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तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
प्रवाचक
जयाचार्य
आचार्य तुलसी
प्रधान सम्पादक
आचार्य महाप्रज्ञ
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संगठन की दृष्टि से सुदृढ़ संविधान आचार्य भिक्षु की अलौकिक देन है। यह संविधान उन्होंने उस वातावरण में दिया था जब सम-समायिक सम्प्रदायों में एक ही संघ में अनेक आचार्य हो जाते थे और आचार्य के अधीनस्थ साधु भी अपने अलग-अलग शिष्य बनाते थे, वैसी स्थिति में चालू प्रवाह को मोड़ देकर उन्होंने जो कार्य किया, वह इतिहास में अन्यत्र दुर्लभ है। छोटे से समूह में प्रारंभ किया हुआ वह प्रयोग आज लगभग ७०० साधु-साध्वियों में भी उसी प्रकार चल रहा है।
उस प्रयोग के विभिन्न बिन्दुओं से परिचित होने के लिए यह पुस्तक एक आदर्श का काम करेगी।
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तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
आचार्य भिक्षु निर्वाण द्विशताब्दी के उपलक्ष्य में
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जय वाङ्मयः ग्रन्थ- ९
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
प्रवाचक
युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी
प्रधान सम्पादक आचार्य श्री महाप्रज्ञ
सम्पादक
मुनि मधुकर
जैन विश्व भारती
लाडनूं (राजस्थान)
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प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान)
प्रबंधक-सम्पादक श्रीचंद रामपुरिया
ISBN--81-7195-098-1
सौजन्य : स्व. श्री रेखचंदजी सिंघी की
पुण्य स्मृति में उनके सुपुत्र
श्री पूनमचंद एवं सुपौत्र श्री किरण, प्रकाश, राजेश सिंघी
(श्रीडूंगरगढ़-जलगांव)
प्रथम संस्करण : १६६३ द्वितीय संस्करण : २००४
मूल्य : २५०/- (दो सौ पचास रुपया मात्र)
मुद्रक : कला भारती नवीन शहादरा, नई दिल्ली-३२
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प्रकाशकीय यह ग्रन्थ श्रीमद् जयाचार्य विरचित निम्न १० कृतियों का संग्रह है : . १-लिखतां री जोड़ २-गणपति सिखावण ३-शिक्षा री चोपी ४-उपदेश री चोपी ५-टहुका ६-मर्यादा मोच्छव री ढाळां ७-गण विशुद्धिकरण हाजरी ८-परंपरा री जोड़ ९-लघुरास १०-टाळोकरों की ढाळ
इन कृतियों का विस्तृत परिचय सम्पादकीय में दिया जा रहा है, अतः उनके विषय में यहां कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
श्रीमद्जयाचार्य का जन्म नाम जीतमलजी था। आपने अपनी कृतियों में अपना उपनाम 'जय' रखा इसलिए आप जयाचार्य के नाम से प्रख्यात हुए। आप जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य थे। आप की जन्म भूमि मारवाड़ का रोयट ग्राम था। आपका जन्म सं० १९६० की आश्विन शुक्ला १४ की रात्रि में कर्क लग्न में हुआ था। आप ओसवाल थे। गोत्र से गोलछा थे। आपके पिताश्री का नाम आईदानजी गोलछा और मातुश्री का नाम कल्लूजी था। आप तीन भाई थे। बड़े भाइयों के नाम क्रमशः सरूपचन्दजी और भीमराजजी थे।
आपके जेष्ठ भ्राता सरूपचन्दजी ने सं० १८६९ की पौष शुक्ला ९ के दिन साधुजीवन ग्रहण किया। आपने उसी वर्ष माघ कृष्णा ७ के दिन प्रवज्या ग्रहण की। दूसरे बड़े भाई भीमरामजी की दीक्षा आपके बाद फाल्गुन कृष्णा ११ के दिन सम्पन्न हुई और उसी दिन माता कल्लूजी ने भी दीक्षा ग्रहण की। इस तरह सं० १८६९ पोष शुक्ला ८ एवं फाल्गुन कृष्णा १२ की पौने दो माह की अवधि में माता सहित तीनों भाई द्वितीय आचार्य श्री भारमलजी के शासन-काल में दीक्षित हुए।
साधु-जीवन ग्रहण करते समय जयाचार्य नौ वर्ष के थे। दीक्षा के बाद आप शिक्षा के लिए मुनि हेमराज जी को सौंपे गये। वे ही आपके विद्या गुरु रहे।
आगे जाकर आप एक महान् अध्यात्मिक योगी, विश्रुत इतिहास-सर्जक, विचक्षण साहित्य-स्रष्टा एवं सहज प्रतिभा-सम्पन्न कवि सिद्ध हुए।
सं० १९०८ माघ कृष्ण १४ के दिन तृतीय आचार्य ऋषिराय का छोटी रावलिया
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गांव में देहान्त हुआ। आप चतुर्थ आचार्य हुए।
आचार्य ऋषिराय के देवलोक होने का समाचार माघ शुक्ला ८ के दिन बीदासर पहुंच, जहां आप विराज रहे थे। सं० १९०८ माघ शुक्ला १५ प्रातः काल पुष्य नक्षत्र के समय आप पदासीन हुए। पट्टोत्सव बड़े हर्ष के साथ मनाया गया। आचार्य ऋषिराय ने ६७ साधुओं एवं १४३ साध्वियों की धरोहर छोड़ी।
आपने जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य पद को ३० वर्षों तक सुशोभित किया। आपका स्वर्गवास सं० १९३८ की भाद्र कृष्ण १२ के दिन जयपुर में हुआ।
श्रीमज्जयाचार्य ने अपने जीवन-काल में लगभग साढ़े तीन लाख पद्य-परिणाम साहित्य की रचना की। जैन वाङ्मय के पंचम अंग 'भगवई' का आपका राजस्थानी पद्यानुवाद 'भगवती जोड़' राजस्थानी साहित्य का सबसे बड़ा ग्रन्थ माना जाता है। यह ५०१ विविध रागनियों में गेय गीतिकाओं में निबद्ध है। श्रीमद् जयाचार्य की साहित्यिक रुचि बहुविध थी। तेरापंथ धर्म संघ के संस्थापक आदि आचार्य श्रीमद् भिक्षु के बाद आपकी साहित्य-साधना बेजोड़ है। आप महान् तत्त्वज्ञानी थे। जन्मजात कुशल इतिहासलेखक थे। सजीव संस्मरणात्मक जीवन-चरित्र लिखने की आपकी प्रवीणता अनोखी थी। आप बड़े कुशल संघव्यवस्थापक और दूरदर्शी आचार्य थे। आपकी कृतियों का सौष्ठव, गांभीर्य एवं संगीतमयता-ये सब मनोमुग्धकारी है।
प्रस्तुत ग्रन्थ 'जय वाङ्मय' के ९वें ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित हो रहा है। यह ग्रन्थ जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ की मर्यादा एवं व्यवस्था विषयक श्रीमद् जयाचार्य की सर्व कृतियों का संग्रह है। इस में समाविष्ट कृतियां प्रथम बार ही प्रकाश में आ रही हैं, अतः यह संग्रह अपने आप में अपूर्व है। २६ नम्बर, १९८३
-श्रीचन्द रामपुरिया
द्वितीय संस्करण
जयाचार्य निर्वाण शताब्दी पर प्रकाशित इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का आचार्य भिक्षु निर्वाण द्विशताब्दी के अवसर पर पुनः प्रकाशन हो रहा है। प्रस्तुत द्वितीय संस्करण की निष्पत्ति में शासन-गौरव मुनि मधुकर जी का जो बहुमूल्य योग रहा है, उसके लिए हम उनके आभारी हैं। श्रद्धेय आचार्यवर एवं युवाचार्य वर को जलगांव मर्यादा महोत्सव पर यह ग्रंथ समर्पित कर जैन विश्व भारती परिवार प्रसन्नता की अनुभूति कर रहा है।
मंत्री भागचंद बरडिया
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सम्पादकीय आज से करीब ५७ वर्ष पूर्व जयपुर में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तेरापंथ धर्म संघ की व्यवस्था की परिचय पाकर अणुव्रत-अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी से कहा था-'महान् आश्चर्य है कि जिस समाजवादी व्यवस्था को हम देश में लाना चाहते हैं वह आपके श्रमण संघ में दो सौ वर्षों से चल रही है।' इस व्यवस्था का इतिहास भी बड़ा अनूठा है। इतिहास साक्षी है कि सामाजिक स्तर पर ऐसी व्यवस्था कभी नहीं रही जिसमें जीवनोपयोगी सभी साधन सब को समान रूप से उपलब्ध हुए हों और सब का पारस्परिक स्तर समान रहा हो, यद्यपि इस प्रकार की परिकल्पना तो अनेक बार होती रही है। अतीत में महान् दार्शनिक प्लेटो ने समाजवादी व्यवस्था का प्रतिपादन करते हुए अपनी 'रिपब्लिक' पुस्तक में ऐसे समाज की रूपरेखा प्रस्तुत की थी, लेकिन यह व्यवस्था अधिकार-सम्पन्न वर्ग के लिए ही थी। उसमें दासों के लिए शूद्र जैसा ही स्थान था। वे उस व्यवस्था से अछूते ही थे।
इससे पूर्व प्रिंस क्रोपोकिन आदि कुछ विचारकों ने सामाजिक स्तर पर कई बातें रखी थीं, किन्तु वे भी यथार्थ की अपेक्षा कल्पना पर ही आधारित थी अतः सामाजिक जीवन का माध्यम नहीं बन सकी थीं।
हां, जर्मन में मार्क्स ने जरूर एक योजना प्रस्तुत की थी जिसे वैज्ञानिक समाजवाद का नाम दिया गया, किन्तु वह भी वहां पर फलीभूत नहीं हो सकी।
यह भी एक आकस्मिक संयोग था कि ठीक इसी समय भारत के राजस्थान प्रान्त में समाजवादी व्यवस्था का सामूहिक प्रयोग श्रीमद् जयाचार्य ने अपने तेरापंथ संघ में प्रारम्भ किया।
अब से २४३ वर्ष पूर्व वि० स० १८१७ में आचार्य भिक्षु ने धार्मिक जगत् में एक नई क्रान्ति की थी। उस क्रान्ति के संवाहक के रूप में प्रारम्भ में १३ साधु तथा १३ ही श्रावक थे। उसी संख्या के आधार पर एक सेवक कवि के द्वारा इसका तेरापंथ नामकरण श्रवण कर आचार्य भिक्षु ने इसका अर्थ किया-'हे प्रभो ! यह तेरापंथ'- प्रभो ! यह तम्हारा पंथ हैं. हम तो इसके पथिक हैं। और उसी निश्चय के आधार पर उनके कदम मंजिल की ओर बढ़ चले। धीरे-धीरे विविधमुखी विरोधों के बावजूद परिस्थितियां बदली
और संगठन वृद्धिंगत होने लगा। तब दूरदर्शी आचार्य भिक्षु के मस्तिष्क में एक विचार कौंधा।
उन्होंने संगठन को अनुशासित एवं व्यवस्थित बनाने के लिए सर्वप्रथम सं० १८३२ मृगसर कृष्णा २ के दिन एक लिखित लिखा। लिखित क्यों लिखा, इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा-'मैंने यह उपक्रम शिष्यादिक के ममत्व-परिहार के लिए, संयमविशुद्धि के लिए तथा सभी अनुशासन एवं न्यायमार्ग पर चलते चलें, इसलिए किया है।'
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उस लिखित को तत्कालीन साधुओं को एकत्र कर सुनाया। सभी साधुओं ने सहर्ष इस पर सहमति प्रदान करते हुए अपने-अपने हस्ताक्षर कर दिए। वह हस्ताक्षरांकित पत्र आज भी हमारे संघीय पुस्तकागार में सुरक्षित है ।
इस प्रकार सामूहिक सहमति प्राप्त होने पर आपने उसे लिखित 'संविधान' का रूप दे दिया। उसके बाद समय-समय पर अनेक लिखित बने। सबसे अंतिम लिखित सं० १८५९ का है । वही तेरापंथ का मौलिक संविधान है। उसके आधार पर प्रति वर्ष मर्यादा महोत्सव मनाया जाता है। उसकी कुछ धाराएं ये हैं :
१. समस्त संघ एक आचार्य की आज्ञा में रहे ।
२. सभी साधु-साध्वियां विहार, चातुर्मास, आदि आचार्य की आज्ञा से करें।
३. दीक्षा आचार्य के नाम पर हो, कोई अपना शिष्य-शिष्या न बनायें ।
४. आचार्य योग्य व्यक्ति को ही दीक्षित करे। दीक्षित करने पर भी अयोग्य निकले तो उसे गण से अलग कर दे। दीक्षार्थी को नवपदार्थ का प्रारम्भिक ज्ञान अवश्य कराया जाये।
५. वर्तमान आचार्य अपने गुरु-भाई या शिष्य को उत्तराधिकारी नियुक्त करे तो समस्त संघ उसकी आज्ञा को सहर्ष शिरोधार्य करे।
६. संयोगवश एक या अधिक साधु संघ से पृथक् हो जाये तो उन्हें साधु न सरधा जाये और उनसे सम्पर्क न रखा जाये।
७. कर्मवश कोई संघ से पृथक् हो जाये तो संघ के साधु-साध्वियों के अंशमात्र भी अवर्णवाद न बोले ।
८. किसी भी साधु-साध्वी के प्रति शंका पैदा हो, उस ढंग से न बोले।
९ श्रद्धा, आचार या सिद्धान्त से सम्बन्धित कोई नया प्रश्न उठे तो आचार्य तथा बहुश्रुत साधु मिलकर विचार- पूर्वक उसका समाधान करें। अगर समाधान न बैठे तो उसे केवलीगम्य कर दें, पर अंशमात्र भी खींचतान न करें।
संगठन की दृष्टि से इतना सुदृढ़ संविधान आचार्य भिक्षु की अलौकिक देन है। यह संविधान उन्होंने उस वातावरण में दिया था जब सम-सामयिक सम्प्रदायों में एक ही संघ में अनेक आचार्य हो जाते थे और आचार्य के अधीनस्थ साधु भी अपने अलग-अलग शिष्य बनाते थे, वैसी स्थिति में चालू प्रवाह को मोड़ देकर उन्होंने जो कार्य किया, वह इतिहास में अन्यत्र दुर्लभ है। छोटे से समूह में प्रारम्भ किया हुआ वह प्रयोग आज लगभग ७०० साधु-साध्वियों में भी उसी प्रकार चल रहा है।
इस प्रयोग के ठीक एक शताब्दी बाद जयाचार्य ने इसे और अधिक विस्तार दिया। संविधान के अनुसार व्यक्तिगत शिष्य बनाने की प्रथा तो अपने आप समाप्त हो गई थी किन्तु व्यक्तिगत पुस्तकों की परम्परा चालू थी । अतः किसी के पास आवश्यकता से
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अधिक पुस्तकें थीं तो किसी के पास बिल्कुल ही नहीं। जयाचार्य के मन में यह बात अखरती थी अतः एक दिन आपने अग्रणी साधु-साध्वियों के सामने एक प्रश्न रखा-आप लोगों के साथ रहने वाले साधु-साध्वियां किसकी निश्रा में हैं ?
सभी ने एक स्वर में उत्तर दिया-आचार्य श्री की निश्रा में। तब आपने दूसरा प्रश्न किया-पुस्तकें किसकी निश्रा में है? सबने उत्तर दिया वे तो जिसके पास हैं, उसी की निश्रा में हैं। जयाचार्य-तब आप अपनी निश्रा की पुस्तकें दूसरे साधु-साध्वियों से कैसे उठवाते हैं ? अब से जो व्यक्तिगत पुस्तकें रखेगा, वह उनका भार स्वयं उठाएगा। अपने साथ वाले साधु-साध्वियों से नहीं।जयाचार्य की इस आकस्मिक घोषणा से सभी अग्रणी स्तब्ध हो गये। कुछ व्यक्तियों ने विनय-पूर्वक पूछा-गुरुदेव ! अकेले हम इतनी पुस्तकें कैसे उठायेंगे? आप आज्ञा दें, वैसे करें। तब जयाचार्य ने कहा-तो फिर संघ को समर्पित क्यों नहीं कर देते ? संघ अपने उसकी व्यवस्था करेगा।
उसी दिन से अनेक अग्रगण्य साधुओं ने अपनी-अपनी पुस्तकें लाकर जयाचार्य को तथा साध्वियों ने महासती सरदारांजी को सौंप दी। जयाचार्य ने उन सभी पुस्तकों को ग्रहण कर अपेक्षानुसार समर्पकों को देकर शेष पुस्तकें अन्य सिंघाड़ों में वितरित कर दी और एक मर्यादा बना दी कि अब सभी पुस्तकें संघ की होंगी। अतः चातुर्मास के बाद जब आचार्य के दर्शन करें, तब उन्हें वापिस सौंपना होगा। इसका फलित यह हुआ कि सामूहिक रूप से काम आने वाली सभी वस्तुओं पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं रहा।
दूसरा कदम था-श्रम संविभाग के संबंध में। प्रारम्भ से यह परम्परा चली आ रही थी कि कुछ सामूहिक कार्य दीक्षा-पर्याय में छोटे साधुओं को ही करने होते थे, भले ही वे वृद्ध क्यों न हों!
जयाचार्य ने उसको बदलकर उसके स्थान पर सभी सदस्यों के लिए श्रम करना अनिवार्य कर दिया।
इस प्रकार स्थान, आहार एवं धर्मोपकरण आदि किसी वस्तु पर किसी का व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं रहा, और एक धर्म सम्प्रदाय में अनायास ही एक ऐसी व्यवस्था का प्रादुर्भाव हो गया, जिसे समाजवाद के समकक्ष रखा जा सकता है।
समाजवादी व्यवस्था का प्रथम सूत्र है कि जीवन के साधनों पर किसी का व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होना चाहिए। वे समष्टिक हैं, उसी के रहें, उसके अंग रूप में समान रूप से आवश्यकतानुसार सब के काम आएं। कोई किसी से सम्पन्न या विपन्न नहीं रहे। तेरापंथ साधु संघ में आज लगभग सात सौ साधु-साध्वियां हैं, उनमें किसी का भी आवश्यक धर्मोपकरण, आहार एवं आवास पर कोई स्वामित्व नहीं हैं। वे अणगार हैं, उनका अपना कोई आवास नहीं है। जहां भी जाते हैं, किसी का आवास मांग कर उसकी अनुमति से अपने नियत समय तक रहते हैं। उठते हैं, सोते हैं। आवश्यकतानुसार वस्त्र
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याचित करते हैं। उसका भी संविभाग होता है। किसी के पास प्रमाण से अधिक वस्त्र नहीं हो सकता और दूसरे से कम भी नहीं। आहार भी गृहस्थों के यहां से माधुकरी वृत्ति से थोड़ा-थोड़ा अनेक घरों से याचित करते हैं ताकि किसी पर भार न पड़े। प्राप्त आहार का संविभाग होता है।
भगवान महावीर ने कहा-'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो'-असंविभाग को मोक्ष नहीं मिलता। संविभाग के इस नियम का तेरापंथ में दृढ़ता से पालन होता है।
तेरापंथ के साधु-साध्वी देश भर में विहरण एवं चातुर्मास प्रवास करते हैं। हर दल के साथ वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि धर्मोंपकरण होते हैं जो उसकी जीवनचर्यां के लिए आवश्यक होते हैं, लेकिन किसी का उन पर अधिकार नहीं होता। वे संघ के अधिकार में होते हैं। चातुर्मास एवं विहारोपरान्त आचार्य के उपपात में आने पर दल का अग्रणी सहवर्ती साधुओं को उनके साथ के समस्त धर्मोपकरणों को तथा स्वयं को भी आचार्य के चरणों में समर्पित कर कहता है-'गुरुदेव ! ये आपके साध-साध्वियां. ये धर्मोपकरण, पुस्तकें, पात्र-वस्त्रादिक और मैं स्वयं को आपके चरणों में उपस्थित करता हूं। अब आप जैसी आज्ञा देंगे, वैसा ही करूंगा।' यह समर्पण किसी व्यक्ति या व्यक्तियों का दूसरे व्यक्ति के आगे नहीं, व्यष्टि को है।
दल के अग्रणी का भी अपने सहवर्ती सन्तों पर कोई स्वामित्व नहीं। सब साधुसाध्वियां एक आचार्य के शिष्य हैं, परस्पर गुरुभाई हैं। कोई किसी को अपना शिष्य नहीं बना सकता। आचार्य को ही दीक्षा प्रदान करने का सर्वाधिकार है। आचार्य की आज्ञा से आवश्यकतानुसार कोई भी साधु-साध्वी दीक्षा दे सकते हैं। लेकिन शिष्य रूप में नहीं, अपने ही एक कनिष्ठ गुरु भाई के रूप में धर्म संघ के सदस्य के रूप में सबको समान अधिकार है। सत्ता का स्रोत आचार्य हैं. उसकी आज्ञा प्रधान है। उसके द्वारा नियक्त अग्रणी उसी की सत्ता का संवाहक होता है। संघ में किसी का किसी पर अधिकार नहीं है। सब अन्ततः एकमेव आचार्य को, धर्म संघ को ही समर्पित है। अपनी व्यक्तिगत सत्ता का सम्पूर्ण विसर्जन समाजवादी व्यवस्था की अनिवार्य शर्त है, जिसका श्रेष्ठतम रूप तेरापंथ धर्म संघ में मिलता है।
विषमता का एक स्रोत पद होता है। तेरापंथ में कार्य का सम्यक् विभाजन है, उत्तरदायित्व का वितरण है, किन्तु पदों की व्यवस्था नहीं है। आचार्य स्वयं ही अपने उत्तराधिकारी को मनोनीत करता है जो उसके बाद अपना पद ग्रहण करता है। पद के लिए कोई उम्मीदवार नहीं हो सकता। धर्म संघ की व्यवस्था इतनी समतामूलक है कि विशेषाधिकार एवं पद का यहां अस्तित्व ही नहीं है। सेवा के लिए यहां भरपूर स्थान है, सत्ता के लिए किंचित भी नहीं । सेवा सब के लिए अनिवार्य है। रुग्ण एवं ग्लान साधुसाध्वियों की सेवा का दायित्व सब पर है, उसमें किसी को किसी भी आधार पर मुक्ति
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नहीं है। सेवा एवं परिचर्या का दायित्व साधु-साध्वियां सहर्ष ग्रहण करते हैं। वृद्ध, अक्षम एवं रुग्ण साधु-साध्वियों के लिए स्वास्थ्य लाभ एवं सेवा का केन्द्र है जहां उनकी परिचर्या नियमित रूप से होती है। किसी भी सामाजिक व्यवस्था में रुग्ण एवं अक्षम व्यक्तियों के लिए इतनी सुचारु एवं व्यापक व्यवस्था मिलनी दुर्लभ ही होगी।
इन सभी व्यवस्थाओं को जमाने में जयाचार्य की क्रान्तदर्शी मेधा का महान् योगदान है। आपने आचार्य श्री भिक्षु द्वारा निर्मित मर्यादाओं को व्यवहारिक रूप देने के लिए समय-समय पर अनेक आयामों को मूर्त रूप दिया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में मर्यादा और व्यवस्था से संबंधित आपकी ऐसी ही १० कृतियां संकलित की गई हैं।
१. लिखतां री जोड़ २. गणपति सिखावण ३. शिक्षा री चौपी ४. उपदेश री चौपी ५. टहुका ६. मर्यादा मोच्छव री ढाळां ७. गण विशुद्धिकरण हाजरी ८. परंपरा री जोड़ ९. लघु रास १०. टाळोकरों री ढाळ। इन कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
१. लिखता री जोड़
तेरापंथ के प्रथमाचार्य श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने अपनी पैनी दृष्टि से संघ सुरक्षा के लिए समय-समय पर अनेक मर्यादाओं का निर्माण किया और संबंधित व्यक्तियों को सुनाकर उनकी मौखिक ही नहीं, लिखित सहमति भी प्राप्त की। इसलिए राजस्थानी भाषा में इन मर्यादाओं को ‘लिखित' नाम से अभिहित किया गया। श्रीमज्जयाचार्य ने उन लिखितों की सुरक्षा तथा वे संघ के सदस्यों की स्मृति में सहज रूप से रह सकें इस दृष्टि से उन्हें पद्य-बद्ध कर दिया। इस कृति में स्वामीजी के १० लिखितों का पद्यानुवाद है, जिसमें दो लिखित व्यक्तिगत हैं, एक मुनि अखेराम जी के लिए तथा दूसरा साध्वी फत्तूजी के लिए। शेष आठ में कई साध्वियों के लिए, कई साधुओं के लिए तथा कई साधुसाध्वियां दोनों के लिए हैं, जिन्हें १९ गीतिकाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं-इस ग्रन्थ में ढालों का क्रम लिखितों की रचना संवत् के क्रम से था। तदनुसार व्यक्तिगत लिखित पहले आते थे। पर लिखितों की सामूहिकता
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और मौलिकता को ध्यान में रखते हुए संपादन के समय उस क्रम में कुछ परिवर्तन किया गया है। इसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
___ ढाळ प्रथम-इसमें ३९ पद्य हैं। इसकी रचना सं० १९११ ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में बुधवार के दिन हुई है। स्थान का उल्लेख नहीं है। इसमें मुनि भारमलजी (द्वितीयाचार्य) के सं० १९३२ मृगसर कृष्णा ७ के दिन उत्तराधिकार पत्र के रूप में लिखे गए नियुक्ति पत्र का अनुवाद है। साधु-साध्वियों के लिए सामूहिक रूप से लिखा गया स्वामीजी का यह प्रथम लिखित है। तत्कालीन सभी साधुओं की सहमति से इसे लिखा गया है। यह लिखित हमारे संगठन का प्रथम मौलिक संविधान है। इसके माध्यम से संयम साधना में बाधक तत्त्वों के निरसन की व्यवस्था, विनय-मूल धर्म की प्रतिष्ठा तथा सभी को न्याय मिल सके, ऐसे उपायों का दिग्दर्शन है।
___ ढाळ २-३१ गाथाओं वाली इस ढाळ की रचना सं० १९१४ कार्तिक क० ११ बीदासर में हई है। इसमें सभी साध्वियों के लिए सं०१/32ज्येष्ठ शक्ला के दिन किए गए लिखित का अनुवाद है। यह पारस्परिक व्यवहार में होने वाली त्रुटियों के निरसन के लिए अच्छे पथ-प्रदर्शन का सा काम करती है।
ढाळ २-२३ गाथाओं वाली इस ढाळ की रचना सं० १९१४ फा. कृ. १३ बीदासर में हुई है। इसमें संवत् १८४१ चैत्र कृष्ण १३ के दिन साधुओं के लिये बनाए गये लिखित का अनुवाद है। इसमें दोषों के प्रतिकार के विभिन्न सूत्रों की ओर इंगित किया गया है।
ढाळ ४.५-११और ३५ गाथाओं वाली इन दोनों ढाळों की रचना एक ही दिन में स. १९१४ फा. शुक्ला १ बीदासर में हुई है। इसमें सं० १८४५ जे. शुक्ला १ के दिन लिखे गए लिखित का अनुवाद है। संघ का कोई साधु अस्वस्थ या अचक्षु हो जाए, वैसी स्थिति में प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य हो जाता है कि वह उसकी अग्लान भाव से सेवा करे, उसका वैराग्य और समाधि बढ़े वैसा कार्य करे। उसे अक्षम और रुग्ण समझ कर
१. ऋष भीखण सर्व साधां भणी, पूछी धर अहलाद। सर्व साधु साधवियां तणी, बांधी वर मरजाद
(ढाल १, गाथा १६) २. तिण सूं ममत शिखादिक तणी, मिटावण तणों उपाय।
चारित्र चोखो पाळण तणों, उपाय कियो सुखदाय।। विनय मूळ ए धर्म नै, न्याय मार्ग चालण रो उपाय।।
(ढाल १, गा० १२,१३) ३. संवत् अठार चोतीस में, समणी नो सुखकार भिक्षु लिखत कियो भलो, निसुणो सह नर नार।।
(ढाल०२। गा०१)
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संलेखणा (अंत समय की तपस्या) करने की भी प्रेरणा न दे। विहार के समय उसका वजन ले तथा अन्य अपेक्षाओं को पूरा करे ताकि किसी भी स्थिति में साधुत्व के प्रति उसके परिणामों में उच्चावच भाव न आए।
ढाळ ६,७-छठी ढाळ में ४४ पद हैं। इसकी सं० १८१४ कार्तिक शुक्ला १४ बीदासर में हुई है। ७ वीं ढाळ में ३५ पद्य हैं, इसकी रचना १९१४ पोष शुक्ला ४ को चूरू में हुई है। दोनों ढाळों में सं० १८५० मा. कृ. १० के दिन साधुओं के लिये किए गए लिखित का अनुवाद है।
ढाळ ८ से ११-८ वीं ढाळ से ११ वीं ढाळ की रचना सं. १९१४ में क्रमशः चैत्र कृष्णा ६, बैसाख कृष्णा ३, बै. कृष्णा ४ तथा बै. कृष्णा ७ के दिन सुजानगढ़ में हुई।
इनमें साध्वियों के लिये सं. १८५२ का. कृ. १४ के दिन बनाए गए लिखित का अनुवाद है। इसमें साधुत्व के प्रति आस्था, पारस्परिक विश्वास, साधु-साध्वियों के गांव में रहने की स्थिति में व्यवस्था तथा ढीठ प्रकृति वाली आर्याओं के लिये बनाई गई विशेष मर्यादाओं का विवेचन है। इन ढाळों में क्रमशः १८, १९,२४ और ३६ पद्य हैं।
ढाळ १२ से १६-इन पांचों ढाळों में सं० १८५९ में बनाए गए लिखित का अनुवाद है। इनका रचना-काल, स्थान तथा पद्य संख्या इस प्रकार है :
१२- १९१४ बै० कृ० १० सुजानगढ़। पद्य-१४ १३
बै० कृ० १४ " । पद्य-१७ १४
पद्य-१३ १५
बै० शु० ४ लाडनूं । पद्य-२२ १६
जेठ कृ० ८ " । पद्य-३७
मा० शु० ६ रतनगढ़ । पद्य-३५ इसमें आचार्य श्री भिक्षु द्वारा सं० १८२९ फा० शु० १२ 'बूसी' गांव में मुनि अखेरामजी (लोहावट) के लिए व्यक्तिगत रूप में किए गए लिखित का अनुवाद है।
मुनि अखेरामजी दीक्षित होने के कुछ वर्षों बाद कई कारणों से संघ से अलग हो
१. कारणिक जाणो, आख्यादिक गरढ़ गिलाणो, जद और साध अगिलाणो।
वियावच करणी हित ल्याई।। उण नैं संलेखणा केरी, ताकीदी नहिं देणी छै निज तन मन नै धैरी। वधै वेरागो, करणो तिण रीत सुमागो, अति आणी हरख अथागो।।
वियावच करणी हित ल्याई।। रोगियो होवै तो तायो, उण रो बोझ उपाड़णो उणरा चढ़ता परिणामों। रहे ज्यूं करणो, उण में जाणो सुध चरणो, तसु छेह दे ना परहरणो।।
पवर ए रीत सुगण भाई॥
ढाळ ४, गा०२,३,४
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गये, पर कई दिनों बाद विचारों में परिवर्तन होने से पुनः संघ में आने के लिए प्रयास करने लगे। आचार्य भिक्षु उन्हें पूरा विश्वास होने होने के बाद ही वापस लेना चाहते थे। अतः उक्त लिखित की रचना हुई। मुनि अखेरामजी ने सभी उल्लिखित शर्तों को हस्ताक्षर पूर्व स्वीकृत किया तब उन्हें संघ में सम्मिलित किया गया।
ढाळ १८–इसमें ६८ पद्य हैं। इसकी रचना १९१४ फा० कृ० ८ बीदासर में हुई । फत्तूजी आदि ४ साध्वियां अन्य सम्प्रदाय से भैक्षव गण में आने के लिए तैयार हुईं। दीक्षित करने से पूर्व स्वामीजी ने उनकी कसौटी करने की दृष्टि से आचार-विचार से संबंधित विशेष शिक्षाएं प्रदान की और कुछ बन्दोबस्त किए। यह सं० १८३३ मिगसर कृष्णा २ के दिन लिखे गए उस लिखित का अनुवाद है।
ढाळ १९ - इसमें ३० पद्य हैं। इसमें उक्त सभी लिखितों का संक्षिप्तीकरण निचोड़ प्रस्तुत किया गया है ।
२. गणपति सिखावण
गणपति सिखावण कृति कलेवर की दृष्टि से छोटी होते हुए भी भावों की दृष्टि से अलौकिक और अद्वितीय है। इसकी रचना मुख्य रूप से युवाचार्य श्री मघराजजी को माध्यम बनाकर की गई है, किन्तु अनागत सभी आचार्यों के लिए भी वह दिशा दर्शक है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख है
" पद युवराज शिष्य मघराज भणीं ए शिक्षा सारो ।
बले अनागत गणपति है, तसु एहिज सीख उदारी । "
इसमें आचार्य को अपने कर्तव्य के प्रति सजग करते हुए संघ संबंधी छोटी से छोटी प्रवृत्ति पर भी विशेष ध्यान रखने की प्रेरणा दी है और गणवृद्धि की दृष्टि से ऐसे अनेक तथ्यों की ओर इंगित किया गया है जो बड़े मनोवैज्ञानिक और मनन करने योग्य हैं। इन तथ्यों के पीछे जयाचार्य के अनुभव बोल रहे हैं। इसकी रचना सं० १९२० चूरू चातुर्मास हुई है। इसमें ८७ पद्य हैं।
३. शिक्षा की चौपी
संघ की व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से संचालित करने की दृष्टि से श्रीमज्जयाचार्य ने समय-समय पर विभिन्न विषयों पर महत्त्वपूर्ण शिक्षाएं प्रदान की हैं। इसमें संगीत के माध्यम से मनोवैज्ञानिक एवं तार्किक पद्धति से जिस प्रकार अनेक तत्त्वों को हृदयंगम कराने का प्रयास किया गया है, वह अपने ढंग का अनूठा एवं नई स्फूर्ति भरने वाला है । कई स्थलों को पढ़ते समय तो ऐसा लगता है, मानों हम कोई चलचित्र देख रहे हैं।
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'खोड़ीली प्रकृति' और 'चोखी प्रकृति' शीर्षक ढालों में सुविनीत और अविनीत व्यक्ति की प्रकृति का सूक्ष्म चित्रण इसका जीता-जागता उदाहरण है। इसी प्रकार चवदहवीं ढाल में गुरु-शिष्य संवाद के रूप में कुछ जीवन व्यवहारोपयोगी प्रश्नों को उभार कर जिस प्रकार समाधान प्रस्तुत किया गया है उसे पढ़कर हृदय गद्गद् हुए बिना नहीं रहता।
सुविनीत और अविनीत के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कुछ पद्य लिखे गए हैं वे नई उपमाओं से उपमित होकर इतने सरस बन गए हैं कि उन्हें पढ़ने में सूक्तियों का सा आनन्द आता है। नमूने के तौर पर तीन पद्य प्रस्तुत हैं
काच भाजन अविनीतडो, कहो चोटां खमै केम। सहै चोटां तो वनीत ही, के हीरा के हेम।
(ढाळ १९ गा० ७) कांच के बर्तन पर कोई चोट लगाए तो वह सहन नहीं कर सकता, फूट जाता है। किन्तु स्वर्ण और हीरा चोटें खाकर दुगुनी चमक के साथ सामने आता है। इसी प्रकार सद्गुरु की शिक्षा रूपी चोट से अविनीत दुःख पाता है और सुविनीत मुस्कराता है।
अवनीत गोळो मैण नों, तप्त गळे तत्काळ। सुविनीत गोळौ गार नों, ज्यूं धमैं ज्यूं लाल।।
(ढाळ १९ गा० ८) मोम का गोला अग्नि का ताप लगते ही पिघल जाता है किन्तु मिट्टी के गोले को जितना अधिक ताप लगता है उतना ही मजबूत होता है। यही स्थिति अविनीत और सुविनीत की है।
अविनीत वृक्ष एरंडियो, अस्थिर ते करै कोप। सुविनीत कल्पतरु समौ, विनय नों वगतर टोप॥
(ढाळ १९ गा० १९) अविनीत एरंड वृक्ष की तरह थोड़ा सा हवा का झोंका लगते ही अस्थिर हो जाता है किन्तु विनयी सुविनीत कल्पवृक्ष की तरह अडिग एवं मनमोहक होता है।
इसमें ३२ ढालें हैं निजमें ७१५ पद्य हैं। इसकी पहली ढाल की रचना सं० १९१२ मृ० कृ० १० तथा २३ वीं ढाल की रचना सं० १९३७ फा० शु० ४ की है। कुछ ढालों में रचना-समय का उल्लेख नहीं हैं। इस कृति की रचना एक साथ न होकर आवश्यकतानुसार समय-समय पर हुई है। बाद में सब को संकलित कर एक रूप दिया गया है।
इस कृति का संक्षिप्त विषय-क्रम इस प्रकार हैढाल १ अनुशासन की आराधना क्यों और कैसे ? " २ क्षुद्र प्रकृति वाले व्यक्ति का चित्रण। " ३ अच्छी प्रकृति वाले व्यक्ति का चित्रण
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४ आचार्य के प्रति शिष्यों का कर्तव्य ५ सुविनीत कौन? ६ मर्यादा-विवेक ७ साध्वियों को शिक्षा ८ साधुओं को शिक्षा ९ चारित्र रत्न की निर्मलता के लिए कुछ सूत्र १० अविनीत-सुविनीत परीक्षण ११ मर्यादा विवरण १२ परिचय (स्नेह राग) परिहरण शिक्षा १३ टालोकर (बहिर्भूत व्यक्ति) को शिक्षा १४ गुरु-शिष्य संवाद १५ सामूहिक शिक्षा मर्यादाओं के सन्दर्भ में १६ सुख, प्रकृति-परिवर्तन से १७ दलबन्दी के दुष्परिणाम १८, १९ सुविनीत प्रशंसा २० संविभाग के गुण-दोष २२ भिक्षु गण नन्दन-वन २३ टालोकर प्रकृति चित्रण २४, २५ संघ स्तवना २६ संघ में रहते हुए दोषों का प्रायश्चित्त कैसे और कितना? २७ उच्चता की परख २८ दुष्कर्मों का दुष्परिणाम २९ ईर्ष्या परिहारिणी शिक्षा ३० गुण प्रशंसा ३१ साधक प्रशंसा २३,३३ संयम शिक्षा
४. उपदेश री चौपी ___इस कृति में उपदेशात्मक विविध विषयों पर १५ ढालें हैं, जिनके २५३ पद्य हैं। अन्त में गीता के १२ वें अध्याय के कुछ श्लोकों का अनुवाद है। कई ढालों के अंत में नाम तथा रचना-संवत, स्थान आदि का उल्लेख नहीं है। इसमें कुछ पद्य इतने मार्मिक हैं कि सीधी चोट करते हैं प्रमादी व्यक्ति को चेतावनी के कुछ पद्यों का हार्द इस प्रकार है
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बड़ा आश्चर्य है कि रोग, जरा और मरण जैसे तीन-तीन भीषण शत्रु तुम्हारे पीछे चले आ रहे हैं। यह तो इनसे छुटकारा पाने के लिए पलायन का अवसर है, फिर भी अरे मूर्ख ! तुम सोए पड़े हो?
• चांद और सूरज दो बैल हैं, दिन और रात्रि घड़माल हैं। जलरूपी आयु कम होता ___ जा रहा है। यह मृत्यु एक विकराल रेहट है।'
ढाल दूसरी में-सुमति और कुमति का पार्थक्य दिखलाने की दृष्टि से देवरानी और जेठानी का रूपक अपने ढंग का एक नया उपक्रम है।
सुपात्र और कुपात्र के नीर क्षीर विवेक संबंधी कुछ पद्यों का निष्कर्ष इस प्रकार है० तैल ज्यादा होने पर मिट्टी में नहीं डाला जाता। बीज बहुत होने पर ऊषर में नहीं
बोए जाते। • सोना अधिक है, इसलिए क्या कोई बेड़ी बनाएगा? दूध है, इसलिए क्या कोई
सर्प को पिलाएगा? ० हाथी अधिक हैं तो क्या उन्हें कोई भार ढोने में काम लेगा ? धन बहुत है तो क्या
कोई कुपात्र पोषा जाएगा?३
धर्म वहां होता है जहां विवेक है। विवेक के बिना केवल धार्मिक कहलाने वाला मजाक का पात्र बनता है। इसी तथ्य का द्योतक एक बहन को संबोधित कर लिखा गया व्यंग्य कितना मार्मिक है :
१. ० तीन अरि लारै लग्या, रोग जरा मरण जान।
इण न्हासण रै अवसरे, क्यूं सूतो मूढ़ अयाण॥ ० बळद जेम चन्द सूर छै, दिवस रात्रि घड़माळ।
जळ आयु ओछो करै, ए काळ रेंट विकराळ।
उपदेश री चौपी, ढाळ २, गा० १-५ ३. जो तेल घणो तो. बेल माही न ढोलै।
बह बीज हवै तो, उषर में न झकोलै। घणो स्वर्ण हुवै तो, सांकल केम करावै। बहु दूध हुवै तो सर्प भणी किम पावै।। घणा गजेन्द्र हुवै तो, भार अर्थ स्यूं वावै तिम धन बहु है तो, किम कुपात्र पोषावै।। (ढाल ५, गा० २,३,४) ० कजिया झगड़ा राड, करवा तीखी घणी. महडे मंहपति बांध. बाजे बाई समझणी। ० गाळ्यां-गीत सराप, निन्दा करै पर तणी, पर नां मर्म प्रकाश, बाजे बाई समझणी। ० बाह्य क्रिया देखाय, फिरे श्रावका वणी, अन्तर कपट विशेष, बाजे बाई समझणी। ० नवकरवाळी हाथ, कै ली निन्द्या तणी, अहो निश पर नी बात, बाजे बाई समझणी।
(ढाळ १४, गा० १,५,६,१४)
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बहिन समझदार कहलाती है, पर ० मुंह पर मुख-वस्त्रिका बांध कर भी लड़ाई झगड़ा करने में बहुत तेज है, गालियों
के गीत गाती है, अभिशाप देती है तथा दूसरों की निन्दा एवं मर्म प्रकाश करती
है, फिर भी समझदार कहलाती है! ० केवल बाह्याचार करके श्राविका बन जाती है, पर भीतर में कपट चलता है, फिर . भी समझदार कहलाती है! ० हाथ में निन्दा की माला (नवकरवाली) है तथा रात-दिन दूसरों की बात करती
है फिर भी समझदार कहलाती है! इस प्रकार 'उपदेश री चौपी' में स्थान-स्थान पर सांसारिक सुखों की नश्वरता तथा दुष्कर्मों के परिणामों के हृदयस्पर्शी विवेचन से अध्यात्म की ओर मोड़ने का अभिनन्दनीय प्रयास है।
५. टहुका
टहुका राजस्थानी भाषा में कोयल की 'कुहुक' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। मधुर होने के कारण 'कुहुक' की तरफ हर व्यक्ति सहजतया आकृष्ट हो जाता है। उसी आकर्षण-शक्ति की समान-धर्मिता को ध्यान में रखते हुए श्रीमज्जयाचार्य ने इस रचना का नाम 'टहुका' दिया है, ऐसा लगता है।
श्रीमज्जयाचार्य व्यवस्था-कुशल आचार्य थे। उन्होंने अपने जीवन-काल में इस दृष्टि से अनेक प्रयोग किए। उन प्रयोगों को सर्वसाधारण के गले उतारने के लिए आवश्यक था कि उसके संबंध में बार-बार चेतावनी दी जाए। 'टहुका' उसी श्रेणी का एक प्रयोग है। इसमें भोजन, पानी-वजन तथा सेवा आदि के संबंध में की गई व्यवस्थाओं
और संविभाग में निष्ठा पैदा करने के लिए आवश्यक निर्देश (Suggestion) हैं खाली पेट वे अच्छे ढंग से हृदयंगम हो सकते हैं। इसलिए प्रतिदिन भोजन के लिए बैठते समय इसका अनिवार्य रूप से वाचन किया जाता था। यह क्रम काफी दिनों तक चला। बाद में व्यवस्था जम जाने पर बन्द कर दिया गया।
राजस्थानी गद्य में यह 'टहुका' वि० सं० १९११ बै० शुक्ला १० गुरुवार के दिन लिखा गया। इसके साथ कुछ धाराएं १९११ चैत मास की भी जोड़ी गई है।
६. मर्यादा मोच्छव री ढाळां
शीतकाल का समय हमारे धर्मसंघ की भावी नीति-निर्धारण का एक महत्त्वपूर्ण समय होता है। इस अवसर पर दूर-दूर से समागत साधु-साध्वी वृन्द के वार्षिक-विवरण
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पद्य
का लेखा-जोखा सामने आता है। उसके आधार पर आचार्य संघ की सारणा-वारणा करते हैं। विविध विषयों पर चिन्तन मनन और शिक्षा गोष्ठियां चलती है तथा मर्यादामहोत्सव (माघ शुक्ला सप्तमी) के दिन आचार्य एक-एक अग्रणी को संबोधन-पूर्वक अग्रिम विहार का निर्देश देते हैं। इसी दिन आचार्य भिक्षु द्वारा लिखित मर्यादा-पत्र का वाचन होता है। आचार्य नवनिर्मित गीतिका के माध्यम से उसका हार्द समझाते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में जयाचार्य द्वारा लिखित मर्यादा-महोत्सव की ८ ढालें हैं। ...।
रचना संवत् १९१५ मा० शु०१ १९२१ १९२२ मा० शु०६ १९२३ मा० शु०६ १९२४ मा० शु०६ १९२६ मा० शु०६ . १९२९ मा० शु०७
२४ १९३० मा० शु०७
१८ मर्यादा-महोत्सव की इस कड़ी में प्रति वर्ष के क्रम से कुछ और ढालें होनी चाहिए, पर मुझे नहीं मिली है।
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७. गणविशुद्धिकरण हाजरी
स्वामी भीखणजी ने अपने जीवन-काल में जो मर्यादाएं बनाई थीं, उनको जयाचार्य ने विभिन्न वर्गों में संकलित कर उनका विस्तृत भाष्य करते हुए एक शिक्षात्मक ग्रन्थ बना दिया। संघ विशुद्धि को दृष्टि से उसका बड़ा महत्त्व था। अतः सभी साधु-साध्वियों की हाजरी (उपस्थिति) में वह सुनाया जाने लगा। इसीलिए उसका नाम पड़ गया 'गणविशुद्धिकरण हाजरी'। बाद में संक्षिप्त रूप में मात्र ‘हाजरी' नाम ही रह गया। वे हाजरियां २८ हैं। उनमें स्वामीजी द्वारा लिखित मर्यादाओं के अंश यथाप्रकरण उद्धृत किए गए हैं। इस दृष्टि से उन्हें शिक्षा और मर्यादाओं का सुन्दर सम्मिश्रण कहा जा सकता है।
संघ में साधु-साध्वियों को किस प्रकार रहना चाहिए, संघ और संघपति के साथ उनका कैसा संबंध होना चाहिए, शासन-हितैषियों को टाळोकरों का ससंर्ग क्यों वर्जित करना चाहिए आदि संघीय जीवन की अनेक आवश्यक सूचनाओं तथा शिक्षाओं से गृहस्थों को भी परिचित रखना आवश्यक होता है। हाजरियों द्वारा यह कार्य सुचारू रूप
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से सहज ही सम्पन्न किया जा सकता है।
हाजरी का प्रारम्भ संवत् १९१० पो० कृ० ९ शनिवार के दिन बड़ी रावलिया (राज०) में हुआ था और उस समय प्रतिदिन के क्रम से ये सभी हाजरियां एक महीने में सुनाई जाती थीं। इनका ग्रन्थाग्र ३२८७ है।
८. परम्परा री जोड़
किसी भी व्यवस्था को लम्बे काल एक व्यवस्थित रखने के लिए विधि-विधानों की अत्यन्त अपेक्षा रहती है। उनके बिना सामुदायिक जीवन में पग-पग पर अव्यवस्था का खतरा बना रहता है। इस खतरे से बचने के लिए ही भगवान महावीर से लेकर अब तक अनेक नियमों की संरचना हुई है। छेद सूत्र को इसी कोटि में ले सकते हैं । सामयिक परिस्थितियों के संदर्भ में कई नए प्रश्न भी उठ खड़े होते हैं, जिनके संबंध में आगम मौन है। वैसी स्थिति में स्पष्ट उल्लेख न होने से उन्हें सुलझाने के लिए पूर्व परम्परा की ओर झांकना पड़ता है।
प्रस्तुत कृति ऐसे ही अनेक प्रश्नों का समुचित समाधान प्रस्तुत करती है। इसका संक्षिप्त विषयानुक्रम इस प्रकार है। कृति के प्रारंभ में जीत व्यवहार अर्थात् आचार्य द्वारा निर्णीत परम्परा को पुष्ट करते हुए स्थानांग व्यवहार तथा भगवती सूत्र के प्रकरणों को उदधत कर स्पष्ट किया है।
बुद्धिमान आचार्य पांच व्यवहारों के आधार पर शुद्ध नीति से जो निर्देश देते हैं उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाला श्रमण आराधक होता है। ढाल १ नित्यपिंड आहार कैसी स्थिति में कब लिया जा सकता है?
