'मनुज दसा कसें कहि जाती।' मा० १.३३८.३ जाति जन : स्वजातीय जन तथा ज्ञाति जन=बन्धु जन । मा० १.३०८ जाति पाँति : (दे० पांति) जाति तथा जेवनार की पंगत में स्थान । 'मेरें जाति
पांति न चहौं काहू की जाति-पाति ।' कवि० ७.१०७ (एक जाति होने पर भी
जेवनार की पांति में स्थान नहीं मिलता-अतः दोनों का युग्मक चलता है) जातुधान : सं०पू० (सं० यातुधान) । राक्षस (मायावी)। मा० ३.१८.३ जातुधाननि : जातुधान + संब० । राक्षसों। 'जातुधाननि सों रन भो।' गी०
जातुधानी : जातुधानी+बहु० । राक्षसियां । सुनत जातुधानी सब लागी करन
विषाद ।' मा० ६.१०८