एक घर में अनेक बार गोचरी की जा सकती है। ढाल २ शास्त्रीय अनेक बातों का सप्रमाण स्पष्टीकरण। ढाल ३ टालोकर रूपचन्दजी और अखेरामजी द्वारा उठाए गए १५९ बोलों में से
कुछ बोलों का स्पष्टीकरण। ढाल ४ तथा ५ गोचरी संबंधी कल्पाकल्प व्यवस्थाओं का निराकरण। ढाल ६ दायक (दाता) और देय (वस्तु) का शुद्धाशुद्धि विवेक। ढाल ७ साधु कौन-कौन सी वस्तु अपने हाथ से ले सकता है और कौन-कौन सी
नहीं ले सकता? आदि आदि। रचना संवत् तथा पद्य-परिमाण। ढाल १ सं० १९१४ बै० कृ० ९, लाडनूं " २ सं० १९१५ मृ० कृ०८ " ३ सं० १९१५ मृ० शु०३
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" ४ सं० १९१५ फा० कृ० ३, लाडनूं " ५,६ सं. १९१६ मा० कृ०८, लाडनूं
लाडनूं इन सातों ढालों में ३३ दोहे, ३८१ गाथा, तथा २२ पद्य-परिमाण वार्तिका है। इसका समग्र ग्रन्थाग्र ४३६ है।
९. लघुरास
जयाचार्य की कृतियों में 'लधुरास' का अपना स्वतन्त्र महत्त्व है। तत्कालीन ६ बहिर्भूत साधुओं (१ चतुर्भुजजी, २ कपूरजी, ३ जीवोजी, ४ संतोजी, ५ छोगजी, ६किस्तूरजी) से संबंधित विभिन्न तथ्यों का सुन्दर विश्लेषण इस कृति में हुआ है। कुछ तथ्य तो इतने समीचीन चित्रित हुए हैं कि आज भी उनकी पुनरावृत्ति तदनुरूप देखी जाती है। इस रास की मुख्य ढाल एक ही है। बीच में आचार्य भिक्षु और मुनि हंसराजजी की ढालों को अन्तरढाल के रूप में उद्धृत किया गया है। इस रास में १४४० पद्य हैं। प्रारंभिक १२२६ पद्यों की रचना वि० सं० १९२३ बैशाख शुक्ला ८ के दिन हुई है। स्थान का नाम नहीं दिया गया है।
जयाचार्य ने अपने सहज शब्दों में संघ से बहिर्भूत व्यक्तियों की विचारधारा का जो चित्र खींचा है, वह वास्तव में ही अनूठा और मनोवैज्ञानिक है। बहिर्भूत साधु पग-पग पर स्खलित होता है। उसकी मानसिक और वाचिक वृत्तियां कितनी अस्थिर होती है ? समय-समय पर वह किस प्रकार आत्मवञ्चना और वाबिडम्बना करता है? अपने स्वार्थों की अप्राप्ति में अधीर होकर वह किस प्रकार संघ और शास्ता पर झूठे दोषारोपण करता है ? छिपे-छिपे संघ के साधुओं में मनोभेद पैदा करने के लिए वह कितनी कुटिल प्रवंचनाएं रचता है ? आदि समस्त तथ्यों का सूक्ष्मतापूर्वक यथार्थ विश्लेषण प्रस्तुत कृति में किया गया है। १०. टाळोकरों की ढाळ
___ आचार्य श्री भिक्षु ने संघ के साधु-साध्वियों के लिए जहां व्यवस्था की है, वहां उन्होंने संघ से बहिष्कृत या बहिर्भूत व्यक्तियों के लिए भी कई मर्यादाएं और कुछ मौलिक सुझाव प्रस्तुत किए हैं। साधारणतया देखा जाता है कि गण से बहिष्कृत व्यक्ति अपने दोषों को न देखकर संघ में ही दोष निकालने का प्रयास करता है। पर क्या नींव के बिना भी कभी मकान खडा रह सकता है ? वातुल आते समय कितना तेज आता है पर उसकी यह स्थिति कितनी देर रहती है, यह सभी जानते हैं।
प्रस्तुत कृति में टालोकरों से संबंधित मर्यादाओं का विश्लेषण तथा उनके द्वारा
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होने वाली हरकतों का चित्रण हैं यद्यपि इस कृति में किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिया गया है किन्तु इतिहास के अवलोकन से जो इसके नायक सिद्ध होते हैं वे हैं-तेरापंथ के तृतीय आचार्य रायचन्दजी के पास सं. १८८० में दीक्षित होने वाले जयपुर के मुनि श्री फतेचन्दजी। ये जाति के सरावगी थे। स्त्री को छोड़ कर वैराग्य भाव से दीक्षा ग्रहण की थी, किन्तु छिद्रान्वेषी प्रकृति के होने के कारण थोड़े दिनों के बाद ही संघ के अन्दर दलबन्दी सी करते हुए छुप-छुप कर गण के साधुओं के अवर्णवाद बोलने लगे और मतभेद डालने लगे। पर यह बात कब तक छिपी रह सकती थी? पता लगने पर पूछा गया तो इन्होंने शंकाएं रखीं। उनके समाधान के साथ प्रायश्चित्त दिया गया। पुनः वैसा करने का प्रत्याख्यान करते हुए एक लिखित भी लिखा। किन्तु अपनी प्रकृति नहीं बदल सके और सं. १८९० में अलग हो गए और तीन दिन तक बहुत अवगुण बोले। संघ में ३२ दोष निकाले। इन्ही सारे प्रसंगों की इस ढाल में विस्तृत चर्चा और स्पष्टीकरण है। इसको १ ढाल है जिसमें १५ दोहे, ३ सोरठे तथा १८० गाथाएं हैं तथा ९ पद्य परिमाण वार्तिका है। कुल मिला कर इसके २०७ पद्य हैं। सं. १९३३ चै. शु० २ के दिन इसकी सम्पूर्ति हुई। उपसंहार
इस प्रकार इन अलग-अलग कृतियों में तेरापंथ संघ में अनुशासन और व्यवस्था संबंधी अनेक आवश्क बातों का सुन्दर समावेश हुआ। ये कृतियां क्रमबद्ध नहीं लिखी गई हैं, अतः कई स्थलों पर पाठकों को पुनरावृत्ति का भी आभास होता है। पर यह तात्कालिक नई-नई व्यवस्थाओं को जमाने की दृष्टि से अत्यन्त आवश्क था। श्रीमज्जयाचार्य ने अपनी सूझबूझ और दूरदर्शिता से दुर्गम पथ को भी सरल एवं सार्वजनिक बना दिया। उस पथ को सजाने, संवारने में इन कृतियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
. श्रीमद्जयाचार्य के शताब्दी-समारोह के पुण्य प्रसंग पर उनके बहुमुखी विशाल राजस्थानी साहित्य का परम श्रद्धेय आस्थाकेन्द्र युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी एवं महामहिम युवाचार्य श्री (वर्तमान में आचार्यश्री) महाप्रज्ञ के निर्देशन में सांगोपांग सम्पादन हुआ । मुझे भी इस ग्रन्थ के माध्यम से उस कार्य में सम्पृक्त होकर श्रीमज्जयाचार्य के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करने का सहज मौका मिला। इसके लिए अपने आपको कृतार्थ मानता
अपनी बात
इस ग्रन्थ के सम्पादन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य पाठ-निर्धारण का था। यद्यपि मुनिश्री नवरत्नमलजी की देख-रेख में अत्यन्त परिश्रम-पूर्वक इसमें समाविष्ट कृतियों की पांडु लिपियां पहले ही तैयार हो चुकी थीं, फिर भी मूल प्रतिलिपियों से उनका मिलान और शंकास्पद स्थलों को पाठ्य निर्धारण-कार्य दुरुह और श्रम साध्य था। विविधमुखी प्रवृत्तियों में अत्यन्त व्यस्त होते हुए भी श्रद्धेय गुरुदेव श्री तुलसी ने उसके लिए मुझे
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मुक्त समय प्रदान किया, इससे मेरा कार्य काफी सुगम हो गया। पूज्य प्रवरों के प्रति अपनी भाव-भीनी श्रद्धा समर्पित करता हुआ यह कामना करता हूं कि मेरे हर क्षेत्र में इसी तरह वरद सान्निध्य तथा प्रेरक संबल प्राप्त होता रहे और मैं अपनी मंजिल की ओर बढ़ता रहूं।
प्रथम वार यह पुस्तक 'जयाचार्य शताब्दी समारोह' (अनुशासन-वर्ष) के संदर्भ में सन् १९८३ में प्रकाशित हुई थी। यह सुखद संयोग की बात है कि अब इसका पुनर्मुद्रण 'आचार्य भिक्षु निर्वाण द्विशताब्दी' के शुभ अवसर पर हो रहा है।
आचार्य भिक्षु अनुशासन के पुरोधा थे। वे तेरापंथ धर्म संघ को अनुशासन का उदाहरण बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने विभिन्न प्रयोग किये तथा प्राण संचारक बहुमूल्य सूत्र प्रदान किये। वर्तमान परिस्थिति में उनकी अत्यन्त अपेक्षा लग रही है।
यह कृति जन-जन में अनुशासन, मर्यादा एवं संगठन के प्रति जागरूकता पैदा करने में हेतुभूत बने, इसी शुभाशंसा के साथ।
मुनि मधुकर
वि० सं० २०६० माघ शुक्ला ३ जलगांव (महाराष्ट्र)
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लिखतां री जोड़ गणपति सिखावण
१
२
३
४
५
६
७
८
९
लघुरास
१० टाळोकरों की ढाळ
शिक्षा री चोपी
उपदेश री चोपी
हुका
मर्यादा मोच्छब री दाळां
गण विशुद्धिकरण हाजरी
परंपरा री जोड़
परिशिष्ट
१ - 'लिखतां री जोड़' से संबंधित
२ - 'गणपति सिखावण' से संबंधित
३- 'टहुका' से संबंधित
४-१५९ दोषों की विगत
अनुक्रम
पृष्ठ
१
५५
६४
१३४
१५९
१६५
१८०
३२९
३६९.
४१९
४३६
४५८
४६४
४६५
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लिखतां री जोड़
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'लिखित सं० १८३२ री जोड़
ढाळ : १
दूहा
१. असल धर्म महावीर नों, निमल माग निकलंक।
जमल ज्ञान अरु चरण युग, कमल जेम निक। २. शरण स्वाम शासण सुजस, धरण दुधर शिव धाम।
वरण अमर-वधु वसुधरा, तरण भवोदधि ताम।। ३. अंग अनंग सुचंग अति, वच वर रुचिर विसाल।
अवलोकी आगम अनघ, मुनि भिक्षु गुणमाल ।। ४. संवत् अठदससय - सतर, समचित कर सुविचार।
निरवद दान दया निमल, वर वारूं व्रत धार ५. विविध सुविध . मर्याद सुध, स्थापन कर स्थिर भाव।
भिक्खू प्रकट्या भरत में, सांप्रत तरणी नाव॥ गणपति गुणाकर शोभता।
मुणिन्द मोरा ! धिन-धिन भिक्खू स्वांम हो ।।धुपदं॥ ६ ऋष भीखण सर्व साधां भणीं। पूछी धर अह्लाद हो।
. सर्व साधु साधवियां तणी, बांधी वर मरजाद हो। ७. ते साधां नैं पूछ नैं, साधां कनां थी कहिवाय।
आगल ते लिखिये । अछै, मर्यादा सुखदाय।। ८. सर्व साधु नै साधवी, भारमल जी री आंण ।
विहार चोमासो करणो तिको, करणो आण प्रमाण ।। ९. दिख्या देणी ते इण विधै, भारमल जी रे नाम।
सर्व साधु साधवियां तणी, मरजादा अभिराम ।।। १०. चेला री नै कपड़ा तणी, साताकारिया क्षेत्रां नी ताहि।
आदि देइ बहु वस्तु नीं, ममत करी मन मांहि। ११. जीव अनंत मूर्छा थकी, चारित्र रत्न गमाय।
नरक निगोद मांहि गया, इम भाख्यो जिनराय।। १२. तिण सूं ममत शिषादिक तणी, मिटावण तणों उपाय। ___चारित्र चोखो पाळण तणों, उपाय कियो सुखदाय॥ १. लिखत देखें-परिशिष्ट १ ३. लयः सींहल नृप कहै चंद नै २. युगल।
लिखतां री जोड़: ढा० १:३
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१३ विनय मूळ ए धर्म नैं, न्याय मार्ग चालण रो उपाय।
कीधो छै समय देखी करी, इम कह्यो लिखत रे मांय॥ १४ भेषधारी विकला भणी, मूंडी नैं भेळा करंत।
ते शिषां रा भूखा एक-एक रा, अवर्णवाद बोलंत ।। १५ ते मांहोमांहि फारा-तोरो करै, करै कजिया' राड असमाध।
एह चिरत त्यां रा देखनै, बांधी छै मर्याद।। १६ शिष शाषा रो संतोष कराय नैं, सुखे संजम पाळण रो उपाय
साधां पिण इमहिज कह्यो, रहिणो भारमल जी री आज्ञा माय॥ १७ शिष करणा ते सर्व ही, भारमलजी रै नाम।
अखंड आण . तसु पाळवी, ए मर्याद अमाम॥ १८ भारमलजी रजाबंध होयनै, और साधु नै सुन्याव।
चेलो सूंपे तो करणो अछै, बीजू करण रो कियो अटकाव॥ १९ भारमलजी पोता रे चेलो करै, ते पिण तिलोकचंद चंद्रभाण।
आदि बुधवान साधु कहै, ओ संजम लायक जाण ॥ २० प्रतीत आवै बीजा मुनि भणी, तो करणो शिष सोय।
जो प्रतीत आवै नहीं, तो नहि करणो कोय।। २१ कोई अजोग हुवे कीधां पछै, तिलोकचंद चंद्रभाण आद।
छोड़णो बुधवंत रा कहण सूं, माहै न राखणी व्याध।। २२ नव पदार्थ ओळखायनें, दिख्या देणी वर नीत।
आचार पालां तिम चोखो पालणो, एहवी बांधी परंपरा रीत॥ २३ भारमलजी री इच्छा हुआं, गुरु भाइ चेलादिक नै सूल' ।
टोळा रो भार सूंपै तदा, ते पिण करणो कबूल ।। २४ ते पिण रीत पंरपरा, सर्व साध-साधवियां नै सार।
एकण री आज्ञा में चालणो, एहवी बांधी छै रीत उदार ।। २५ कोई गणमांहि सूं फारा-तोरो करी, नीकळे इक दोय आद।
घणी धुरताई करै, बुगलध्यानी दै, त्यांनै न सरधणा साध॥ २६ च्यार तीर्थ में गिणवा नहीं, चतुरविध संघ रा निंदक असार।
वांदे पूजै एहवा भणी, ते पिण आज्ञा वार॥ २७ काम पडै चरचा बोल रो, किण नै छोड़णो मेलणो तोला।
करणो बुधिवंत नै पूछ नै, इमहिज सरधा रो बोल॥
१. कलह। २. श्रेष्ठ
३. निषेध। ४. व्यवस्थित रूप से।
४
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२८ जे कोई याद आवै बलै, ते पिण लिखणो तास।
ते पिण सर्व कबूल ही, करणो आण हुलास।। २९ सर्व साधां रा परिणाम जोयनै, रजाबंध कर वाध।
यां कनां सूं पिण कहिवाय नै, बांधी 'ए' मरजाद। ३० परिणाम जिण रा माहिला, चोखा है जो ताम।
ते मतो' इण माहै घालज्यो, सरमा-सरमी रो नहीं काम ।। ३१ मूंढै और मन में और ही, इम तो साधु नै करवो छै 'नाय।
बलि इण लिखत में खूचणो, काढणों नहीं छै काय ।। ३२ पछै कोई और रो और ही, बोलणो नहीं छै ताम।
अनंता सिद्धां री साख सूं, ए पचखांण अमाम ।। ३३ संवत अठारै बत्तीस में, मृगसर विद सातम सार।
लिखतु ए ऋष भिक्खन तणों, हेठे साधां रा अक्षर उदार। ३४ साख एक थिरपाल नी, लिखतू बले वीरभाण ।
ऊपर लिखियो ते सही, इम हिज हरनाथ पिछाण।। ३५ इम ही सुखराम लिख्यो सही, लिखतू तिलोकचंद जांण।
ऊपर लिखियो ते सही, लिखतू इम ही चंद्रभाण ।। ३६ अखेराम अणदा तणां, इमहिज अक्षर जोय।
आप-आप रा हाथ सूं, अक्षर लिखिया सोय। ३७ वर्ष बत्तीसे स्वाम जी, बांधी ए मरजाद।
जोड़ करी मैं तेहनी, जयजश हरष समाध।। ३८ अक्षर भिक्खू स्वाम ना, ए लिखत लिख्यो निज हाथ।
जोड़ करी ते देखनै, गणपति जय साख्यात। ३९ संवत् उगणीसै ग्यारे समे, जेठ शुकल बुध ताय।
भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, जयजश हरष सवाय॥
१.साक्षी।
लिखतां री जोड़ : ढा०१:५
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लिखित सं० १८३४री जोड .
ढाळ : २
दूहा संवत् अठार चोतीस में, समणी नो सुखकार। भिक्षु लिखत कियो भलो, निसुणो सहु नर-नार॥ 'स्वाम भिक्षु वच हिय धरणां,स्वाम भिक्षु वच हिय धरणा। सुगुरु आण मर्याद अराध्यां, भवदधि सें तरणां॥ध्रुपदं॥
सर्व आरजियां रे लज्जा, एक लिखत कीधो ते निसुणो अजा भणी,अज्जाक्रोध वस तूंकारो देवै, पंच-पंच दिन पंच विगै रा त्याग तिके लेवै। जिता तूंकारा जे काढ़े, जिता पंच-पंच दिवस विगै रा त्याग सिरै चादै। वयण इसड़ा नहि उच्चरणा, सुगुरु आण मर्याद०॥ बलै बोले जो ते अजिया, तूं झूठा बोली एहवा वच भाखे तज लजिया। जिता दिन पंच-पंच जाणी, पंच विगै रा त्याग तास बोली ए अलखाणी। डंड आयां मोसो बोले, सुगन जन दूषण से डरणा, सुगुरु आण मर्याद०॥ टोळा ना संत आरजियां नी, ग्रहस्थ आगै करै उतरती निंद्या दुख खाणी। तास घणी अजोग जाणेणी, एक मास ना त्याग विगै पांचूं नहीं देणी। करै निंद्या जितरी विरिया, जितरा मास विगै पांचूं रा त्याग अनुसरिया। इसा अवगुण नै परहरणा, सुगुरु आण मर्याद०।। बात अजिया री मांहोमांहि, उण रो ‘परतो वच' उण आगै कहै जु दुखदाइ।
१. लय : सुगुरु की सीख हिये धरणा। २.हीनता-सूचक वचन।
६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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उण रो वलि मन भागै जेहवो, वचन कहीनै मन भागै तो दंड इसो देवो। पनर दिन पंच विगै केरा, ए पचखांण अछै तिण ने निंदै तसु अधिकेरा। दोष छोड्यां शिवपद वरणा, सुगुरु आण मर्याद०॥ मांहोमां कहै इसी वाणी, तू संसां री भागल एहवो वचन वदै ताणी। तास दिन पनरै लग त्यागो, जिती वार कहै जिता पनर दिन त्याग तणों मागो। आंसू काढे जितरी वेलो, दश दिन त्याग विगै रो के दिन पनर मांहि बेलो। अमल चित अंगीकार करणा, सुगुरु आण मर्यादा०॥ इत्यादि वच करड़ा काठा, कहै तसु प्राछित यथाजोग है मिटै लखण माठा। कह्या ए विगय तणां त्यागो, इच्छा उण री हुवै जदी पाळी टाळे दागो। साधां सेती मिलियां पहिला, त्याग विगै रा तास पाळणा मन शुद्धि कर महिला। इसी विध अवगुण अपहरणा, सुगुरु आण मर्यादा०॥ विगय नहीं टाळे धर रागो, अपर अजा नै यूं नही कहिणो तूं पाळईज त्यागो। साधां सूं मिलियां कहिवेसी, साधां री इच्छा आवै ते अपर दंड देसी। ते पिण द्रब क्षेत्र काळ परखो, साधां री इच्छा आवै तो विगै त्याग अधिकोकरासी ते पिण कर निरणा, सुगुरु आण मर्यादा०।। आरजियां रे माहोमांहि, साधु-साधवियां नै नहि कल्पै नही शोभै क्यां ही। लोकां ने अणगमती लागै, जातादिक रो जेह चणो सुण्यां द्वेष जागै।
१. प्रतिज्ञा २. अन्तरंग
३.द्रव्य
लिखतां री जोड़ : ढा० २ : ७
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११
इसी भाषा पिण जो कैवै, मुनि इच्छा आवै जितरा दिन विगय त्याग देवै। तकै पिण कबूल ही करणा, सुगुरु आण मर्यादा० ।। जिका आरजियां नै ज्यां ही, और आरजियां साथै मेल्यां नां कहिणों नाही। आण लोपी नै नही जावै, पंच विगै रा त्याग न जावै जितरा दिन पावै ।
और बली दंड जठा बारै, अविनय अवगुण दूर करी गुरु आणा शिर धारै। वयण सतगुर नां अनुसरणा, सुगुरु आण मर्यादा०॥ साधां रा मेल्यां विण अज्जा,
और तणी अज्जा अन्य साथै जाये तज लज्जा। जिता दिन रहै तास पासो, पंच विगै रा त्याग तिता दिन अवगुण दुख रासो। अपर वलि प्राछित है भारी, ते तो दंड जठा वारै है आणा अधिकारी। आण लोप्यां सैं दुःख भरणा, सुगुरु आण मर्याद० ।। आरजियां जिण साथै मैली, अथवा माहोमांही आरजियां चोमासे भेळी। तथा भेळी शेषे काळो, तसु दोष हुवै तो साधु मिलियां कहिणो ततकाळो। कदा न कहै तसु पख बतियां, उतरो ही प्राछित उण नै छै सुणज्यो सहु सतियां। सखर आणा ना ल्यो सरणा, सुगुरु आण मर्याद० ।। पछे बहु दिन आडा घाली, साचो अथवा झूठ कहै तो उवा जाणै बाली। तथा जाणै जिन आणंदी, छद्मस्थ तणे व्यवहार बहु दिन सूं कहै ते मंदी। राग अरु द्वेष वसै भाखै, निज स्वारथ न कहै नै, स्वारथ नहीं पूगां आखै। तास परतीत नहीं करणा, सुगुरु आण मर्याद०॥
१२
८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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बली ग्रहस्थ्यां मांहि खारे, जणाय आमना एक-एक री आसता उतारे। तिका आर्या महादुखकारी, तिण में तो अवगुण बोहलाइज छै अति ही भारी। फतूजी नै माहै लीधा, लिखत तिको सहु समणी नै कबूल छै सीधा। तसु विरला जाणे निरणा, सुगुरु आण मर्याद०।। बलै बहु बोल अनेकां री, करड़ी मर्यादा बांधै ते कबूल छै ज्यां री। त्याग नां कहिवा रा त्या ही, कर्म जोग किण ही सूं च आचार पलै नांहि। मांहो मां स्वभाव अण मिलती, तसु साधु काढै गण बारै तथा क्रोध वस थीअलग हो छांडै गण सरणा, सुगुरु आण मर्याद०॥ दूर है गण थी अपछंदी, ते तो झूठ अनैक वदै कर्मा वस मति मंदी। आल कूड़ा-कूड़ा देवे, अथवा भेषधास्यां में जावै कलुष भाव वेवै। कियो संसार अनंत आरै, कपट अनेक प्रकार केलवै चरित्र नैं हारे। तास संगत सेती डरणा, सुगुरु आण मर्याद०॥ टाळोकर कर्म वसै झोले, विविध झूठ ते तो बोलेइज का नहीं पिण बोले। इसी जे निलज' भेष भंडी, तसु बात भेषधारी भारीकर्मा मानै खंडी। जीव उत्तम तो नहीं माने, टाळोकर नै दूर तजी नै आप हुवै कानै । इसी विध मिटै जनम-मरणां, सुगुरु आण मर्याद०॥ टोळा सूं छूट हुवै कानै, बात मानै तसु मूरख कहीजे चोर कह्या त्यांने। आळ दे अनेक अनेको,
१७
१८
१.बेशर्म
२. अलग
लिखतां री जोड़ : ढा० २ : ९
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१९
२०
२१
सूंसकरण नै त्यांरी होवे कर्म कुमत रेखो । तो ही उत्तम तो नहीं माने,
इत्यादिक घणां छै अवगुण जग निंदे ज्यां ने। इसा तो काम नहीं करणा, सुगुरु तावत गण एगुणखाणो,
एथी टल्या पछै अवगुण बोलण रा पचखाणो । अनंता सिद्ध साख त्यागो,
१०
आण
ए लिखत सहु आरजियां नै वचायो सुध मागो । प्रथम तसु पासै कहिवाई,
मर्यादा बांधी ए सखरी सुगुणा सुखदाई | अधिक हियै हरष थकी धरणा, सुगुरु लिख्या लिखत रै परमाणे,
सघली आय नै चालणो शिर धारी आणे । अनंता सिद्धां री साखे,
सघला रे पचखांण अछै तन-मन सूं अभिलाखे । जरा शुद्ध परिणामो,
मतो घालज्यो लिखत प्रमाणे जो चालो तामो । सरमासरमी रो नही छै कामो,
जावजीव से काम अछै आणा ए अभिरामो । संवत् अठारै चोती सै,
जेठ सुधी नवमी तिथि नीकी वच विसवावीसै । उमंग धर नै ए आदरणा, सुगुरु आण लिखतू सुजाण तज दंभा,
लिखतू मटू लिखतू कुसला लिखतू कसूंभा । लिखतू जीउ लिखतू नंदू,
मर्याद० ॥
आण मर्याद० ॥
मर्याद० ॥
लिखतू गुमाना लिखतू फतू नै लिखतू अखू ।
आण मर्याद० ॥
लिखतू अजबा लिखतू चंदू, आप आप तणा कर सूं लिखिया अक्षर सुखकंदू । लिखत भिक्खू कर नो देखी, जोड़ करी है जय-जश गणपति संपति हित पेखी। विमल चित सूं हिवड़ै धरणा, सुगुरु २२ वर्ष चउदे नै उगणीसै, फागुण विद ग्यारस मंगलवर स्वाम वचनामृत सुविसाली, पवर जोड़ जय गणि वृद्धिकारक परमप्रीत पाली। थया बीदासर में थाट, इकतालीस समण सौ अजा नित्य प्रति गह घाट ।
जोड़ी गण ईसै ।
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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सरस गणपति
सुख वृधि
शरणा, सुगुरु आण मर्याद०॥
सोरठा २३ लिखत फतू मांहि, बारै बोल कह्या अछ।
वरस तेतीसै ताहि, निरणो कीज्यो जोयनै।। २४ ऊभी नै अवलोय, जो कीड़ी सूझै नहीं।
- विहार-सक्ति घट्या सोय, संलेखणा मंडणो मही।। २५ ए दोनू बोल अवलोय, फतूजी नै ईज छै।
अवरां रे नहिं कोय, न्याय पैंताळी लिखत में। २६ आंख्यादिक वृद्ध गिलाण, कारणीक जे कोई हुवै।
व्यावच तसु अगिलाण, करणी रूड़ी रीत तूं। संलेखणां री सोय, ताकीदी करणी नही।
वैराग वधै ज्यूं सोय, बीजा नै करणो सही। २८ विहार करण री रीत, काची निजर हुवै तदा।
बहु खप कर धर पीत, चलावणौ तेह नै सही।। २९ लिखत पैंताळी मांय, इण विध आख्यो स्वाम जी।
ते बिहुं बोल इण न्याय, फतूजी नैंइज छै।। ३० बीजा जे दस बोल, सगळी अज्या नै अछै।
लिखत अनेरा तोल, तेह में दस नी रहिस छै।। ३१ तेतीसा लिखत नी जोड़, मम कृत सोरठिया दुहा।
द्वादस तणों निचोड़, निरणय कीजो देखनैं।
१.देखें ढा. १८ ।
लिखतां री जोड़ : ढा० २ : ११
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लिखित सं० १८४१
_ ढाळ : ३
लिखित सं० १८४१ री जोड़
ढाळ : ३
दूहा १ वर्ष इगतालै स्वामजी, बांधी
चित लगाई सांभळो, सखरी
ए मर्याद। भाव समाध।।
'सुगुणा स्वामजी, भिक्षु लिखित किया भारी। नगीना नाथ जी, बांधी दृढ़ मरजाद उदारी ॥धुपदं॥ साध मांहो-माहै भेला रहै, त्यां दोष किण ही में देखी। तो ततकाल धणी नै कहिणो, ते पिण अवसर पेखी ।। दोष भेळा नहीं करणा जिण नै, धणी भणी कहवंता। प्राछित लैवे तो पिण गुर नै, कहि देणो कर खंता॥ जो प्राछित नही लेवै तो, प्राछित तणां धणी नै आरेकराय जे-जे बोल लिखी नै, सूप देणो तिण वारै।। इण बोल तणों प्राछित थां नै, गुर देवै ते दंड लीजो।
जो इण रो प्राछित नहीं होवै, तो ही गुरा नै कहिजो। ६ थे गाळागोळो मत कीजो, थे नही कहिसो तो धर रागो।
तो म्हारा कहिवा रा भाव छै, हूं नही काढूं आघो।। संका सहित दोष भ्यासे तो, संका सहित कहि देसूं। निसंकपणे दोष जाणूं छु, ते निसंकपणे कहिलूँ। नहीं तो अजे पाधरा चालो, इण विण तिण नै कहिणो।
पिण दोष भेळा नहीं करणा, प्रगट लिखत में वेणो॥ ९ जो उ आरै नहीं होवै तो, ग्रहस्थ पका है त्यांने। __जणावणो उण बैठाइज, कहिणो पिण नहीं छानै।।
चोमासा री एह वारता, जो हुवै शेखे काळो।
तो किण.ई नहीं कहिणो, गुरु हुवै जठे आवणो न्हालो।। ११ पिण सतगुर रे पास आयनै, वैदो घालणो नाहि ।
गुरु किण नै साचो करै, किण नै झूठो करै इज त्याहि ।।
१.लय : हठीला कान जी छल्ला मैं नहीं छोडूं । २. कदाग्रह। १२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१२ सतगुर तो इण बात मांहि नहीं, कदाचित अहिलाणे ।
एकण नै झूठो जाणे, एकण नै साचो जाणे॥ १३ ते पिण निश्चै नहीं वारता, ते किण विध दंड देवै।
विगर आलोया दोयां री, निश्चै बतका किम कहिवै॥ १४ पाछै तो सतगुर नै बुध सूं, द्रव्य खेत्र काळ भावो।
जाणी नै दोनूं संतां रो, करणोइज छै न्यावो॥ १५ पिण उण नै तो एक दोष थी, दोय दोष दिल धारी।
भेळा नहीं करणा छै तिण रा, ए वर न्याय विचारी।। १६ घणां दोष भेळा कर आसी, तो उ तो हाथां सूं।
झूठो पड़सी सही जाणजो, साचो हुवै क्यांतूं। १७ पछै तो केवळ ज्ञानी जाणे, छद्मस्थ तणे ववहारो।
भेळा दोष करै तिण मांहि, छै अवगुण नो भंडारो॥ १८ ए लिखत ऋष भीखन रो, संवत् अष्टादश इकतालो।
चेत विद तेरस तिथि नीकी, निर्मल न्याय निहालो ।। १९ लिखतू ऋष हरनाथ उपरलो-लिख्यो सही ते जाणो।
लिखतू ऋष भारमल उपर-लिख्यो सही प्रमाणो ।। २० लिखतू अखेराम उपरलो-लिख्यो सही ते वारू ।
लिखतू ऋष सामजी उपर-लिखियो सही उदारू।। लिखतू ऋष खेतसी ऊपर-लिख्यो सही ते जाचो ।
लिखतू ऋष रामजी ऊपर-लिख्यो सहीज साचो॥ २२. लिखतू ऋष सिंघजी ऊपर-लिखियो सही सुजाण।
लिखतू ऋष नानक जी ऊपर-लिखियो सही प्रमाण॥ २३ संवत् उगणीसै नै चवदे, विद तेरस फागुण मासो।
गणपति जयजश संपति जोड़ी, बीदासर सुख वासो।।
१.चिन्हों से।
लिखतां री जोड़ : ढा०३ : १३
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लिखित सं० १८४५ री जोड़(१)
ढाल : ४
दूहा १ पैंताळीसै वर्ष स्वामजी, साधां रे
सरस लिखत निसुणो सहु, आणी अति
मरजाद। अहलाद ।।
स्वाम भिक्खू वच सुखदाई रे। स्वा०।
अखंड आण मरजाद अराध्यां शिवपुर नी साई॥ध्रुपदं॥ २. सर्व साधां रे मर्यादा-बांधी ते कहिये छे निसुणो छोड़ी विषवादा। कारणिक जाणो, आंख्यादिक गरढ गिलाणो, जद और साथ अगिलाणो।
वियावच्च करणी हित ल्याई।। उण नै संलेखणा केरी, ताकीदी नहि देणी छै निज तन-मन नै घेरी। वधै वेरागो, करणो तिण रीत सुमागो, अति आणी हरष अथागो ।
वियावच्च करणी चित ल्याई।। ४ उण रे विहार करण नी रीतो, निजर कची है तास भरोसे ना रखणी नीतो। घणी खप करनै, तसु चलावणो पग भर नैं, आगल मारग अनुसरनैं।
इसी विध चलणो हित ल्याई।। ५ रोगियो होवै तो तामो, उण रौ बोज उपाड़णो उण रा चढता परिणामोरहै ज्यूं करणो, उण में जाणो शुध चरणो, तसु छेहरे दे ना परहरणो।
पवर ए रीत सुगुण भाई॥ हरष वैराग हियै आणी, संलेखणा मंडे तो पिण उण री व्यावच ठाणी। कदा इक जणो उचट होयो, त्यां सगलां नै रीत प्रमाणे करणी है सोयो। करै जो नाही, नखैद नै त्यां ही, करावणी ते पाही।
करावै आप किसै न्याई।। ७ कारणीक रोगी नै लेणो, रीत प्रमाण आहार सहु भेळा हो कहै ते देणो। बलि किण ही रो, अजोग स्वभाव तिणी रो, बेठण वालो नहीं जिणी रो।
तसु संग ले जावै नाहि॥ ८ तदा उ पैला नै ताहि, घणी परतीत उपाय घणी बलै करणी नरमाइ। जोड़ कर केणो, इसी विध वदणो वेणो, थे मोय निभावो सेणो।
__कहि इम तसु साथै जाई॥ १.लय : महिल मन अन्तर की आडी रे। ३.किनाराकशी। २.परिश्रम पूर्वक। १४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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९
चलावै ज्यूं चलणो तेह नैं, कार्य जिको भळावै ते तो करणो छै जेह नैं । घणों झाई, त मन सुंकर नरमाई, परतीत अधिक उपजाई । इसी विध रहै ते न्याई ॥ संलेखणा मंडणो है युक्ति । सारे, अपनी आतम निस्तारे | पवर पिंडत-मरणो पाई ॥
एक बोल पिण आरै नांहि । कर नै तामा, कुण काढ़े जन्म निकामो । बाहिर तुस काढ देणो ताहि ॥
१० इसी नरमाइ नी शक्ति, नहीं है तिण नै हिया धारे, वेगो निज कार्य
११
मरण पिंडत 'के' नरमाई, दोय बोल में उणी सूं आमो, अति क
लिखतां री जोड़ : दा० ४ : १५
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लिखित सं० १९४५ री जोड़ (२)
।
दाळ : ५
'स्वाम भिक्खू नी मर्याद सुणजै। धुपदं॥ १ २एकल होवण तणीं चित आणी, इसड़ी सरधा धारै।
टोळा माहै जे बेठो रहै छै, ते दोई जन्म बिगा.।। २ म्हारी इच्छा आसी ज्यां लग, रहिसू टोळा मांह्यो।
म्हारी इच्छा आसी जद हूं, एकल होसूं ताह्यो। ३ इसरी सरधा धारै अबुद्धि, रहै टोळा रे मांह्यो।
ते तो निश्चै असाध कहीजै, विवेक विकळ कहिवायो। संजम सरध्यां पहिला गुणठाणां रो-धणी कहीजै तासो।
दगाबाजी ठागा सूं रहै मांहै, न करणो तिण रो विसवासो।। ५ इण विध दगाबाजी करै तिण नै, जाण राखै गण मांह्यो।
त्यां नै पिण महादोष कहीजै, प्रतख ही देखायो।। ६ कदा जो गण में दोष जाणे तो, टोळा माहै नहिं रेणो।
एकलो होय संलेखणा करणी, एह लिखत में वेणो॥ ७ वेगो आतमा रो सुधारो हुवै, ज्यूं करणो अति प्रीत ।
आ सरधा है तो मांहै, राखणो रूड़ी रीत ।। गाळागोळो कर नैं जो रहै तो, राखणों नहीं तिवारे ।।
उत्तर देणो तुरत तिणी नैं, काढ़ देणो गण वारै।। _ पछै इ आळ देइ निकळे ते, किसा काम रो तामो। इण विध स्वामी प्रगट लिखत में, आखी बात अमामो।। टोळा माहै तथा गण 'सू' दूर है, कर्म जोग मंद भागो। संत अज्जा रा अंसमात्र पिण, अवगुण बोलण रा त्यागो।। साध-साधवियां री अंसमात्र पिण, संक प. ज्यूं वाणो।
अथवा आसता उतरै ज्यू पिण, बोलण रा पचखाणो।। १२ गण सूं फाड़ सागै ले जावण रा, त्याग अछै शुद्ध मागो।
कदाचि उ आवै तो ही उण नै, साथै ले जावण रा त्यागो।। १३ टोळा माहै नै बारै निकळ्यां पिण, अवगुण बोलण रा त्यागो।
माहोमां मन फाटै ज्यूं बोलण रा, ए पिण त्याग सुमागो॥
१.लय : कुविसन केरो संग न कीजै ।
१६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१४ जे कोई बोल आचार श्रद्धा रो, बोल सूत्र नो विमासो।
अथवा कल्प रा बोल तणी पिण, समझ पड़े नही तासो॥ १५ गुर तथा भणणहार मुनि भाषै, ते हिज वच मान लेणो।
नही तो केवळियां नै भळावणो, प्रगट लिखत मैं वेणो।। १६ टोळा मांहि पिण अवर साध रै, नांहि घालणी संको।
बलि किण रो मन भांगणो नाहि, रहिणो सरल अबंको।। १७ टोळा मांहि पिण जे साधां रा, मन भांगी बेसर्मा।
आप-आप तणै जिलै करे तसु, कहिये भारीकर्मा ।। १८ विसवासघाती तिण नै कहिये, अधिक अजोग अन्याई।
घात-पावड़ी. इसड़ी करै ने, अनंत संसार री साई ॥ १९ उत्तम ए मर्याद प्रमाणै, किणसूं जो चालणी नावै।
तिण नै संलेखणा मंडणो सिरै छै, इम भिक्खू फुरमावै।। २० धनै अणगार तो नव महिना में, किल्यांण आतम नों कीधो।
ज्यू इण नै पिण आतम सुधारो, करणो छै प्रसिद्धो ।। २१ आत्म सुधारे पिण अप्रतीतकारियो, काम न करणो काचो।
रोगियो विचै तो स्वभाव अजोग नै, मांहि राख्यो नही आछो॥ २२ यां बोलां री मर्याद बांधी ते, शुद्ध पाळणी लिखिया प्रमाणो।
अनंत सिद्धां री साख करी नै, सगळां रे पचखाणो ।। २३ ए पचखांण चोखा पाळण रा, हुवै जिण रा परिणामो।
ते मन शुद्ध कर आरै होय जो, इम कहै भिक्खू स्वामो॥ २४ विनय मार्ग चालण रा परिणाम होवै, गुर नै रिझावण होयो।
संजम पाळण रा परिणाम हुवै ते, आरै होयजो सोयो। २५ ठागा सूं टोळा मांहि रहिणो नहीं छै,जिण रा चोखा परिणामो।
होवै ते तो आरै होयजो, ए अक्षर लिखत में आयो॥ २६ समचै आचार तणी मर्यादा, आगै साधां रे बांधी।
ते तो कबूल छै सहु संतां रे, धारणी समचित साधी॥ २७ बलै कोई आचारज बांध, मर्यादा धर प्यारो।
याद आवै ते पिण कबूल , करणी, आणी हरष अपारो॥ २८ लिखतू ऋष भीखन रो छै, ए संवत् अठारै सारो।
वर्ष पैंताळीसै जेठ सुदि वर, एकम तिथी उदारो।।
१.पेशगी (पूर्व देय)
लिखतां री जोड़: ढा० ५: १७
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२९ ए मर्याद ऋष भारमल, हरख सूं अंगीकार कीधी।
ए मर्याद ऋष सुखराम, अंगीकार कर लीधी। ३० ए मर्याद ऋष अखेराम, अंगीकार कीधी आछी।
ए मर्याद ऋष स्वामजी, अंगीकार करी जाची ।। ३१ ए मर्याद ऋष खेतसी, अंगीकार करी वारू।
ए मर्याद ऋष रामजी, अंगीकार करी चारू । ३२ ए मर्याद ऋष नानजी, कीधो छै अंगीकारो।
ए मर्याद नै ऋष नेमे, अंगीकार करी सारो॥ ३३ ए मर्याद ऋष वेणे, अंगीकार करी सोयो।
आप-आप रा कर सूं अक्षर, लिख दीधा अवलोयो। ३४ भिक्खु स्वाम भली पर बांधी, मर्यादा सुखकारो।
तसु कर ना अक्षर अवलोकी, जोड़ी जय गणि सारो॥ ३५ संवत् उगणीसै नै चवदे, सुदि एकम फागुण मासो।
जय गणपति सुख संपति जाझी, बीदासर सुखवासो॥
१८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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लिखित सं० १८५० री जोड़ (ढा०- १)
१
२
३
४
भिक्खू सीखडली रे ॥ ध्रुपदं ॥ सर्व साधा नै सुध आचार, पाळणो धर अहिलादो जी रे । तमांहोमां अधिक राखणो, जिण ऊपर बांधी मर्यादो रे ॥ आप मां है अथवा टोळा रा, साध - साधव्यां माह्यो । साधुपणों सरधो तिको टोळां में, रहिजो हरष सवायो ॥ कोई कपट दगा सूं साधा भेळो, रहें नर मूढ़ अजाणो । अनंत सिद्धा री आण छै तिण नै, पंच पदां
री आणो ॥ भेळो रहियां ।
जे कोई साधु नाम धराय, अनंत संसार वधै छै तिण रे, प्रगट स्वाम इम कहियां ॥ जिण रा चोखा परिणाम है ते प्रतीत इती उपजावो । साध-साधव्यां रा अवगुण बोल नें, खोटा मत सरधावो । किण ही ना परिणाम फाड़ नै, मत भांगी नै वाधो । खोटा सरधावण तणां त्याग छै, ए भीक्खू मर्यादो || किण सूं साधुपणों पळतो नहीं दीसै, तथा न मिलै सभावो । तथा कषाय धेठो जाणी नै, कोई कने न राखै चावो ॥ तथा खेत्र आछो न बतायां, वस्त्रादिक कारण माणी । तथा अजोग करैं न्यारो, तथा दूर करतो जाणी || इत्यादिक कारण अनेक ऊपनै, हुवै किण ही साधु नै साधवियां ना, अवगुण नहीं ११ हुंतो नै अणहुंतो खूंचणो, काढण रा त्याग घाल नै, आसता उतारण तथा क्रोध वस, सहु गण नै बली सरधी आप में, नवो साधुपणो लेवै ॥
जाण
'रहिसे - २' संका
असाध केवै ।
कदा कर्मजोग असाधुपणों
५
६
७
८
९
१०
स्वाम भीखण लिखत कियो
१२
ढाळ : ६
जी
शोभता, अठारै मरजाद वर, सुणजो आण
सय पचास ।
हुलास ॥
१. लय : सैणा थइयै जी रे । २. छुपे - छुपे
टोळा सू न्यारो ।
बोलणा लिगारो ॥
सुं' भागो ।
रा त्यागो ।
6
लिखतां री जोड़ : ढा० ६ : १९
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१३ तो पिण अठीरा साधु-साधव्यां री, संका घालण रा त्यागो।
खोटा कहिण रा त्याग ज्यूं रा ज्यूं पाळणा, ए भिक्खू वच शिव मागो।। १४ म्है तो फैर साधपणों लीधो, सूंस कीया म्है आगै।
अब म्हारै अटकाव नहीं है, यूं पिण कहिण रा त्यागो।। १५ संत-सत्यां नी अधिक आसता, उतारणी नहीं जाणो।
असाधपणों सरधै संक पडै ज्यूं, बोलण रा पचखाणो।। १६ किण ही साधु आर्यों में दोष देखे तो, तुरत धणी नै केणो।
अथवा आय गुरां नै केणो, ओरां आगै न वदणो वेणो॥ १७ घणां दिन आडा घाली नै, दोष बतावै कोई।
धणी ले तो दै उणनै, नहीं प्राछित रो धणी ओ ही।। १८ प्राछित रा धणी नैं याद आवै तो, दंड उण नै पिण लेणो।
नहीं लेवै तो उण नैं मुसकल, ए पिण भिक्खू वेणो।। १९ कोई सरधा आचार तणों नवो, बोल नीकळे ज्यां ही।
बड़ा थकी ते बोल चरचणो, ओरां तूं चरचणो नाही। २० पिण ओरां सूं चरच ओर रे, नाहि घालणी संको।
बड़ा जाब दैवे निज हियै वैसे तो, मान लेणो तज बंको। २१ नहीं वैसे तो केवळियां नै, भळावणो तज सल्लो ।
गण में भेद पाड़णो नाहि, माहोमां न बांधणो जिल्लो॥ मिल-मिल नै मन आप तणों, उचक्यो टोळा सूं त्यांही।
अथवा संजम पळे नहीं तो, किण नै साथे ले जावणो नांहि ।। २३ अनंत सिद्धां री साख करी नै, साथे ले जावण रा पचखांणो।
स्वाम भिक्खू नी ए मर्यादा, उत्तम न खंडे आणो।। २४ कोई दिख्या लेतौ देख न्यारो होय, न करणो शिष धर रागो।
नवो मार्ग काढी नै आप रो, मत जमावण रा त्यागो।। २५. ए सुध सरधा आचार पालणो, निरमल चित्त शिव मागो।
किण रो मन हुवै जुदा होण रो, तो परती' कहिण रा त्यागो। २६ जिण रो मन हुवै रजाबंध, चोखी तरै चरण सुहायो।
साधपणो पळतो जाणै तो, रहिणो टोळा मांह्यो। २७ आप मांही अथवा पेला में, साधुपणो सुध जाणो।
तो टोळां में रहिणो सैमल, ठागा सूं रहिण रा पचखांणो॥
२.शामिल।
१.नीचा दिखाने वाली बात। ३.दगाबाजी।
२० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२८ ठागा सूं रहण रा अनंता सिद्धां री, साख करी पचखांणो।
इण विध स्वाम प्रगट लिखत में, वारू दाखी वाणो।। टोळां में रहि लिखै-लिखावै, कोई देवै ते ले जाणो।
यां नै पिण संग ले जावण रा, ए पिण छे पचखांणो।। ३० परत पाना ते बड़ा तणी-नेश्राय जाचणा जाणो।
आप तणीं नेश्राय जाचण रा, ए पिण छै पचखांणो।। ३१ अजाणपणे जो जाच्या किण ही, तो पिण बड़ा रा जाणे।
. यां नै पिण संग ले जावण रा, ए पिण छे पचखाणो ।। ३२ पात्र लोट जाचै टोळा में, बड़ा तणी नेश्रायो।
बड़ा देवै तो ते पिण लेणा, विण आज्ञा लेणा नाह्यो।। ३३ गण बारै नीकळियां ते पिण, ले जावणा नही सागै।
नवो वस्त्र हुवै ते पिण, टोळा वार ले जावण रा त्यागो॥ ३४ लिखत पचासै ए मर्यादा, बांधी स्वाम सुग्यानी।
हळुकर्मी सुण-सुण मन हरषे, सुवनीतां मन मानी। ३५ सुवनीत संत श्रावक नै, ए मर्यादा लागै मीठी।
अवनीत सुणी तसु अवगुण सूझै, लागै अग्नि अंगीठी।। ३६ सुण अवनीत तणों मुंह बिगड़े, विनयवंत सुण हरखै।
सुवनीत नै अवनीत तणां, अहिलाण उत्तम ए परखै।। ३७ विनयवंत मर्याद अराधै, इहभव तसु जस थावै।
परभव सुर, शिव नां सुख पावै, च्यार तीर्थ गुण गावै।। ३८ अवनीत ए मर्याद उलंघे, इहभव फिट-फिट होवै।
परभव नरक निगोद 'तणां दुख, दोनूं जन्म बिगोवै॥ ३९ गण थी नीकळ अवगुण बोलै, कुल नै लगावै दागो।
स्वाम तणी मर्याद उलंघे, निपट निरलजो नागो॥ ४० कर्म जोग गण थी नीकळ नै, उत्तम फिर शुध थावै।
गांव-गांव निज अवगुण निंदे, प्रतीत इण विध आवै।। ४१ गोशाळो केवळ पामी नै, गाम-गाम इम कहिस्यै।
प्रतनीकपणां सूं बहू दुख पावै, नरक तिर्यंच विशेषे॥ ४२ आचार्य नै उपाध्याय नों, प्रतनीक कोई मत होयो।
गाम - गाम जन नै इम क हिसी, सूत्र भगवती' जोयो ।। ४३ तो निज आत्म अवगुण निंदत, लाज सरम नहीं ल्यावै ।
टाळोकर नै चो. निषेदे, बलि सुण-सुण हरषित थावै।। ४४ उगणीसै चवदै चौथे कार्तिक सुद, बीदासर सुखवासो।
जयजश संपति सरस जोड़ ए, छासठ ठाणा चोमासो॥ १.भगवई सतं १५
लिखतां री जोड़ : दा० ६ : २१
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लिखित सं० १८५० री जोड़ (ढा०)
ढाळ : ७ १ लिखत पचासो नो बली, कहियै छै अधिकार। भिक्खू स्वाम तणी भली, मर्यादा सुध सार।।
'स्वाम भिक्खू नी मर्याद सुणीजै ॥ध्रुपदं। १ बड़ा तण नामै दीक्षा देणी, आप-आप रै शिष्य करवा रा त्याग।
आगै पाना में मर्यादा लिखी छै, ते लोपण रा त्याग वारू शिवमाग॥ (जो किण ही) मर्याद उलंघी आज्ञा में न चाल्यां, अथवा किण रा देख्या अथिर परिणाम।
अथवा टोळा में टिकतो न देख्यां, तो ग्रहस्थ नै जणावा रा भाव छै ताम॥ साधु-साधवियां नै जणावा रा भाव छै, पछै कोई कहोला टोळा मांहि
तथा लोका में आसता उतारै, तिण सूं घणा सावधान चालजो ताहि ।। ५ एक-एक नै चूक पड्या तुरत कहिजो, कजियो म्हां तांइ म आणजो तिलमात।
उठै रो बोल उठैज निवेरणो, पूछयां अणपूछयां कहणी बीती बात।। ६ कोई टोळा मां सूं टळे संत-सत्यां रा, अवगुण बोलै तथा दोष बताय।
तिण री कही तो मानणी नाही, तिण नै झूठो बोलो जांणणो मन माय।। साचो हुवै तो ज्ञानी जाणै, पिण छद्मस्थ रै ववहार जाणणों झूठो। एक दोष सूं बीजो भेळो करै तो, तिण नै कहिजै अन्याई नै महादूठो।। परिणाम जेहनां मेला होसी ते, साध अनै आर्या रा ताम। छिद्र जोय-जोय भेला करसी, ते तो भारीकर्मा जीवां रा छै काम ।। सरल आतमा रो धणी ते इम कहिसी, कोई ग्रहस्थ संत-सत्यां रा दूजा नैं।
सभाव प्रकृति तथा दोष कहै तो, तिण नैं यूं कहिणो, म्हांनै कहो थे क्यां नै। १० कहो तो धणी नैं, के कहो स्वामीजी नै, ज्यूं यां नै प्राछित दे करै सुध निसंक।
न कह्या दोषीला रा सेवणहार थे, स्वामीजी नै न कहिसो तो था मैं इज बंक। ११ थे म्हानै कह्या सूं कांइ हुवै छै, इम कहि आप न्यारो हुवै ताहि।
पैला रा दोष धारी भेला करै ते, एकंत मृषवादी छै अन्याई।। १२ किण ही नै खेत्र काचो बतायां सू, (किण नै) कपड़ादिक मोटो दीधा द्वेष जाग।
इत्यादिक कारणै कषाय उठै जद, गुरवादिक री निंद्या करवा रा त्याग।।
२. अलग होकर ।
१.लय : आ अनुकंपा जिन आज्ञा में । २२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१३ एक-एक आगै अवगुण बोलण रा, माहोंमां मिल नैं जिलो बांधण रा त्याग
अनंता सिद्धां री आण छै तिण नै, ए स्वाम वचन धारै मुनि महाभाग ।। १४ गुरवादिक भेळो रहै आपरै मुतलब, पछै आहारादिक थोड़ा घणा रो ले नाम।
बलै कपड़ादिक रो नाम लेई नै, अवगुण बोलण रा त्याग छै ताम।। १५ बलै इण सरधा तणां भाया रे, तंतू ठिकाणा छै तेह विमास।
बिना आज्ञा जाचण रा त्याग छै, ए स्वाम वचन हियै धारो हुलास ।। १६ नेड़ा दस-विस कोसां ताइ वस्त्र जाचै, चोमासो उतरियां ताहि।
बड़ा आगै ते आण मेलणो, आप रै मेलै वावरणो नाहि।। १७ वावरै तो सहु कपड़ा माहिलो, ठलको हुवै ते वावरणो जाण।
पिण महीं कपड़ा नै वावरणो नही छै, ए पिण जाणजो स्वाम भिक्खू नी वाण।। १८ गुरवादिक जो अळगा हुवै तो, मांहोमांहि सरीखो बांट लेणो।
अधिको चावै तिण नै परतो देणो, ए पिण जाणजो भिक्खू ना वेणो।। १९ डाहा हावै ते विचार जायजो, न रहै उपगार हुवै तो ही लूखै खेत ।
उपगार न हुवै तो ही आछै खेत्र पड़ रहै, इण विध करणो नहीं छै तेथ। चौमासो तो अवसर देखै तो रहिणो, पिण शेखै काल रहिणो चित धरणो।
किण री खावा-पीवादिक री संका पड़े तो, उण नै साधु कहै ज्यूं करणो।। २१ दोय जणा तो विचरै नै मोटा-मोटा खेत्र, साताकारिया आछा-आछा सुखदाई।
लोलपी थका जोवता फिरै रहै त्यां, गुरु राखै ज्यां नहि रहै इम करणो नाही।। २२ घणा भेळा रहता दुख वेदे, दोय जणां में सुख वेदंत ।
लोळपी थको यूं करणो नहीं छै, ए स्वाम वचन धारै मुनि मतिवंत।। आपरा किण ही नै परत नैं पाना, उपगरण देवै तो आघा इज देणा।
न्यारो हुवै जद पाछा मांगण रा त्याग छै, आसंग है तो दीजो पाछा नही लेणा॥ २४ ते पिण गुरु री आज्ञा बिना देणा नहीं छै, वनीत अवनीत री चोपी में दाख्यो।
आठमी ढाळ री तेबीसमी गाथा, इहां पिण आग्या विण देणो तो अंस न आख्यो। २५ आर्या सूं देवो नै लेवो, लिगार मात्र न करणो कांइ।
बड़ा तणी बलै आगन्या विना, आगै आर्या हुवै त्यां जाणों नाहि। २६ जाय तो एक रात्रि तिहां रहिणो, पिण अधिक न रहिणो ते ग्राम मांहि ।
कारण पड़यां जो तिहां रहै तो, गोचरी रा घर बांट लेणा छै ताहि।। २७ पिण नितरो नित पूछणो नाही, कनै पिण वैसण देणी नांहि।
बलै ऊभी पिण रैहण न दैणी, चरचा बात नहीं करणी कां।
३. पूरा।
१.अपने-अपने । २.सामान्य।
लिखतां री जोड़: ढा० ७ : २३
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२८ बड़ा गुरवादिक तणां कह्या थी, अनै कारण पड़ियां री बात न्यारी।
स्वाम भिक्खू री छै ए मर्यादा, आज्ञा सूं रह्यां न दोष लिगारी।। २९ सरस आहार मिलै ते ग्रामे पिण, आज्ञा बिना रहिणो नही कोय।
बलै कोई करड़ी मर्यादा बांधां, तिण में पिण ना नही कहिणो सोय॥ ३० आचार री संका पड्या थी बांध, बलै कोई बोल याद ज आवै।
जे लिखा ते सर्व कबूल कर लेणो, ए स्वाम वचन धारयां सुख पावै ।। ३१ ए मर्यादा लोपण के रा, अनंत सिद्धां री साख करै पचखाण।
जिण रा चोखा परिणाम हुवै ते, अंगीकार कर लीजो जाण ।। ३२ सूंस पाळण रा परिणाम हुवै ते, मन शुद्ध कर नै आरै होयजो।
सरमासरमी रो काम छै नही, इण विध स्वाम कह्यो ते जोयजो।। संवत् अठारै नै वरस पचासै, महाविद दशम तिथि सुखदाय। लिखत ए ऋष भीखन रो छै, इण विध स्वाम कह्यो लिखत मांय॥ लिखत पचासा री ढाल दूजी ए, गणपति जय करी जोड़ उदार।
पोह सुदि चोथ उगणीसै चवदै, जयजश आनंद-संपति सार। ३५ समण बावीस नै तेपन समणी, ठाणा गुण्यासी जबर मुनि मेल।
भिक्खू भारीमाल ऋषराय प्रतापै, चूरू शहर थई रंगरेल।।
२४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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लिखित सं० १८५२ री जोड़ (ढा०-१)
ढाळ : ८ दूहा
रे
१ संवत् ___ मर्यादा
अठारै
बांधी
बावने,
मुनि,
सतियां
भिक्षू
सुखकार। गुण-भंडार।
'भिक्षू दिसावंत भारी क, भिक्षू दिसावंत भारी। सतियां रे मर्यादा सखरी, बांधी सुखकारी॥ध्रुपदं। सतियां सर्व तणें सुखदायक, मर्यादा बांधी। सुध आचार पाळणो चोखो, सखर चित्त सांधी।। आपस मांहि हेत राखणो, हरष अधिक आणी। तिण ऊपर मर्यादा बांधी, शिवपुर नी नीसाणी।। गणरा संत-सत्यां में संजम, सरधो सुखदाइ। आपस मांहि संजम सरधो (ते) रहिजो गण मांहि। काइ कपट-दगा सूं साधवियां रे, भेळी रहै जाणो। अनंत सिद्धां री आण छ, पंच पद री आंणो।। समणी नाम धराय असाधवियां सूं रहै भेळी। अनंत संसार बधै छै तिणरे, जिनवर तसु हेली।। जिणरा चोखा परिणाम हुवै, प्रतीत उपजाओ।
(किण ही) संत-सत्यां रा अवगुण, कहि खोटा मत सरधावो।। ८ मन भांगी फारण के रा, त्याग सखर जाणो।
खोटी सरधावी नैं फारण के रा, पिण पचखाणो।। ९ किण ही सूं साधुपणों, पळतो दीसै नाही।
तथा सभाव मिलै नहीं किण सूं, प्रकृति दुखदाई।। १० तथा कषायण धेठी, जाण कनै को ना राखै।
तिण नै अळगी करै टोळा थी, विनय सुगुण पाखै।। ११ तथा क्षेत्र आछो न बतायां, वस्त्रादिक काजै।
अजोग जाण गण सूं अळगी, करती जाणै साजै॥ १२ इत्यादिक अनेक कारण सूं, गण सूं है न्यारी।
(तो किण ही) संत-सत्यां रा अवगुण, बोलण रा त्याग तंत सारी।। १.लय-चेत चतुर नर कहै तनै सतगुर किस विध.......।
लिखतां री जोड़ : ढा०८ : २५
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१३ हुतो नै अणहंतो चणो, काढण रा त्यागो।
'पिट्ठी मंसं न खाइज्जा', दशवैकालिक' सागो।। १४ रहिसै-रहिसै लोकां रे दिल, न घालणी संको।
आसता उतारण तणां त्याग छै, मेट देणो बंको। कदा कर्म जोग तथा कषाय नै, वस, द्वेष धरी हिरदी।
सहु टोळा रा संत-सत्या नैं, असाध जो सरधै॥ १६ असाधुपणों बलि आपस मांहे, पिण सरधि कै न्यारी।
अथवा भेषधारयां में जावै, कर्म-रेख कारी।। १७ तो पिण अठी रा संत अनै, साधवियां री सोयो।
अवगुण बोलण तणां त्याग छै, भिक्षू वच जोयो।। १८ उगणीसै चवदै चैत कृष्ण छठ, लिखत बावना री।
प्रथम ढाळ जोड़ी जय गणपति, संपति सहचारी।
१.दसवेआलियं ८।४६
२६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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लिखित सं० १८५२ री जोड़ (ढा०-२)
ढाळ : ९
स्वाम' सोहंदा महासुख कंदा, चित निर्मल पूनम चंदा।
सतियां री मर्यादा बांधी, अधिक गुणे कर ओपंदा॥ धुपदं॥ १ किण ही साधु आर्य्या मांहि, देख्यां दोष तुरत त्यां ही।
धणी भणी कहणो के गुर नै, अवरां नै कहिणो नांही॥ २ किण ही स परिणाम टोळा तूं, जुदा द्वैण रा हुवै सागो।
जब पिण तिण नै ओरां केरी, परती कहण तणां त्यागो।। आपस मांहि अथवा टोळा रा, संत-सत्यां नै सलहिजो। साधपणों चोखो शुध जाणों, तिका टोळा मांहि रहिजो॥ ठागा सूं तिण नै टोळां मांहि, नहीं रहिवो छै जाणों। अनंत सिद्धां री साख करी नै, छै तिण रे ए पचखाणों ।। पाना टोळा मांहि लिखै ते, साधु-साधवी मन साचै। गणपति आणा सूं तसु देवै, अथवा ग्रहस्थ कनै जाचै।। गण सूं टळ नै जुदी हुवै ते, साथ ले जावण रा त्यागो। पाना सूप देणां संता नै, ले जावण रो नाही मागो।। गण में पात्रा लोट करै, जाचै ते नहीं ले जावण'रा | टोळा री नेश्राय अछै ते, गण में छै त्यां लग उणरा॥ वस्त्र ऊजळो नवो अछै ते, कपड़ो वावरीयोज न छै। ते पिण साथ ले जावणो नाही, टोळा री नेश्राय अछै॥ पानां परत जाचणां ते पिण, बड़ा तणी ने श्राय जाचै ।
आप णीं नेश्राय तिके पिण, नाहि जाचणां मन साचै।। १० कर्म-जोग टोळा बारै, नीकळ जो अपछंदी थाई।
अथवा गण बारै कालै (तो), उपगरण साथ लेणां नाहि।। ११ गण मांहि उपगरण किया ते, टोळा री नेश्रा केगा।
बारै लै जावण तणां त्याग छै, बड़ा भणीं तूंपे देणा। १२ आगै कागद मांहि आर्यों रे, जे मर्यादा बांधी।
सगळाई ते त्याग पाळणां, समचित स्यूं आत्म सांधी।
१.लय-चेत चतुर नर कहै तनै सतगुर किस विध
लिखतां री जोड़ : ढा० ९ : २७
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१३ किण नैं आछो खेत्र बात चलावण तणां १४ खेत्र आश्री कपड़ा
बताया, राग-द्वेष त्याग छै, अमर्ष भाव आश्री, आहार- पाणी
मन में करनैं । हियै धर नैं ॥ आश्री सागो । चलावण रा त्यागो ॥ काले पिण सोयो । मर्यादा अवलोयो ॥
बड़ा क
१६ कपड़ो गृहस्थ
विध त्यांही ।
बले ओषदादिक आश्री पिण, बात १५ क तिहां चौमासो करणो, सेखे तिण खेत्र विचरणो, ए पासै जाचै, वावरवा री विण ते पिण, वसतर वावरणों नांही ॥ अळगा' होवै, वस्त्र चाहीजे जरूर ते । वावरणो, महीं तो आण लेइ वरते ॥ दीधां री, बात चलावणी छै नांही ।
बड़ा
आज्ञा
कदा बड़ा
जो
ठको ठलको तो १८ किण नैं माहिं मोटो प्रगट अक्षर ए लिखत मांहि छै, स्वाम वचन भाख्या ज्यांही ॥ १९ उगणीसै चवदै वैसाख, कृष्ण पख वर तिथ द्वितीय ढाळ बावना लिखत री, जयजश संपति
१७
१. दूर ।
२८
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
२. बारीक ।
तीज भली । अधिक फळी ॥
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लिखित सं० १८५२ री जोड़ (ढा०-३)
दाळ : १०
दूहा
१ लिखत बावना री भली, कहियै तीजी ढाळ। .
स्वाम तणीं मर्याद वर, पाली ते गुण-माल।
'सतियां ! स्वाम मर्यादा आराधियै रे ।। धुपदं ।। २ सतियां ! सुगुर तणी आणा विना रे, संता भेळी न रहिणो ताहि रे।
सतियां ! आज्ञा विण पास न बेसणो रे, कनै उभी पिण रहिणो नांहि रे॥ ३ सतियां ! देवो-लेवो उपगरण नो, ओ तो करणो नहीं कोय।
सतियां ! मुनि नै सुणै तिण गाम में, जाणो नही अवलोय॥ सतियां ! जाण्यां बिना जावै कदा, अथवा मार्ग में हुवै गाम । सतियां ! एक रात्रि सुं अधिको तसु, रहिवो नहीं तिण ठांम॥ सतियां ! कारण पडियां रहै कदा, तो गोचरी ना घर ताहि। सतियां ! बांट लेणां तिण अवसरै, नित रो नित पूछणों नाहि।। सतियां! वंदना करण जावै तो अलग सूं, (वंदणा) कर पाछो बलणो सताब। सतियां ! अधिक उभो . रहणो नहीं, एहवो लिखत माहै छै जाब। सतियां ! कोई समाचार साधां तणां, पूछणा है तो अलगी सोय। सतियां ! पूछी नै वलणो सताब सूं, पिण उभो न रहिणो कोय॥ सतियां ! सतगुर रा कह्यां थकी, बले कारण पड़िया ताम। सतियां ! बात न्यारी दै तेहनी, इम लिखत में कह्यो भिक्खु स्वाम।। सतियां ! किण ही संत अनै सतियां मझे, दोष देख्या कहिणो ताहि।
सतियां ! अथवा कहिणो गुर आगलै, और किण ही आगै कहिणो नाहि। १० सतियां ! रहिसै-रहिसै किण ही भणी, और मूंडी जाणै ज्यूं तास।
सतियां ! करणो नही छे तेह नै, ए स्वाम वचन सुप्रकाश। ११ सतियां ! किण ही आरज्यां जाण नै, दोष सेव्यो हुवै जो ताहि।
सतियां ! (तो) पानां मांहि लिखियां बिना, विगै तरकारी खांणी नाहि॥
३. शीघ्रता ।
.१. लय : हंसा नदीय किनारै रूखड़ा रे २. वापिस होना
लिखतां री जोड़ : दा० १० : २९
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१२ सतियां ! कदा कारण पड़ियां ना लिखै, और आर्यां नै कहिणो जोय।
सतियां ! सायद कर नै वेगो लिखणो पछै, लिख्या विना नहीं रहिणो कोय॥ १३ सतियां ! आय गुरां रे आगलै, मूंढा सूं न कहिणो विण आण।
सतियां ! अजोग भाषा नहीं बोलणी, माहोमां खोटी वाण। १४ सतियां ! कोई साधु अनै साधवियां तणां, ओगुण काढे तो सुणवा रा त्याग।
सतियां ! इतरो कहिणो तेहनै, 'स्वामी जी नै कहिजो' सुद्ध भाग, १५ सतियां ! जिण रा परिणाम टोळा मझे, होवे रहिण तणां निकलंक।
सतियां ! ते गण माहै रहिजो सही, पिण मन में न राखणो बंक। सतियां ! (पिण) टोळा बारै हुवां पछै, संत-सत्यां रा जाण।
सतियां ! अनंत सिद्धां री साख सूं, अवगुण बोलण रा पचखांण।। १७ सतियां ! कोई टोळा बारै नीकली तणी, मानै उणा लखणो ही वाय।
सतियां ! कै मानै भेषधारी (भागल) धर्म रा, पिण उत्तम जीव तो मांनै नाय॥ सतियां ! बलि कोई याद आवै कदा, ते पिण लिखणो लेख।
सतियां ! बलै करड़ी-करड़ी मर्याद नै, ऐ तो गणपति बांधै बिशेख॥ __ सतियां ! अनंत सिद्धां ही साख सूं, त्यां में पिण नटवा रा त्याग।
सतियां ! आरै लैजो परिणाम कै तिका, नहीं सरमासरमी रो माग। सतियां ! आज पछै किण ही आर्यों रे, अजोगाई कीधी जो काय। सतियां ! प्राछित तो देणो तसु रे, हेलणी चिंहु तीर्थ माय॥ सतियां ! बलै च्यार तीर्थ माहै निंदणी रे, पछै कहोला म्हांनै भांडे जाण। सतियां ! करै फितूरो मांहरो रे, तिण सूं पहिला रहिजो सावधान॥ सतियां ! सावधान जो ना रही रे, तो भंडी दिसोला लोकां मांय। सतियां ! पछै कहोला म्हानै कह्यो नहीं रे, तिण सूं पहिला दियो है जताय॥ सतियां ! लिखत ऋष भीखन तणों रे, बावनै संवत् अठार।
सतियां ! सतियां फागुण सुदी चवदश दिनै रै, ए स्वाम वचन श्रीकार। २४ सतियां ! तीजी ढाळ बावना लिखत नी रे, जोड़ी उगणीसै चवदै उदार।
सतियां ! चौथा कृष्ण वैशाख में रे, जय-जश गणपति संपति सार॥
१.साक्ष्य।
२. तैयार
३० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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लिखित सं० १८५२ री जोड़ (ढा०-४)
दाळ : ११
दूहा
१
लिखत बावना री हिवै, चौथी ढाल समाध। धेठी अज्जा ऊपरै, बांधी ए मर्याद ।।
1
'स्वाम के वच प्यारे । आ तो स्वाम मर्यादा भारी, सासण सुखकारी ॥ धुपदं ।। २ किण ही आर्या नै माहोमांह्यो, ऊपजै एहवा अध्यवसायो।
स्वाम के वच प्यारे । ३ कारण विण ले कारण रो नामो, औरां आगै करावै कामो।। ४ बलै कारण रो नाम जतावै, औषध सूंठादिक उन्हों आहार ल्यावै।। ५ इत्यादिक संक मेटण रो उपायो, मर्यादा बांधी छै ताह्यौ।। ६ जितरो गोचरी आप न उठै, तिण सूं विमणो ऊठणो पूरी। ७ विहार माहै बोझ उपड़ावै, विगै त्याग जिता दिन पावै।। ८ बलै उण रो बोझ पिण पाछो, ओ तो विमणो उपाड़णो जाचो॥ ९ आहार आछो जो . लेवै, तिण रो पाछो विमणो टाळ देवै॥ १० किण रो बहिर मांगै नै ल्यावै, तो पिण विमणो टाळणो भावै।। ११ विगत लिखिये छै तेहनी, आ तो खोड़ मिटावण जेहनी॥ १२ पांच लूंग खाय तो तिण नै, इक दिन विगै टाळणो जिणनै॥ १३ टका भर निज पांती रो आवै, घृत तिण दिन टाळणो चावै।। १४ इम बीजाई बोल विशेखो, लिखिये छै त्यांरो पिण यो लेखो॥ १५ अधेला भर सूंठ लेवा रो, इक दिन सपी टाळणो त्यांरो॥ १६ अधेला भर अजमा रो, टका भर सपी टाळणो ज्यारो॥ १७ खांड सूं दुगुणो घी जाणो, मांगी आणै तो टाळणो पिछाणो। १८ मिश्री सूं चौगुणो घृत सारो, मांगी ल्यावै तो टाळणो जिवारो॥ १९ गुळ सुं दुगुणो घृत टाळो, अथवा गुळ बरोबर घृत न्हालो।।
FEATHEREFORE
१. लय : ज्यारे सोहे केसरिया साड़ी लियां फिरत राधिका प्यारी। . २. दुगुणा।
लिखतां री जोड़ : ढा० ११ : ३१
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२० दूध-दही सूं दुगुणो तेहिज देखो, अध सेर दूध-दही रो दिन एको। २१ पैला आगै उपगरण उपड़ावै, तसु घृत इक दिन टळावै ।। २२ आथण रो उन्हों आणै, आंख्यां में काजल माणै। २३ पीपलामूळ टांकरो' जाणी, चक्षु में औषध रो पिछाणी।। २४ तीन वार दिसां जावै, दूजै दिन इक टक लूखो खावै।। २५ राते दिसां जाय तिण रै, बे दिन लूखो जिणरे ।। २६ गूतो पीवै धर रागो, तिण रै दिन पनरै विगै रा त्यागो।। २७ जिण रो कारण जाणै उघारो, अथवा उण नै धेठी न जाणै लिगारो।। २८ तथा सरल जाणै तिण नै सारी, अथवा गुर कहै तिण री बात न्यारी।। २९ लिखतूं आर्या . मेणां, लिखतू अजा धनु केणा।। ३० लिखतू सदा सुखदाई, लिखतू बना कहिवाई ।। ३१ लिखतू अजा बरजु जाची, लिखतू बीजा बना साची॥ ३२ लिखा बावना री चौथी ढाळं, जोड़ी गणपति जय सुविसालं ।। ३३ ए चौथी ढाळ माहि मर्यादं, तिण रो बिरला परमार्थ लाधं ॥ ३४ कारण बिना कारण रो ले नाम, तिण ऊपर मर्यादा छे ताम। ३५ कारण विण कारण रो नाम, रात्रि दिसा जावै ताम।। ३६ तिण नै बे दिवस लूखो दाख्यो, पिण सर्व अज्जा रो न भाख्यो ।। ३७ इमहीज दिन में दिसा तीन वार, दूजै दिन एक टंक लूखो धार।। ३८ ए पनरइ बोल धेठी रा, पिण म जाणो सहु-समणी रा॥ ३९ उगणीसै चवदै वैशाखै, सातम विद अभिलाखै॥ ४० भिक्खू भारीमाल ऋषरायो, जय जोड़ी है तास पसायो॥ ४१ शहर सुजानगढ़ रंगरेला, हुआ संत-सत्यां रा मेला ।। ४२ पणवीस संत सकज्जा, सखर पचासी अज्जा ।।
WWW . WW०
१. वृक्ष वाला पीपलामूळ। २. थोड़े काल की ब्याई हुई गाय-भैंस का दूध । ३२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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लिखित सं० १८५९ री जोड़ (ढा० २)
१
२
३
४
वर्ष
गुणस श्रोता चित दे
ढाळ १२
दूहा
स्वाम
जी, सांभळो, आणी अति
बांधी वर
'देखो प्रबल प्रज्ञा भिक्खू स्वाम की ।
विविध मर्यादा बांधी वासू, वारी हो स्वामीजी थांरा नाम की || ध्रुपदं ॥ अरे सुगुणा ! ऋष भिक्खण सगलां संता रे, मर्यादा बांधी छे ज्यां रे, संवत् अठार बत्तीस त्यारै । मर्याद थकी निकसांण,
ते तो सर्व कबूल सुजाणं, तिण
तिलोकचंद नै चंदरभाणं ।
ए मर्यादा
दोषण तेह नै मोटो लागो, दशमा
लोप निकलिया, भागल हूवा कर्मा छलिया,
ते तो जिन मार्ग सूं टळिया । प्राछित नो तसु दागो
दीधा विण लेवा रा त्यागो । एह त्याग छै सहु संतां रे, ॥ देखो० ॥ सुख साधं, बांधते लिखिये आराधं ।
हिवै आगली वर मर्यादं, कायक फैर नवी
सर्व संत सतिया रे ताह्यो, पूछी नै या कनै कहिवायो,
सगला संत सती सुखदायो, भारमलजी री
शेखै
मर्याद ।
अहलाद ॥
मर्यादा बांधी सुखदायो ।
आगल लिखिये छै ते मर्यादा || देखो० ॥ आज्ञा मांह्यो, रुड़ी रीते चलणो ताह्यो ।
काळ विहार सचेती, चोमासो करणो सुभ खेती ।
भारमलजी री आणा सेती । आज्ञा विना कठेइ न रहिणो छै || देखो० ॥
१. लय- अरे कनवा गो चरावत वन वन डोलत आण अणाचक । "
लिखतां री जोड़ : ढा० १२ : ३३
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५ दिख्या देणी ते पिण जाणी, भारमल जी रे नाम कहाणी,
. दिख्या देइ सूंपणो आणी। ममता वस्त्र अनै चैलां री, वलि साताकारी खेत्रां री,
इत्यादिक अनेक बोलां री। __ममता कर कर डूबा जीव अनंता।।देखो० ॥ ममता कर कर जीव अनंता, चरण गमाई नै मति भ्रांता,
नरक निगोदा माहि भमंता। बलै भेषधारयां रा सोयो, एहवा चैह्न प्रतक्ष अवलोयो,
__तिण सूं शिष्य प्रमुख नहीं जोयो।
ममता मिटावण रो उपाय कीधो ॥देखो०।। ___ ममता मिटावण तणों सुहायो, शुद्ध चारित्र पाळण रो ताह्यो,
उपाय कीधो छै सुखदायो। विनय मूल वर सखर सधीको, न्याय मार्ग निरमल रमणीको,
ते चालण रो उपाय तीखो।
निरपक्ष पणां थी एह कीयो छै।।देखो०॥ ८ विकळा नै मूंडै भेषधारी, भेळा करै अधिक दुखकारी,
शिष्यां तणां भूखा अविचारी। एक-एक रा अवगुण बोलै, फाड़ा तोड़ो कर मोह झोले,
कजीया राड़ करंता डोले।
एहवा चिरत देख मर्यादा बांधी॥देखो०॥ ९ शिष साखा रो वर संतोषो, सुखै चरण पाळण रो चोखो,
उपाय कीधो छै निरदोषो। संत सत्यां पिण इमज जणायो, भारमलजी री आज्ञा मांह्यो,
चालणो रूड़ी रीत सवायो।
शिष्य करणां ते भारमलजी रे करणा ॥देखो० ॥ १० अवरां रे चेला करवा रा, जावजीव लग त्याग उदारा।
ए मर्यादा महासुखकारा। भारमलजी शिष्य करै सुहायक, बुधवंत साध कहै ओ लायक,
जो प्रतीत आवै सुखदायक। एहवो भारमलजी नै चेलो करणो॥देखो० ॥
३४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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११ बीजा साधां नै समभावै, प्रतीत जो तिण री नहीं आवै
तो नहि करणो छै प्रस्तावै। कियां पछै कोई अजोग होयो, ते पिण बुधवंत मुनि कहै सोयो,
___ छोड़ देणो तसु कहिण सुजोयो।
किण ही धेषी रा कह्या सूं छोड़णो नाहि॥देखो०॥ १२ नव पदार्थ नै.ओळखाई, दीक्षा देणी छै सुखदाई,
आचार पाळा छां हिव ल्याई। तिण हिज रीत पाळणो चोखो, इण माहैं कोई जाणो जोखो,
ते हिवड़ां कहिजो तज दोखो।
पछै माहोमांहि तांण न करणी॥देखो०॥ जो किण नै भ्यासै दोष विपरीतो, तो खंच नहीं करणी ए नीतो,
करणी बुधवंत री प्रतीतो। भारमलजी री इच्छा थाई, जद चरण लघु शिष्य नै हित ल्याई,
अथवा चरण वृद्ध गुर भाई। सूंपै गण रो भार समाधी, सर्व संत सतियां गुण साधी,
एकण री आज्ञा आराधी। चलणो है तसु आण प्रमाणे, असमात्र नहीं करणी ताणो,
एहवी रीत बांधी छै जाणो।
संत सत्यां रो मार्ग चाले जठा तांई।देखो०।। १४ गुणसठा लिखत री पहिली ढाळ, उगणीसे चवदै गुणमाल,
विद वैशाख दशम तिथि न्हाल। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसाद, रची जोड़ जय संपति साध,
सहर सुजानगढ़ अविराध । संत सती एक सो दस हुंता ॥देखो०॥
लिखतां री जोड़ : ढा० १२ : ३५
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लिखित सं० १८५९ री जोड़ (ढा० २)
१
२
३
४
५
६
७
८
९
३६
लिखत गुणसठा भिक्खू स्वाम तणा भला,
दुख बहु दुर्गति धुरताई
बांधी
स्वाम भिक्खू नीं रे आछी, कांई बुद्धि जबर मर्यादा रे जाची, कांई भक्ति विनय रस रे भणियो, ते सखर गुणी जन रे सुणियो, ते सकल असुभ कर्म रे जोग फाड़तोड़ो कर निक ै, फिट-फिट जग में
सूं कांई, कई
छै
कर्म
कदा
तो उण
अंसमात्र
अनंत सिद्धां
आरै
ढाळ १३
दूहा
धको
टोळा
री हिवै, सुणजो
अवगुण
रें
थावे,
अवनीतपणां
बहुत
रे पावै, इम जाण करै, सरधणा, चिहुं
तसु साधु नहीं
यां नै
चतुरविध
संघ ना,
एहवा
नै वांदै तिको, छै कदाचित कोई फेर सुं, दिख्या अवर संत छै तेहनै,
तो पिण
उण नैं
उण
नै छैडवियां
तसु एक
बात
पिण
दीसै
आण
नाहि
कियो,
दियां,
तणां,
बोलण
छे.
गूंधूं वचन
अखंड
रा,
तिण
एक
मनोरथ साधै
गण मां
दो
उत्पत्तिया
अधिक
मर्यादा
असाधु सरधावण
साधु नह सरधणो, जिन
थकां, ऊ दे
कादै
मांनणी, उण
दूजी
हुय
बुगलध्यानी तीर्थ में निंदक जाणवा
न
जिण
त
अवगुण रो
ट ै
टोळा
संत
॥ धुपदं ।
सूं कोई साध ।
त्रिण आद ॥
नै
प्रसंगो ।
मर्याद म लंघो ||
जाय । गिणाय ॥
छार । आज्ञा बार || ले तज लाज । काज ॥
वच न्हाल |
आळ ||
अनंत संसार ।
ढाळ |
विशाल ॥
भारी ।
उदारी ॥
अराधै ।
भंडार ॥
सूं कोय ।
रा सोय ॥
हुता
जांण ।
नै पंच पदां री आंण ॥
सत्यां
१. लय- कोरो कांसो जळ भर्यो कांइ धरती सोस्याँ जाय वारु दखिण री चाकरी ।
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१० पांचूं पदां री साख सूं, त्याग अवगुण रा जाण।
(किण ही) संत सत्यां री, संक प.ज्यूं बोलण रा पचखांण।। ११ कदा विटळ उ होय नै, भांगै सूंस अयाण।
तो हळुकर्मी नै न्यायवादी. तो, मूळ नै मानै वाण॥ १२ उण सरिखो विटळ कोई मानै, ते लेखा में नांहि।
इस विध भिक्खू भाखियो, प्रगट लिखत रे मांहि ।। १३ हिवै किण ही नै छोडणो, पडै मेलणो ताम।
किण ही चरचा बोल रो, प. किंवारे काम ।। तो बुधवान मुनीश्वरु, विचार नैं तिण वार।
करणो इम भिक्खू कह्यो, अखर लिखत में सार॥ १५ बले सरधा रो बोल पिण, बुधवंत हुवै ते सोय।
विचार नै संचै तदा, बैसाणणो अवलोय॥ जो कोई . बोल वैसे नहीं, तो तांण न करणी रंच।
केवळिया नै भोळावणो, पिण अंस न करणी खंच॥ १७ लिखत गुणसठा री कही, दूजी ढाळ सुभाष।
उगणीसै चवदै समै, वदि चवदश वैशाख।
लिखतां री जोड़: ढा० १३ : ३७
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लिखित सं० १८५९ री जोड़ (ढा० ३)
दाळ १४
दूहा
लिखत गुणसठा भिक्खू स्वाम
री हिवै कहियै तीजी ढाळ। तणां भला, वार वचन विशाल॥
'वर भिक्खू नी मर्याद, अखंड आराधिये।
ते सुगुणा सुवनीत के, शिव पद साधियै॥धुपदं॥ २ बीस कोस चालीस, अथवा अळगी दूर सूं।
वासू कर चउमास, उतरिया जरूर सूं । ३ अथवा शेखे काळ, तंतू जाचियो महीं।
आप मतै फाड़ तोड़, बांट पहिरणो नहीं। ४ कदा जरूर रो काम, प. तो तिण अवसरै।
जाडो-जाडो वांट लेणो, महीं परिहरे॥ तंतू महीं गणि आंण विना बांटणो नहीं। महीं तो गणपति पास, आण मैलणो सही॥ आचार्य जथा जोग, इच्छा आवै ज्यूं दिये। ते लेणो तिण री बात, पाछी 'न' चलाविये॥ इण नै तंतू सार, महीं दीधो सही। इण नै मोटो दीध, एम कहिणो नहीं।। कर्म धको किण वार, देवै किण ही भणीं। ते टोळा सूं न्यारो, पडै चूकै अणीं॥ अथवा टोळा वार, कादै तिण नै कदा। तथा आपहीज न्यारो, हुवै ग्रहै आपदा॥ . तो इन सरधा रा जाण, भाई बाई हुवै तिहाँ।
रहिणो नहीं तिण ठाम, टालोकर नै तिहां। __एक भाई बाई, त्यां पिण रहिणो न अछै।
वाटै वहतो एक रात्रि, ते पिण स्व इछै॥ १२ रहै . कारण सूं तो पंच, विगै नै सूंखड़ी।
खावा रा छै त्याग, अनंत सिद्ध साखे करी।। १३ लिखत गुणसठा री ढाळ, तीजी वैसाख में।
विद चवदश सुखकार, उगणीसै चवदै समै॥ १. लय-काया करै रे पुकार जंगल विच क्यूं धरी ३८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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लिखित सं० १८५९ री जोड़ (ढा० ४)
ढाळ १५
दूहा
लिखत गुणसठा री हिवै, चौथी ढाळ सुचंग। मर्यादा पाळे मुनि, विमल चित्त जल गंगा ।।
'स्वाम थांरी उत्पतिया बुद्धि भारी, हं वारी२ हो स्वाम बांधी दृढ़ मर्याद उदारी। हूं वारी हूं वारी हो स्वाम आप शासण रा सिणगारी॥धुपदं॥ २ टोळा माहै उपगरण करै ते, परत पाना लिखे सागो।
परत पात्रादिक गण माहै जाचै, सर्व साथै ले जावण रा त्यागो।। ३ एक बोदो चोलपटो नै बोदी पछोवड़ी, बोदो रजोहरणो ताहि।
मुखपति नै वलि खंडिया उपरंत, साथै ले जावणा नाहि ।। गण री ने श्राय रा उपधि सहु, संतां रा ते किम राखै ।
और अंस मात्र ले जावण रा त्याग छै, अनंता सिद्धां री साखै॥ ५ कोई पूछे यां खेत्रा में रहिण रा, क्यूं पचखांण कराया।
तिण ने कहिणो रागा-धेखो बधतो जाण नैं, त्याग कराया सुखदाया।। ६ वलै कलैस नै वधतो जाण नै, उपगार घट तो जाणी।
इत्यादिक बहु कारण आलोची, त्याग कराया पिछाणी ।। ७ तिलोक चंदरभाण नै दशमो प्रायछित, दियां विण लेवा रा त्याग है ज्यांही।
जै तो दोनूं महा दगादार छै, मांहि लेवा जोग नांहि। वलै कोई याद आवै ते लिखणो, तिण रो पिण जे वेणो। ना कहिवा रा त्याग छै सहु रे, सर्व कबूल कर लेणो ।। सर्व साधां रा परिणाम जोय नै, रजाबंध कर सांधी।
यां कना सूं जूदो-जूदो कहिवारी, ए मर्यादा बांधी।। १० परिणाम जिण रा चोखा हुवै ते, या मर्याद तमाम ।
बलि यां सूंसा में आरै होयजो, सरमासरमी रो नहीं काम। ११ मूंहढे और नै मन में और, इम तो साधु नै 'न' करणो ज्यांही।
इण लिखत में खूचणो न काढणो कोई, और रो और बोलणो नांहिं।।
mov9
१. लय-झिरमिर झिरमिर मेहा बरसै आंगण हो गयो आलो, २. पुराना।
लिखतां री जोड़ : ढा० १५ : ३९
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अनंता सिद्धां री साख
पचखांण ए जाण । अनंता, सिद्धां री साख सूं पचखांण ॥
करी सहु रे
ए पचखांण भांगण रा
किण
ही अनेरा टोळा माहै, जावा रा पचखांण ।। मर खपणो, पिण सूंस न भांगणो, एहवा अखर लिखत में जांण ॥ १४ ओ एहवो लिखत लिखतू ऋष भिक्खन रो, संवत् अठारै सो सार । गुणसठे महासुदि सातम शनि, हेठे साधां रा अखर उदार ॥ ऊपर लिखियो ते सही पिछाणो । लिखियो, तेह सही कर जाणो ॥ ऊपर, लिखियो ते सही साचो । लिखतू ऋष नानजी ऊपरलो, लिखियो ते सहु ही जाचो ।। १७ लिखतू ऋष सुखा ऊपर लिख्यो सही, लिखतु ऋष उदैराम । लिखतू खूसाल ऋष लिख्यो सही, लिखतु ओटा ऋष ताम || १८ लिखतू ऋष रायचंद ऊपर लिखियो ते सही सुजाणो ।
१५ लिखतू ऋष सुखराम, लिखतू अखेराम ऊपर १६ लिखतू ऋष खेतसी
लिखतू डूंगरसी लिखतू भगा ऊपर, लिख्यो ते सही पिछाणो || १९ केक संत स्वामी पास न हुंता, तिण वेला अखर किया नाही । तिण सूं का रा नाम न घाल्या, त्यां पछै लिख्या ते नही इण मांहि ॥ २० आप आप रा कर सूं अक्षर, साधां लिखने ताह्यो । ए मर्यादा अंगीकार कीधी, भिक्खू वयण धारया सुखदायो । २१ भिक्षु कर ना अक्षर देखी, जोड़ उगणीसै चवदै मास वैशाखै, शुकल २२ बावीस बांणू मुनि अज्जा लाडणूं, सरस
रची सुखकार । चौथ शनिवार ॥
जोड़ जय साजी | भिक्खू भारीमाल ऋषराय प्रतापै, जय जश संपति जाझी ॥
१२
१३
४०
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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लिखित सं० १८५९ री जोड़
ढाळ १६
दूहा
वर्ष गुणसठै स्वाम जी, बांधी वर मर्याद। ते पिण कर गणपति तणै, सखरी भाव समाध ।।
२
भिक्खू भजले रे धर भाव॥ धुपदं॥ साधु-साधवी नी मर्यादा, बांधी भिक्षु स्वाम। एक दिवस माहै घी लेणो, वे पइसा भर ताम॥ च्यार पइसा भर मिष्टान, विगै लेणो उनमान। मिश्री नै गुल खांड पतासा, आदि देई सहु जान ।। अधसेर दूध दही तिम गिणणो, तिम अधसेर ही खीर। तिम अधसेर धनागरो जाणो, गणपति आण सधीर || खाजा सांकुली पापड़ीयादिक, पाव तण उनमान। पाव सीरा लापसी कहियै, चूरमादिक पहिछाण। एह माहिली विगै कदाचित थोड़ी थोड़ी आय। पाव तणां उनमान मांहै, लेखव लेणी ताय।।
६
सोरठा
७ खाजा सांकुली आदि, पाव कह्या छै स्वाम जी।
सीरा लाफी चूरमादि, ए पिण पाव कह्या जुदा॥ ८ खाजा सांकुली पाहि, फीकी कड़ाई विगय है।
वलि अल्प घृत गुलरी ताहि, तेल तणी पिण तिण मझे।। सीरा लापसी मांहि, खांड तणी वस्तु सहू। वलि बहुत घृत गुल री ताहि, मालपुवादिक तिण मझे।। खाजा सांकुली मांहि, अल्प घृत नी जे लापसी।
अति घृत वाली ताहि, सीरा में गिणणी सही। ११ कदाच जो नहिं आय, सीरादिक नी जे विगय।
तो अधसेर लिवाय, खाजा सांकुली आदि जे॥ १. लयः सीता आवै रे धर राग......।
लिखतां री जोड़: ढा० १६ : ४१
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१२ कदाच थोड़ी तसु बदलै
न
१३ ढाळ मांहि
जय गणि तिण
१४
१५
१६
आय,
लेवाय,
विस्तार, भिक्षु
अनुसार,
ए
२०
पाव-पाव
अधिक भोगवै
पहिछांण,
१७ पंच आदि
२३
'उपवास त पारणै बीजा बोल कह्या
त
छठ अठम दशम बीजा बोल कह्या
मोटी
खाजा
सीरादिक
कृत
कहिवाय ।
बताय ॥
पारण, षट पइसा भर घी ताय । इतराइज, गणपति कहै ते न्याय ॥ तपसारे, पारण एम कही। आठ पइसा भर घृत आख्यो, बीजा बोल उतराइज ॥
सोरठा
न्याय
१. २. लयः सीता आवै रे धर राग
४२
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
सांकुली नीं विगय | अति घृत तणीं ॥ मर्याद 1 सोरठिया में कह्यो ।
दोनूं
इ जु जुई।
त ते बीजे दिन नहीं ।
१८ आख्यो भिक्खू
एम, बीजा बोल घृत बधायो तेम, बीजा बोल न १९ भारीमाल ऋषराय, जय गणी नीं गणपति आणा मांय, दोष कोई
घी
च्यार, पइसा भर उतराइज, गणपति रहिस
नै
घृत खाय ।
ए
निरमळ न्याय | मर्यादा शुद्ध जाण ।
पचखांण ॥
कदा टका भर सेती अधिको, जाणी तो दूजै दिन घृत न खाणो, छै २१ और दूध दही सुंखड़ियादिक नी, अधिक लिया दूजै दिन तेही, विगय तणा २२ दोय त्रिण दिन लगै कदाचित, जो सपी न खाधो होय | तो चार पइसा भर घृत लेणो, निमळ चित्त सुजोय ॥ अधेला तथा पइसा भर थी, वधै बांटतां ताहि। तो एकण नै देणो उरो, दू २४ आहार कदा नहीं मिलियक रो खांडगुळादिक अधिक लेण रो, नहीं
दिन देणो नाहिं ||
मिलियां जोग ।
घी
अटकाव प्रयोग
।
उतरा
अछै।
बधारणा ॥
पिण आण ए ।
मत जाणजो ॥
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सोरठा
२५ आटादिक रै मांहि, अथवा आटादिक विना।
अल्प आहार जो आय, तो अधिक विगै री आगन्या।। २६ अधिक विगै रे काज, मिल्यां आहार नहीं छोड़णो।
अधिक विगै नो साज, आहार अल्प मिलवै दियो।
'आचार्य पासै साधु-साधवी, शेखे काळ चोमास ।
रहै त्यारै मर्याद नहीं ए, सूंस नहीं ए तास॥ २८ साधु-साधवी कदै घणा हुवै, कदेयक थोड़ा थाय।
कदै आहार बहुत आवै, कदेयक थोड़ो आय। २९ तेह तणों अवसर आचारज, देखी लेसी ताम ।
त्यांरो कोई बीजो साधू, लेण न पावै नाम।
सोरठा
३० इण अक्षरे कर तास, शेष काळ चौमास में।
साधवियां गणि पास, रह्या स्वाम नी आगन्या।। ३१ गणि आज्ञा बिना शेष काळ, चोमास रहै जितरा दिन रूंस।
त्याग सूंखड़ी पंच विगय नां, जावजीव ए सूंस॥ ३२ कोइ गण मांहि थकी टळी . नीकळे, अथवा काढ़े बार।
तो पिण तिण नै त्याग अछ, ए जावजीव लग सार।। ३३ यूं कहिणो नही भेळा थकां, म्हारै था त्याग सुमाग।
अबै म्हारै कोई सूंस नहीं, इम पिण कहिवा रा त्याग।। ३४ कोई लोळपी थको कदाचित, विगै खावा री हूंस।
टोळा बारै टळे कर्म वस, तिण रे पिण ए सूंस।, ३५ वर्ष गुणसठै स्वाम भिखनजी, बांधी ए मर्याद ।
संवत् मिति रो नाम नहीं, पिण हुंती धारणा याद।। ३६ सवंत् उगणीसै चवदै विद, अष्टमी पहिलो जेठ। _ भिक्खू भारीमाल ऋषराय प्रतापै, जयजश संपति भेट । ३७ समण तीस इक सो इक समणी, सखर संपदा सार। - जयवर गणपति संपति जोड़ी, लाडनूं शहर मझार॥
१. २. लयः सीता आवै रे धर राग...।
लिखतां री जोड़ : ढा० १६ : ४३
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लिखित सं० १८२९ री जोड़
ढाल : १७
दूहा
अखेराम जी गण थकी, टर फिर आवत ताम। भिक्खू लिखत कियो इसो, सुणो राख चित ठांम।।
09 v
ए तो स्वाम बड़ा सुखकारी रे, भिक्खू नी बुद्धि भारी। आ तो उत्पतिया अधिकारी रे, निपुण न्याय नेतारी ॥ध्रुपदं॥ अखेरामजी रा गण मांहै, आवण रा परिणामो। बलि परिणाम संजम पालण रा, देख्या अति अभिरामो॥ पिण अप्रतीत घणीं ऊपनी, जो गण सूं अभिलाखै।
ए प्रतीत पूरी उपजावै, अनंत सिद्धां री साखै ।। ४ तो टोळा मांहि फिर लेणां, तसु बिध सुणो उदारु।
सभाव आप रो फेर बड़ां रे, छांदे चालणो वारु॥ ___ चारित्र सुद्ध पालणो चोखो, मुनिवर नों आचारो।
दीठोईज अछे नहीं छानो, आछी रीत उदारो॥ कदाचित ए टोळा सेती, न्यारा टळे स्वमेवां। तो च्यांसू ही आहार तणां, पचखांण करै तो लेवां॥ खुणस धरी नै अधिक चणो', काढी नै ततखेवां । अळघा ह्वेण तणां पचखांण, करे तो मांहै लेवां ।। संलेखणां संथारो संत, करायां तुरत करेवां ।
ते पिण नां कहिवा रा त्याग-करै तो गण में लेवां ।। ९ धेठापणो सभाव में, अविनीतपणे बलि देखे।
अथवा मुनि रे चित नहीं वैसे, अवगुण जांण विशेषे॥ १० इत्यादिक अनेक बोलां सूं, छांडै संत सुभेवा।
तोच्यारआहार मुख में घालण रा, त्याग करै तो लेवां।।
।
१.लयः ए तो जिण मारग रा नायक रे २. अधिकारी ३. अधीन ४४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
४. आक्रोश। ५. त्रुटि। ६.धृष्टता।
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११ टोळा मांहि पत्र लिखे ते, सगळाइ साधां रा।
साध साधवी श्रावक श्रावका, काढ़े खूचणां त्यां रा॥ १२ दोष तथा अणुहंतो पर नै, भ्यास्यां दंड धरेवां।
पिण ना कहिवा रा त्याग, करै तो गण में लेवां ।। १३ जिण साध साथे मेल्यां तसु, हुकम प्रमाणे रहणो।
तेहनी आज्ञा नहीं लोपणी, आण प्रमाणे वहिणो॥ १४ जे कोइ संत साथै ले जावै, रजाबंध' तसु करणो।
अंसमात्र ओळमो आवै, ज्यूं मूळ न ही आचरणो।। १५ प्रतीत आ उपजावणी पूरी, सखरी रीत सदीवा।
आज पंचमा आरा मांहि, भारीकर्मा बहु जीवा।। १६ सुध आचार पळे नहीं त्यांसू, न फिरै निज स्वभावो।
पछै कर्म उदै सूं एहवी भाषा, बोलै असुभ प्रभावो।। १७ एकल हेण तणां परिणाम, हुवै जद बोले वायो।
साधपणों गण में नहीं दीसै, हूं किम रहुं गण मांह्यो॥ १८ इम कही बहु उपद्रव करै, वलै अवरणवाद वदैवा।
इणविध करवा रा पचखांण, करै तो माहै लेवा ।। १९ सरधा में फेर पड़यां, बुधवंत री प्रतीत तूं मानेवां। __ए पिण ना कहिवा रा, त्याग करै तो मांहै लेवां । २० आचार विरुद्ध नहीं चालणों, चूक पड़े तो मुनि नै कहैवां।
तांण करि तोड़ण ' रा त्याग करै तो माहै लेवां॥ २१ ओ 'मुनि री' इच्छा आवै, जिण रीते वरतेवां।
पाछो 'ओरो'३-ऊतर करण रा, त्याग करै तो लेवां ।। २२ गण सू तो नहीं हृणो एकलो, तथा बे तीन भिलेवां।
आदि देइ अलगो न लॅणो, ए त्याग करै तो लेवां।। २३ सर्व सरीर पोता रो छै ते, तजी मान अहंकारो।
थिर चित संता कार्य थापणो, आणी हरष अपारो।। २४ निज मन सूं ढीला, जांणे तो, चिहुं, त्रिण आहार तजेवां।
किण सूं मिल नै जूदा ह्वेण रा, त्याग करै तो लेवां। २५ तवन सझाय वखांण सूत्र नों, काम भलाय कहैवां।
छती सक्ति नां कहिवा रा, पचखांण करै तो लेवां ।।
३.प्रत्युत्तर।
१. वचनबद्ध २. उपालम्म।
लिखतां री जोड़ : दा० १७ : ४५
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२६ अंसमात्र धेठापणों रे, मान अहंकार न धरणो।
तुरंग' खिण रंग विरंग न करणो, जो बंछै भव तिरणो। २७ इत्यादिक बहु बोल याद, आवै ते बले लिखेवां।
तेह नां पिण नां कहिवा रा, पचखांण करै तो लेवां। २८ एहवी ए प्रतीत पकावट, उलट धरी उपजावै।
तो सगला नै प्रतीत आवै, इम भिक्खू फुरमावै ।। २९ समत् अठारे गुणतीसे, फागुण सुदि वारस सारो।
वृहस्पतिवार लिखतू ऋष भीखन, वूसी गाव मझारो॥ ए लिखत थिरपाल फतेचन्दजी, हरनाथ भारमलजी नै। तिलोकचंदजी नै पिण ए, संभलायो हरष धरी नै। पाछे कह्या लिख्या तिके रे, बोल सारा इ तामो।
अखेराम सांभळ नैं, ए अंगीकार किया छै आमो।। ३२ चरण संघात त्याग कर, साधां नै प्रतीत उपजाइ।
लिखतू अखेराम ऊपरलो, लिख्यो सही छै ताहि॥ ३३ ए दोनूं इ गाथा तणां रे, अक्षर अति अभिरामो।
अखेरामजी निज कर सेती, लिख दीधा छै तामो॥ ३४ उगणीसे चउदे समे रे, महा सुदि छठ गुरवारो।
जय जश गणपति जोड़ करी ए, आणी हरष अपारो। ३५ चउतीस संत अठ्यासी समणी, रतनगढ़ रंग रेला।
ठाणां एक सो बावीसा सूं, मंडिया जबरा मेला।।
१. तरंग।
४६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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लिखित सं० १८३३ री जोड़
ढाळ : १८
दूहा
बावीस टोळा मांहिली, फतू आदि दे च्यार । भिक्षु गण आवी तदा, कीधो लिखत उदार ।।
'जोय जो रे नीत निपुण स्वामी तणी रे॥ध्रुपदं॥ आर्या फतूजी आदि च्यारू भणी रे, दिख्या दीधां पहिली सीखमाण सार रे। आचार गोचर विधि लिखिये अछै रे, ते चरित्र संघाते त्याग रे॥ ऊभी नै कीङी जद सूझे नहीं, तो संलेखणा मंडणो हरष अपार। विहार करण री सक्त हुवै नहीं, जद पिण संलेखणा सुविचार। आर्यों रो विजोग पड़यां कल्पे नहीं, जद पिण संलेखणा सुविशेष। ए बोल तीजा में भिक्खू भाखियो, नहि कल्पै जद संलेखणा ए रेस। चोमासो करणो साधु कहै जिहां, रहणो साधु कहै ज्यां सेखे काळ।
चेळी करणी साधां रा कहण सूं, आज्ञा विण करणी नहीं निहाल ।। ६ शिष्यणी कीधां पछै पिण अर्जिका, साधपणां लायक न हुवै सनूर।
साधां रा चित मांहि बेसे नही, तो संता रा कह्या सू करणी दूर ।। ७ जो साधां री इच्छा आवै एहवी, जुदो करावै विहार सुजोय।
और आरजिया साथै जुइ, मेले तो नां नहीं कहिणो कोय॥ ८ साध साधवियां रो कोई ख्रचणो, दोष प्रकृतादिक रो ताहि।
अवगुण देखै कहिणो गुरां भणी, पिण गृहस्थादिक आगै कहिणो नाहि॥ आहारपाणी न कपड़ादिक मझे, उपजे लोळपणां री संक।
तो साधां नै प्रतीत आवै जिण विधै रे, जिण विध करणो छाड़ी बंक॥ १० अमल तम्बाखू वस्त्र आदि दे, लेणो रोगादिक कारण ताहि ।
पिण विसन रूप तो ते लेणो नहीं, लिया इ सझे ज्यूं करणो नांहि ।। ११ वलै सर्व साधु नै साधवियां भणी, आचार गोचार मांहि सुविहांण।
ढीला पड़ता देखै तिण अवसरै, अथवा संका पड़ती मन जांण।
१.लय : श्री जिणवर गणधर मुनिवर... २. अनशन की पूर्व तैयारी के लिए की जाने वाली तपस्या।
३. अलग। ४. व्यसन।
लिखतां री जोड़ : ढा० १८ : ४७
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१२ जद समचै साध अनै सतियां भणी, करली मर्यादा बांधै सार।
तो पिण नां नहीं कहिणो एह में, जब बांधै ते कर लेणी अंगीकार ।। १३ इत्यादिक सीखामण साचै मनै, चारित्र संघाते सखर सुजाण।
अंगीकृत कर लेणी आछी तरै, जावजीव लगै ए पचखांण। १४ संवत् अठारै तेतीसे समै, मिगशिर बिद बीज अनै बुधवार।
अंगीकार करायो लिखत बंचाय नै, अदरायो सामायिक चारित्र सार ।। १५ छेदोपस्थापनी चारित्र बली दियो, जद पिण एहिज लिखत वंचाय।
हरष सूं अंगीकार कीधो अछै, च्यांसू इ आर्यां चित चाय॥ १६ संवत् उगणीसै चवदै समै, बिद फागुण छठ अनै गुरवार। जोड़ कीधी बीदासर सहर में, जयजश गणपति संपति सार।।
सोरठा १७ लिखत तेतीसा मांहि, मर्यादा फतू तणीं।
सहु समणी नी नांहि, केइ बोल सघला तणां । १८ वर चोतीसे स्वाम, लिखत सहु समणी तणों।
कीधो अति अभिराम, अक्षर छै तिण में इसा।। १९ फतूजी नै गण मांय, लीधा जद कीधो लिखत।
ए मर्याद सोभाय, सहु समणी नै कबूल छै ।। २० इण विध आख्यो स्वाम, वरस चोतीसा लिखत में।
पिण बहु बोल तमाम, सघळी समणी रै नहीं। २१ ऊभी नै अवलोय, जो कीड़ी सूझै नहीं।
विहार सगत घट्यां सोय, संलेखणा मंडणो सही।। २२ ए दोनूंइ बोल अवलोय, फतूजी नै ईज छै ।
अवरां रे नही कोय, न्याय पैंतालीसा लिखत में। २३ आंख्यादिक वृद्ध गिलाण, कारणीक जे कोई हुवै।
व्यावच तसु अगिलाण, करणी रूडी 'रीत' सूं। २४ संलेखणा री सोय, ताकीदी करणी नहीं।
वैराग वधै ज्यूं जोय, बीजा नै करणो सही।। २५ विहार करण री रीत, काची निजर हुवै तदा ।
बहु खपकर धर 'पीत', चलावणो तेह नैं सही।।
१. कङी ।
४८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२६ पैताळीसा लिखत मांय, इण विध आख्यो स्वामजी।
ते बिहुँ बोल इण न्याय, फतूजी नै ईज छ ।। २७ वले फतूजी रा लिखत माय, तीजो बोल कह्यो इसो।
विरहो आर्थ्यां रो थाय, जद करणी संलेखणा ।। २८ ए रीत सहुनी जांण, विरह थया दोयां भणी।
कल्पे नहीं पिछण, संळेखणा करणी सही।। २९ साधां मैं पिण ताम, पैंताळीसा लिखत में।
इमहिज भिक्षु स्वाम, आखी तास संलेखणा ।। ३० कदाचि टोळा माहि, दोष जाण्यां रहिणो नहीं।
एकल होय नै ताहि, संलेखणा करवी कही।। ३१ आत्म तणों किल्याण, वेगो करणो तेह नैं।
ए सरधा शुद्ध जाण, है तो गण में राखणो।। गाळागोळो कर कोय, रहै तो तसु नहिं राखणो।
काढ देणो तसु सोय, पछै इ आळ दे नीक ।। ३३ लिखत पैताळीसा मांय, इण विध दाख्यो स्वामजी।
एकल भणी सुहाय, संलेखणा करवी कही ।। ३४ ए सरधा सुखदाय, शुद्ध कही भिक्षु स्वामजी।
संलेखणा बिन ताहि, नहीं रहिणो एकल भणी।। ३५ सहु समणी नै ताम, दोयां नै कल्पे नही।
संलेखणा अभिराम, लिखत तेतीसा में कही। ३६ बोल तीजा रो न्याय, आख्यो म्है विस्तार कर।
हिव आगल कहिवाय, बोल चोथो नै पांचमों। ३७ चोमासो सेखे काळ, रहिणो साध कहै जठै।
सहु समणी नै न्हाळ, बोल चोथो नै पांचमो।। ३८ चेली करणी ताहि, साधां रा कह्यां थकी।
विण आज्ञा करणी नाहि, ए छठो बोल सहु तणे। ३९ लिखत बतीसा मांय, शिष्य सहु भारीमाल रे।
करणा कह्या सुहाय, अवर तणे करणा नहीं।। ४० भारीमाल 'रजाबंध' होय, शिष्य सूपै जो अवर नैं।
तो तसु करणो सोय, विण आज्ञा करणों नहीं।।
१. राजी खुशी
लिखतां री जोड़ : ढा० १८ : ४९
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४१ तिण सूं फतूजी रा लिखत माहि,छठा बोल माहै कह्यौ।
चेली करणी ताहि, साधां री आज्ञा थकी।। ४२ बोल सातमां मांय, कीधां पछै अजोग है।
तो देणी छिटकाय, साधां रा कह्यां थकी। ४३ ए पिण सहु नै जाण, न्याय गुणसठा लिखत में।
बुद्धवंत कहै पिछाण, (तो) अजोग नैं नहिं राखणो।। ४४ हिवै बोल आठमां माहि, आरजियां साथै जुई।
मेल्या नटणो नाहि, ए पिण बोल सहु तणों ।। ४५ लिखत गुणसठे तास, आचारज री आंण सूं।
शेखे काळ चोमास, विण आज्ञा रहिणो नहीं।। ४६ संत सत्यां रो जाण, दोष प्रकृत ओगुण तिको।
गुरु नै कहिणो आंण, न कहिणो ग्रहस्थादिक आगलै।। ४७ नवमो बोल निहाल, ए पिण छै सघलां तणें।
पचासै बावनै न्हाल, प्रगट अक्षर है लिखत में। ४८ संत सत्यां रो कोय, दोष तुरत कहिवो तसु।
तथा गुरां पै सोय, अवर भणी कहिवो नही।। ४९ हिवै दसमों बोल कहिवाय, लोळपणो जाणै मुनी।
वस्त्र अन्नादिक मांहि, तो प्रतीत उपजावणी।। ५० ए पिण सहुनों जाण, न्याय कहुं हिव एहनों।
लिखत गुणसठे आण, भाखी संत सत्यां भणी।। ५१ वीस कोस चालीस, अथवा अलगी दूर है।
चोमासो उतरयां दीस, अथवा सेखे काळ में।। ५२ कपड़ो जाच्यो होय, फाड़-तोड़ ते वस्त्र नै।
द्वैत-वैत नैं सोय, आप मते नहीं पहिरणो।। ५३ काम पडै जरूर रो ताय, तो जाडो-जाडो वांटणो।
महीं आचार्य रै पाय, आण मेलणो आगलै ।। ५४ आचार्य इच्छा जोग, इच्छा आवै ज्यूं दिये।
ते लेणो तज सोग, पाछी बात न चलावणी।। ५५ वरस गुणसठे स्वाम, संत सत्यां नै वारता। . आखी इण विध ताम, वस्त्र ममत मेटण भणी।।
१. बांट-बांट कर। ५० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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५६ लिखत पचासा मांहि, आख्यो मुनि नै इण विधे।
किण री खावा पीवादिक री ताहि, करणो बड़ा कहै ज्यूं तेह नै॥ ५७ लिखत बावना मांहि, आरजियां नैं इम कह्यो।
आहार आश्री मांहो मांही, बात चलावण रा त्याग छै।। ५८ शेखेकाळ चोमास, करणो बड़ा कहै जठै।
इत्यादिक सुविमास, विविध वारता त्यां कही।। ५९ हिवै बोल इग्यारमो जोय, अमल तमाखू आदि दे।
(लेणो) रोगादिक कारण सोय, विसन रूप लेणो नहीं। ६० सहु समणी नै सोय, आचारज नी आण ए।
आज्ञा सूं लै कोय, दोष नही छै तेह में। ६१ मुनि नां लिखत मझार ए वस्तु वरजी नहीं ।
(तिण सूं) सुगुर आण श्रीकार, आज्ञा विन लेणो नहीं। वस्त तमाखू आदि, सूत्र मांहि वरजी नहीं। गणपति बांधी मर्याद, आचारज रै हाथ है।। बोल बारमो सार, संता नै सतियां भणीं। आचार गोचार मझार, ढीला पड़ता जाण नै।। सासण निमल समाध, सर्व संत सतियां भणीं।
करली बांधै मर्याद, तो पिण नां कहिणो नहीं।। ६५ सीख इत्यादिक सार, चरण संघात सुहामणी।
कर लेणी अंगीकार, जाव जीव पचखांण छै ।। ६६ अठार तेतीसै सार, विद बीज बुद्ध मृगसर मझे।
ए लिखत वंचाय अंगीकार, कराय सामायक आपियो॥ ६७ बले छेदोपस्थापनी फेर, दीधो लिखत वचाय नैं।
कियो अंगीकार चित्त घेर, हरष सहित च्यारूं अजा॥, ६८ उगणीसै चवद उदार, फागुन विद अष्टम शनी।
जयजश गणपति सार, सरल जोड़ बीदासरे ।।
लिखतां री जोड़: ढा० १८ : ५१
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(लिखतां रो निचोड़)
१
प्रणमूं गणपति संपति करणा ॥धुपदं ॥
भिक्खू भारीमाल ऋष नृप भारी, स्वामी न्याय मार्ग ना नेतारी । सुखदायक स्वाम तणा सरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।। अखेराम जी नै गण मांहि लिया, भिक्खू बारै बोलां रा करार किया। लिखत गुणतीस अनुचरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।। ( भिक्खू) विविध मर्यादा बांधी भारी, एक गणपति नाम संपति सारी । लिखत बतीसा मांहै निरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।। फतूजी नै पिण मांहि लिया, भिक्खू बारै बोलां रा करार किया। तेतीस स्वाम वयण तरणा, प्रणमूं गणपति संपति तूंकारो, पंच दिवस पांचू विगै
करणा ॥
परिहारो ।
अज्जा क्रोध वसै देवै आंसू काढै तो दस दिन उच्चरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।। ग्रहस्थ आगे उतरती रो एक मासो, विगै पांचू त्याग कह्यो तासो । लिखत चोतीसा मांहै वरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।। ओरां में दोष देखी सेणो, तिण नै कही पानां में लिख लेणो । इकतालीसा लिखत में ए निरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।। गण बाहिर तथा मांहि जाणो, अंसमात्र उतरती रा पचखांणो । पैतालीस कह्यो तिम पग धरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।। -- आप में तथा गण में ताह्यो, संजम जाणो तो रहिज्यो गण माह्यो । ठागा. सूं रह्यां पापे पिंड भरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।। दगाबाजी सूं रहै तिण नै जाणो, अनंत सिद्धा रो साख सूं पचखांणो । बलै अनंत संसार संचरणां, प्रणमूं गणपति संपति करणा । कह्यो पेखी, तथा गुर नै कहै ते निरा पेखी । घणां दिन सूं को तो कुगति परणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।।
९
११ दोष तुरत धणी नै
२
३
४
५
६
७
८
ढाळ १९
१०
१. लय - भारीमाल भजो भवियण प्राणी...।
५२
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१२ गुरु आज्ञा विण इक निस उपरंत, एक ग्राम न रहै समणी संत।
पचासै बावनै ए सहु निरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। १३ कर्म जोगे गण बार थयो, तो गुणसठा रा लिखत में एक कह्यो।
सरधा रा क्षेत्रां में नहीं फिरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। १४ कर्म जोगे गण बार थया नै जाणो, अंस ओगुण बोलण रा पचखांणो।
हुंता अणहुंता पिण नहीं उचरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। १५ गण में पाना लिख्या जाच्या जाणो, ते साथै ले जावण रा पचखांणो।
त्याग अनंता सिद्धां री साख भरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। १६ मर्याद ए सुखदायो, पचासा गुणसठा लिखत मांह्यो।
अखंड आराध्या ऊवरणा, प्रणमू गणपति संपति करणा। १७ कर्म वस गण बाहिर हुवै मंदा, एक दोय आदि जे अपछंदा।
एहवा नै साधू नां गिणणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। १८ नहीं गिणणा च्यार तीर्थ मांह्यो, चिहुं संघ रा निंदक कह्या ताह्यो।
एहवा पासथा नैं नहीं आदरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। १९ त्यां नै वादै ते पिण आज्ञा बारो, लिखत बतीसै गुणसठै अधिकारो।
स्वाम वचन हृदय धरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। बोल सरधा आचार तणों कोइ, गुर बुधवंत संत कहै सोइ।
ऊचरंग सेती आदरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। २१ कोइ बोल न वैसे दिल मांह्यो, तो केवलियां नै भलाय देणो ताह्यो।
खंच अंसमात्र पिण परहरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। २२ और साधु रे नहीं घालणी संको, बलै मेट देणो मन रो बंको।
स्वाम वचन है सुख सरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। २३ जिलो बांधण रा पचखांणो, अनंता सिद्धां तणी आणो।
पैताळीसै पचासै गुणसठै निरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा॥ २४ आर्थ्यां रो विजोग पड़यां वरणी, नहीं कल्पै जद संलेखणा करणी।
तेतीसा लिखत मांहै वरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। २५ दोष जाणै जो गण मांह्यो, तो टोळा माहै रहिणो नाह्यो।
एकलो होय संलेखणा धरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। २६ आ श्रद्धा हुवै तो गण मांहि रैणो, गाळा गोळो कर रहै तो उत्तर देणो।
लिखत पैंताळीसै उच्चारणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा॥ २७ इण लेखे कारण पड़िया सोयो, दोय समणी इक मुनि नै जोयो।
संलेखणा ना कह्या सरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा॥
लिखतां री जोड़ : ढा० १९ : ५३
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२८ इत्यादिक बहु मर्यादो, अति हरष धरी नै आराधो।
थारा मिट जाय जन्म मरण फिरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा॥ २९ उगणीशै चवदे वैशाखो, छठ सुकल लाडणूं अभिलाखो।
ठाणा एक सो अठारै सुख सरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा।। ३० भिक्खू भारीमाल नैं ऋषरायो, जय गणपति संपति सुखदायो।
स्वाम वचन धास्यां तिरणा, प्रणमूं गणपति संपति करणा ।।
५४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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गणपति-सिखावण
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१
२
३
४
५
६
७
८
९
१०
ढाळ : १
दूहा
गण
वृद्धि चाहो
तो नेठाउ' पंच
कोइ समणी नै
सुगणपति,
ते, अधिक म गणी, सूंपै
भणीं, तर्क न
सुगणपति, जे
चाहो
लेणा उरा, इण में
अज्जा, सूंपै
समणी संपद
सूपौ
अन्य अज्जा वा मुनि
गण
वृद्धि
सिख - सिखणी
गुण
अधिक गुणी मुनिवर
तसु कर दीख ।
ते अन्य नै तसु ईसको, नहीं
करखूं ए सीख । सोंपै तसु दीख ।
गणि
तथा द्रव्य क्षेत्रादिके, करै तास कोई ईसको,
ते अवनीत अलीक || त्रिण मुनि जे
अगवाण ।
द्रव्यादि
पिछाण ||
सिंघाड़ ।
करणी
सार ॥
गण वृद्धि चाहो सुगणपति, गाहा पणवीस बहुलपणै, बलि जिता दिवस अगवाण बण, विचरै नीं, व्यावच अन्य, तसु पेटे विख्यात । तिम करै, (पिण) संपति राखै हाथ ॥ मुनिवर कन्है, जो ईसको', करिवो
तेता दिवस गिलाण' तथा करावै कार्य
न लिखावै गाह ।
बलि गुण जाणै अधिक गुणी अन्य मुनि नै इमज गणी पासे बहु अज्जा नहीं
तसु
नहीं
राखणीं,
१. साधारणतया
२. शिष्य - शिष्या
३. गाथा - लिपिकरण का एक माप तेरा
पंथ श्रमण संघ की एक ऐसी पूंजी,
जो लिपिकरण सेवा आदि के द्वारा अर्जित की जाती है।
४. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि को देखकर
सत्यां
करणी
कोइ
५. रुग्ण
६.
सेवा
७. बदले में
८. ईर्ष्या
रह्यां, एक साज रे
कारणीक
विण
हाथ ।
आथ ॥
सवाय ।
ताय ॥
दीक्षा
देह ।
अधिकेह ॥
सुराह ॥
मांय |
ताय ॥
गणपति - सिखावण: ५७
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११
१२
गणी समीपे बहु रहै, तो बहु साज करेह । पिण इक साजे बहु अज्जा, नेठाउ मत देह।। प्रकृति तनु रोगी विरध', जो तिण ने सोंपेह । तास निभावा अधिक दै, अवसर देखी जेह ।। गण वृद्धि चाहो सुगणपति, चतुरमास उतरेह। बाहुल्य दरसण विन किये, विचरण आण म देह।। गण वृद्धि चाहो सुगणपति, संत सती गुण गेह। विण कारण इक ग्राम में, रहिवा आण म देह।। गणवृद्धि चाहो सुगणपति, संत सती गुण गेह। परिचय रूपज. सेव नी, तूं आणा मत देह ।। गण वृद्धि चाहो सुगणपति, चतुरमास उतरेह। संत सती आवै तसु, पूछा सर्व करेह॥
गणी गुण धारी रे २। वर जय गणपति जी हरख सीख हितकारी रे, गणी०॥ ए समण-सत्यां नी, संपति अविचल सारी रे ॥गणी०॥ मरजाद पळायां अति गण वृद्धि उदारी रे, गणी०॥ध्रुपदं॥ चउमासो उतरियां आवै मुनिवर अज्जा ज्यांरी रे। तास हकीगत सर्व पूछणी, ए नीती निरधारी रे॥ संत सती चउमासा पाछै, दरसण करै तिवारी। पुस्तक पड़घे विण सूप्यां तसु, च्यार आहार परिहारी।। सेखैकाळ' विचरिया त्यांरी, पूछा कीजै सारी। चउमासा री इमज बारता, पूछ करै निरधारी। घृत, माखण, पय, दही, - लकारज, ओखधि करै तिवारी॥ विगय मर्याद थी अधिक न लेणी, पूछा काजै सारी॥ गणपति पे चउमासो धारी, विहार कियौ सुखकारी। चउमासा पहिला वा पाछै, विचस्या क्षेत्र मझारी॥ जे जे रात्रि रह्या जे क्षेत्रे, पूछ करै निरधारी। इक-बे-त्रिण-निसि प्रमुख मास लग, कारण अधिक विचारी।।
२१
२२
१. वृद्ध २. लय : हीडे हालो रे। ३. जिस समय
४. विवरण ५. चतुर्मास के अतिरिक्त आठ महीने ६. मैथी आदि के लड्डू
५८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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मिलिया त्यां भेळा, रह्या किती निशि धारो । गांमादिक बाहिर, पूछा कीजै सारी वस्त्र पात्र रोगान पत्रादिक, संत सत्यां नै सारी । दधो लीधो सर्व हकीगत, पूछ करै समणी
निरधारी ॥
गणि आणा विण
पासे, पात्र रंगावे धारी ।
वस्त्र सिंवावै
सु
तिवारी ॥
दंड दीजे, उभय भणीं विहार करी ने, जे ग्रामादी मझारी ।
वलि पूछे थे
उसण आहार' आथण २ रा ल्याया,
कै नही ल्याया धारी ॥ तुम्हे गया किणवारी ।
मजल करी धारी ॥
आवै
सारी ।
दंड दीजै
भारी ॥
ज्यां
खेत्रां री ।
हरष मनवारी ॥ सती सुखकारी ।
गणि बांचण
मेलै, संत त्यांनै, सहु गणि नामे धारी ॥ तिण नै, तसु धणियाप निवारी | जो मांगे, सूंपै विनीत तिवारी ॥ ह्वै बेराजी, तह मती
अज्जा,
पोथ्यां
मुनि, मांग्यां सेती
बधारी ।
बुध सूं खोड़
मेट तसु
खेत्रज, देख
भळावै
धारी ॥
नीत
उदारी ।
आज्ञा सासण ऊपर दृष्टज, अनुकूल प्रकृति देखी
अनुसारी ॥
तिवारी |
खेत्र भळावै, खळ गुळ न ही इकसारी ॥ विगय तणों ओखध कीधो, तेहथी दुगुण दिन धारी । एक सप्पी' उपरंत न लेणी, विगय लिखत तंतू जाचै तास नाम लिख, गणि नै कहै ते पिण पूछी लिख्यो वांचजे, १. गर्म आहार सं० २०१६ तक सायंकाल के समय सामूहिक रूप से गोचरी नहीं होती थी। अतः लम्बे विहार में पहुंचने में विलंब हो जाने से भोजन आदि पर्याप्त नहीं मिल
आलस
अंग
निवारी
पाने की स्थिति में गर्म आहार लिया जा सकता
था ।
२. सायंकाल
२३
२४
२५
२६
२७
२८
२९
३०
३१
३२
३३
३४
३५
मुनि अज्जा विषे
गांम
उसण ल्याया तो तेह
ग्राम में, वा पाछै, किती
दोढ पोहर
चढियां
विहार करी गोचरी
रा
सुखे आण साध साधवी करै
तणीं जे, वेळां उसण मंगावै, तसु चउमासो, पृच्छा
विगयादिक नो दायक कुण-कुण, अधिक सेखेकाळ चउमासो तसुधणियाप
न करणी पोथ्यां दै
३. किसी समय
४. स्वस्थ अवस्था में
५. भावना भानें वाला
६. स्वामित्व
७. त्रुटि
८. घृत
९. वस्त्र
गणपति- सिखावण: ५९
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३६ संत सती चउमासा मांहि, चउत्थ' छठादि उदारी।
ते पिणं लिखियो पत्र वांचजे, सुरत राखजै भारी।। कारण आथण असण मंगायां, पंच विगय परिहारी। पत्र लिख्यौ वांचे वलि इमहिज, कारण नित पिंड आहारी।। अज्जा कोइक अधिक कठोरज, वचन बोलै अविचारी। लिख्यो वांचजे तसु दंड दीजै, पूछा कीजै सारी।। संवत उगणीसै नै दसके, स्वाम लिखत री सारी। प्रवरहाजरी-जय जस गणपति, कीधी अधिक उदारी।। नित्य हाजरी वांचै कै नही, पूछ करै निरधारी। तसु मुख आगल संत सती जे, सुणैक न सुणै सारी।। विहार कारण विन मुनि अज्जा, परठै असन' तिवारी। दूजे दिन तसु घृत नहि लेणो, लिख्यौ वांच सुविचारी।। जे गांम में अज्जा छै त्यां अन्य, अज्जा आयां सारी। तसु आज्ञा विन व्यंजण विगय, न लेणो लिख्यौ विचारी।। दीक्षा दै गुरु पे रहिवा रा, दै . परिणाम उतारी।
तिण नै बलि चारित्र देवा नी, आण म दिये लिगारी।। ___ ए गणपति अनुकूल अछै के, प्रतिकूल छै दुखकारी।
उंडी दृष्टि करी ओळखजै, सहज म गिणै लिगारी।। संत सति गणपति सूं अनुकूल, करब' बधारै भारी। दिन-२ अनुकूल अधिको वरतै, तास निरत दिलधारी।। गणपति नो प्रतिकूल छै तेहने, ओळख करे विचारी। कुरब वधावा लायक नहीं ए, जाणी तसु दुखकारी ।। आपस में जिल्लो कोई बांधे, ओलखजै तसु जारी।
तेहनें भेला तूं मत राखै, अवसर देख उदारी।। ४८ कटमी" बात करै सासण री, ते छै जनम बिगाड़ी।
तिणनै रूड़ी रीत ओळखजै, धिग् तिण रो जमवारी॥
१. उपवास २. दो दिन का तप ३. गण विशुद्धि के लिए आचार्य भिक्षु निर्मित मर्यादाओं के आधार पर बनाया गया शिक्षात्मक संकलन, जिसे सभी की
उपस्थिति में प्रतिदिन पढ़ा जाता था। ६० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
४. आहार ५. प्रतिष्ठा ६. अनुरक्ति ७. आलोचनात्मक
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४९
५०
५१
५२
133232
५३
५४
५५
५६
५७
५८
५९
६०
६१
अछै थारे भुज, तू सासण सिणगारी । चाहिजै, ए ओळखणा सारी ॥ दीपावै, धर उछरंग
तुज ने
परमुख गण
अपारी ।
सूं प्रीत न
राखै, विनयवंत
भारी ॥
गणपति नां अति
गुण दीपावै, परम प्रीत अति भारी । प्रत्यनीक नै तुरत निखेधै, ते सासण सिणगारी ॥ गणपति नां गुण करतौ संके, वदै दुखकारी । अवनीतां सूं हेतज राखै, ते स्वाम लिखत मरजादा सुण-सुण, गण दीपावै अति लसावै,
वयण अवनीत विडारी ॥
हरखै हिया मझारी । सासण सिणगारी ॥
स्वाम लिखत मरजादा सुण मन मुरझावै बलि कुमलावै, गणपति नै सासण परम प्रीति तिण रै
मझारी ।
सारी ॥
नै, न गमै चित्त मझारी । अवनीत विडारी ॥ रा गुण सुण, हरखै हिया गणपति सूं, तूं ओळखजै गणपति, सासण ना गुणसुण नै, देवै प्रतिकूल गणपति पूरो, ओळख करै सासण वीर तणों भिक्षु गण, करै उतरती तास निखेधी नै दण्ड मुनिवर अज्जा, राखै
मुंह
दीजै, काण म राख
कन्है है जे
सदा हाजरी तास सुणावै,
आलस
सासण
तिण कारण
सनमुख
प्रत्यनीक
भार
उगणीसै पनरै
नित्यप्रति लिखनै कन्है रहै जै
नित्य प्रति लीजै
सेखै काळ नित्य
·
मर्यादा, बांधी मुनि सुणावै, ए मुनिवर
पूछा कीजै, विविध प्रकार विचारी ॥ सिंघाड़े, संत सती सुखकारी।
हाजरी अक्षर' लिखणा, पूछ करै निरधारी ॥
चउमास
बिगारी ।
विचारी ॥
ज्यांरी ।
लिगारी ॥
मझारी ।
निजर अंग निवारी |
ए
हितकारी । भारी ॥
दृढ़ राखै
अज्जा, तास हाजरी सारी ।
१. बिकारी ।
२. लिहाज
३. मर्यादाएं प्रारंभ में प्रतिदिन सुनाई जाती थी। सं० २००५ तक सप्ताह में दो बार, अब नियमित रूप से पक्ष में एक बार चतुर्दशी के दिन सुनाई जाती है।
४. सं० २०१६ तक लेखपत्र में प्रतिदिन हस्ताक्षर करने की विधि थी। आचार्य श्री तुलसी ने तेरापंथ द्वि शताब्दी के अवसर पर इस व्यवस्था में परिवर्तन किया ।
गणपति सिखावण :
६१
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एक पक्ष में सरस हाजरी, वखाण में इकवारी। सिंघाड़ा बंध बांचै त्यांरी, पूछा . करै उदारी॥ आपस में परचो नहि बांधे, तास उपाय विचारी। कलह मिटावै गण सोभावै, तूं गण तिलक उदारी।। संग मिटावण ग्राम-ग्राम में, अवसर देख उदारी। बोलण चालण नै वेसण री, · कर मरजादा भारी॥ भाव सल्य राखै तेहना फळ, वखाण में विस्तारी। सल्य मिटै तेहना फल सुर सिव, कहिजै बारंबारी।। सुद्ध असुद्ध अन्नादिक लेवे, देवै बलि दातारी। तेहनां फल पिण वखाण में, तूं वार-वार विस्तारी।। मुनि अज्जा नी प्रकृति ओळखी, मेलै क्षेत्र मझारी। परिचय आदि पुकार न आवै, दीजै सीख उदारी॥ कदाचित जो पुकार' आयां, बलि तिण स्थानक बारी। बलि तिण खेत्र विषै मेलै तो, करै विचारण भारी।। सूकी दोव दीसै पिण घन सूं, हरित हुवै तिणवारी। तिम वलि तिण खेरै तसु मेल्यां, हुवै हरित मोह क्यारी। भिक्षु स्वाम थया ओजागर', लीधो मारग भारी। ते सुध राखै सिव अभिलाखै, लही संपदा सारी।। ए श्रद्धा आचार अनोपम, सिव हेतु सुखकारी। ते सुद्ध पाळे, सुद्ध पळावै, तूं सासण नेतारी॥ भिक्षु स्वाम तणे परसाद, तैं मग पायो भारी। दुर्गति खंडन सिव सुख मंडन, राखै अधिक सुधारी॥ त्रिभुवन नाथ वीर प्रभु मोटा, तास पाट तूं भारी। च्यार तीर्थ ना थाट सम्पदा, ते गहघाट' उदारी।। नीत हुवै चारित पाळण री, दीजै स्हाज अपारी। ए सगळा तुज सरणै आया, तूं सहु नों नेतारी।। कोइक तो है तन नों रोगी, कोइ मन रोगी धारी। नीत हुवै चारित्र पाळण री, स्हाज दियै हितकारी।
Tani un
७०
७३
७४
नात
७५
५. उत्साह वर्धक भीड़ ६.सहायता।
१. त्रुटि की सूचना। २. दूब। ३. जल ४. उद्योग करने वाले।
६२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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चरण पाळण नी नीत हुवै नहीं, तसु काट्टै गण बारी | तिण री काण मूळ मत राखै, डर भय दूर निवारी॥ सासण वीर तणों इण भरते, छै थारे भुज भारी। तिण कारण ए सीख दई तुज, स्यूं कहूं बारंबारी।। भिक्षु स्वाम तणीं मरजादा, अखंड पळावै सारी। बलि ए सीख देइ मैं तुज ने, गण बच्छल हितकारी॥ भिक्षु स्वाम थया ओजागर, भारीमाल शिष्य भारी। जंबू स्वाम जिसा पट तीजै, रिखिराय बड़ा ब्रह्मचारी॥ तास पसाये लही संपदा, जय जस गणपति सारी। ते थिर राखण सिवसुख चाखण, दीधी सीख उदारी॥ पद युवराज समापे गणपति, ते रहै त्यां लग सारी। तूं सेवा कीजै साचै मन, रहिजै आज्ञाकारी॥ चरण बड़ा संता ने वनणां', आछी रीत उदारी। तूं सुध कीजै जग जस लीजै, मूल रीत ए भारी। विहार करी नै बड़ा मुनिसर, आयां नगर मझारी। आसण छोड़ी, ऊभो थइ नै, कर वंदण हितकारी॥ 'चरण बड़ा' नै लघु संतां जिम, आण अखंडित थारी। आराधणी छै तन मन सेती, चारित जेम उदारी॥ पद युवराज शिष्य मघराज-भणी ए शिक्षा सारी। बले अनागत गणपति है तसु, एहिज सीख उदारी।। शिक्षा ए गणपति नै दीधी, म्हे निज बुध अनुसारी। वलि तुझनै सुख है जिम कीजै, सासण गण वृद्धिकारी। उगणीसै बीसै चउमासे, चूरू शहर मझारी। जयजस गणपति शिक्षा आपी, आणी हरष अपारी।।
१. बाहर। २. वन्दना। ३. संयम-पर्याय में बड़ा
गणपति सिखावण : ६३
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शिक्षा री चोपी
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ढाळ १
दूहा
दसवैकालिक पंचमें, द्वितीय उद्देशक माय। दाख्यौ दीन दयाल जी, सुगुरु आंण सुखदाय ।। आराधै आचार्य नै, श्रमण भणी पिण तेम। गृहस्थ पिण पूजै तसु, जाणै सुविनय' एम।। नाराधै आचार्य नै, श्रमण भणी पिण तेम। गृहस्थ पिण नींदै तसु, जाणै अविनय एम।। इण विध श्रीजिन आखियौ, सुगुरु आण अगवाण। जिण सतगुरु आराधिया, (तसु)जीतब जन्म प्रमाण। जय जश करण सुआण इम, श्रमणी संत अनूप। जो सुख चावौ जीव नै, (तो)आराधौ धर चूंप॥
हो गुणवता महागुणी, सुगुणां संत सती सुखदाया हो लाल ।
जे बुद्धिवंता महामुनि, सासण में रंगरत्ता सवाया हो लाल॥धुपदं॥ ६ आण सुगुरु नी आराधियै, सुविनीत सुगुण सुखदाया हो लाल।
सेषै काळ चउमासै विचरणौ, अगवांण आण हुलसाया हो लाल । ७ छांदै सुगुरु नै चालणौ, चउमासौ उतां चित चाह्या।
(गुरु नै) पहिलां पूछयां विण अन्य दिशा, विण मरजी न विचरै मुनिराया। चउमासा पछै गुरु रा दर्शन कीयां, सूंपौ पोथ्यां पडगै सुखदाया। सूंप्यां विण. च्यारूं आहार म भोगवौ, मेटो मान मछर दंभ माया। कनली आर्या गुरु पै मोकळ्यां, समाचार त्यां साथे सवाया।
आर्यां पोथ्यां - हाजर आपरै, मन मानै ते दिवस मंगाया। १० पाडियारी सूंपी मो भणी, सहू आप तणीं नेश्राया। ... ममत धणियाप न मांहरै, सुविनीत ए शब्द सुणाया।।
१. सुविनीत
४. विचारों के अनुकूल २. अविनीत
५. उपकरण। ३. लय-घूम घूमालो घाघरो....। ६. प्रतिहारिक-जो वापिस दी जा सके। ६६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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तिण रा पाना
सर्व सुगुरु
ममत धणियाप करवा तणां, किया त्याग नै अक्षर लिखाया । गुरु मांग्यां सूं मुंह न बिगाड़णौ, सूप्यां बिन च्यारूं आहार पचखाया ॥ कनै रहै ते संत सती कदा, प्रवर पंडित मरण हद पाया। लिख्या नै दिख्या तणां, तथा अवर तास नेश्राया || नें सूंपणा, धणियाप करै किण न्याया । राख्यां चौरी देव गुर तणीं, एहवो पाप तजै मुनिराया ॥ निज लिख्या दिख्या रा अवर पिण, गुरु नै पूछयां बिना मन चाह्या । आपस में देवा लेवा रा त्याग छै, जीवै ज्यां लग सूंस' सुहाया ।। काळ किया तस लोट पातरा, नवो वस्त्र मूकै गुरु पाया । तिण रौ राख अवर नहीं सूंपणो, परठवा योग्य वोसराया ॥ १६ भगवती सूत्रे २ भाखियौ, काळ कियां स्थविर चल आया । भगवंत नैं, ज्ञानी देव सिद्धंत में गाया ॥ सिंघाडाबंध ते, कदा पंडित मरण सर्व पोथ्यां सुगुरु नै सूंपणी, मन सूं धणियाप १८ गुरु राखै जठे रहिणो निज भणीं, सिंघाड़ो करवो मन हवै तो कीज्यो चाकरी, गुरु आंगूच १९ विध इमहिज सिंघाड़ाबंध नी, म्हैं कारण में इम कही तसु पाना न राखणां, एहवी रीत खामी पड्यां बहु जन मझै, गुरू चौड़े मुंह बिगाड़ दे, सुवि
उपधि आप्या
१७ संत सती
शब्द सुणाया ॥
करी सेव सवाया ।
परंपरा
मांह्या |
निषेधे
सुन्याया ।
अवनीत
हरष
अथाया ॥
निषेधे
अथाया।
इमहिज सिंघाड़ाबंध तण, खामी पड्यां मन वै तो आगे विचरज्यो, गुरु आगूंच २२ चौड़े मोनै निषेधौ मती, कदा गुरु
शब्द -
सुणाया ॥
नहीं मानै वाया ।
तिण सूं चोट खमणी पहिला धार नैं, अगवाण विचरै मुनिराया ।। २३ बारंबार जतावूं था भणी, पछै कहोला पहिलां न सुगुरु काण राखै नही, करलो ओषध देत २४ हूंस राखै सिंघाड़ा तणीं, चोड़ै निषेध्यां मुख कुन बधावणौ, खमियां तौल बधै
फुरमाया । सवाया ॥
तास
११
१२
१३
१४
१५
२०
२१
१. प्रत्याख्यान
२. भगवई शतक २ उद्देशक १ सूत्र ७० ।
३. प्रारम्भ में ।
४. गलती ।
५. लिहाज ।
६. कडुवा
७. उम्मीद
८. प्रतिष्ठा ।
सुपाया । मिटाया ॥ नियम नाह्या ।
कुमलाया । अधिकाया ॥
शिक्षा री चोपी : ढा० १ : ६७
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२५ रीत ए सहू श्रमण-श्रमणी तणी, अगवाण नै तौ अधिकाया।
सूत्र वखाण सीखै सही, तिम खमवौ सीख्या सुख पाया। २६ भारीमाल ईडवा मझै, परषदा में निषेद्या सवाया।
ते मुनिवर कहै स्वाम नैं, मोनैं छानैं कहो ऋषिराया। ताम स्वाम भारीमालजी, सतयुगी मुनि नै बोलाया।
सुणो खेतसीजी ए इम कहै, मानें छानै कहो ऋषिराया। २८ छानें कहां म्है किण विधै, हिवै तो चौड़े कहिवौ सवाया।
इम सुण नै ऋषिरायजी, हद सीख धार पद पाया।। भिक्षु स्वाम पीपाड़ में, वैणीरामजी नै बौलाया।
दोय तीन बार हेलौ पाड़ियौ, पिण बोल्या नही ऋषिराया॥ ३० लूणावत गुमानजी तेहनें, इम स्वाम भिक्षु बोल्या वाया।
'बैणों छूटतो दीसै' अछै, जब गुमानजी त्यां पासै आया। ३१ कही स्वाम भिक्षु नहीं बारता' सुण त्रास अधिक दिल पाया।
आय पगां पड्या स्वाम नैं, जै तौ सुवनीत महामुनिराया। ३२ स्वाम कहै हेलो पाड़ियो, तूं बोल्यो नहीं किण न्याया।
वैणीरामजी कहै सुणियौ नहीं, घणों विनय करी नै रीझाया।। ३३ इसड़ा सुवनीत गुरां तणां, ज्यांरो काण-कुरब' बधाया।
चो. निषेध्यां बेदल हुवै, त्यांरो कुरब बधै किण न्याया।। ३४ वर्ष बावनां रा लिखत में, इम स्वाम भिक्षु फुरमाया।
अजोगाई कीधी किण आर्यो, तिण नै प्राच्छित देणौ सवाया। ३५ बलै च्यार तीर्थ में तेहनें, हेलणी निंदणी निंदणी पड़सी ताह्या।
पछै कहोला मार्ने भांडे अछै, बले करै फितूरों अथाया।। ३६ (तिणसू)पहिला सावधान रहिज्यौ सहु, सावधान रह्या जो नाह्या।
तो मुंडा दिसोला लोकां मझै, पछै कहोला मानै न जताया।। ३७ लिखत पचासो साधां तणों, तिण में पिण ए गाया।
आज्ञा लोप्यां मरजादा उलंघिया, अथवा अथिर परिणामी नै ताह्या।। ३८ तो गृही नै जतावां रा भाव छै, बले श्रमण सती नै सुखदाया।
त्यां नै पिण जतावारा भाव छै, पछै कहोला मोनै न जताया।।
१. वार्ता २. विशेष प्रतिष्ठा ३. अनमना
४. अनुचित व्यवहार ५. उपद्रव ६. गृहस्थ
६८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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बलै
गण स्तंभ ज्यूंच्यारूं
महागुणी,
सराया।
पाया ॥
अथाया।
गण भार - धुरा ज्यांरी - भुजा, ते पिण तो औरां री कुणसी चली, गुरु अधिक तोल त्यांरौ बध्यौ, तीरथ भारिमाल परसंसिया चोडै, खमियां रा ४२ जिणनैं सुगुरु वचन खमवा दोहिला, तो अवर नां मान राखै सतगुरु थकी, ते तौ महामूरख कहिवाया ॥ ४३ कठिन वचन गुरु सीख दै, ते तौ अमरित सूं अधिकाया । भाग्य दिसा भारी हुवै, जब सतगुरु सीख सवाया । ४४ तीन ठाणै मोजीरामजी, विण मुरजी लावा में रहिवाया। आगलै, सुण स्वाम संतां नैं बोलाया ॥ मती, हिवै मोजीरामजी पिण किण नवि सीस नमाया ॥ लागिया, भारीमाल हुकम फुरमाया । जद वनणा कीधी साध-साधव्यां, निषेदी तसु दंड दिया || ४७ बहुबार सतजुगी हैम नैं, इमहिज स्वाम में निषेधियां, समभाव
राजनगर आया पूज
आया ।
४५ कोई वनणा कीज्यो
देखै सहु साध - साधवी, ४६ पछै आय पूज पगां
त्यांनै चोड़ परषद ४८ मोद पिंडतपणां
नों आण नैं, अभिमानी मत कहो, छानै
सीख कह्यां, दुर्लभ रहिवौ विधे, मान मेट्यां कह्यो, गुरु कठण हित मानै सही, अवनीत न्याती नै कहै, तिम जाणे
सुव ५१ मित्र भाई
दास
अवनीत सीख कठण सुणी, लेखवै ५२ गुरु कठण वचन निषेधियां, सुवनीत चिंते
आज अनुग्रह गुरु
तणों,
शीतल
कठण परम लाभ अति
३९ सतजुगी
४०
४१
४९
५०
५३
नै वैणीरामजी,
परिषद माहै मोनैं इम अभिमानी नै चोडै कुर' बधै त्यांरो किण उत्तराध्ययन पहिलां में
१. मुश्किल
२. सम्मान
वचने
मुज
करी,
हैम
अनै ऋषराया।
समभाव सह्या तज माया ॥ अहंकार मिटाया ।
ऊपर
कहिवाया ॥
मान
सर्व
च्यार
ए फळ
कठण
ऋषराया ।
रह्या
मुनिराया ॥
कहै इम वाया ।
देवौ
सम
सूं कुरब
सीख
कहिवाया ।
ने द्वेष भराया ॥
सुहाया ।
जेम रुलाया ॥
वनीत
मुनिराया ॥ अध्यवसाया ।
बधाया ॥
मन माया ।
ऊपर छै
अधिकाया ॥
गुरु सीख देवै सुखदाया ।
तिको
मुनिराया ॥
लेखवै,
सुवनीत
३. उत्तरज्झयणाणि अ. १ गा ३८
शिक्षा री चोपी : ढा० १९ : ६९
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५४ आचारज नै कोप्या जाण नै, सुवनीत संत सुखदाया।
प्रसन्न करै मधुर वचन सूं, बलै करै घणी नरमाया। ५५ बुझावै क्रोध अग्नि . सुगुर तणी, कर जोड़ वदै इम वाया।
आज पछै इसो काम हूं बले, कदे ही न करूं गुरुराया। ५६ आज कृतारथ हूं. थयो, मोर्ने, निषेध्यो परिषद मांह्या।
आज भलो भाण ऊगीयो, मोनैं अमरित प्याला पाया।। ५७ आज म्हारी जागी दिसा, रत्न चिंतामणी पाया।
वृष्टि अमोलक रत्न री, वारू परिषद में वरसाया।। ५८ संवत उगणीसै बारे समें, मृगसर विद दसम सुखदाया।
सतगुरु सीख सहामणी, दीधी जयजस हर्ष सवाया।।
७० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ २
सुखदाई सुविनीत . नों, बाधै सुजस विसेष। सुध प्रकृति मंद चोकडी, वारू विमल विवेक॥ दुःखदाई अविनीत नों, अपजश अधिको होय। क्रोधी मानी लोळपी, विवेक रहित अवलोय॥ स्वार्थ तसु पूगै नहीं, अवगुण सूझै अनेक। बोलै विगर विमासियो, अविनय कर्म कुरेख। प्रकृति खोडिली' तास अति, कालै ख्रचणो कोय। समभावै सहिवौ कठण, अति क्रोधातुर होय।। अक-बक बोलै अति घणों, अवगुण ढांकण काज। ओलखावू तस प्रकृति नैं, सुणज्यो सुरत समाज॥
खोड़ीली प्रकृति तो धणी ॥ध्रुपदं॥ करे चालंतां बात, कहै कोई ते भणी। ठीक न कहै बोलै ओर, खोडोली प्रकृति नों धणी॥ पक्की जयणां रो कहै, करतां आहार, इण में चूकां अणी। ठीक न कहै रहै मौन, खोड़ीली प्रकृति नों धणी। आहार करतां पूरी जयणा नाहि, करै को जतावणी। तो पाछौ ओड़ो' दै जाण, खोड़ीली प्रकृति नों घणी॥ चूकै पडिलेहण करंत, दीयै सीख ते भणी।
फेरै मुंह नो नूर, खोड़ीली प्रकृति प्रकृति नों धणी॥ ___ जोड़ी' करतां चूकां कहै तास, तो रीस करै घणी॥
वदै क्रोध तणे वश वाण, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ चालंतां तंतू घीसंत, कह्यां वच अवगणी। बड़ो कहण वालो मोय, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥
१. दुष्ट २.सावधान। ३. लय-नदी जमुना के तीर
४. शिक्षा देने वालों को बीच-बीच में टोकना। ५. चिकने पात्रों की अन्तिम रूप से सफाई। ६. वस्त्र
शिक्षा री चोपी : दा० २ : ७१
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१२ सीवंत बोलै सोय, कह्यां रीस अति घणी।
कहै थेइज रहिज्यो सचेत, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। १३ इक दिन में चूकां बहुबार, करै को जतावणी।
कहैं लागो म्हारी लार, खोड़ीली प्रकृति नों धणी __ पड़िकमणौ पडिलेहण करंत, चूकां कहै ते भणी।
तो बिगाडै मुख नों नूर, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ पाणी नां तडका पड़ता देख कह्यां लाली२ घणी। कहै-पोता रा क्यों न पेखंत, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ बोले वस्त्र पहिरत, कालै खोड़ ते भणी।
कहै हूंतो रह्यो छू जाण, खोड़ीली प्रकृति री धणी॥ __ऊंची साड़ी रौ कहै कोय, तो मुंह बिगाड़णी।
कहै बडां रो खूचणों काढंत, खोड़ीली प्रकृति री धणी॥ १८ चोलपटो न पहिर्यो सुध रीत, कह्यां रीस करै धणीं। _ . निर्लज नाणे लाज, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥
पूछे खुद्र परिणाम, पांती अवरां तणीं।
थारै विगय कितीक आइ जाण, खोड़ीली प्रकृति नों धणीं।। ____ आहार पाणी रे निमित, करै राड़ अति घणीं।
निर्लज नाणै लाज, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ थांरी पांती में आहार अधिक, करै बाता घणी। कलहगारो कहिवाय, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ आपस में करै बात, कै मन भांगण तणीं। कहै भूख तृषा में दिन जाय, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। किण ही सिंघाडा मांय, आतम वश आपणी। करणी नावै कोय, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ निज आतमवश नाय, तो स्यूं अवरां तणीं। ते अगवाण अजोग, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। पायो रुपइयो एक, पंडित थयो भणी।
पिण प्रकृति निनाणू रह्या शेष, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। २६ हूंस 'टोळा री" अधिकाय, पूगै किम ते तणीं।
प्रकृति अधिक अजोग, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ १. बिन्दु
३. अवगुण।
४. कलह। २. आंखों में उत्तेजना।५.
अग्रगण्य बनने की इच्छा। ७२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२७
३३
निज पेट री खबर न काय, तो स्यूं हजारां तणीं। ए दृष्टंत लीज्यो जोड़, खोड़ीली प्रकृति नों धणीं। तिणनैं मैलै सिंघाडै अन्य, कहै नां ततखणी। इसड़ी प्रकत दुःखदाय, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। साज' मांहि पिण कोय, राखै नही ते भणीं। फिट-फिट अधिको होय, खोड़ीली प्रकृति नों धणीं।।
ओ पिण सुख न वेदंत, किण ही सिंघाडा भणीं। बले मन राखे अभिमान, खोडीली प्रकृति नों धणी।। करै अवरां री होड (निज), आतमवश ना बणी। ते किम पांमै सुख, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। आहार पाणी वस्त्रादिक ताम, दियै गुरु अन्य भणीं। तो गुरु सूं पिण राखै द्वेष, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ जो तिण ने न दीये अन्नपान, तो खंच मन तणी।
आपो न खोजै मूढ, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। ३४. स्वारथ न पूगै सोय, गुरु सूं. पिण अवगुणी।
अवगुण सूझै अनेक, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। आप जिसो अवनीत, तिण सूं प्रीत अति घणी। बात करै दिल खोल, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। करै उतरती बात, ओघड़-घाट३ अति घणी।
मन रा मेला परिणाम, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ __ मत कहै अवरां पास, बात आपां तणी।
इम बरजी राखै तास, खोड़ीली प्रकृति नों धीणी ।। ३८ तिण कहि ते कहै सर्व, बात गुरु आदिक भणी।
(तो) तिण सूं राखै द्वेष, खोड़ीली प्रकृति नों धणी॥ जिल्लो बांधे मांहोंमांहि, अपर्कीत बहु ते तणी।
ते हुवै जगत में भंड', खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। ४० छेड़वियां फुकार, करै रीस अति घणी।
खिण-खिण मांहे क्रोध, खोड़ीली प्रकृति नों घणी।।
७.
१. एक व्यक्ति की प्रमुखता में स्थापित
मुनियों का मंडल। २. अवगणना करने वाला।
३. संकल्प-विकल्प। ४. बदनाम।
शिक्षा री चोपी : ढा०२ : ७३
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४१ लोळपणौं अधिकाय, साता नी बांछा घणी।
सुखसीलियो साख्यात, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। निशदिन वेदै दुःख, पुद्गल प्यासा घणी। आज्ञा ऊपर नहिं दिष्ट, खोड़ीली प्रकृति नों धणी।। आचार्य नी मर्याद, लोपण बांछा घणी नहीं साहूकारा नी नीत, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ।। __ चिहुंतीर्थ में पेख, पाड़े ईज्जत घणी।
तो पिण नहीं सचेत, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ स्त्रियादिक नहीं ताम, विषय प्यासा घणी। पछै हुवै जगत में भंड, खोड़ीली प्रकृति नों धणी || बोलै ऊंधी बाण, बंक वच में घणी। विवेक विकळ कहिवाय, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ म्हारा सिंघाड़ा नी बात, कहणी नहीं गुरु भणी।
ते भेष ले हुवो खराब, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ ४८. खामी कहै गुरु ने कोय, तास सिंघाडा तणी।
तो तिण ने निषेधे मूढ, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ क्रोध मान माया लोभ, वशै बाणी घणी। बोलै बंक सहित, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ।। साताकारिया खैत्रां नी हूंस, राखै मन में घणी। लूखो' खैत्र भळायां देवै टाळ, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ चउमासो सेखै काळ, रहै इच्छा मन तणी।
गुरु राखै जठै रहै नांहि, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ।। ___ करे पांती रो आहार, बांछां विगयादिक तणी।
नहीं पाती में संतोष, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ ___ बंछा दूध दही घृत दाल, सरस आहारादिक तणी।
बोझ पांती नों दियां वेदै दुक्ख, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ।। निशिदिन बांछा तास, ताजा खेत्रां तणी। नही आज्ञा उपर तीखी दिष्ट, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ सुगुरु पासे सुखदाय, श्रमण सतियां घणी। तिण में काढे दोष, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥
१. सामान्य।
७४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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५६
9
सहै भूख तृषा पिण सेव- न छंडै गुरु तणी। त्यांसू कलुस परिणाम, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ गुरुकुल वासै वनीत, पामें रति अति घणी। पिण ओ तो पामें दुक्ख, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ श्रमण सती रहै गुरु पास, कीरत संपत घणीं। त्यां में बतावै दोष, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ ऊंडी विचारणा नांय, बोली अलखामणी'। कहै-गवेषणा नहीं कोय, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ गुरु कनै रहै छांदो रूंध, लोळपणां नै हणीं। अधिक गुण नहीं जाण गिंवार, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ पोता री सगत न काय, रहै तसु अवगणी।
ओ दोय मुरख कहिवाय, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ भेळा रहै बहू संत, सत्यां पिण रहै घणी। ए काढ्यो भिक्षु में रूपचन्द दोष, खोड़ीली प्रकृति नो धणी ॥ ते रूपचन्द टळ्यो गण बार', हुई खराबी अति घणी। तिम ए पिण हुवै खुराब, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ कार्य भळावै कोय, आचारज ते भणी। न करै विनय सहित अंगीकार, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ देवै आचारज सीख, कठिन मृदु वच भणी,। तो बोलै अलखामणो तास, · खोड़ीली प्रकृति नों धणी ।। प्रकृति खोड़ीली राख, पामैं आपद घणी। भव २ दुखियो थाय, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ॥ इम सांभळ नर नार, संग तजो ते तणी। जो तिण सूं राखै प्यार, खोड़ीली प्रकृति नों धणी ।। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, प्रसाद संपति बणी। जयजस करण गणेश, सरस शिक्षा भणी।।
६३
६८
.
१. अनगमती २. शक्ति ३. दोहरी मूर्खता करने वाला
४. देखे- पंरपरा री जोड़ ५. स० १८५० में
शिक्षा री चोपी : ढा०३ : ७५
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ढाळ ३
दूहा
& com
निज छांदो' रुंधे निपुण, विनयवंत सुविचार। गुण ग्राही सुवनीत नो, सुजस बधै संसार ।। छांदो संध्या शिव मिलै, चउथे उत्राध्यैन । रमै सुगुरु अभिप्राय रिख, ते पामैं सुख चैन । विनयवंत निर्मळ मुनि, पतळी च्यार कषाय। ठाम-ठाम गुण मुनि तणां, दाख्या श्री जिनराय॥ तिण सूं प्रकृति सुधार नें, पंडित हुवै प्रवीण। सफल सुभव तेहनो सही, सुगुणों संत सुचीन। खोड़ीली प्रकृती तज्यां, चोखी प्रकृती होय। ओळखावू तस वानगी, सुणज्यो भवियण लोय।।
चोखी प्रकृति नों धणी ॥ध्रुपदं॥ करे चालंता बात, कहै कोई ते भणीं। कर जोड़ तथा कहै-ठीक, चोखी प्रकृति नों धणी।। पक्की जयणां रो कहै करतां आहार, इण में चूकां अणी। ठीक कहै तत्काळ, चोखी प्रकृति नों धणी।। आहार करतां अजयणां देख, करै को जतावणी। ओड़ो न दै कहै ठीक, चोखी प्रकृति नों धणी॥ जोड़ी करतां चूकां कहै तास, तो ठीक कहै गुणी। बलि माने तसु उपगार, चोखी प्रकृति नों धणी।। चूकै पडिलेहण करत, दीयै सीख ते भणीं। हरष सहित करै अंगीकार, चोखी प्रकृति नों धणी।। चालंता अजयणां देख, कह्यां तसु वच सुणी। कहै-भलो जतायो मोय, चोखी प्रकृति नों धणीं।।
११
१. इच्छा
३. नमूना २. उत्तरज्झयणाणि अ०४ गा०८ ४. लय : नदी जमुना के तीर उडै ७६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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३
१२ सीवंत, रंगत, वाटंत, बोल्या कहै ते भणी।
कहै-ठीक तू परम मंत्रीश, चोखी प्रकृति नो धणी॥ एक दिन में चूकां बहुबार, करै को जतावणी। कहै-तो सम कुण मुज सैण, चोखी प्रकृति नों धणी।। पड़िकमणो पडिलेहण करत, चूंका कहै ते भणी। करै हरष सहित अंगीकार, चोखी प्रकृति नों धणी।। बोले वस्त्र पहिरंत, काढे खोड़ ते तणी। कहै-भूला ने आण्यों माग, चोखी प्रकृति नों धणी।। पाणी रा तड़का' पड़ता देख, कह्या रीस नैं हणी। ठीक कहै तसु अभिप्राय, चोखी प्रकृति नों धणी।। ऊंची साड़ी कहै कोय, तो प्रकृति सुधारिणी। कहै-राखी म्हारी लाज, चोखी प्रकृति नों धणी॥ चोलपटो न पहर्यो सुध रीत, कह्या ते सुधा सम गिणी। अधिक मानें उपगार, चोखी प्रकृति नों धणी।। आहार पाणी रे निमत्त, बोलत लज्या घणी।
गम खावै रहै मौन, चोखी प्रकृति नों धणी।। ___ पूछे खुद्र परिणाम, पांती अवरां तणी।
तसु पासै वेसंतां आवै लाज, चोखी प्रकृति नों धणी॥ न करै झौड़-झखाल२, बात आहारादिक तणी।
न बोले पेला रे बीच, चोखी प्रकृति नों धणी।। ___अवनीत करै को बात, मन भांगण तणी।
(तसु) पासै वेसंता लाज अत्यंत, चोखी प्रकृति नों धणी।। बोलै गिणवा बोल, लज्या मन में घणी। सर्व भणी सुखदाय, चोखी प्रकृति नों धणी।। रखै बैरी हुवै कोय, विचारणा दिल घणी।
बोलै गिणवा बोल, चोखी प्रकृति नों धणी।। २५ सर्व सिंघाडा मांय, आतम वश आपणी।
लिए बधाई तास, चोखी प्रकृति नों धणीं। २६ निज आतमवश कीध, तारै अवरां भणी ।
ते अगवाण सुजोग, चोखी प्रकृति नों धणी॥
३. अन्य।
१. बूंदें २. टंटा-फिसाद।
शिक्षा री चोपी : ढा० ३ : ७७
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३७
३८
३९
४०
४१
तणी ।
रह्यो
नों धणी ।।
हूंस
ही
घणी ।
अति प्रकृति नों
धणी ।
शक्ति तेहनीं
घणी ।
पाया रुपइया निनाणूं, प्रकृति सुध जेह भणवा रो रुपियो एक, चोखी प्रकृति टोळा नीं तास, पूगै गुरु आपे संत अमोल, चोखी निज आतम सुख करण, जहां रहै तिहां सुख वेदंत, चोखी प्रकृति नों धणी ॥ अन्य सिंघाडा मांय, मेल्या सुधामणी । इसड़ी प्रकृति सुखदाय, चोखी प्रकृति नों धणी ॥ साज मांहि सहु कोय, हूं राखण तास उधेड़, चोखी प्रकृति नों पिण सुख वेदंत, सर्व सिंघाड़े मान गुमान, चोखी प्रकृति नों न करै औरां री होड, आतम वश अति घणी । सदा काळ सुखदाय, चोखी प्रकृति नों धणी ॥ आहार पाणि वस्त्रादिक, ताम दियै गुरु अन्य भणी । तो पामें हरष विसेस, चोखी प्रकृति नों
तणीं ।
लैवे
ओ
मैटे
धणी ॥
जो तिण ने न दियै वस्त्रादिक, तो खंच न मन
दियां न दियां समभाव,
चोखी प्रकृति नों
७८
राखै
स्वार्थ पूगां न पूगां तास, सुगुरु तुल परिणाम, चोखी प्रकृति नों जिस्यो सुवनीत, तिण सूं प्रीत मित्रपणों अति प्यार, चोखी प्रकृति नों
आप
अति
अविनीतां नें कान,
न करै तिण सूं गुष्ट',
न
करै उतरती
सुध घणां परिणाम,
देसना
बात करता सुरंग,
जिल्लो
न बांधै सासण ऊपर दृष्टि,
१. हेलमेल ।
२. उपदेश ।
लगावै नहीं
चोखी प्रकृति नों ओघटघाट
बात,
ने
चोखी प्रकृति न
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
जाण,
सार, सासण दीपावण
चोखी प्रकृति
नों
समझ दिल चोखी प्रकृति
धणी ॥
धणी ॥
सिरोमणी ।
धणी ॥
गुणी ।
धणी ॥
तणी ।
घणी ।
धणी ॥
गुणी ।
धणी ॥
हणी ।
धणी ॥
तणी ।
धणी ॥
में घणी । नों धणी ॥
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४२
४४
४८
कठण वचन कहै कोय, तो दिल समता घणी। पाछो न बोले विरुद्ध, चोखी प्रकृति नों धणी॥ सुख-सीलियो नहीं कोय, लोळपणा ने हणी। कर्म काटण नी नीत, चोखी प्रकृति नों धणी।। सगुरु तणी वर आण, ऊपर दृष्टि अति घणीं। छांडे पुद्गल प्यास, चोखी प्रकृति नों धणी॥ आचार्य नी मर्याद के, सरस सुहामणी। न गिणे सहल' मन माय, चोखी प्रकृति नों धणी॥ प्रवर हाजरी पेख, वाचण मानसा घणी। सुणे, सुणावा मन हूंस, चोखी प्रकृति नों धणी॥ स्वाम भिक्षु ना लिखत, उमंग पावै सुणी। इक चित्त हरख विसेस, चोखी प्रकृति नों धणी॥ लिखत सुणतां मुख नूर, करत सरावणी। तिणरा पालण परिणाम, चोखी प्रकृति नों धणी॥ जो माथे आवै दंड, याद राखै गुणी। साहूकारा नी नीत, चोखी प्रकृति नों धणी। सर्व साधां में पेख, इज्जत तेहनी घणी। दिन-दिन अधिक सचेत, चोखी प्रकृति नों धणी॥ स्त्रियादिक नी तास, बंछा नहीं विषय तणी। छांडै कुसंग कुमाग, चोखी प्रकृति नों धणी॥ बोलै सूधी२ बाण, बांक नहीं वच तणी। सरल घणों सुवनीत, चोखी प्रकृति नों धणी॥ म राखो छानी बात, म्हारा सिंघाडा तणी। इसडो अदल° साहूकार, चोखी प्रकृति नों धणी॥ जो कहै गुरां ने जाय, खामी सिंघाडा तणी। तिण ने सरावै सुजाण, चोखी प्रकृति नों धणी।। क्रोध मान माया लोभ, वशे बाणी धणी। न बौळे बंक सहीत, चोखी प्रकृति नों धणी॥ प्रकृति खोड़ीली मेट, पामें संपति घणी। भव-भव सुखियो थाय, · चोखी प्रकृति नों धणी॥
५६
१.सामान्य। २.सरल।
३. वचन। ४. अटल-नहीं मुकरने वाला।
शिक्षा री चोपी : ढा० ३ : ७९
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५७
५८
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६०
६१
६२
६३
१. लगन ।
८०
खोड़ीली
सुण-सुण
चोखी
प्रकृति नीं ढाळ,
गुण नें बधाय,
सुण-सुण इम सांभळ नर नार,
राखो गणपति सूं इकतार, कार्य भळावै कोय,
प्रकृति
मैटे खोड,
नीं ढाल,
चहूं अति घणी । चोखी प्रकृति नों धणी ॥
तिणरी चूंप अति घणी । धणी ॥
प्रकृति नों
मेटो निज
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
चोखी
खोड़
चोखी प्रकृति नों
तणी ।
धणी ॥
भणी ।
धणी ॥
घणी ।
मृदु वच प्रकृति नों धणी ॥
आचारज
चोखी प्रकृति नों
हरस सहित करै अंगीकार,
देवे
आचारज सीख, कठिण
तो वदै सुधा सम बाण, चोखी उगणीस द्वादस बास, माघ पंचम तिथ ओलखाय, चोखी प्रकृति नों भिक्षु भारीमाल ऋषराय, प्रसाद
संपति
जयजश
हरस
कल्याण, एह शिक्षा
सुध पख तणी ।,
धणी ॥
बणी ।
भणी ॥
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ढाळ ४ दूहा
पाटे वीर तणै प्रगट, सुधर्म जंबू आद। दुप्पसह लग दीपावसी, जिन गाधी अह्लाद ।।
गणपति गहरारे, सुध श्रमण संपदा संत सत्यां सिर सेहरा रे॥गण०॥ सुध सीख समापी, शिष्य सुविनीत सुमेरा रे ॥गण०॥ पद प्रगट वीर ने जयजस हरस घणेरा रे॥गण० ध्रुपदं॥,
चरण . बड़ा अथवा छोटा नैं, वय लघु वृद्ध वखाणी रे। गणपति थापै तास मानणौ, (ए) रीत पंरपर जाणी रे ॥गण०॥ आचारज नी इच्छा वै तसु, वर पट-पदवी वरणी। संत अवर अथवा श्रावक नैं, किंचित तांण न करणी॥ किंचित मन मेलौ नवि करणो, आडडोड मत आणो। बांक सहित वच मूल न वदणो, तरक जिलो मत ताणों। अग्निहोत्रि जिम अग्नि आराधै, तिम सिष सुगुरु आराधै। रुडौ विनय करी रीझायां, शिष्य ज्ञान पट साधै॥ नहीं छै चरण वृद्ध लघु लेखो, इमहिज बुध नों लेखो। सुगुरु रिझायां गणपति आपै, दसवैकालिक देखो।। विनय धर्म नों मूळ कह्यौ वर, निपुण प्रथम गुण निरखी। अवर सुगुण पाछे अवलोके, पद दीयै गुण परखी। पद लायक दो च्यार आदि मुनि, सहुनी बुध नहीं सरखी। अधिक विनय सूं सुगुरु रिझायां, हद गणि पद दै हरखी।। गणपति उचित जाण पद दैवे, तास बडा सदहीजै। पट थाप्यो तसु लघु मुनि, तीजै-पद में आदि आणीजै। आचारज, अरु बड़ा संत तिम, तीजै पद रे मांही। समचे आचारज में वंदै, नाम लियां विन ताही।।
१०
३ अ०९उ०३गा०३ ।
१. पंचम आरे के अंत में होने वाले अंतिम मुनि। २. लय-हीडै हालो रे।
शिक्षा री चोपी : ढा० ४ : ८१
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११
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१८
प्रथम गणी नैं
बड़ा संत पिण आचारज सूं, पडिकमणा में आलोवण ले आण आराधै, बीजो न करै बिहार करी नै श्रमण आवियां, गणपति बड़ा मुनि ने ऊंचे आसण गणपति बैठा, बड़ा महितळ बैठा तो पिण गणि नें, सैखे काळ चउमासे चउमासो उत्तरियां २१ एकण री
साध - साधवियां
शिष्य - शिष्यणी
अवर तणें नामें
आचारज
नै
गृहस्थ पिण तसु आचारज ने जो न
१९
२०
२२
२३
२४
२५
/
८२
पद युवराज समाप्या, मन होवै तौ पट नवि
भारीमाल तो पट
नही
जय ज्यांही।
तिण सेती पट
बेसण
दीसै कांइ ॥
वैसे,
मन इच्छा
सूं
गणि पट
संत सत्यां ने सोयो ।
अंस मात्र पिण
ताण न करणी, अजर मिसै अवलोयो | काम, बोझ छोड़ो मुज केरो, दीक्षा आणा दीजै । इत्यादिक बहु विविध पणै वच, किंचित तांण न कीजै ॥
आपो ।
थापो ॥
बिहार करी ने बड़ा संत पिण, आयां, गणपति सनमुख-गमन तणों नही कारण, स्थिर वंदन नी बिहार करी नैं बड़ा आवियां, गणपति ऊभा थाई । आसण छोडी, वंदणा करणी, अधिक किया अधिकाई ॥
पेखो ।
लेखो।
वंदै ।
आनंदे ॥
आज्ञा में
रो मारग
ते
सुगुणां
नहीं
जो
गृहस्थ पिण हेले
संवत
प्रवर जय गणी
पाछै मन हुवै तो पट बैइसे ।
रहस्यै ॥
इच्छा
बैसे, गणपत
बैठा
बैठा', केरौ,
रहिवै,
आचारज नी
आणा ।
गुरु दिसि, विहार करै मुनि स्याणा | रहिणो, संत सती सुविनीतो । चाळै, जठा तांइ ए रीतो ।।
पिण, गणपति नामें
उगणीसै ने
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
वंदै
निंदै
ऋषि,
कारण न
करणा, गुणसठा लिखत में
आराधे,
श्रमण आराधक
पूजै,
अराधे,
पाछे,
बादै अति
आगे ।
संत तसु असातना नही ळागै ॥
तेरे,
तसु, दसवैकालिक
पोह
समापी,
दसवैकालिक
श्रमण भणीं पिण
सीख
१. अपने पदारोहण दिवस को उत्सव के रूप में नहीं मनाया
२. अ० ५ उ० २ गा० ४५ ।
३. अ० ५ उ० ५ गा. ४०|
करणा ।
निरणा ।।
सारो ।
मझारो ॥
नांहि ।
मांहि ॥
पेखो।
सुदी सातम सुविनीतां रो ळेखो ||
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ढाळ ५
गणी गुण गावै रे गणी गुण गावै रे, तसु विविध प्रकार वारू तोळ बधावै रे
तसु श्रमण समापी वर क्षेत्रे विचरावै रे ।गणी०। तसु उचरंग आणी झीणी रहिस धरावै रे ॥ध्रुपदं॥
१ प्रथम विनय गुण विमल मूळगो, परम सुगुरु सुं पेमो रे।
असातना टाळे चित ऊजळ, निमळ निभावे नेमोरे। कटुक वचन गुरु सीख दिये पिण, कलुष भव नहि ल्यावै उळट धरी कर जौड आदरै, विमन चित्त नवि थावै।। परिषद मांहि निषेधै तो पिण, क्रोधे ना कंपावै। समचित चिंते मुझ ने सद्गुरु, अमरित प्याला पावै।। स्वारथ विण पूगां पिण सुगुणो, लैं'र वैर नहि ल्यावै। अरज न मान्यां अंस मात्र पिण, अथिरपणे नहि आवै ।। अपर मुनी में अति आदर दै, सतगुरु घणों सरावै।
असणादिक वस्त्रादिक आपै, तो पिण अरति न ल्यावै।। ___ सासण-भार-धुरा तिणरे भुज, दिन-दिन अधिक दीपावै।
परिषद में गणपति ने गण नां, हरस धरी गुण गावै ।। अविनीतां री संगत टाळे, तसु मुंह नांहि लगावै। सुविनीतां सूं अति हित राखै, गणपति चित अनुभावै।। अंस मात्र पिण बात उतरती, न सुणै नाहि सुणावै। कदाच को प्रतनीक कह्यां, गणपति ने तुरत जणावै।। जिलो भुजंग सरीखो जाणी, ए महा रोग मिटावै।
आप तणों रागी पिण न करै, प्रभुता ते मुनि पावै।। १० वारू विनय करी सद्गुरु नें, रूडी रीत रिझावै।
इकचित आंण अखंड आराधै, ते गण में सोभावै।।
१. लय-हींडे हालो रे। २. प्रेम।
३. प्रतिकूलता वर्तन करने वाला।
शिक्षा री चोपी : ढा० ५: ८३
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११ चित्त अनुचाळे आणां पाळ, वर उपयोग बधावै।
अहनिसि में आलोचन एहिज, ते गण तिलक कहावै। १२ गण रहितो अति आदर लहितो, हिये सदा हुलसावै।
शासण नंदन-वन ओ मानें, पुद्गळ प्यास मिटावै।। १३ उगणीसै तेरे सुदि एकम, चैत मास चित चावै।
लीन पणे सुविनीत लडायो, जयजस आनंद पावै।।
८४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ ६
दूहा
गणि मर्यादा लोपियां, इह भव फिट-फिट थाय। परभव में दुःख उपजै, वरणविये ते वाय॥ कांई घिग् २ जीवित धिग्र जीवित,ते शिव सुख किम चाखैजी
॥ध्रुपदं॥ आचारज नी आण लियां विन, रेशम आदिक राखै जी। ऊनूं सूतु और उपधि पिण, कपट करी नहीं दाखै जी। बलि मर्यादा कल्प लोप नैं, अधिक उपधि अभिलाखै। तीर्थंकर नों चोर कहीजे, सुगुरु-अदत जिन दाखै। खंड-वस्त्र नां वटका ते पिण, कल्प मांहि गिण लेणा। मापै नाहीं, मपावै नांही, (त्यांनै) किणविध कहियै सैणा। कपट करी ने वस्त्र पात्र ला, गुरु नैं नहीं दिखावै। अंसमात्र पिण अधिको राख्यां, परभव में पिछतावै।। लांबपणां नैं चोड़पणां में, वसतर अधिक रखावै। इह भव परभव फिट २ होवै, चिहं गति गोता खावै। इमज पात्र बलि राखै अधिका, गुरु ने नाही जणावै। सल्य सहित मर हुवै विराधक, आभियौगिक सुर थावै। दूध दही घृत आदि विगय, पिण मर्याद उपरंत खावै। सहल गिणी ने मापो न करै, लोळपणो चित ल्यावै॥ मर्यादा लोपै तसु अवगुण, गुरु ने नाहि जणावै। फिट-फिट होवै जनम विगोवै, ते परतीत गमावै।। दूजै दिन ने अर्थे औषधि, आणी आप रखावै। बलि दूजा दिन अर्थे अधिकी, बहिरी अन्य गृह ठावे।। अंजन-पूडी अर्क नी शीशी, प्रमुख धणी गृह दूरो। धणी आज्ञा सूं अन्य गृह मेलें, तजी कपट नै कूड़ो॥
११
१. लय-इण स्वार्थ सिद्ध रे। २. टुकड़ो। ३. छोटी जाति के देव।
शिक्षा री चोपी : ढा०६ : ८५
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१२
ते पिण अंजन पूडी आदि दे, दूजे दिन अवधारो। मूळ धणी री आण लियां विण, बहिरे नहिं लिगारो॥ मूळ धणी कहै सदा आण मुज, तो पिण ते नहीं गिणणी। मूळ धणी री नित-नित आज्ञा, लेइ वस्तु वावरणी॥ आचारज नी आण लियां विण, विचरै नै विचरावै। सैंखे काळ चउमासे वसतां, ते पिण झींका' खावै॥ ए मर्यादा लोपैं तेहथी, चारित्र रत्न रूळावै । अल्पकाळ नां सुख ने अर्थे, अनंत सुखां ने गमावै॥ सल्य सहित उत्कृष्टे भांगे, नरक तिर्यच में जावै। काळ अनंतो भ्रमण करै ते, बोधि दुर्लभ अति थावै।। संवत उगणीसै तेरे रवि दसमी, सुदी बैसाख वसावै। २आंणदपुर में सीख समापी, जयजस गण सुख चावै।। सुध मर्यादा पाळो संतां, गुरु बार-बार समझावै॥
१.दुःखी होकर पश्चात्ताप करना। २. जैतारण (राज०) के पास 'कालू' नामक गांव जिसे
आनंदपुर भी कहा जाता है।
८६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१
२
३
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५
६
७
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१ १
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ढाळ ७
सतियां !
सतियां !
सतियां ! वर मर्याद सतियां ! हेतु दृष्टांत सतियां ! इम हिज सतियां ! गुरु भाई
'सतियां । सुगुरु सीख दिल धारिये रे ॥धुपदं ॥ सतियां ! स्वाम मर्यादा आराधियैरे, थेतो मेटो मान मरोड़ रे । सतियां ! वैसत बोलत गमन में रे, राखो जुगत विनय विध जोड़ रे ॥ सतियां ! चउमासौ उतरियां छतां, राखे गुरु दरसन रो कोड । सतियां ! शीघ्र आय सुगुरु पद प्रणमिये, जाणों सुविनीतां री जोड़ ॥ सतियां ! स्वाम मर्यादा सिर धरो, थे तो छळ पंरपच निवार । इण भव कुरब बधै घणों, थांरे परभव जय जयकार ॥ वारु वखांण सुवांचता, तिण में सासण अधिक दीपाय । दिढावियै, थांरी जग मांहि कीरत थाय ॥ वखाण में थे तो दाखो मलाय - मलाय २ । सासण दिढावता, इण में लाज सरम मत ल्याय ॥ टोळा तणां थे तो गुण गावो रुडी रीत । हरस हिवडै धरो, आतो सुविनीतां री नीत ॥ कदाग्रह मत करो, वले मत करो वाद विवाद | धर्म दिल में धरो, थांरे भव भव हुवै समाध ॥ सतियां ! सुगुरु रिझावो विनय सूं थे तो बोलो विनय सूं बोल । सतियां ! चित अनुकेडै चालता, अमोल ॥ सतियां ! सुगुरु रिझायां संपदा, थांरी रहिस्ये थिर पद थाप । सतियां ! वार वार कहूं थां भणीं, पछै पामो नही पिछाताप ॥ सतियां ! मुख आगै थारे आरज्यां, त्यांरो बंछो सुख हरवार । सतियां! बंछो टोळो' नै सुख तुम तणो, तो थे चालो चित अनुसार ॥ सुवि सूं पीतडी, पाळो सतगुर आण अखंड । सतियां ! अंग चेष्टा ओळखो, थांरो सुजस बधे महिमंड ॥ सतियां ! उगणीसै चवदै फागुण सुदि नवमी सोमवार । सतियां ! वारू सीख दीधी सतियां भणीं जोडी जयजश गणपति सार ॥ सतियां ! संत चोमाळी सोभता, ए तो समणी एक सौ साठ । सतियां ! सहर बीदासर
सतियां ! गुण सतियां ! दंभ सतियां !
क्षमा
थांरो बाधै तोल
समै,
रंगरळी, गणि संपति नित प्रति थाट |
१. लय-हंसा नदीय किनारे रूखड़ो रे ।
२. सझा सझा कर ।
ने
३. पश्चात्ताप ।
४. अग्रगण्यत्व |
शिक्षा री चोपी : ढा० ७ : ८७
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ढाळ ८
संता ! सुगुरु आण सिर धारिये रे ॥धुपदं ॥ आतो आण अखंड उदार रे ।
आतो आण उतारे वीर प्रभु कह्यो (तिण नैं ) वीर कह्यो
पार रे ॥ सुविनीत | अवनीत ॥
सुविनीत नांए अहळा ।
सूं पांमै परम
कल्याण ॥
सर्व कार्य में सुजाण । आचारांग पंचमे
पिछाण ||
आहार घालै मुख मांय । आज्ञा बारे संयम किम थाय ॥
संतां ! ठाम ठाम
संग
सुविनीत । संगीत ॥ कह्यो गुरु वयण नै, धारे विनयवंत सुविसेस | तरक काढै तिको अविनीतड़ो, तिण रे अविनय कर्म कुरेख ॥ संतां ! सुगुरु आण चौमासो करो, चौमासो उतरियां शीघ्र आय । संतां ! आज्ञा लेइ बलि विचरवो, छती शक्ति गोपवणी नांय ॥ परम वनीत सूं प्रीतडी, अवनीतां रो निवार । मांहोंमांहि जिल्लो बांधो मती, राखो सतगुरु सूं इकतार ॥ संतां ! पेज्जबंधण नैं परहरो, बले मत करो विकथावाद । संतां ! निंदा उतरती मत करो, थांरे भव भव होसी समाध ॥ संतां ! स्वारथ पूगै आपरो, स्वारथ पूगै नहीं किण बार। संतां कलुष भाव आदरो, थारे होसी लाभ अपार || संतां ! कठिन वचन गुरु सीख थी, मत फेरो मुंहढा नों नूर । संतां ! सुगुरु रिझावो विनय सूं, तिण सूं पामस्यो सुख पंडूर ॥
मत
८८
संतां ! सुगुरु आण सिर धारियै रै, संतां ! आण आराध्यां सुख ळहै रे, संतां ! आण निद्देशकरे तसु रे, संतां ! आण निदेशकरे नहीं रे, इंगित आण आराधै अह्लाद उत्तराध्यै न जिन आखियो, तिण
थी,
१. लय : हंसा नदीय किनारे । २. चिन्ह ।
संतां ! गणपति
दृष्टे
आगे
संतां ! गुरु वचन संतां आचार्य नी आज्ञा
संतां ! चउमासी दंड नसीत में, (तो) संतां ! मृदु कठिन वयण गुरु सीख थी, लहै द्वेष अविनीत अजोगड़ो, ते
३. अध्ययन १, गा० २,३
४. आयारो अ० ५ उ० ६ सूत्र ११० ।
वरतवो, बलै
करी विचरवो,
विना, च्यारूं
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
हित लाभ माने पिण उत्तराध्यैन'
५. अध्ययन १ गाथा २७, २८ । ६. प्रेम बन्ध
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१३
१४
संतां ! पंडित
मरण
कोय ।
आरे करो, पिण गण मति छोडो संतां ! मूळ पूंजी दृढ राखज्यो, रत्न हाथ आयो मत संतां ! उगणीसै चवदै समै, फागुण सुदि तेरस संतां ! सहर बीदासर रंगरळी, जय गणपति संपति सार ॥
खोय ॥ गुरुवार ।
१. स्वीकृत
शिक्षा री चोपी ढा० ८ :
८९
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२
१
चरण रयण सुध राखो || ध्रुपदं ॥ अविचल सुख ने अभिलाखौ जी, वर सुमति सुधारस चाखौजी ॥ चारित्र निर्मळ पाळीजै, चारित्र रा जतन करीजै जी । चरण रयण सुध राखौ थे तो, आदरियो सिद्ध साखौजी ॥ त्रिविधे हिंस्या टाळीजै, पद-पद पर जयणां कीजै । सावज दानादि विरोधो, मन कर पिण छळ कपट झूठ नै टाळौ, दत्त गणपति
मति अनुमोदो ॥
आणा पाळौ ।
वर
सील सुरंगा || दुःख न्हाळौ ।
टाळौ,
मूर्छा थी महा
तजियै त्रिय विषय भुयंगा, सजियै परिग्रह नीं मूर्छा ए पांच रत्न महा भारी, ए तो चारित्र मुक्ति नेतारी ॥ चारित्र थी सहु दुख टळियै, बलि विविध विघ्न परजळियै । टळियै नरकादि निगोदं, एहवो चरण परम सुर वैमानिक सुख भारी, चारित्र सूं लहै उदारी । इन्द्रादिक पदवी अहमिंद चरण थी थावै ॥ तिहां असंख्यकाळ सुखरासो, ओ तो मुक्तिपुरी वट पछै सिवपुर वेग सिधावै, सुख आतमीक विलसावै ॥
सुप्रमोदं ॥
पावे,
वासो ।
वर्ष असंख |
पुळ- पुळ पर चरण सुअंक, सुर वर सुख सुर-सुख त्रिहुंकाळ संगहियै, इक पुळ सिव तुल्य न लहियै । पुद्गळ सुख प्यासा टाळो, चारित्र फळ नयण निहाळौ । अल्प परिषह थी मत त्रासौ, चारित्र
३
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ढाळ ९
१२
फळ नयण निहाळौ ॥
चरण फळ देखी दुःख भूळ, जब
जीवन कमल दल फूलै ।
काणी इक कवडी छोड़ावै, तसु जग नों राज पमावै ॥ विराणी, जग राज स्वर्ग शिव जाणी । चूको, थे तो गणपति शरण म मूको ॥ मंडो, गणि आणा नें मत छंडो। गमावै, दुःख नकर निगोद नां पावै ॥
कवडी सुख विषय एहवा चारित्र थी मत एहवा चरित्र में मन ( एहवो ) चारित्र रतन
१. लय : हरी बुरज पर बंगलो । २. ले जाने वाला ।
३. मार्गवर्ती विश्राम स्थल ।
९०
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१३ एतो चारित्र ने ओळखायौ, उगणीसै सतरे मांह्यो।
महा सुदि छट्ठ वखाणी, आतो जयजश संपति जाणी।। १४ इकवीस नव्यासी रंगरेला, एतो संत सत्यां रा मेळा।
भिक्षु भारीमाल ऋषिरायो, जयजश सुख संपति पायो।
शिक्षा री चोपी : ढा०९: ९१
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१
३
४
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८
ढाळ १०
चारित्र में चित चंग, रहै रंगरता हो, गण मांहे अधिको मन उचरंग सासण दीपावा हो करै कीरत विनयवंत विख्यात, गणपति सेती हो, इकतारी तजै अवर पखपात, चित्त हुलसावै हो, गणि कीरत सुणी ॥
घणी ।
सोरठा
/
अपछंदा अविनीत, (त्यांरे) इकतारी नहिं गणि थकी । ज्यारे अविनीतां सूं प्रीत, ते मूआं पछैइ पख करै ॥
एहवा दुष्ट अजोग, संगत तेहनी हो, कोई करज्यो मती । ज्यारे मोटो अविनय रोग, इह भव परभव हो मांहै हुवै दुखी ॥
सोरठा
श्रमण संत मिलाप, शिष्य तास धणियाप,
करै
गुणी ।
घणीं ॥
कोई रहै किणही पास, ते परलोके श्रमणी संत सुवास, उचरंग आणी हो,
सोरठा
शिष्यणी गणपति तणां । अविनीत अजोगड़ा ॥
१.२.३. लय : पांडव बोले बोल...... ४. लय : डाभ मूंजादिक नी डोरी ।
९२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
हो पहुच्यां सूं हिवै। गणि चरणां निवै ॥
पुस्तक ते
पानां तास, वस्त्र अनै लोट पातरा । पिण आण हुळास, सर्व गणी नै सोंपणां ॥ ४ शिष्य - शिष्यणी करणा एक नाम, कह्यो लिखत गुणसठै ताम | दीक्षा देई सोंपणों आण, तिणरी मूळ न करणी तांण ॥
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एहवी भिक्खू नी मर्याद भारी, सुविनीत हिया में धारी। दीक्षा लैवे ते पिण गुणवान, लिखत प्रमाणै राखै ध्यान॥ दीक्षा देण वालो लेण वालो, सुविनीतां रो लेखो ऐ न्हालौ। मांहोमांहि न राखै ललपल्लो', इम होसी दोनां रो भल्लो।। इम रहै दोनां री ळाज, तिणरा सीझे बंछित काज। एहवी मन मांहि पहिली विचारै, दीक्षा लेवै दैवै सुखकारै। एहवी शक्ति पोता री जाणै, तो और करणी सेती चित ठाणे। दीक्षा देवा रो तो मोटो काम, देणी पोता रा देख परिणाम। शक्ति देखी करै संथारो, कीधां पाछै पोहचावणों पारो। इम दीक्षा दैवे मुनिराज, जद रहै पोता री ळाज।। संवत उगणीसै वर्ष अठारे, फागुण सुदि एकम शनिवारे। शिक्षा जयजश गणपति आपी, सुविनीतां हियै थिर थापी॥
१३
१. अंतरंग संबंध।
शिक्षा री चोपी : ढा० १० : ९३
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ढाळ ११
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'स्वाम के वच प्यारे॥ म्हे तो दीठो न गणपति एहवो,स्वामी जिन जेहवो ॥ध्रुपदं॥ शिष्य शिष्यणी आचार्य नाम, दीक्षा देइ नैं सूंपणा ताम।। कन्है राखण नी अभिलाखे, गुरु आज्ञा बिना किम राखे। राखै कन्है राखण नी हामो', त्यांरा किण विध सीझै कामो॥ दीक्षा लेण वाळो सुविनीत, राखै गुरु सेवा सूं प्रीत॥ बिहूं वरतै गणि अभिप्रायो, तिणरे दिन-दिन हरष सवायो॥ परिणाम भांगें मति हीणो, तिणरा उभय भवे पुन क्षीणो।। सैखे काळ चौमासे मैले, सुविनीत तुरत वच झैले। प्रवरतै मन वच कायो, ओ तो जिम गणपति अभिप्रायो॥ चौमासो उतरियां दरसण चावै, आय गणि रै चरणां लगावै॥ अंस उतरती नहीं करणी, ए भिक्षु मर्यादा आदरणी।। ए मर्यादा भांग्यां महापापो, सहै परभव दुख संतापो॥ भाग्य जोगे भिक्षु गण पायो, ओ तो चिंतामणी कर आयो। एहथी टळियै नरक निगोदा, पामै शिव सुख परम प्रमोदा।। उगणीसै वर्ष उगणीसं, वारू जयजश हरष जगीशं ॥
१०
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१. लय- ज्यारे शोभे केसरिया। २. तमन्ना। ९४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ १२
'थे तो चतुर सीखो सुध चरचा रे, थे तो परहर देवो परचा | ए तो परचा आछा नांही रे, राखो समझ हिया रे मांही ॥ परचो राखै ते नर भोळा, त्यांरो जीव करै डाळाडोळा । परचा सूं ओळभो पावै, त्यांरी क्यां हीं शोभा नहि थावे ॥ परचा वाळो जो क्षेत्र भळावै, तो उ मन रळियायत परचा वाळे क्षैत्र नहीं मेलै, तो उ दाव कपट पछै आमण-दुमण थको जावै, पिण मन में बहू
थावै ।
रात दिवस जाए हींजरतां परचा वाला रो ध्यानज धरतां ॥
एहवा परचा रा फळ जिण रै परचा रो पड़ियो
जाणी, तिण नै स्वभावो, छूटण हिया मांहि, तो उ तुरत
परहरै उत्तम प्राणी । रो कठिन उपावो ॥
जबर समझ हुवै
देवै छिटकाइ ।
तिण रे पीत औरां सूं पूरी, गणपति सूं पीत
अधूरी ॥
परचा वाळा री भावना भावै, जाणै दरसण करवा कद आवै । आयां देख हियो अति हरखै, जाणै जौहरी नग नैं परखै ॥ परचा वाळा स्हामो नहीं जोवै, वळे नयण वयण नही मोवै । परचो छूटण रो एह उपायो, जय गणपति एम जणायो ॥ उगणीस वर्ष उगणीसै, मृगसर विद सातम दिवसे । प्रथम- मर्यादा दिन सुखदायो, परचा में जयजश ओळखायो ॥
१. लय-रस गिरधी हिलिया गटकै रे २. स्नेहात्मक परिचय |
३. प्रसन्न ।
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४. अनमना ।
५. याद में झूरते हुए ।
बहु खैले ॥
दुःख पावै ।
शिक्षा री चोपी : ढा० १२ :
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ढाळ १३.
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'क्यूं रे तोय लज्जा न आवै, भटकत गण थकी बार।
ओरन कू उपदेस देत है, आप चरण कियो छार॥ स्वाम भिक्षु नी भांगी मर्यादा, फिट-फिट हुओ जगत मझार॥ अनंत सिद्धांरी आण भागी ने, अवगुण बोलै मूढ गिंवार। कुक्कडधम सरीखो टाळोकर, दीधो जीतब जनम बिगाड़। नंदण वन भिक्षु गण थकी नीकळी, गयो जमारो हार। टाळोकर भव-भव दुख पावै, कहितां नावै पार॥ निज आतम ने निंद परिषद में, तजी मान अहंकार।। अजेस. पगे तूं लाग सतगुरु रे, जो चाहै सुख सार॥ उगणीसै गुणबीसै चेत विद में, बीज तिथ रविवार।।
१. लय क्यूं रे तोय ळज्जा न आवै नाम फकीर धरावै। २. भस्म। ३. एक घने बालों वाला कुत्ता भोजन का तलाश में नीलगर की कुण्ड में गिर गया बाहर निकलने पर उसकी रंग-विरंगी सूरत से डरते हुए अन्य जानवरों ने कौतुक से पूछा-तुम कौन हो ? तब ऊंचे टीळे पर बैठे हुए उसने रौब जमाते हुए कहा-"मेरा नाम है कुक्कडधम" मुझे जानवरों का राजा बनाकर भेजा गया है। भोले जानवर इस बात को सच मानकर उसकी सेवा करने लगे। पर सायंकाळ के समय जब गांव के कुत्ते भौंकने लगे तो इससे भी नहीं रहा गया और भौंकते ही इसकी सारी पोल खुल गई। तब कुछ हिंसक जानवरों ने इसका काम तमाम कर दिया। ४. अब भी।
९६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ १४
शिष्य उवाच
'होजी स्वामी ! सरणे आयो गण नाथ, सीखडली आछी आपौ म्हारा स्वाम ! | होजी स्वामी ! परम उपगारी मुज आप, अविचळ थिर पद थापो म्हारा स्वाम ! ॥
गुरु उवाच -
हां रे चेला ! सुवनीतां रो कीजै संग, वारु जस कीरति बाधे । म्हांरा शिष्य ! | हां रे चेला चरण समकित दिढ होय, ज्ञानादिक वर गुण लाधे म्हांरा शिष्य ! |
शिष्य उवाच
हो जी स्वामी ! कोई अविनीत हित करें- आय, ललचावे मीठो बोली । म्हारा स्वाम ! |
हो जी स्वामी ! स्यूं करिवो गणनाथ
आखीजे सीख अमोली म्हांरा स्वाम ! ॥
गुरु' उवाच
हां रे चेला ! मन में विचारणो एम, दुखदाई खुद्र घणो है म्हांरा शिष्य ! | हां रे चेला ! इण सूं पीत कियां पत जाय, गणि स्यूं प्रतीकपणो है म्हांरा शिष्य! |
हां रे चेला ! हित करणो नर देख, गणपति नों कुरब निहाली । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! परम विनीत संपेख, तसु संगति सिव ! पटसाली म्हांरा शिष्य ॥
१. लय : हां जी बना ! गोरी में मोत्यां जितरो भार
४. पृष्ठशाला
२. प्रेम । ३. प्रतिष्ठा
शिक्षा री चोपी : ढा० १४ : ९७
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शिष्यउवाचहो जी स्वामी ! गणपति सुगुरु सुजाण, सीखड़ली दै किण बारे ।
म्हारा स्वाम हो जी स्वामी ! कोमल कठिन विचार, चिंतावणौ स्यू तिण वारे,
म्हारा स्वाम! ॥ गुरु उवाचहां रे चेला ! मुज हित काज महाराज, सीखडली मुज ने देवै,
___म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! साधण सिवपुर राज, सुविनीत इसी मन वेवै !
म्हारा शिष्य ! ॥ शिष्य उवाचहो जी स्वामी ! क्रोध आवै किण वार, किण विध ते निर्फल कीजे।
म्हारा स्वा० !। गुरु उवाचहां रे चेला ! क्रोध कटुक फळ न्हाळ, समता रस मन में पीजै।
___म्हारा शिष्य ! ॥ हां रे चेला ! संत सती गण मांय, सुख माने अधिक सवायो।
__ म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! सासण सोभ बढाय, दीपावै ते अधिकायो
म्हारा शिष्य ! १० हां रे चेला ! गणपति ना गुणग्राम, करतो सुणतो हुलसावै ।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! गुरु भक्तां सूं हेत, तसु गुण पिण मुख सूं गावै।
म्हारा शिष्य ! ११ हां रे चेला ! बाल वृद्ध बहु संत, रंगरत्ता सासण मांह्यो।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! फल्या-फूल्या रहै जेह, तसु दिन सुख मांहे जायो।
म्हारा शिष्य ! १२ हां रे चेला ! कोई अविनीत दुःख वेदंत, ते पिण पांती रो जाणी।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! विगय भोगवै तेह, पांती रो बलि अनपाणी।
म्हारा शिष्य ! ९८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१३ हां रे चेला ! ते पिण रहै गणमाय, दुख वेदै अधिक अथायो।
___म्हारा शिष्य ! रे चेला ! जो करै सासण री बात, तो उतरती बोलै वायो।
म्हारा शिष्य ! ____ हां रे चेला ! गणपति रा गुणग्राम, सुणियां पिण ते दुख पावै।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! गुरु भक्तां सूं द्वेष, तसु गुण सुण बेदल' थावै।
म्हारा शिष्य ! १५ हां रे चेला ! गणपति वारू सीख, दे श्रमण सत्यां ने भारी।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! कानां में नहीं सुहाय, अन्य स्थानक जाय तिवारी।
म्हारा शिष्य ! १६ हां रे चेला ! संयम नों दै साज, गणि वारू विविध प्रकारे ।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! एहवा गणि नां जाण, गुण सुण नें मुंह बिगाडे।
म्हारा शिष्य ! १७ हां चेला ! सासण सिव पद पंथ, रहितो ते गण मांयो।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! बेदळ विलखै नूर, दुख मांहि दिन तसु जायो।
म्हारा शिष्य ! शिष्य उवाच१८ हो जी स्वामी ! सर्व पांती रो आहार, विगयादिक पांती रो खायो।
म्हारा स्वाम ! हो जो स्वामी ! सुविनीत सुख वेदंत, तो ओ दुख वैदै किण न्यायौ।
म्हारा स्वाम ! १९ होजी स्वामी ! स्वाम भिक्षु गणसार, नरकादिक नां दुख छेदै।
म्हारा स्वाम ! हो जी स्वामी ! भाग्य जोग आयो हाथ, किण कारण ओ दुख बैदै।
म्हारा स्वाम ! २० हो जी स्वामी ! चरण-रयण चितचंग, चिंतामणि चिंता चूरै ।
म्हारा स्वाम ! हो जी स्वामी ! ते पिण आयो हाथ, किण कारण ओ हिवै झूरै ॥
म्हारा स्वाम !
१. बेचैन ।
शिक्षा री चोपी : ढा० १४ : ९९
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२१ हो जी स्वामी ! मुज पर करो प्रसाद, वीनतड़ी मुज मानीजै !
म्हारा स्वाम ! हो जो स्वामी ! 'कहिता' किलामना' न होय, जो किरपा कर आप कहीजै
म्हारा स्वाम ! गुरु उवाच२२ हां रे चेला ! इण रे शब्दादिक री चाय, मन मांहि अधिक उमेदै।
म्हारा शिष्य ! ___ हां रे चेला ! जोग मिलै नहीं ताय, तिण कारण ओ दुख वेदै।
म्हारा शिष्य ! २३ हां रे चेला ! क्रोधादि च्यार कषाय, ज्ञानादिक गुण में भेदै।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला (तिणरै) जबर कषाय नों जोर, तिण कारण ओ दुख वेदै।
म्हारा शिष्य ! २४ हां रे चेला ! जस हेतु विनय विचार, ते (पिण) इणं सूं करणी नावै।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! अविनीतां रो जस नहिं होय, तिण कारण ओ सीदावै।
म्हारा शिष्य ! २५ हां रे चेला ! इणरी प्रकृति अधिक अजोग, गुरु स्यूं पिण नाहि मिलावै।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! मन मान्या काज न होय, तिण कारण ओ दुख पावै।
म्हारा शिष्य ! २६ हां रे चेला ! आहारादिक नी एह, ळोळपणां नी मन ल्यावै।
. म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! पांति में नही संतोष, तिण कारण ओ दुख पावै।
म्हारा शिष्य ! २७ हां रे चेला ! स्त्रीयांदिक ना संग, परचा थी ओ अति रीझै।
म्हांरा शिष्य ! हां चेला ! ते पिण न मिलै जोग, तिण कारण मन में खीजै।
__म्हारा शिष्य ! २८ हां रे चेला ! गुरु सूं प्रकृति मिलै नाय, गणपति रा गुण जन गावै।
म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! इण में नहीं रे सुहाय, तिण कारण ओ दुख पावै।
म्हारा शिष्य ! १. परिश्रम |
१०० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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हां रे चेला ! गुरु भक्ता सुविनीत, तिण रा पिण गुण जन गावै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! ते पिण नहीं रे सुहाय, तिण कारण ओ कुमलावै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! गण में रंगरत्तो नांय, गण रा पिण गुण जन गावै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! ते पिण नहीं रे सुहाय, तिण कारण ओ सीदावै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! अवनीत दुष्ट अजोग, तिण ने पिण जो विसरावै । म्हारा शिष्य ! हां रे चेला ! खांच लेवे आप मांय, तिण कारण ओ दुख पावे । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! दीक्षा दे सूंपणो आण, सुवनीत मर्यादा सैवै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! इण रे पोते राखण री हाम, तिण कारण ओ दुख देवै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! ए अवगुण तज दूर, सुवनीतां रो संग कीजै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! बलि कद्दू शिक्षा सार, तन मन सूं ते धारीजै ॥ म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! सम्यक्त्व चरण अमोल, जतने करनै राखीजै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! च्यार तीर्थ में तोळ, सुर शिव पद सुख चाखीजै । म्हांरा शिष्य !
हां रे चेला ! करलो ही आय पड़े काम,
अनसन कर तन खंडीजै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! स्वाम भिक्षु गणसार, सिवदाता नवि छंडीजै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! नरक निगोद नां दुख, फारकती' इण सूं होवै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेळा ! एहवो ! भिक्षु गण जाण, गुणवंता तू मत खोवै । म्हांरा शिष्य !
१. छुटकारा ।
शिक्षा री चोपी : ढा० १४ : १०१
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हां रे चेला !
हां रे चेला ! नीठ-नीठ आयो हाथ, अति ही दुर्लभ छै भाइ । म्हांरा शिष्य ! बार बार कहूं तोय, गण में राखै सेंठाइ । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! गण ए किळ्याण नों स्थान, इण में गाढा पग रोपीजै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! आय पडै कोई काम, गण सूं तो नवि कोपीजै । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! उगणीसै उगणीस, जय गणपति नी ए शिक्षा । म्हांरा शिष्य ! हां रे चेला ! तज अवनीतां रो संग, निर्मळ थे पाळो दीक्षा । म्हांरा शिष्य !
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ १५
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रूडी भिक्षु आण में वहिये, आण अखंडित वर गुण मंडित पंडित तेह प्रवीण।
__ रूडी गणपति आण में वहिये ॥धुपदं॥ दीक्षा देइ नैं आण सूंपणो, लिखत गुणसठे लेख। लालपाल तिण सूं मूळ न राखै, बलि लल नवि देणी रेख॥ नेठाउरे पंच अज्जा उपरंतज, जो गणि नापै ताम। आडदोड मन मूळ न आणे, अधिक तणी तज हाम ॥ चउमासो उतरियां पाछै, कर दर्शण धर चूंप। आहार चिहूं विण भोगवियां, मुनि अज्जा पुस्तक सूंप। परचो राख्यां पामें ओळंभो, तेहथी रहिवो दूर। अधिक सचेत रह्यां थी थारो, दिन-दिन चढतो नूर॥ उष्ण आहार प्रमुख मर्यादा, पाळे रूडी रीत । पत्र लिखी गणपति में आपै, निर्मळ राखै नीत || परम प्रीत गणपति सूं पूरण, रीझावै दिल खोल। सासण अधिक दिढायां बाथै, च्यार तीर्थ में तोल।। टाळोकर में अधिक निखेधे, तज अवनीतां रो संग। आप तणों रागी पिण न करे, जिल्ला नैं जाण भुयंग ।। तन मन वयण कळा चतुराइ सूं, प्रसन्न करै गणनाथ। प्रसन्न थयां सुख इहभव परभव, बलि-बलि स्यों कहूं बात || श्रद्धा आचार नै सूत्र कल्प रा, बोल री मत कर तांण। गुरु तथा बुद्धिवंत कहै ते मानणो, लिखत पेताळीसै आण ॥ उगणीसै इकवीसै महासुदि, ग्यारस में चंद्रवार। गुरु अभिप्राय रह्यां सुख निश्चय, जयजश हरष अपार ||
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१.लय : सुगुणा पाप पंक। २. झूठा आश्वासन । ३.साधारणतया।
४.ममत्व, अभिलाषा। ५. आज्ञा।
शिक्षा री चोपी : ढा० १५ : १०३
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ढाळ १६
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'सुख तो हौवे छै प्रकृति सुधारिया रे, आसा तृष्णा में दूर निवार रे। सुवनीत चित कैड़े वरते सदा रे, सासण ऊपर दृष्टि सुधार रे॥
सुख तो हौवे छै प्रकृति सुधारियां रे ॥ध्रुपदं ।। निज करनां दीक्षित जे मुनि महासती, कन्है राखण री न करै हाम। आज्ञा दियां विण कलुषपणों नहीं, प्रीति गणपति सूं अति अभिराम ।। कुरब बधावै मुनि अज्जा तणों, तो पिण विमन न हुवै मन मांहि। न करै जेहनों खेधो ईसको, राखै तिण सू पिण हेत सवाय ।। दीक्षा में दीर्घ तथा लघु मुनि अज्जा, बद्धि करी अल्प तथा अधिकाय। कुरब बधावै गणपति तेहनो, तिण सूं पिण अनुकूल वरते ताय॥ गुरु आपै असणादिक उपधि अन्य भणी, खेत्र भळावे चोखो जाण। तो पिण न करै तिणरो ईसको, सुविनीत नां लक्षण एह पिछाण ।। बांको नहीं वरते तिण सूं सर्वथा, छळ बळ माया न करै रंच । अखंड आराधै मर्यादा गुणी, अधिकी गणपति सूं प्रीत सुसंच।। कठण वचन में गणपति सीख दै, च्यार तीरथ में दीये निषेध । तो पिण कलुष भाव आणै नहीं, सुवनीत सासण तिलक संवेद ।। न करै उत्तरती गण नी बारता, न सुणै उत्तरती किण ही बार। सासण दीपावै नित्य परिसद मझै, ते सुवनीत सासण रा सिणगार।।
संवत उगणीसे वर्ष चौबीस में, वैसाख सुकल बीज भृगुवार । __ सासण थंभ भणी ओळखावियो, जयजश आनन्द हरष अपार॥
१.लय - जिनवर गणधर मुनिवर ने। २. मानसिक जलन। १०४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ १७
'जिल्लो बांधण री नहीं जिन आगन्या रे || धुपदं ॥ निज स्वार्थ अर्थे गुरु आज्ञा बिना रे, आप रो रागी करै अयाण रे । अथवा गुरु भाई सुवनीत सूं रे, प्रतिकूल अर्थे जिल्लो पिछाण रे ॥ असणादिक रागी करवा आपणौ, विगय पय दही घृत नें मिष्ठान । सूखडी सरस आहार देइ करी, व्यंजण विविध प्रकारे जाण ॥ सुंदर वस्त्र पात्र देई करी, लिखी कोरा पाना फुन देह । आप रो रागी करवा तेह ॥ निज निरस समचै मेले ए रीत । बलै और नें सरस दे निरस लेइ करी, समचै मेलै इम करै अनीत ॥ उणरो बोझ उपाडी नें रागी करै, बले कार्य विविध करै धर प्रेम । गुरु काम भळावै ते टाळो करे, तिण नें निर्जरा रो अर्थी कहिये केम ॥ बले कार्य करावे ते पिण तेहनों, पक्षी तसु काम पड्यां दै
लेखण रंग रोगानादिक दियै, असणादिक थोड़ो मंगावी करी,
उणरे बदळे बीजां साधां भणीं, बिरओ
बोलतो नाणै
लाज ॥
इमहिज विगयादिक लेवै तिको, तेहनें
बदळे पख खांचे जांण । 'कवा रो घाल्यो ३ नीचो जोवतो, टुकड़ो न्हाख्यो जिम श्वान पिछाण ॥ उपराठो वरतै आचारज थकी, दोनूंई मोह मतवाळा" धींग | खामी पड़ियां निषेधै जो एकनें, तो दोनूंई स्हांमा मांडै सीग ॥ प्रतिकूल वरते मुनि सुवनीत सूं, अवनीत सूं हेत गुष्ट अवलोय । अवनीत नें या लखण कर ओळखौ, च्यार तीरथ में फिट- फिट होय ॥ 'तुकम तासीर असर सौबत '६ तणों, एह ओखाणो छै जग मांय । अविनीत सूं हेत गुष्ट राखै घणों, गुणां री बधोतर किणविध थाय ॥ टाळोकर निंदक ते सासण तणों, प्रत्यनीक गणपति नो गणमांय । कोइ प्रत्यनीक गुष्ट हेत राखै घणों, यां तीनां रो अपजस अधिको थाय ।। काम करै करावै और साध पै, निर्जरा रो अर्थ थको उमेद । ते पिण सतगुरु नी आज्ञा थकी रे, तेहनों नहीं छै इहां निषेध ॥
१. लय
२. अपशब्द ।
३. कवल - ग्रास के लालच में। ४. विपरीत ।
जिनवर गणधर मुनिवर ने ।
५. हट्ठा कट्ठा ।
६. बीज जैसा फळ, संगत जैसी रंगत
७. कहावत ।
शिक्षा री चोपी : द्वा० १७ :
साज ।
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EEEEEEEEEE
सिंघाडे विचरे जे त्रिण चउ मुनि, बांधै बे जणां जिल्लो तिण मांय। टोळो भळायो तसु मुरजी बिना, ए पिण मोटो रोग कहाय।। दिसां' जावै त्यां पिण एकठ करै, आगे-पाछै जइ भेळा होय। मांहों मां गुह्य करै अळखामणा, त्यांरो च्यार तीरथ में अपजस होय॥ पेलां रा लाभ तणी बंछा करे, पांती में पामै नहीं संतोष। चोथे ठाणे दुख सेज्जा कही, ए पिण अवगुण छोड्यां मोख॥ बात उतरती सासण री करै, अविनीत साध श्रावक सूं प्रीत। आज्ञा मर्यादा सुध पाळे नहीं, इण लखणां जाण लीज्यो अवनीत।। सासण दीपावै सोभावै घणों, गणपति सुविनीतां तूं प्रीत । आराधै आज्ञा मर्यादा गुणी, इण लखणां जाण लीज्यो सुवनीत ।। संवत उगणीसै पच्चीस में, माघ वदि तेरस में रविवार । जोड़ कीधी जिल्लो ओळखायवा, जयजश आणी हरष अपार॥
३. ठाणं ४।४५०॥
१. जंगल । २. एकत्व।
१०६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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दाळ १८
धर्म ना धोरी जी, सुगुरु सिष जोड़ी जी । होजी एतो भिक्षु ने भारीमाल, जिसा जसधारी जी ।
सासण सिणगारी जी ॥धुपदं ।। आण आराधै सुगुरु नी काइ, कार्य बिलंब रहीत। अंग चेष्टा प्रति ओळखै कांइ, ते सुगुणां सुविनीत।। बलि न हवै 'मुख नो अरी' कांइ, भ्यंतर बाह्य प्रशांत। आचारज नै आगलैं कांइ, सीखै अर्थ सुदांत ।। तन मन सूं सेवा करै कांइ, सासण रो सिणगार । च्यार तीरथ जाणै तसु, इण रे सुगुरु थकी अति प्यार।। परम प्रीत. सतगुरु थकी कांइ, त्रिहुं योगे करी तेम। साताकारी ए सही कांइ, गणपति जाणै एम।। गणपति में आराधियां कांइ, विनय करी विधविध। विनय करी ने सेवियां कांइ, विनय तणी समरिध । एहवा शिष्य सुविनीत ने कांइ, गणपति गण सिणगार। चरण पळावै निर्मळो कांइ, थेट उतारे पार।। आराधन विध-विध करी कांइ, संतोषै सुखकार । पभणै परिषद नै विषे कांइ, ए गण नों आधार ।। आचारज मोटा हुवै कांइ, वारू गुण ना जाण। मरण पंडित हुवै ज्यां लगै कांइ, तोड़े नहीं कर ताण ।। नवमें दसवैकालिके कांइ, कन्या नो दृष्टांत। जनक कन्या ने पाळ में कांइ, प्रवर मिळावै कंत।। तिम गुरु सिष सुवनीत नो काइ, प्रवर बधावै तोल।
पदवी जोग करी तसु कांइ, गणपति तिलक अमोल ।। ११ विनयवंत मुनिवर भणी, गुरु जाणै अति हितकार ।
झीणी रहस्य सिद्धांत नीं कांइ, तास धरावै सार।। १२ अधिक प्रीत वाळा तणों काइ, सतगुरु गण रे मांय। .. कुरब बधावै अति घणों काइ, विविध प्रकारे ताय॥
-
१. लय-पायल वाली पदमनी। २. वाचाल।
३. अंतरंग। ४.दसवेआलियं ९।३।१३।
शिक्षा री चोपी : ढा० १८ : १०७
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१३
हुवै जिहां लग ताम ।
गुणधाम हीर |
आराधक पद पाम विनयवंत सि सासण तिलक
पयोधी
विनय करी नें
कांइ, गणपति जी कांइ, हरख बंधा कांइ, पिण न करै दिलगीर ॥ कांइ, तसु फळ इहभव एह । कांइ, वेगी मुगत वरेह ॥ एहवा फुन, गणपति इसा सुहामणां कांइ, निमळ सेवियां कांइ, वारू विध-विध सुविनीत सूं गुरु, पाळ त्रिहुं योगे रीझाविया, कांइ सतगुरु एहवा सिष सुवनीत नैं कांइ, पंडित मरण कार्य मनगमता करी कांइ, गणपति एहवा सिष सुविनीत नैं कांइ, पद दिये आराधक विनयवंत सिष नै बली कांइ, गणपति नी वर जोड़ | अविचल तीरथ च्यार में कांइ, एहवा आचारज थकी, सिष राखै
एहवा सिष
पूरण
प्रीत |
नें सुखदाय ।
नें
सासण सिरमणि मोड़ ||
हरष
विशेष ।
संपति
सुतंत ।
दीपंत ॥,
थाय ।
उचरंग दिन-दिन अति घणो कांइ, परम विनय नी समकित जेहनी निरमळी कांइ, प्रवर महाव्रत एहवा सिष गणपति तणै कांइ, दिन-दिन २३ आज्ञा अमल आराधनैं कांइ, तीरथ च्यार एहवा सिष गणपति तणीं कांइ, जोड़ी जग अन्यमति स्वमती पेख नै कांइ, ते पिण इचरज एहवा सिष गणपति तणीं कांइ, दिन-दिन दिन-दिन सोभा अति घणीं कांइ, हियै हरष अति हेव । एहवा सिष गणपति तणीं कांइ, सारे सुर नर सेव ॥ सेवा सारे सुर घणां कांइ, च्यार जाति ना एहवा सिष गणपति तणां कांइ, प्रणमें प्रणमें पाय अपछर एहवा सिष गणपति
सोभ सवाय ॥
अपछर घणां कांइ, फुन अन्य रो भणी कांइ, देख-देख हरषंत ॥
१४
१५
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१८
१९
२०
२१
२२
२४
२५.
२६.
आराधना
अंतसीम छैह न देवै तेनै छैह न देवै तेहनें
सदा प्रसन्न राखै तसु विनय करी रीझावियां
२७
काई,
१. किनारा ।
१०८
२. अप्सरा ।
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
गंभीर ।
क्षीर ॥
रीत ।
सहाय ॥ संतोष । पोष ॥
रेख ॥
पंच ।
संच ॥
चाय ।
पाय ||
सोहंत ।
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देख-देख ने हरखती कांइ, परम प्रीत अधिकाय। एहवा सिष गणपति तणी, करै विविध प्रकारे सहाय।। विविध सहाय करै घणां कांइ, सुरवर सुरी सुजाण। एहवा सिष गणपति तणों काइ, वारू सुणै वखाण।। वारू वखांणज सांभळे कांइ, अन्य समय पिण आय। एहवा सिष गणपति तणीं कांइ, सेव करै चित ल्याय॥ उत्तराध्ययन विर्षे कह्यो कांइ, प्रथम अध्ययनज अंत। विनयवंत ने पूजतां काई, चिहुविध देव सुतंत॥ च्यार जाति ना देवता, फुन मनुष्य तणां बहु वृंद।
ते पिण सिष सुवनीत ने, पूजै अति आनंद __ औदारिक तनु छोड नै काइ, पावै सिव पद तंत।
देव हुवै तो दीपतो कांइ, अल्प-रज' महर्द्धिवंत ॥ प्रवर चारित्र पाळण तणीं, निर्मळ जेहनीं नीत। आचारज गुण आगला कांइ, शिष्य सुगुणो सुवनीत ।। उगणीसै पणबीस में कांइ, बिद वैसाख सुबीज। सिष सुगुरु सेव्यां लहै कांइ, विविध प्रकारे रीझ ॥
३५
१.हळुकर्मी।
शिक्षा री चोपी: ढा० १८ : १०९
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ढाळ १९
'सुमति सदा दिल में धरो ॥धुपदं ।। आचारज ने आगले, शिष्य शिष्यणी सुखदाय सलूणा! विनयवंत गण बालहा, सासण तिळक सोभाय सलूणा ! आण अराधै सुगुरु नी, कार्य करै धर प्यार। निपुण अनै स्थूल बुद्धि करी जाणै, इंगित आकार। कठण वचन गुरु सीखवै, समभावै रहे सूर। लाभ कारण ए मुझ भणी, न फेरै मुख नों नूर ।। गे'रा सायर सारिखा, सुरगिरि जेम अडोल ।, सासण स्तंभ सुहामणां, त्यांरा च्यार तीरथ में तोल ॥ परिषद मांहि निषेधियां, तो पिण पूरण प्रीत। कलुष भाव आणै नहीं, संत सती सुवनीत ।। एहवा शिष्य सुवनीत रो, सर्वकार्य में सार । गणपति नैं आधार दै, धरा सहे जिम भार || काच भाजन अवनीतड़ो, कहो चोटां खमै केम। सहै चोटां तो वनीत ही, के हीरा के हेम ।। अवनीत गोळौ मैण नों, तप्त गळे तत्काळ। सुवनीत गोळो गार नों, ज्यूं धमै ज्यूं लाल॥ अवनीत वृक्ष एरंडियो, अस्थिर ते करै कोप। सुवनीत कल्पतरू समौ, विनय नो वगतर टोप । ऊंडी तास आलोचना, गुण कर गहर गंभीर। निर्मळ भावै बरततो, जिम गंगा नों नीर ।। उगणीसै पणबीस में, तेरस धुर वैसाख । सुकल', सुवनीत लडावियो, जयजश शिव अभिलाख ॥
२.शुक्ल पक्ष ।
१.लय-तारा हो प्रत्यक्ष मोहनी। ११० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ २०
निज पांती में जे रंजै, ते भद्र प्रकृति गुण रासं,
'संविभाग करी लीजै ॥ धुपदं ॥ मुनिवर ने कुण गंजै जी सं० । सहुनें सुखदाइ जासं जी | सं० । सीझै जी ।
ज्यां
जिभ्या - इंद्रिय वस कीजै, तिण सूं बांछित कारज मुज सीख सुगुण धारीजे, लज्या यत्ने राखीजै जी । निज पांती में नही रंजै, तेहनों दुख कहो कुण भंजै। अति खावण पीवण री पिपासा, किम पूरीजे तसु आशा ।। निज पांती में रंगराता, त्यांरे मानसीक सुखसाता । जेहवो मिल्यो करै संतोष, समभावपणै सुख तोषं ॥ पांती में रति नहीं पावै, गमती (वस्तूं) देखी मान जावै, मांगै दूध दही घृत बलि विविध तरकारी
ते पग-पग में
सीदावै ।
मांगंतां लाज
आवै ॥
दाळं,
नवा मोदक खंड
विसालं ।
ताजी, सरसव प्रमुख नी
भाजी |
सुविसालं ।
ने मुरमुरिया |
मांगै फलका चावळ दालं, मांहि सुगंध घृत मांगै घृत तलिया गुलगुलिया, तुरतुरिया मांगै घेवर नै खाजा, इण नैं भोजन मांगै
१. लय-हरी बुरज पर बंगलो । २. दाळ के बड़े ।
न
भावे ताजा ।
मांगै
लापसी नै सीरो, सुख पावै जीव शरीरं ॥ माळपूआ नै खीरं, सुख पावै जीव शरीरं । मांगै बूरो नैं पतासा, दीधां हुवै हरष मांगै पापड़ अति चंगो, इम सुख नावै बाजरी री रोटी नहीं भावे, गहुं री देखी बाजरी री मांगै तो ताजी, लूखी जो तिण नें वेवै, तो बाजरी रो खीच नहीं भावै, कहै उष्ण दूध बड़ादिक
मन
आतो उष्ण चौपड़ी
मुंह बिगाड़ दुख
मुज तनू गरम आफै, तो खातां मन नहीं चित्त नावै, फलका री भावना थोड़ा, विण पांती इम तसु
खीच बाजरी रौ फलका जो आवै
३. बेसन के भुजिये ।
हुलासा ।।
अंगो ।
मुज
जावै ।।
जाझी ।
वेवै ॥
लखावै ।
धापै ॥
भावै ।
फोड़ा ॥
शिक्षा री चोपी : ढा० २० :
१११
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१४
१५
जो कदाचित खीच उवेखै, तो सीज्यो अणसीज्यो देखै। ते पिण मन बांछित नावै, विन पांती इम सीदावै।। बीस तीस चाळीस करवाळी', ज्यां मांसू मांगै टाळी। रस इंद्रिय मोकळी मेली, लज्जा पिण दूरी ठेली॥ समभाव अज्जा मुनिरायो, करवाळी देवै तायो। तो कहै न दीधी आछी, रोस करिनै न्हांखै पाछी।। पांती खावण ने पाछो, दीधां कहै न दीयो आछो। मानै उत्तरतो दियो आहारं, तिण सूं अवगुण हुवो अपारं।। समचा' रो दे कोइ आहार, उतरतो आवै किवारं। (तो उणरौ) बैरी होय जावै पुरो, बिगाडै मुख नों नूरो॥ विन पांती ना फळ एहं, संतोस विना तसु देहं। निज पांती में रति पावै, तो ए अवगुण कि थावै ।। पर लाभ तणी नहीं चायो, सुखसेज्जा' कही जिन रायो। पर लाभ बांछे मांगतो, दुखसेज्जा कही भगवंतो।। जे असंविभागी६ संतो, अवनीत कह्यो भगवंतो। वर उत्तराध्ययन मझारो, ग्यारम अध्ययन उदारो।। ले असंविभागी लाधू, तिण ने कह्यो पापी साधू । सतरम उत्तराज्झयणो', ए वीर तणां वर वयणो।। असंविभागी नैं नहिं मोखो, दसवै०१० नवमें अवलोको। वर संविभाग जे साधै, जे तीजो१ व्रत आराधै।। कह्यो दसमें१२ अंग दयालो, वच बहु सूत्रे इम न्हाळो। इम जाणी ने जे सारो, संविभाग करी ले आहारो।
२४
१.रोटी। २. पीछे रहने वाला। ३. नीरस। ४.समुच्चय-सबके लिए लाया हुआ। ५. ठाणं ४।४५१ ६. भक्त पान आदि का संविभाग न करने वाला।
७. उत्तरज्झयणाणि ११९ ८. प्राप्त। ९. उत्तरज्झयणाणि:१७।११ १०. दसवेआलियं ९।२।२२। ११. अचौर्यव्रत। १२. पण्हावागरणाइं८।१२।
११२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२५
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३४
आचार्य श्री भिक्षु कृत ढाळ
' आहारपाणी साधु बहिरी ने ल्याया, संभोगी साधु ने बांट देवा री रीत । आप आण्यो जाणी अधिक लेवै, तो • अदत्त लागै जाये परतीत ॥ आ श्रद्धा श्री जिनवर भाखी || ध्रुपदं ॥ ठाणायंगो, पत्थ वत्थ आहार अति चंगो । आहारं, तिण में श्री जिन
अणगारं, विण पांती लै
गणपति अतिसय
विण
पांति लेवै त्यांरी आज्ञा सूं तिण में दोष नही छै कोई, कारण सूं दे विण पंती, तज मांगनें
लहै
लेवे,
लज्जा
तेहनों कुण अपजस नहीं
संके
अन्य नें कह ल्यो अन्य बरोबर वृद्ध तो छै बहु मुनि
करे
मुज भारो, इम आहारो, किम उदेड नें दै अज्जा, निज भार उपा देवै, 'अल्प गाउ' विहार' अज्जा, सुवनीत भद्र वर पिण उदीर ने नही
पण उदेड
जे
नै नही अधिक गुणी मुनि धोरी जिम भार-धुरा लै,
कोइ
तसु उदीर
भारो,
तो
पिण ते करै
लेवे, तेहनी भारो,
तो कीरत
जे
गुरु उपडावे तेहनो जस
जबरी सूं जो कोई अथवा तेहनों जे कुरबवंत मुनि कहिये, जग में उगणीस वर्ष छावीसं, मृग० विद चउदस सुर भिक्षु भारीमाल ऋषिराया, जोड़ी जयजश सुख
१. लय - मेघ कुमर हाथी रा भव में । २. लय - हरी बुरज पर बंगलो ।
३. ठाणं ८ । १५ ।
४. पथ्य ।
५. वस्त्र ।
सुख तो समभाव समचित दै ते
आज्ञा सारं ॥
कोई
आहारं ।
होई ॥
६. क्षमाशील ।
७. चला कर ।
८. थोड़े कोशों का छोटा विहार । ९. देवे ।
थी
खंती ।
केवै ॥
लिगारो ।
भारो ॥
लज्जा ।
करेवै ॥
लज्जा ।
आलै ॥
नाकारो।
केहवै ॥
तिणवारो ।
लहियै ॥
ईसं ।
पाया ॥
शिक्षा री चोपी : ढा० २२ :
११३
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'नंदन वन भिक्षु गण में वसोरी, हे जी प्राण जाय तो पग म खिसोरी । नंदन वन० ।। धुपदं ॥ गण मांहि ज्ञान - ध्यान सोभेरी, हे जी दीपक मंदिर मांहि जिसोरी टाळोकर नो भणवौ न सोभै, नाक विना ओ तो मुखडुं जिसो ॥ अवनीत री देसना न दीपै, गणिका तणों सिणगार जिसो || दुखदाई क्षुद्र जवा सरीखो, निंदक टाळोकर वमन जिसो ॥ सासण में रंगरत्ता रहो, सुर शिव पद मांहि वास बसो | भाग्य ले भिक्षुगण पायो, रत्न चिंतामणि पिण न ईसो ॥ गणपति कोप्यां ही गाढा रहो, समचित सासण मांहि लसो ॥ आड- डोड चित में म आणो, मोह कर्म नों तज दो नसो ॥ बार-बार यों कहियै तुम्है, अचल रहो पिण मति रे सुसो || खेल खिलाड्यां रो याद करो, अडिगपणें थे तो गण में बसो ॥ उणी गुणतीस फागुण री, जयजश आणा में सुख विलसो ॥
१
२
३
४
५
६
७
८
९
ढाळ २२
१०
११
१. लय : मन वृंदावन जाय वस्यो री । ११४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ २३
३
'दुर्गति केरी साई हो दाळोकर पक्की ले लीधी, आल पंपालज' बोलै हो, टाळोकर लज्जा तज दीधी॥धुपदं॥ चंडाली चोकड़िया हो टाळोकर चाळा चाळव्या, दुर्मति कुमती कीयोरे प्रवेश । क्रोध भुजंगी पेठो हो टाळोकर रा घट मझै, समकित चारित्र खोवै करी कलेश। अतीत काळे हुवा हो, टाळोकड़ निंदक नागड़ा, निरथक दीयो जनम बिगाड। हिवड़ाहिज' पिण दीसै हो, टाळोकड़ बेमुख गण थकी, फिट-फिट . हुवा जगत मझार । मोह वसै मतवाळो हो, असराळो' बालो होय रह्यो, काळो लगायो करम कठोर। गेहरियो'. होळी नों हो, ज्यूं बोलै निरलज बोलतो, टाळोकड ए जिनमत केरो चोर।। परभव री नहीं चिंता हो, मदमस्त अछत्ता आळ दै, जिण - तिण आगै बोलै विरवी बाण। आतम काळी करतो हो, अति धेखज० धरतो गण थकी, कृतघ्न, हरामखोर . पिछाण ।। वंदणा पंच पदारी, तिणमांहि नामज घालतो, आचारजनों अधिक उदार। देव तीर्थंकर सरिखा हो , इम कहितो गणपति ने सदा, हिवै अवरण बोलै मूढ गिंवार ||
४
१. लय : महलां रो मेवासी हो। २. उल्टा सीधा/ काम ३.धोखा बाजी ४. सायं ५. वर्तमान में ६. विपरीत
७. भयंकर ८. बावला ९. फाल्गुण मास में 'गेर' में नाचने वाळा
व्यक्ति १०. द्वेष ११. अवगुण-निन्दा
शिक्षा री चोपी : ढा० २३ : ११५
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नित्य प्रति नित्य प्रति करतो हो, टाळोकर ऊभो होय में,
गण रा अवगुण बोलण रा पचखांण। पंच पदा री साखै हो, जे सूंस लिया ते भांगिया,
बलि भांगी अनंत सिद्धां री आण। वीर थकां जे हूंता वर चवदै सहंस मुनीसरू,
अज्जिया हूंती बलि छत्तीस हजार। त्यारै सरिखा श्रद्धं हो, इम कहितो गण मांही सदा,
हिवै अवगुण बोलण हुवो हुंसियार।। अढी द्वीप' रा तस्कर हो, त्यां थी पिण टाळोकड बुरो,
इम नित्य कहतो हाजरी में कर जोड। तिणरी बतका' माने हो, तिण ने पिण जाणूं चोरटो,
हिवै काढण लागो गण मांहि खोड।। सूंस अनेकज भांग्या हो, टाळोकड गण थी नीकळी,
ते उदय हुवै जब इण भव माहै पाप। विविध प्रकारे पामै हो रोगादिक आपद आकरी,
व्यापै घणों सोग संताप।। परभव माहै पामैं हो, टाळोकड पीडा अति घणी,
बहु विध देवै परमाधामी मार। लाल गोळा कर घाले हो, टाळोकड रा मुख मझै,
कीया कर्म संभार - संभार उगणीसै सैंतीसै हो टाळोकड ओळखावियो,
फागुण सुदि चौथे नै भृगुवार । भिक्षु भारीमाल ऋषिराया हो, गण नायक तास प्रसाद थी,
जय गणि जोड़ी जयपुर शहर मझार।। सासण वीर जिणंद नों हो ए गण समुदाय भिक्षु तणों, तसु गण में रंग रत्ता, ते मुनि ने सुख आनंद घणो ||आकड़ी।।
१०
११
उगणास
२. बात
१. जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड, पुष्कर (अर्द्ध) ११६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ २४
GM & com
'सयाणा ! स्वाम गण सुख कारियो जी ॥ध्रुपदं॥ शासण वीर तणों सुविसालं, होजी ओ तो धारयो भिक्षु भारीमालं॥ तास प्रसाद लह्यो सुख चारू, ओ तो नृपशशि जयजश वारू।। भरत में भाण भिक्षु भळकंत, ओ तो धारियो प्रभुजी रो पन्थ॥ गर्भ जन्म जरा मरण नां दुख भारी, स्वाम गण थी हुवै निस्तारी॥ मनुष्य लोक थी अनंत गुणों नरक मायो, स्वाम गण थी ते दुख मुकायो। खेत्र-वेदन सुर कृत अनंत, स्वाम गण थी ते दुख नों है अन्त॥ निगोद नां दुख नरक थी अधिकायो, स्वाम गण थी ते पिण मिट जायो। दुख समुद्र संसार है भारी, स्वाम गण थी ते पिण लहै पारी ।। काळ अनंत भ्रमण कियो आगै, पायो तीर्थ स्वाम गण सागै।
सम्यक्त्व देस विरत ने चरित्तं, स्वाम गण वर सरण पवित्तं ।। ११ स्वाम प्रवर गण सरणे आयो, ए तो सर्व दुख क्षय पायो।। १२ पद अहमिन्द्र सव्वठ्ठ-सिद्ध' भारी, स्वाम गण थी लहै सुख सारी।। १३ चक्री बलदेवादिक नों पद भारी, स्वाम गण थी होवै अधिकारी। १४ पद तीर्थंकर गोत बन्धावै, स्वाम गण थी प्रवर सुख पावै ।।
आत्मिक-सुख पामै भारी, स्वाम गण सरण थी उदारी।। सासण नाथ तणों तीर्थ तीखो, म्है तो पायो स्वाम गण नीको।।
पारस परम स्वाम गण साचो, पायो जबर भाग्य थी जाचो।। १८ रत्न चिन्तामणि गण कर आयो, आतो चिन्ता सर्व मिट जायो।। १९ सरण स्वाम गण रै कोइ आवै, त्यांरा विघन सर्व मिट जावै।।
१. लय : आज अम्बाजी के नोपत ।
२. सर्वार्थ सिद्ध ।
शिक्षा री चोपी : ढा० २४ : ११७
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१
२
३
४
५
६
ढाळ २५
चरण रयण चिन्तामणि,
भाग्य प्रमाणे पायो, कांई भिक्षु स्वाम प्रसादे हो लाल । कडो ही काम वणै कदा,
तो गण में थिर पग रोपै, पिण चारित्र नहीं विराधै हो लाल ॥
सासण रंग रत्ता सदा,
परम प्रीत गणपति
स्यूं, अनुकलपणे प्रवर्त्ती ।
सुनीता सिर सेहरा,
तसु च्यार तीर्थ गुण गावै, छै जसु चिहुं दिश कीर्ति ॥ निन्दक टाळोकर भणी,
मन कर नैं नहीं बंछै, कांई जाणे 'भूर
भुयंगा |
जब आसता गणी तणी,
शंक कंख नहीं ल्यावै, रहै सदा
मत करो गणी असातना, मति खीजावो काष्ठ व ज्यूं प्रवाह में,
पापी नै दुरगति में, पाप ले जावै
कोइ, ए जिनवर नीं
आवैं, . ढाळे ढळतो
इकरंगा ॥
१. लय — पातक छाने नवि रहै आपण मैं । २. भयंकर सर्प ।
११८
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
वाणी ।
पातक छानो नवि रहै, आपण चोड़े
संत असातना एहवी,
निश्चय सही कर जाणो, दुरगति नीं नीसाणी ॥
भगवती अंगे भाखियो,
श्रीमुख अंतरजामी, कुशिष्यक शतक
निहाळी ।
असातना दुखदायनी,
सीख
सुवनीत सुभागी, असातना दै टाळी ॥
ताणी ।
पाणी ।
३. भगवई सतं १५ ।
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________________
उदारी ।
॥ध्रुपदं ॥
स्वाम भीखणजी सुखकारी रे, (त्यांरो) गण शासन वीर तणों ए भारी रे, गण समुदाय महावीर स्वामी रो सासण, भाग्य प्रमाणे तुज कर आयो, सिव दायक सुखदायो । करडो कामो
१
भिक्षुगण समुदायो ।
दधि में जहाज
पाय
विछंडै, व
विविध प्रकारे
वचन
सहै पिण, न
प्रवहण - ठामोरे ।
भव सायर मैं जिहाज
सरीखो,
गण ए जाणी ।
नरक निगोद दुखां सूं
प्राणी ।
विविध प्रकार ना कष्ट च्यार तीर्थ रै मांहि
आहार पांणी रो
कदा आबरू
२
३
४
५
६
७
८
९.
१०
ढाळ २६
११
१. लय — सासू सुसर चन्द नृपति नै । २. उदधि - समुद्र ।
३. जहाज का आश्रय
४. इज्जत ।
तजै
भिक्षू
डरतो, न
ऊपजै,
कटुक
निषेधै, तो पिण
समुदाय
उदारी
वचन मुनि तंडै ।
गण न वि छंडै ॥
कष्ट प्रकट उतारे,
नहि हुवै न्यारो ॥
ओसवाळादिक
जग प्रगट दीसंता ।
ऊपनो, अधिक काम अरु भारो । तो पिण न्यात भणीं, न तजै तिम ए वीर तणां सासण नें, न तजै किण ही पुरुष नैं अकारज, ( करतो) देखी तो पंचां ने आण सुणावै, पिण आप हुवै तिम किण ही ने दोष सेवंतो, देख्यो तो गणपति ने आय सुणावै, पण राजा, ठाकुर ने अंगरेज, त बाहिर काढण रो न्यात बाहिर काढण अथवा त्यांरे तोल' आवै पंचां भणीं सुणाय आप, निर्दोष पण आप न्यात बारे क्यूं निकळै,
पुकारै ॥
न्यात
सारे ||
कारज, ते रो कारज, है पंचां रे हाथो ॥ जिम, तेहिज करै विख्यातो ॥
हु निकळंको । निकळ्यां अपजस डंको ॥
तजै उत्तम
५. तुल्य ।
मुनि मतिवंता ॥
न्यात मझारो ।
नहिं न्यारो ॥
तीर्थ
मझारो ।
आप हवै नहिं न्यारो ॥
आगै न नहीं त्यारे
शिक्षा री चोपी : ढा० २६ :
११९
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तिम किण ही में दोष देख, गणपति ने तुरत सुणावै । आप आसता त्यांरी राखी, अधिक विमल चित्त भावे ॥ प्रतिसेवणा बकुस ३ भेळा, र केवळी आपो ।
सूत्र वयण बहुविध अवलोकी, टाळै निज संतापो । छमासी प्रायश्चित्त बहिता, मास रो दोष लगायो । तो दो मास ने बीस दिवस दंड, देणौ जिन वच न्यायो ||
सोरठो
दंड सेव, कपट करी
दोय मास तो वीस दिवस अधिकेव, असी दिवस इम "असी दिवस नो दंड वहितां, बेमास रो दोष बीस दिवस आरोपण देणी, इम ए सौ दिन सौ दिन नों प्रायश्चित्त बहितां, बेमास नों तो बीस दिवस आरोपण देणी, मास च्यार इम
दोष
ते मास नों सेव्यो देणी, ए दिवस एक सौ
इकसय चाळी दिन तप बहितां, बे मास नों दोस तो बीस दिवस आरोपण देणी, ए पंच मास दश दिन्नो || पंचम मास दस दिन तप ब बहिता, बे मास नों दोष तो बीस दिवस आरोपण देणी, इम षटमासी विस्तार नसीत सूत्र रे, कह्यो
लगायो ।
थायो ॥
ए
मुद्देश।
कलेशो ||
अपराधी
मोटो ॥ नों तोटो॥
सु जिन वचन आसता राखी, मैटे भर्म दोष सेवनें पूछयां नटियो, ते ए दोनूंइ दोष आलोयां, मिटै चारित्र दोष सेवनै नटियो ते पिण आलोयां सुध थावै । विनां आलोयां कह्यो विराधक, सभा मझै बोलै तिण हे देवा! मा बोल, वचन
अभियोगपणूं पावै॥
च्यार पांच सुर ऊठै।
गमै नही इम रूठै ||
च्या मास प्रायश्चित्त बहितां, तो बीस दिवस आरोपण
१. विश्वास ।
२. दोषाचरण से मलिन ।
३. चारित्र में अतिचार के धब्बे लगाने वाला ।
१२० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
ऊपर,
तुज,
आलोवियां ।
संभवे ॥
लगायो ।
थायो ॥
लगायो ।
थायो ||
न्हाळी ।
चाळी ॥
प्रपन्नो ।
४. आगम ।
५. लय - सासू सुसरा चंद नृपति ने ।
६. निम्न जाति का देवत्व |
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३९
४०
ए
गया
अनंता
मोखो |
दोष सेवियो तिको दोष पिण, नटियो ते पिण दोषो । दोनूंइ दोष आलोइ, लगावी, प्राछित देणौ,
एक मास रो दोष
रहित
आलोवै ।
आराधक होवै ॥
एक मास नो मास नों तो दोय मास नों प्राछित देणो,
एक
दोष लगावी,
सहित आलोयो ।
सम होयो । आलोयो ।
दोय मास नो
दोष सेवनै,
अवलोयो ।
तो दोय मास नों दोय मास नों तो तीन मास नों
आलोयो ।
आराधक होयो ।
तीन
मास नों दोष
सेवनें, कपट रहित
आलोयो ।
अवलोयो ॥
तो तीन मास नों प्राछित देणो, ए वीर वचन तीन मास नों दोष सेवनें, कपट सहित
अवलोयो ।
आलोयो ।
म राखो
कोयो ॥
तो च्यार मास नो प्राछित देणो, आलोयां सुध होयो ॥ च्यार मास नों दोष सेवनें, तो च्यार मास नों प्राछित देणो, च्यार मास नों दोष सेवने, कपट सहित तो पांच मास नों प्रायश्चित्त देणो, कह्यो पाठ पांच मास नों दोष सेवनें, तो पंच मास तणो दंड देणो, पंचमास नो दोष सेव नें, तो छमास तणो दंड देणो, तिण उपरंत दोष जे सेवी, अथवा कपट सहित आलोयां,
कपट
इम
कपट
ए कपट झूठ
बहु बार दो मास तणो, कपट सहित आलोयां तिण नें,
कपट रहित
ए जिन वच
सहित
प्राछित देणो, दोष सेवने, प्राछित देणौ, इम
कपट
कपट रहित
संक
आलोयो ।
में सोयो ।
आलोयो ।
कपट सहित
श्री जिन वच
कपट सहित व्यवहार सूत्र
कपट रहित छमासी दंड
बहु बार इक मास तणों,
दोषण सेवी नें
कपट रहित आलोयां तिण नें, एक मास दंड
बहु बार इक मास तणों, कपट सहित आलोयां तिण नें, बहु बार दोय
दोषण सेवी दोय मास
मास तणों, दोषण सेवी
कपट रहित आलोयां तिण नें, दोय मास
ए होयो ।
आलोयो ।
मायो ||
आळोयो ।
होयो ।
तायो ।
आयो ॥
रे
नें
दंड
नें
दंड
दोषण सेवी नें
तीन मास दंड
तायो ।
थायो ॥
तायो ।
थायो ॥
तायो ।
आयो ।
शिक्षा री चोपी : ढा० २६ :
१२१
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४१ बहु बार त्रिण मास तणों, दोषण सेवी में तायो।
कपट रहित आलोयां तिण ने तीन मास दंड थायो॥ ४२ बहु बार त्रिण मास तणों, दोषण सेवी ने तायो।
कपट सहित आलोयां तिण नें, च्यार मास दंड आयो॥ ४३ . बहु बार चिहुं मास तणों, दोषण सेवी ने तायो।
कपट रहित आलोयां तिण नें, च्यार मास दंड पायो। बहु बार चिहुं मास तणों, दोषण सेवी ने तायो। कपट सहित आलोयां तिण नें, पंच मास दंड आयो। ' बहु बार पंच मास तणों, दोषण सेवी ने तायो। कपट रहित आलोयां तिण नें, पंच मास दंड पायो। बहु बार पंच मास तणों, दोषण सेवी ने तायो। कपट सहित आलोयां तिणनें, छ मासी दंड आयो।। तिण उपरंत दोष जे सेवी, कपट सहित आलोयो।
अथवा कपट रहित आलोयां, छ मासी दंड होयो रे ॥ ४८ प्रथम उद्देशै सूत्र व्यवहारे, आख्यो ए अविरुद्धो ।
समचित सेती जिन वच सरध्यां, समकित हुवै सुद्धो।। दोष सेव मन मांहि विचारे, आलोविस अंतकाळो। अंतकाळ आलोयां आराधक, सूत्र भगवती' न्हाळो । तिमज झूठ जे अंतकाळ पिण, आलोयां सुद्ध थावै। नहीं आलोयां उण नें मुसकल, बीजां रो स्यूं जावै ॥ मास छमास दोष बहुबारे, सेव्या प्राछित भाख्या ।
मासिक चउमासिक ना कारज, सूत्र नसीते · दाख्या ।। __ इत्यादिक जिन वच अवलोकी, मेटै भर्म सुजाणो।
गणपति तणी आसता राखी, तजै ज मन री ताणो ।। समकित चारित्र बिहुं विराध्यां, इहभव अपजस होवे।
परभव नरक निगोदे वासो, दो, जनम बिगौवे॥ ५४ शासण री उतरती न करे, ए भिक्षु मर्यादो।
ते सुध पाळ सुजस उजवाळे, उभय भवे अहलादो॥ ५५ सासण में रही लहर रूप जे, वदै उतरतो बोलो।
ते तो विवेक तणों विकळ छै, कहिये फूटो ढोलो॥
१. भगवई २०६८३,८७
१२२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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सासण में रही सासण री, करै उतरती बातो। अबोध रो कारण जिन भाख्यो, जासी जम रै हाथो। सासण में रहि सासण री, करै उतरती मोदं॥ समकित. चारित्र बिहुं विराध्यां, जावै नरक निगोदं॥ सासण री उतरती कीधां, परमाधामी झालै। गोळो रातो लाल करी नें, मुंहढा मांहि घालै । सासण री उतरती कीधां, इणभव उदेज होवै।
तो विविध प्रकारे रोग उपजै, वेदन सूं बहू रोवै।। ६० सासण री उतरती कीधां, वधै रोग ने सोगो।
वले अचिंत्या धसका तिण है, वाल्हा तणों विजोगो । इम जाणी सुवनीत मुनीश्वर, श्रावक जे सुखदाई । सासण री उतरती न करे, दिन-दिन सोभ सवाई।। करै उतरती सासण री, तस संग कदे नहीं करणो।
काल-भुजंग सरीखो लेखव, अहो निश तिण सूं डरणो।। ६३ उतरती जे करे सासण री, मोटो एह अकज्जा ।
भव-भव मांहि फिट-फिट होवै, प्रत्यक्ष निपट निलज्जा ॥ स्वारथ अण पूगां गणपति सूं, कलुष भाव जे राखै। बलि कुण-कुण सूं कळुष भाव, तसु सांभळज्यो निजशाखै॥ परम प्रीत गणपति सूं पूरण, सासण मांहि सनूरो। तिण सूं कळुष भाव तेहनों तसु, गुण सुण बिगडै नूरो।। भिक्षु झू पिण कळुष भाव तसु, वर तेहनी मर्यादो।
ते पिण . सरावणी नहीं आवै, सुणियां नहीं अह्लादो। ६७ तीर्थकर सूं कळुष भाव तसु, वीर सासण ए नीको।
सासण दिढावतो मन शंकै, गुण सुण नैं हुवै फीको । पद युवराज समापै गणपति, तिण सू पिण नहीं राजी। तसु गुण पिण मन में न सुहावै, पुन्यहीण महा पाजी।। परम प्रीत गणपति सूं पूरण, प्रीत वाळा री सोबत' ।
शासन अधिक दृढावै चित सूं, ते सुविनीत विनयवत॥ ७० अप्रीत भाव गणपति सूं राखै, तिण री ही सोबतो ।
सासण रा गुण मन न सुहावै, ते अवनीत कुपतो।।
६६
१.संगति।
शिक्षा री चोपी : ढा० २६ : १२३
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सासण , वीर तणों भिक्षु गण, भाग्य प्रमाणे मिलियो। विनयवंत सुख माने अधिको, रहेज फूल्यो फळियो॥ सासण वीर तणों तिण में, अविनीत हरष नहीं पावै । रंग रत्ता नही छै तिण कारण, हीजरता दिन जावै॥ अल्पकाळ बहुकाळ तणी, गणपति मर्यादा बांधै। विनयवंत मन माही हरखै, समभावै चित साधै। तेहिज मर्यादा सुण-सुण, अविनीत घणों सीदावै।
जाणै मुज ऊपर ए बांधी, कळुष भाव मन ल्यावै॥ विनयवंत अविनीत तणां, लक्षण गणपति ओळखावै। विनयवंत सुण-सुण ने हरखै, भली भावना भावै।। विनयवंत अवनीत तणां, लक्षण सुण नैं अविनीतो। अति दुख पावै मन सीदावै, खोटी तिण री रीतो।। वंदणां करतां पिण सुवनीत तणे, मन हरष सवायो । ओच्छाह रहित अविनीत करै, अति कलुषभाव मन ल्यायो। उगणीसै बीसै चउमासै, चूरू वर उपगारो। जयजश गणपति जोड़ करी ए, समझावण नर नारो॥
७७
७८
१२४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ २७
। ऊंच (सुगुण) नरां रो उत्तम मारग॥ ध्रुपदं॥
उपगारी नो उपगार न भूलै, ते गिरवा गुणवंतो रे। अपराधकरि ने 'नमणखाधां'२ पछै, मन में न राखै संतो रे॥ नमण करी निज अवगुण जाण्यां, 'खून गुनो'३ बकस देवै। रोष लहर मन में नहिं राखै, अपूठो तसु गुण लेवै॥ सापुरुष धीर सुजाण नै गिरवा, तन मन बहु सुखदाई। आगलो अवगुण मूळ न पेखै, पोखै पीत सवाई। आगमियां काळ माहै नवि चूक, छांड दियै दृष्टि खोटी। तठा पछै त्यां सूं खटक न राखै, मोटां री मति मोटी॥ बले कोई चूक देखै ते तिण नैं, निशंकपणे सुध कहीजै। पिण रुड़ी रीत राखै मुख प्रीते, त्यां सूं लहर मूळ न राखीजै॥ अनेक वार कोइ दोष लगावै, डंड लेवै रुड़ी रीतो। तिण सूं पिण लहर मूळ न राखै, जोयलो सूत्र नशीतो॥ संवत् उगणीसै आसोजी सातम, सापुरुष विरद बताया। नमण खाधां पछै लेहर न राखै, संत सती सुखदाया।।
१. लय-स्थिर स्थिर चेतन। २. त्रुटि स्वीकृत करने पर।
३. खून करने का अपराध। ४. सज्जन।
शिक्षा री चोपी : ढा० २७: १२५
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ढाळ २८
प्रभु के वच प्यारे ॥धुपदं॥
or mor9
ओ तो श्रेणिक नाम राजा, तिण रा जग माहै सुयश दिवाजा॥ तिको पहिली नरक माहै पड़ियो, ओ तो दुख जंजीरे जड़ियो। गोशाळो इक-इक नरक मझारो, ओ तो जासी दोय-दोय वारो॥ कुंडरीक चारित्र भांगो, नरक सातमी में तसु सांगो। जिहां उष्ण योनि पहिछाणी, तिहां शीत वेदन अति जाणी।। जिहां शीत योनि में जासं, तिहां उष्ण वेदन छै तासं॥ जिम निंब में ऊपनो कीड़ो, सुख माने तिहां सागीड़ो। तिण नै मेलै मधुर रस मायो, तो ओ दुःख लहै अधिकायो।।
तिम जेह नारकी नैं जोई, अति उष्ण वेदन छै सोई॥ १० तिण रे उत्पत्ति स्थान छै शीतं, तिण सूं उष्ण वेदन महाभीतं।
जेह नारकी नैं जाणी, शीत वेदन छै दुःख खाणी॥
ते तो ऊपनों, उष्ण स्थानक में, दुःख शीत तणो रकझक में। १३ ऊंदर ऊपना जे अग्नि मांयो, ते रति लहै अग्नि में तायो। १४ तिके शीत स्थानक जो आवै, तो वेदन दुःख अति पावै॥ १५ इण दृष्टान्ते जोई, नारकी शीत उष्ण योनि सोई।।
उष्ण योनि रे वेदन शीतं, शीत योनि रे उष्ण कहीतं ॥
एहवी वेदन नरक मझारो, जीव सही अनंती बारो।। १८ हिवै भिक्षु स्वाम पसायो, ओ तो चरण रत्न कर आयो।
तिण नैं यत्न करी राखीजै, गण शरणो नहीं छांडीजै॥ २० मरणांत कष्ट जो आवै, तो पिण गण में आराधक थावै ।।
गण शरणो नही छोड़े, तिके प्रीत मुनि सूं जो.।। २२ दःख नरक निगोद ना न्हाळी, मत कीजो आतम काळी।। २३ गणपति री आज्ञा बारो, उत्कृष्टो रुळे अनंत संसारो॥ २४ तिको इक-इक नरक मझारो, जाये अनंत-अनंती बारो।। २५ दुःख नरक थकी अधिकायो, अनंत गुणो निगोद रे मायो॥
१७
२१
१. लय- ज्यारै सोहै केसरिया साडी।
१२६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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३०
३१
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३३
उत्कृष्टपणै ए आख्या, दुःख निदंक टाळोकर ना दाख्या ॥ बले इहभव फिट-फिट होवै, ते तो मानव नो भव खोवै ॥ इम जाणी उत्तम नर नारो, राखो गणपति स्यूं अति प्यारो ॥ त्यांरी आज्ञा मांहि शुद्ध चालै, तिके स्वर्ग मांहि सुख म्हाळ || पछै शिवपुर वेग सिधावै, अनंत आत्मीक सुख पावै ॥ त्यां सुखां रो नावै कदा पारो, एहवा शाश्वत सुख श्रीकारो ॥ उगणीशै तीसै वासो विद चेत नवमी सुखरासो ॥ सुख जयजश तास पसायो ।
भिक्षु भारीमाल ऋषिरायो,
-शिक्षा री चोपी : ढा० २८ :
१२७
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ढाळ २९
'सुणज्यो शीख सतगुरु तणी रे॥ध्रुपदं॥
मोटा कुळ रा मानवी रे, ऊंडो करै विचार।
सुरगिरि धर्म हिये धरी रे, नाणै आर्त लिगार। __ अदेखाई न करै और नी, ते पिण निज थी बहू हीन।
सूर खद्योत नो अरि किम हुवै, वो बेचारो दीन॥ किहां सर्सप किहां सुरगिरी, किहां हीरो पुखराज। किहां चंदन एरंडियो, रोष करै किण काज॥ किहां आम किहां आंबली२, अंतर अधिक अपार ।
आम अदेखाई किम करै, आंबली सूं अवधार।। इन्द्र-वाहन न करै इसको, देखी मनुष्य लोक ना गजराज। ऊंच करै ए आलोचना, रोष करतांइ आवै लाज॥ धीरपणों चित्त में धरै, सुखदाई सुवनीत। हितबंछक सतगुरु तणो, पूरण पाळे प्रीत॥ तन मन सुख हुवै गुरु भणी, तेहिज करै उपाय। लहर वैर सर्व परहरै, साताकारी सवाय॥ आपन तपै न तपावै औरनै, आछा माणस ताम। गुणवंत गहर समुद्र सा, एहवो न करै काम। वारू विनय विवेक में, भीज रह्या निश दिन्न । त्यारे दिन-दिन तीखी आशता, ते सदा रहै सुप्रसन्न ।।
१. लय-कामणगारो छै रे। २. इमली
३. ऐरावत हाथी
१२८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ ३०
धन धन धन धन गुणवंता भणी रे॥ध्रुपदं॥
बालपणां में केइ संजम लियै रे, केयक जोवन वय रे मांय रे। परभव नी खरची करता महामुनि रे, सम परिणाम में रहै सवाय रे।। बालक वय में केइ घर में छतां, धारे छै सील वरत सिरदार। केयक जोवन वय में व्रत आदरै, त्यां साहमी राखै दिष्ट उदार॥ आरत ध्यान थकी दुरगति मिलै, नरक निगोदे दुख भरपूर । काम भोग पिण दुख दाता कह्या, इम जाणी नै आर्त कर दै दूर। मेघ मुनि आठ रमण तज व्रत धस्यो, छांडी बलै सालभद्र बत्तीस कृष्णादिक नी राण्यां व्रत धर शिव गई,त्यां साहमी राखै दृष्ट जगीस॥ पुत्रादिक पुन बांधी आया इहां, भोगवसी ते पोता रा पुन । त्यां री पण चिंता मूळ करै नहीं, कर्म काटण री राखै धुन॥ लाभ-अलाभ सुख-दुःख में सम रहै, त्यां नै बखाण्या जिनेन्द्र देव। सामायक पोसादिक सुभ ध्यान में, सफल दिन रात्र करै नित्यमेव॥ अल्प दिवस मांहै करणी थकी, वैमानिक देव हुवै श्रीकार। पछै अल्प भव कर शिवपद संचरै, करणी रा ए फल लहै उदार॥ काम नै भोग थकी इण जीवड़े, बले पुत्रादिक धन री ममत करेह। नरक निगोद तणां दुःख भोगव्या, इम जाणी न करै किणसूं नेह॥ समत् उगणीसै अष्टादस समै, जेठ विद अष्टम मिति उदार। ए दीधी शिख्या हळुकर्मी भणी, जयजश गणपति महा सुखकार॥ प्रतीत पक्की सतगुरु तणी, जो करडोइ आय पड़े काम। तो पिण आसता नवि उतरै, ते सुवनीत अमाम।। इसा विरला पुरुष संसार में, पुरण सतगुरु सूं पीत।
ज्यां रे आसता मूळ न उत्तरै, ते गया जमारो जीत॥ १२ सतगुरु तो पारस सारिखा, कर दीयै आप सरीख ।
आसता पूरण शिष तणी, तो शिष ने धारणीया हिज शीख॥ १३ जो भाग्य प्रबल हुवै गुरु तणो, तो शिष्य रे है गुरु नी प्रतीत।
पूर्ण वरतै अंग चेष्टा सर्व कार्य में सुरीत॥
१. लय-पाखंड वधसी आरे पांचमे रे।
शिक्षा री चोपी : ढा० ३० : १२९
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१९
सुनीतां सूं प्रीतडी, ते
प्रमाण ।
रखिया
मांहिला, करै थिर परिणांम ॥
तन मन
कंपै नहीं
पण मुरजी रोहिणी सारिखा, सुगुर रीझावै जांण ॥ कार्य सूं मेरु परै, ले सुनीत परिषद समिया सर्व सारखा, कार्य मेघकुंवार तणी परै, सब तन सूपै सर्व कार्य में गुरु तणै, वनीत नो वै भितर मिलणै मिल रह्या, जिम जळ पय एशिख्या सतगुरु तणी, धारे चित नित प्रति सेवा नव नवी, राखै सतगुरु सूं एशिख्या गुणवर्धन के
सूं
सुगणां
भणी,
ध
म्है चौरा
समत
कारणै,
१३० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
सुजाण । अगवाण |
आंण ॥
आधार ।
मझार ॥
सार ।
इकतार ॥
हितकार |
अठार ||
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दाळ ३१
'जिनेश्वर धन्य थारो अवतार ॥धुपदं॥
देव मनुष्य तिर्यंच नां रे, भीम भयंकर भीर। सह्या परीसह आकरा रे, भगवंत श्री महावीर। तीव्र रोग वेदन सही, घणे काळ इकधार। कर्म . काट मुक्ते गया, चक्री सनतकुमार ।। अग्नि वेदन अति आकरी, महा पडिमा महाकाळ। विमल ध्यान शिवगति वरी, मुनिवर गजसुकमाळ।। छठ-छठ तप नै पारणै, आंबिल उज्झत आर। सव्वट्ठसिद्ध नव मास में, धन्य धन्नो अणगार ।।
खंधक मेघ मुनीश्वरू, तीसक कुरुदत्त सार। _ विकट तपे सुर सुख लह्या, चव लेसी भव पार ।।
वासी' चंदण सम गिणे, समचित सुख दुख मांय। मास संथारे शिव लही, मृगापुत्र मुनिराय ।। गणपति नै चित चालतां, तज परिचय त्रिय-प्रीत। सुखे चरण तसु निरवहै, तिण री घणी प्रतीत । पंचम आरे परगट्या, भिक्षू गुण-भंडार। सावद निरवद सौधि नै, मार्ग लियो तंतसार ।। अमीचंद ऋषि ओपतो, पंचम आर मझार। धर्म उद्योत कियो मुनि, जयजश हर्ष अपार ।।
१. लय-खिम्यावंत जोय भगवंत रो ज्ञान। २. नीरस। ३. आहार।
४. सर्वार्थ सिद्ध ५. वसूला
शिक्षा री चोपी : ढा० ३१ : १३१
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१
२
३
४
५
६
७
धीरजवान पुरुष परम प्रमोद संवेग पावत संत सती
'पावत सुख चरण करण गुणधारी ॥ ध्रुपदं ॥
लिगारी ।
गुणधारक, आरत नाणै हर्ष धर, वयण अडोल गुणधारी, एतो सर्व जीवां
विचारी ॥
सुखकारी ।
सम रम साम राम
पावत सुख चरण करण गुणधारी ॥ तणीं पर, जीव सुगुण सिरे भारी । प्रत्यक्ष, सूरत महा सुखकारी ॥ सुवनीत, शासण ना याद आयां तन मन हुलसावै, गुरु दिल हर्ष सुर नर सेव करै वृद्धि संपति, शरणागत निश दिन हर्ष हिया मैं वधावै, शंक न राखै मंगल आदि थाप्यो चित स्थिर, मन मांहै गाढ़ी धारी । कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामणी, सुवनीत गण- श्रृंगारी ॥ शिष्य सुवनीत रा विविध मनोरथ, पूरवै गुरु हितकारी । किंचित् कसर पड्यां शिष्य सुवनीत, मन में न आणै लिगारी ॥ हर्ष हार सर्वदा हिये राखणो, ए सुगुरु शीख सुखकारी । उगणीसै नव आसू बीज विद जयजश, आनंद पाया अपारी ॥
श्रृंगारी । अपारी ॥ सुखकारी । लिगारी ॥
ढाळ ३२
सरस हर्ष साम राम परम वनीत प्रीत हद
जीव
१. लय-आवत मेरी गलियन
१३२
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ ३३
'सुमत सदा हिरदै धरो रे लाल॥धुपदं॥
कुमति दिशा अति छोड़ नै रे, सुमति दिशा दिल धार रे सोभागी। आचार्य उवज्झाय पे रे लाल, घर छोड़ थयो अणगार रे सोभागी।। वमन पित्त रुधिरे भर्यो, तन उदारीक असार । सड़ण पड़ण विधंसण सभाव छै, वर्ण हेते करै आहार।। रूप रस गन्ध फर्श कारणे, करै असणादिक नों भोग। एह भव तीर्थ च्यार में, हेलवा निंदवा जोग।। सरस आहार स्वाद कारणे, खाए सराय-सराय । चारित्र नां है कोयला, बले और अनर्थ है आय ।। तन फुटराइ२ कारणे गोरादिक वर्ण काज। मूर्छा थको आहार भोगवै, त्यांरी परभव किम रहसी लाज। कै जीभ्या रा लोळपी, ए भव फिट-फिट होय। परभव दुख पामे घणां, विविध प्रकार नां जोय।। इम जाणी लोळपणों तजै, टाळे आतम दोष। राग द्वेष तजतां थंका, पामै चारित्र पोष॥
१. लय-सीता अगन में पेसतां रे। २.सुन्दरता
शिक्षा री चोपी : ढा० ३३ : १३३
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उपदेश री चौपी
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ढाळ १
'खिम्यावंत जोय भगवंत रो जी ज्ञान॥धुपदं।
देवै सतगुरु देशना रे, ए संसार असार। रोग सोग दुःख अति घणो रे, देखो आंख उघाड़।
खिम्यावंत जोय भगवंत रो जी ज्ञान।। आज काळ धर्म आदरूं, पक्ष मास चउमास। इम आशा बांधै आगली, फस्यो विषय मोह पास ।। अञ्जळि ना जळ नी परे, आउ घटतो जाय । विघ्न घणा मोहरत मझै, तूं सोच देख मन मांय॥ सज्जन त्रिय सुत कामणी, खिण विरहो न खमाय । इक दिन पाप उदय हुवा, सो काळ गयो गटकाय।। तीन अरि लारे लग्या, रोग जरा मरण जाण। इण न्हासण रे अवसरे, क्यूं सूतो मूढ़ अयाण।। बळद जेम चंद सूर छै, दिवस रात्रि घड़माळ। जळ आयु ओछो करै, ए काळ रेंट विकराळ। काळ सर्प खाधां थका, नहिं चतुराई जाण। नहीं कळा नहिं औषधी, तिण सूं धर राखै प्राण ।। पृथ्वी रूपी कमल छै, मेरु केशर दिशि पान। रस आउखा रूपीयो, काळ भ्रमर ले ताण।। छाया मिष छळ ताकतो, काळ महा विकराळ। पास न मूकै सर्वथा, पहिला आपो संभाळ ।। जीव रुळ्यो संसार में, विविधपणै गति स्थान ।
आदि अंत दीसै नहीं, नरक निगोद पिछान।। बंधव सुत जन मित्रवी, मरण न राखै कोय। दाग देई पाछा बलै, निज स्वार्थ रह्या रोय।। सुत बंधव विचरे सहू, पलटै संच्यो धन। इक धर्म कदे नहीं पलटै रे, निश्चय राख तूं मन॥
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१. लय-खिम्यावंत जोय भगवंत रो जी ज्ञान।
१३६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१३
१४
कर्म पास बंध्यो पड़े, संसार बंधीखाना मांय। आठ कर्म मूक्यां थकां, 'शिव-मंदिर सुखपाय।। कमल अग्र जळ बिंदुओ, चंचळ अथिर पिछाण। (तिम) तन धन सज्जन अथिर छै, काम भोग विष जाण ।। यौवन में बल रूप थो, वृद्धपणा में नाय। थोड़ा दिन रे आंतरै, ते पिण गयो विलळाय॥
१५
१.मोक्ष
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ढाळ २
म्हांनै म्हारा
जेठाणीजी सूं न्यारा रहिस्यां राज | संत सत्यां री छै सीख, जेठाणी स्यूं न्यारा होस्यां राज | धुपदं ।। अध निज गुण बड़ बंधव घर, त्रिया कुमति अनाद जेठाणी । सुध निज गुण लघु बंधव घर, चरखो ध्यान शुक्ळ वर ध्यास्यां, चेतन पिउ रे पाग चरण तप, शील सुरंगी मुझ
देराणी ||
सूत
हजारी ।
साड़ी ||
सुदेवा ।
तन नै अल्प आधार देई नै, भारी माल कमास्यां । आयां गयां नै सीख समापी, सीतळ वाणी सुणास्यां ।। कुगुरु कुदेव पूजै जेठाणी, म्हारै सुगुरु म्हानै अविचळ शिवपुर मिलसी, जेठाणी नै नरक जुदा हुवां रो नांगळ करस्यां, संत सती फासुक सुध आहार वहिराई, इम घर मांड्यो राणी || उगणीसै पनरै महाविद तिथ, चोथ सुमति देराणी । जय जश गणपति है सुणो संतां, अविचळ घर चित ठाणी ॥
मिलेवा ॥, गुणखांणी ।
१. लय-जेठानी न्यारा होस्यां नांगळ २. गृह प्रवेश पर किया जाने वाला अनुष्ठ १३८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
सुमति त्रिया
कातां
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ढाळ ३
करिंदा ।
विलसदा ।
केइक शब्दादिक में खूता पुद्गळ सुख नीं प्यासा । जय गणपति कहै मोह कर्म नां जग में जबर तमासा ॥
- केइक
गावै
इक
क नाचै केइक
रोवै, केइक ख्याल
राचै,
केइक रति
केइक हिंसक जीव हणै बहु दया नहीं दिल मांही। इक कूड़ केलवै इक पर धन हरै सदाई। में कळिया केइक परिग्रह कर्म ना जग में
पासा ।
केइक मिथुन काळ जय गणपति कहै मोह
जबर तमासा ॥
केइक क्रोध वसै अति ज्वळता, केइक केइक माया कपट केळवे, केइक केइक राग स्नेह परवस करि, केइक जय गणपति कहै मोह कर्म ना जग में जबर
द्वेष
माया सहित मृषा कै दस बोल ऊंधा आज्ञा बारैं धर्म जय गणपति कहै
मान मच्छरिंदा | लोभिदा ।
जन
केइक कळह करै फुन, केइक पर शिर आळज केइक चुगलीखोर केइक बलि पर परिवादज केइक रति अरति में मुरझ्या, हरख सोग में जय गणपति कहै मोह कर्म ना जग में जबर बोलै इक जन श्रद्धै, कुगरां ना पसूपै, बलि राखें सुख आशा ।। मोह कर्म ना जग में जबर तमासा ॥
मिथ्याती ।
कर
पखपाती ।
१. लय-छंद धमाळ तथा चौरासी में भमता रे
धमासा ।
तमासा ॥
देवै ।
सैवे ।
वासा ।
तमासा ॥
बाजै
स्याणा |
केइक षट्खंड त्रिण खंडाधिप, केइक राजा राणा । केइक सेठ सेन्यापति मानव जग में काम भोग किंपाक तणां फळ, सहै नरक जय गणपति क मोह कर्म ना जग में जबर तमासा ॥
दुःख
त्रासा ।
उपदेश री चौपी : ढा० ३ : १३९
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छंद कुंडलिया
७
सेवो थानक . सुध' कथा म करो रस कामण। · त्रिय संग आसण तजोरे भरी दृग् निरख म भामण । वस मति अन्तरवास जिहां त्रिय शब्द सुणीजै। कृत क्रीड़ा म संभार सरस रस चित्त न दीजै। प्रमाण लोप अधिको अदन, उद्भट वेष म आदरो। तज शब्द रूप रस गंध फ र्श, धीरज स्यूं ए व्रत धरो।।
१४० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ ४
'चेतानंद धर्म धरो सुखदाई, धर्म धरयां शिव साई ॥ ध्रुपदं ॥
संसार रूपी भव नगर विषै, च्यारूं गति रूपी बाजार । तिण में विविधपणै दुःख भोगविया, जीव एकलड़ो निराधार ॥ गर्भ तणा दुःख सह्या घणा, मळ मूत्र तणो भंडार । राध लोही कर्द्दम अशुच रह्यो, तिण चौरासी लाख योनि में भटक्यो, पूरयो एकीकी योनि मांहे, जीव रुळियो माता पिता सुत सगपण किया, एकाकी सूं ए वार अनंत । ते स्वजन मित्र दुःख मेटण नाहिं, ए काम पड़यां विरचंत ॥ श्वास खास जरा दाह हरस कुक्षि शूळ भगंदर व्याध । पोता रा कीया सर्व पोतै सहै, कोई टाळे नहीं असमाध ॥ तूं जाणें छै माता पिता सुत कामण, मित्र म्हारै सुखदाय । पिण अंतर ज्ञान मांहे सहु बंधण, दुर्गति ना छै सखाय ॥ जे जीव माता हूंती तेहिज, भवंतर मर नै थई नार । जे स्त्री मरी नै माता हुई, पामी अवस्था कर्म वशे सर्व योन राच्यो, नट जिम नाच्यो जन्म मरण ओ फिर-फिर करतो, रुळियो गति च्यार मझार ॥
गिंवार ||
संसार ।
१. लय - महाबल रायथयो वैरागी........
ठाम
मझार ॥
ओ संसार ।
अनंती बार ॥
उपदेश री चौपी : दा० ४ :
१४१
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ढाळ ५
'पुन्यवान पुरुष नै, घर हुवै बहुळो धन्न। तो पात्रे वावरे, कुपात्र न जाणे पुन्न। जो तेल घणो तो, बेळू मांहि न ढोले। बहु बीज हुवै तो, उषर में न झकोळे । घणो स्वर्ण हुवै तो, सांकळ केम करावै। बहु दूध हुवै तो, सर्प भणी किम पावै॥ घणा गजेन्द्र हुवै तो, भार अर्थ स्यूं वावै। तिम धन बहु है तो, किम कुपात्र पोखावै॥ मृगालोढ़ा ने देखी, गोयम पूछ्यो ज्ञान। इण पूर्व भव में, स्यूं दीयो कुपात्र दान । बलि कुमार सुबाहु, देखी पूछ्यो ताम। कुण दान सुपात्र, दीधो तसुं फळ पाम।। ए प्रश्न दोई, सूत्र विपाक मझार। समदृष्टि जाणे, उत्तम न्याय उदार।। दान असंजति ने, सचित्त अचित्त दियां पाप। पंचम अंग पेखो, अष्टम शतक आलाप॥ उगणीशै तेरे, फाल्गुन सुदि ग्यारस भृगुवार। फळ दान दिखाया, जयजश गणपति सार ।।
७
१. लय-नमूं अनंत चौबीसी......
१४२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ ६
सेवा जिन मुनि नी कीजै, सेवा थी बंछित सीजै जी। सेवा जिन बुनि जी कीजै, लाहो नरभव नो लीजै जी॥ध्रुपदं।
an
११ १२ १३
कह्यो सूत्र उवाई मांह्यो, जिन सेवा महा सुखदायो।। इहभव परभव में जाणो, अति सुख ने खेम कल्याणो। दूजै शतक भगवती मांह्यो, वर पंचमुद्देशे वायो।। इहभव परभव में जाणी, मुनि सेवा महासुखदाणी।। मुनि सेव कियां थी पावै, दश बोलां नी प्राप्ति थावै।। मुनि सेव्यां सुणवो पावै, पछै ज्ञान विज्ञानज थावै॥ पचखांण संयम सुखदायो, फळ तास अनाश्रव थायो।। तप ने बलि कर्म बोदाणो, अक्रिया सिद्धि निर्वाणो॥ तिहां आत्मिक सुख विलसावै, तिहां सदा काळ सुख पावै।। सेवा थी मिटै कुलच्छन, जड़ नर पिण होय विचक्षण॥ शुभ लच्छन सेवा थी पावै, इहभव पिण आनंद थावै।। परभव सुर शिव सुख जाचै, सेवा थी गहघट माचै ।। गोतम जिन संगत कीधी, गणधर थया परम प्रसिद्धि ।। उववाई दशमें अंगे, आख्या वर पाठ उमंगे। मन सराप-अनुग्रह-समर्थ, इम वचन काय पिण अर्थ।। मुनि सेव्यां सुप्रसन्नज थायो, तसु जय-जयकार जणायो। अशातना अबोधन पावै, इहभव पिण मँडो थावै।। महामुनि जे अतिशय धारी, तेहना ए गुण भारी॥ इम जाण मुनि पद सेवो, वर शीख हिया में बेवो । उगणीसै सतरै उदारू, बिद फाल्गुन अष्टम वारू॥ जय-नगरी जोड़ जणाणी, जयजश सुख संपति जाणी।।
१४
१८
२० २१
१. लय-नई बुरज पर बंगलो......
२. श्राप।
उपदेशरी चौपी : ढा०६ : १४३
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ढाळ ७
Now ,
रमनीये ! काहि दूं गुमान भरी हे, रमनीये ! काहि कू गुमान भरी है।
'कमनीये ! काहि कू गुमान भरी हे ॥धुपदं॥ १ रंग रंगीली देही छैल छबीली, मळ मूत्र अशुचि भरी हे ।। २ रुद्र शुक्र सूं तेरी काया ऊपनी, नव मास गर्भ धरी।।
चित का चटका मन का मटका, करती पिण इक दिन काळ हरी। जोवन मद मतवाळी चिरताळी, थाये वृद्ध थया जोजरी॥ तरुणपणै रोगादिक ऊपना; आ प्रत्यक्ष क्षीण पड़ी।। रंग रंगीली तूं तो काया राखै, पिण परभव सूं न डरी॥ संध्या भान तेरी तनु शोभा, क्षिण माहै जाय सरी।। तन बहु वेदन हुवां थी, थारे दुरगंधता पुंज जरी।।
श्रीदेवी सुंदर रमणी चक्री नी, उत्कृष्ट छठी में पड़ी। १० तूं तो जाणै मो सम कुण सुंदर, हूं पुन्यवान सुरी।। ११ पिण इक दिन पाप उदै हुवां परभव, परवश जमां पाने पड़ी। १२ वेतरणी प्रमुख बहु वेदन, तूं सहसी आक्रंद करी॥
इम सुण तूं धर सतगुर सेवा, भावन भाव खरी।। १४ सम्यक्त नै देशवत चारित्र, धारयां तूं पामसै अमरपुरी।। १५ निंदक टाळोकर तूं मत बांछे, ए शीख हिया में धरी॥ १६ ए धाड़वी समकित ना लूटारा, ज्यांरी संगति दूर करी॥ १७ बार-बार स्यूं कहिये तुझ ने, तूं तो स्थिर पद गण में धरी।। १८ गणपति नी पक्की आस्था राख्यां, थारा बांछितं कार्य सरी ।। १९ उगणीशै गुणतीसै चैत्र सुदि, जयजश शिक्षा उच्चरी।।
Ess
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१. लय-काहि गुमान कर
१४४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ ८
r n oor w
जिन वचने प्रतिबूझो रे प्राणी ॥धुपदं॥ १ . काल अनंतै प्राणी नर भव लाधो, आर्य कुल अवतारो रे लाय।
दीर्घ-आयु-बळ पूरण इंद्रिय, रोग रहित तन सारो रे लोय॥ संत समागम आगम वाणी, श्रवण दुलभ सरधानो। पा सामग्री परम सयाणी, धर्मोद्यम चित ठाणो॥ लख चौरासी में रुळियो रे प्राणी, लही जन्म मरण दुख खानी। अनुभ्या दीन अनाथ ज्यूं परवस, भूल्यो सुख में अयाणी॥ काम भोग किंपाक समाना, तज पुद्गळ सुख प्यारो। तन धन जोवन मांन इथर, बीजळ चिमत्कारो॥ अगजा अंगज प्राण पियारा, राज ऋद्धि ठकुराई। संसार में जे जे पुद्गळ लीला, ते वार अनंती पाई। रजनी-सुवणां ज्यूं सर्व विलावै, धर मुख समता आणी। सतगुरु वचन समाधि लयां थी, तृष्णा तृपत बुझाणी। नौका समानो सिवपुर मारग, ज्ञानादिक चित्त धारो। भीम भयंकर भवदधि तारक, सतगुर पंथ नेतारो। चिंतामणी तज काच म राचो, कल्प तजी मत आको। जिन धर्म छोड़ विषै मत ध्यावो, परभव कटुक किंपाको। गीत विलाप नाटक बिटंबना, भूषण भार समानो। नरक निगोद ना पंथ देखाला, भोग मनोहर जानो।। मत गाफळ हुंसीयार थई नै, संजम तप धन सारो। जतन करो विषय इंद्री चोर थी, ज्यूं परभव होय आधारो।।
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१. लय-देखो रे भोळा चेत नाही...... २.अनुभव किये।
३. अस्थिर। ४. रात्रिकालीन स्वप्न।
उपदेश री चौपी : ढा०८: १४५
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ढाळ ९
निरास ॥
जीवा सुगरु आण सिर धारियै रे || ध्रुपदं ॥ जीवा ! काळ अनंते दोहिलो रे, जीवा ! लाधो नर भवसार रे । जीवा ! धर्म सामग्री पाय नै रे, हिवै एहल जन्म मत हार रे || जीव ! सुर सुरपति ऋद्धि ळही, भोगव्या सुख विलास । जीवा ! तृप्त कदे हुवो नहीं, चाल्यो परभव होय जीवा ! तन धन जोवन कारमो, जीवा ! जातां न लागै वार । जीवा ! काम भोग विष सारखा, यांरी अंतरंग चाहि निवार || जीवा ! जन्म मरण जरा पूरियो, दुःख भोगव्या विविध प्रकार | ए डाव आयो तिरवा तणो, तूं वहिलो होय हुसीयार ॥ जीवा ! संजम तप दोय मंत्रवी, जीवा ! ले तूंबो लावो लार । प्रेम प्रतीत आराधियां, ए तो मुक्त
पोहचावणहार ॥
१. लय-नदीय किनारे संखड़ो.. १४६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ १०
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'सुगण जन सांभळो रे ॥ध्रुपदं। आचारज गुण आगला रे, धर्मघोष अणगार। वांण अपूरव वागरे रे, सांभळतां सुखकार। पृथी अप तेउ वाय में, रुळियो असंख्यातो काळ। असंख्याता काळचक्र लगै, पायो दुःख असराळ।। प्रदेश अंगुल क्षेत्र में, कह्या असंख्यात जगनाथ। समै समै एकीको काढ़तां, थायै काळचक्र असंख्यात॥ असंख्याता लोकाकाश नां, प्रदेश जेता होय। एता काळचक्र दुःख सहया, च्यार थावर में जोय॥ वनस्पति . में जीवड़ो, रह्यो अनंतो काळ। काळचक्र अनंता लगै, जनम मरण दुःख झाळ।। अनंता लोक आकास ना, प्रदेश जेता होय। एता काळचक्र दुःख सह्या, वनस्पती में जोय॥ पैंसठ हजार नैं पांचसौ, छत्तीस ऊपर न्हाळ। एक मुहूर्त में भव कियां, निगोद दुःख विकराळ।। काळ अनंत निगोद में, जनम मरण महाभींच। नरक थी दुःख अनंत गुणो, निगोद केरो नीच॥ नरक सातमी रो आउखो, तेतीस सागर प्रमाण। मार अनंती भोगवै, सुख रो संचार म जांण ।। तेतीस सागर ना समा हुवै, सातमी में गयो इती वार। तिण सूं अनंतगुणो दुःखनिगोद में, काळ अनंत मझार।। तसकाय में जीवड़ो, रह्यो उत्कृष्ट पिछाण।
दोय हजार सागर लगै, कांयक जाझो जांण।। __बेंद्री तेइद्री चौरिंद्री, रह्यो वरस संख्याता हजार।
विविधपणै दुःख भोगव्यां, अब तो आंख उधाड़। सातूं नरक में ऊपनो, इक इक नरकावासा माय। अनंत-अनंत वार दुःख सहया, सुणियांइ थड़हड़ थाय।
१. लय-सीता कुंवरी बाधती रे.......
उपदेशरी चौपी: ढा० १० : १४७
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१४८
जन्म मरण
री वेदना, बलि शस्त्रां नीं मार। इम बहु दुःख सहतो थको, तिण रो कहता नावै पार || इम सांभळ उत्तम नरां, सम्यक्त
धार
सधीर ।
पीर ।।
संजम तप करणी धरयां, मिटै जन्म मरण री मुक्ति मारग च्यार छै, दान सीयल , संत सेवा मेवा ज्ञान नां, निश्चै
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
भाव ।
तप तरण नो डाव ॥
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धर्म करो सदा धर्मे आपद नायो रे, सुख लहै तदा ॥ धुपदं ॥
१
अनंतकाळ भमता थकां, रे, गर्भ तणां दुःख भोगवी रे, पाई उत्तम कुळ दीर्घ आउखो, बलि धर्म सामग्री पाय नै, मूर्ख
मुरझै
शब्द रूप रस गंध
में, फर्श
२
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७
अणगमता
राग भाव रातो रहै, राखसणी रमणी कही, वैतरणी नरक नीसरणी जिन कही, मत
ऊपर दीसै
ओपती, अंतर अधिक
असार ।
खेळ
ग्रीवेग ।
संवेग ॥
विचार |
धर्म श्रीजिन
भव तरु मूल
खंखार रुधिरे भरी, मूर्ख मत कर प्यार ॥ आउ सागर इकतीस नो, सुख विलस्या तो पिण तृपत हुओ नहीं, अब तो आंण काय फर्श रूप शब्द ना, मन परियार अपछर सुख बहु विलसिया, पिण तृप्त न हुआ काम किंपाक समा गिणो, समगति सूधी आज्ञा मझे, अधर्म आज्ञा सींची भेद सोळ जिन अनंतानुबंधी जावजीव रहै, वर्स इक अप्रत्याख्यान । प्रत्याख्यांनी च्यार मास रहै, पख संजळन पिछान ॥ समगत नै देश - विरत नै, च्यारुंइ आवा दै नहीं, अनुक्रम च्यार क्रोध विणासै पीत नै, मान विनय नो माया खोवै मित्रता, लोभै सकल ए च्यासं चंडाळ चोकड़ी, टालै ते
रह्या, क्रोधादिक चिहुं जांण । भाखिया, अनर्थ करण पिछाण ॥
सर्व विरत
अहक्खाय ।
कषाय ।।
पास।
विणास ॥
मतिवंत ।
आतम वस करै आपणी, ते गिरवो
गुणवंत ॥
१४ कर् सेवा सतगुरु तणी, देइ सुपात्र दांन । कर्म कटक दल पेलवा, उपसम रस गलतान ॥ १. लय - कुमर तदा अनुमत थयो रे.......
रहै
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९
१०
१ १
ढाळ ११
१२
१३
पायो नर
अवतार ।
सखर सामग्री सार रे ॥
तन लह्यो निरोग ।
भोग ॥
काम
मनोहर
पेख ।
धेख ॥
पर
विष
कर रामत
बेल ।
खेल ||
ळिगार ||
धार ।
वार ॥
उपदेश री चौपी : दा० ११ :
१४९
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१. लय-पांडव बोलै बोल.......
तेरापंथ :
१५०
ढाळ १२
अभ्र' पडल पंचरंग, अधिक आडंबर हो अंबर सोभै रह्यौ । बले इन्द्र धनुष गाज बीज, तन धन जोवन हो एम अथिर कह्यो ॥ जिम रमणी रंग पतंग, मात पितादिक हो लिछमी अथिर छै। विष फळ विषय विपाक, मधुर भोगवतां हो पिछताओ पछै ॥ जे दीसै परभात, मध्याह्ने न दीसै हो सुख संपत रता । मध्याह्णे ते नहीं रात, रजनी सुवणा हो ज्यूं सर्व असासता ॥ आम कुंभ फळ जेम, क्षिण भंग काया हो मुग्ध जांणै नहीं। दिन-दिन मरण नजीक, मात-पितादिक हो स्वार्थिया सही॥ जरा न घेयो आय, व्याध न व्यापी हो इंद्री हीणी नां पड़ी। त्यां लग धर्म संभाळ, तारो हो आत्म आपरी ॥ रित अरित
दुख पात, जन्म जरा नो हो बलि मरवा तणो । संसार, नरक निगोदे हो दुख सह्यो
घोर रुद्र
काम क्रोध मद लोभ, तन मांहे तिष्टे हो किंकर ज्ञान दर्शन चारित्र, रत्न अमोळक हो लूंटण परगटा ॥
मात पिता सुत नार, क्षिण मात्रै विहडै
सहु ।
हो स्वार्थिया इंद्र नरेंद्र सुरेन्द्र, काळ आयां थी हो सरणागत नहीं ॥
दुःख दावानळ मांहि, जीव प्रजळता हो दीसै बहु परै । आत्म तारण ताहि, संजम लीधां रो सिव पद संचरै ॥
मर्यादा और व्यवस्था
घणो ॥
चोरटा ।
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ढाळ १३ दोहा
१
देवै श्रीजिन देशना, भाखै भिन-भिन भेद। चित्त लगाई सांभळो, आणी, अधिक उमेद ॥
'सांभळ श्रीजिन सीखड़ी, वारू बाण विसाल। सयाणा। अस्ति भाव सूं आविया, नव तत्व आदि निहाल ।सयाणा।।
__ सांभळ श्री ॥ध्रुपदं॥ पाप अठारै परहरो, धर चित्त संवर धीर। तप करि कर्मज तोड़िया, सिवपुर में हुवै सीर।। संजम तप सुध साचव्यां, सुभ फळ सुरपद सार । दुर्गति हिंसादिक कियां, दुर्गति दुःख दातार।। पुन्य पाप करि प्राणियो, संचरियै संसार। संवर निर्जरा सोभता, मेलै मुक्ति मझार॥ जिन-मार्ग जयकारियो, निर्मळ नै निर्दोख। धीरपणै जन धार नै, महिमागर वर मोख।। सुध जिन मार्ग सेव नै, सुर केइ होय दीपंत । ऋधि मोटी रळियामणा, महासुख महाजोत क्रांत।। चारु थित चिहूकाळ नी, विह. सोभै हार। मुकट कुंडळ मुख ऊजळो,। पेखत पांमै प्यार॥ बाजुबंध नै बेरखा, कड़ि कणदोरो कंत। छव गहिणा हियै छाविया, रतन तिलक भळकंत॥ महामागर वर मुद्रिका, निर्मळ गात्र निहाल। गल्लस्थळ नै रेखा पडै, वरै वस्त्र सुविसाल। सुख एहवा पामै सही, एक लहै अवतार। शिवपुर वेग सिधावसी, संजम तप फळ सार॥ महाआरंभी महापरिग्रही, पंचैद्री वध प्रताप। मांस भखै मदिरा पीयै, सहे नरक में संताप॥
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१. लय-स्वाम स्वरूप सुहामणा
उपदेशरी चौपी : ढा० १३ : १५१
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१३ · माया वचने मानवी, कपट बढ़ावै माया गूढ़।
___ अलीक वचन मुख आखियै, महा मिथ्याती मूढ़। ___ कपट करी मूर्ख ठगै, पिंडत ठगवा पास।
सरलपणे मृदु भाखवै, तिर्यंच हेतु तास । सरलपणै मृदु भाखवै, तिर्यंच हेतु तास। पंडित ठगवा पारखै, मोन करै खिण मात। वारू वचन विप्रतारियै, घोर तिर्यंच में घात। प्रकृति भद्रीक विनीत छै, सानुकोस दयावन्त। मच्छर भाव निहालवै, मनुष्य हुवै मतिमंत॥ राग सहित संजम रुचै, देश व्रत तप बाल।
भाव बिना निर्जरा थकी, सुर गति पाय सुमाल ।। १८ पाप क्रूर नरक पांमियै, नरकावास निहाल।
सीत उष्णादिक नीं सहै, वेदन महा विकराल ।। भूख त्रिखा बहु भोगवै, तप्त अनंती त्रास। वैतरणी ना दुख बड़ा, परमाधामी पास ।। सागर पल दुख त्यां सहै, कंदर्प रक्त करूर।
हास कतूहळ हाम थी, पांमै दुख भरपूर।। २१ आंख मीच खोलै इतै, सुख नवि पाय सुहाल।
दुख सुणतां तन धूजणी, दाखी दीनदयाल || महा सरीरी मानसी, पाप प्रसंग पामंत। तिर्यच दुख तिम वरणवै, तस थावर त्रासंत॥ मनुष्य भवे पिण मानवी, गर्भावास दुर्गंध।
मळ मूत्र में मुरछियो, वीर्य रुद्र विलसंद। २४ मास सवा नव मानवी, दुख भुगत्या देखाय।
भूल गयो जनम्यां पछै, विषय वल्लि लिपटाय॥ जिण थानक दुख में जुड्यो, तिण थानक मन जाय। निर्लज्ज धेठो निसरड़ो, अजुही लाज न आय।। रमणी तन रळियामणो, देखी राचै दीन।
मळ मूत्र रो कोथळो, रुद्र असुचि मलीन।। २७ वमन पित्त वमती थकी, रुद्र वहै निस दीस।
खेळ खंखार खरङीजतो, दुर्गंध विसवावीस॥
१५२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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३०
___ असुच तणो घर आखियो, ऊपर रूप अनूप।
अंतर दुख घर आखियो, कामणी सुख भवकूप।। इम जांणी उत्तम नरां, राखसणी मति राच। सील सुधारस में रमो, प्रवर गुणागर पांच॥ व्याधि जरा वृद्ध वेदना, अनित्य अत्यंत असार। इम जाणी धर्म आदरै, सुर शिव पांमै सार ।। दुर्गंधिया सुख छोड़ि नै, देव हुवै दहदीप। अल्पकाळे आराधियै, मन इंद्री नै जीप। ऋद्धि करी रळियामणा, वारू - विविध विमाण। चारू चंचळ चाल नां, भळकै सुर तन भांण।। अपछर रूपे ओपती, विविध वणावत वेस। पंचइंद्री सुख परवरा, सुख विलसै सुविसेस।। चिंहु गति नै विषै संचरै, दाखै तेह दयाल। छः काया ना जीव छांट नै, खट काया प्रतिपाल। जिम बंधन लहै जीवड़ो, अळुझे इण संसार। राग द्वेष मोह रति करि, परखो विविध प्रकार ।। मूकै माया मोह थी, राग स्नेह मद मार। पांमै शिवगति पंचमी, ध्यान सुधारस धार।। राग द्वेष कर्म काम थी, कायर पांमै कलेस। समभावै चित्त स्थापियां, वारू सुख विशेस। काम भोग किंपाक सा, जाणी नै मोह पार। केइक समण सूरा कह्या, अप्रतिबंध विहार॥ कंदर्प शोक चित्त करी, दुख सागर भय दीठ। थिर चित्त संयम थापवो, नर भव पायो नीठ।। जिण विध पांमै जीवड़ो, वैराग्य रो प्रतिबोध। एहवी वांणी आखियै, सकळ कर्म तो सोध। राग स्नेह रति में रमै, उळझ्या जीव अजांण।
पाप रूप फळ भोगवै, वीर तणी ए वांण ।। ४२ वचन समिति बगतर बण, धर खिम्या वर टोप।
सील दया सझ सूरमा, अखिल गुणागर ओप।। ४३ राग द्वेष मोह जाळ नै, ध्यान एकंत आराध।
आत्म निज गुण ओळखो, परहर पांच प्रमाद।
उपदेशरी चौपी : ढा० १३ : १५३
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ध्याय ।
सम
समान ।
समभावै चित्त स्थाप मान हमारी सीखड़ी, सिव स्तुति निंदा नै अवर मित्र सर्व वल्लभ जन नै समचित वल्लभ आत्मा, ए सम
पदना सुख पाय ॥ धरो, मानापमान परिहरो, आत्म निज मित्त वेरी जिसो, देखो जग दिल नांहि
जान |
खोल ।
अमोल ||
समतामृत
इहभव परभव आकरा, कुण कुण कष्ट हवाल । सरणो श्री वीतराग नो, देख लियो जगख्याल || निश्चल मंदर जळनिधि, भू-सम 'जय' गंभीर । जळ - झूलियै, हेरो निज गुण हीर | दोहिलो, निज आतम उपदेस । अल्प दिवस में देखज्यो, सुर शिव सुख लहेस ॥ गर्भादिक बीच। भोगव्या, नरक अळगा करो, कामभोग महाकीच ॥ सोभता, द्विविध
ए अवसर
अति
कष्टज
करो,
धर्म सुधार । पाळो निरतिचार ॥ जंजीर |
सीर ॥
नै, ध्यान सुधारस
कुण कुण
कर्म हेतु साध श्रावक ना करणी करि कर्म खय
जिन वाणी सुण जांणीयै, जग झूठो समभावे चित्त स्थापियां, सिवपुर घाळै धर्म कथा पर चित्त धरी, जोड़ी युक्ति धर्म कथा इम आखियै, निरमळ समत् अठार सत्यासीयै, माह धर्म कथा कहिवा भणी, जोङी
बुद्ध नै
सुद
.
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
सवाई
जणाय ।
न्याय ॥
मंगलवार ॥
.. मझार ।
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ढाळ १४
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१२
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'बाजे बाई समझणी ॥धुपदं ।। असणादिक असुध, दीये साधां भणी, आप डूबै ओरां न डूबोय के। उद्देसीक नितपिंड आहार, देवण हुलसी घणी, डरे नहीं मन मांय ।। कजिया झगड़ा राङ, करवा तीखी घणी, मुंहडे मुहपति बांध।। हिंस्या झूठ अदत्त, लेवै न चूकै अणी, करत कतोहळ ख्याल ।। गाळ्यां-गीत सराप, निंदा करे पर तणी, पर ना मर्म प्रकास। बाह्य क्रिया देखाय, फिरे श्रावका बणी, अन्तर कपट विशेष ।। करलो वचन कहै कोय, जाणै आई भूतणी, धुकती रहै क्रोध मांय॥ मो सम कुण छै ओर, हूं छू सभा मंडणी, मगरूरी बहुमान।।
कपट झपट नै झोड़, झखाळ करै घणी, ठगारी श्रावका जाण।। __ कुगुरु कुदेव कुधर्म नी, महिमा करै घणी, सुगुरु सुदेव सूं द्वेष।।
संत मुनि नै देख, मुंह मचकोड़णी, अनाचारयां स्यूं पीत।। धर्म द्वेषी स्यूं हेत, नाम श्रावका बणी, जोड़ी जुगती मिली आण।
नवतत्त्व री नहीं ठीक, बणी बडधर्मणी, अहोनिश आरत ध्यान।। १४ नवकरवाळी हाथ, कै ली निन्दया तणी, अहोनिश पर नी बात।।
सामायिक पोसा मांहि, करै विकथा घणी, न मांनै किण री सीख।। १६ करै समाई मांहि, बात पेला तणी, आपो बखाणे आप।। १७ मत करो बायां बात, समाई में घणी, रीस करै मन मांहि ।।
आधाकर्मी आहार, देवा हरखी घणी बलै तिण में जांणै धर्म ।।
घालै थानक में गार, छ काया नै मरदणी, दडै लीपै साधु रै काज।। २० पड़दा परेच कनात, बांधण आघी घणी, मूळ न जाणै दोष ।। २१ इसड़ी सुणियां बात, दोरी लागै घणी, पिण जोर लागै नहीं कांय ।।
पाप पोट बहु बांध, बणी नरक बींदणी, न जाणै धर्म नै कर्म ।। मूंहडे मुंहपती बांध, हाथै लीधी पूंजणी, बाणी बोलै सखर सवाद।। निरलज लज्जा रहीत, धूतारी कांमणी, राखै मन ना दुष्ट व्यापार ।।
साध साधवियां रे मांहि, भांत घलावणी, उभां ही देवै लड़ाय ।। २६ मोसा मर्म प्रकास, पर घर भांजणी, देवै अछता आळ।। २७ इसका खेदा करै ताहि, कर्म बहु बांधणी, मर नै दुरगति जाय।
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१. लय-मत करज्यो
अहंकार।
उपदेश री चौपी : ढा० १४ : १५५
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घर छोड़ थया ऋखपाल, महामुनि गणमाळ आछे लाल । रति अरति नै परहरै ए ।। राचै रूप न झै सुगंध मांहै सही ॥
शब्द मनोहर
जोय, न
सुभ जोय ।
मांय, फर्श
मनोहर
मन गमता रस
स्त्रीय तणां
पुद्गळ
रमणी
महिला
पुद्गळ
वंदै पूजै
ना
ढाळ १५
पंच
काम
राखसणी
मोटो
तसु
परभव सुख
भोग,
सुख
ग्रधपणो मुनि
दुर
दाता
संग परचो त्यांरो नहीं
पेख, नंदीफळ
जांण,
फंद, राच
प्रकार,
श्रीकार,
नर-नार, मानै
नंदी फळ ज्यूं काम
नंदी फळ ज्यूं काम
विषफळ
महाविकराळ,
पहिळा सुख अल्पकाळ,
१. लय - ज्ञाता री जोड़ आछै लाल
१५६
रोग ।
करै ।।
सम
देख ।
मुनिवर मूळ राचै नहीं ॥ चारित्र नीं करै हांण । संग टाळे मुनिवर सही ॥ रह्या नर इंद।
छांड मुनि न्यारा थया ।। लिगार | न करै समता रस में गह गह्या ।। सतकार ।
सहू ॥
मझार ।
पावियै ॥
मूर्छा
भोग,
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
ताय ।
परहरै ॥
भोग,
ए भव सेण हुवै पोंहचै मोख
आत्मिक सुख टाळयां हुवै आरोग
जामण मरण मिटावियै ॥
टाळयां हुवै आरोग। उत्तम नर राचै नहीं ॥ करै अकाळे
काळ ।
खाए ते सगळा मरे || पछै पांमै दुःख असराळ। अनंतकाळ परलोक में ॥
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१५
१६ गमता
१७
१८
१९
गृ
२२
२० अगन
२३
रमणी
२१ उदक
२४
ताकळा
२६
कामण
गात मांय,
फर्श
रूप
लाल
हांसी माल्यां
पांचू आस्रव
मनुष्य लोक
२५ क्षिण सुख
उत्तम जे
सेती
रस मांय,
सुरंग,
थंभ कर
आरंभ दुख
तपाय,
थी
सेव्यां
सेवै
रक्त रूप में
थाय ।
सुगंध थकी मन मोह में || मूर्ख नर मूर्छा । दुख है नरक निगोद में ॥ निरखै अंग उपंग । खण सुख दुख आगे घणां ॥ घालै आंख्या मांय ।
केल, मूद करै
हास कतोहल
जेह,
दुख भारी नरकां तणा ।
मन मेळ ।
थकी रमै॥
दै देह |
नरक में ॥
विकराळ |
पावही ॥
ताम ।
दिखावही ॥
संताप ।
आपही ॥
ताम,
न्हाळ
हाम, जीभ्या कादै
परतख पाप सहै नरक
असंख काळ
अनंत गुणो दुःख
वेदन तो अति
आलंगन
ए परमाधामी
वेतरणी
कळकळतो जळ
खंत,
पाप,
दुख निगोद
दुख नंदीफळ
पांम ।
पांमियै ॥
अनंत |
सारखा ॥
नर-नार, रहै काम भोग थी न्यार ।
मुगत सुखां री ज्यांरै पारखा ||
उपदेश री चौपी : ढा० १५ :
१५७
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भक्त के ळक्षण
ज्ञान श्रेय अभ्यास थी, ध्यान ज्ञान थी शिष्ट। ध्यान थकी तज कर्म फळ, तेहथी शांति विशिष्ट॥ सर्व भूत परद्वेष तजी, सर्व मित्र सम जान। ममत भाव अहंकार तज, सुख दुख भाव समान। पर नै दुखदाई नहीं, पर थी आप न दुक्ख। तजै हर्ष उद्वेग भय, ते मुझ भक्त प्रत्यक्ख॥ निर्वाछा शुचि दक्ष मन, उदासीन नहीं धंध॥ ___ आरम्भ त्यागी सर्वथा, ते मुझ भक्त सुनंद॥
सुख दुख हरख न सोग ए, चिंता कांक्षा नाहि। पुन्य पाप बेहुं तजै, ते मुझ भक्त ओछाहि॥ शत्रू मित्री सम गिणै, तिमज मान अपमान। शीत-उष्ण सम दुक्ख-सुख, वर्जत संग सुजान। निन्दा-स्तुति में तुल्य मन, मौन धार सन्तुष्ट। घर त्यांगी अरु स्थिरमती, सोभै भक्त पियष्ट॥
(गीता अध्याय १२ गा. १२, १३, १५ से १९)
१५८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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टहुका
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टहुका
सहाय' में रैहणौ । सहाय बिना रहै तो एक एक दिन रा १३ मंडल्या' । आचार्य सूं विनय सहित कर जोड़ी मधुर वचन नजीक आवी नैं अरज करणी । स्थानक बैठा अरज न करणी ।
जिता दिन जुदै सिंघाड़े विचरै त्यां सर्व पाछला साधू नैं कारणीक साधु नैं राख्यां ति रा चित नैं समाधि रहै तिम, तेतला दिन रैहणौ ।
करड़ा वचन रौ तथा खूंचणौ कतोहल ऊतरती बात रौ तथा अजयणादिक और ही बात रौ च्यार पांच साधु तथा सिरपंच मंडल्या विचारी देवै ते लैणा, मन बिगाड़णौ नहीं ।
पांती रौ काम, पांती रौ बोझ आदि रसता बंध्या तिण में माथाधूण' न करणी । इण मैं मन बिगाड़े तिण नैं अपछंदो अविनीत कैहणो, मर्यादा रो लोपणहार, कषाई, दुष्ट आत्मा रो धणी, 'शेख अबदुल मुफत रौ साथी कहणौ ।
(हिन्दी अनुवाद)
साझ' में रहना चाहिए। अगर साझ के बिना रहे तो एक-एक दिन का प्रायश्चित्त १३ मंडलिया । आचार्य से निवेदन करे तो निकट आकर विनय पूर्वक कर बद्ध होकर मधुर वचनों से करे | अपने स्थान पर बैठा-बैठा नहीं।
जितने दिन बहिर्विहार में अग्रगण्य या अनुगामी रूप में रहे, उतने दिन उनको रुग्ण साधु के पास रखा जाए तो उसके चित्त में समाधि रहे, वैसे रहा जाए।
कटु वाक्य, हास्यमजाक, अवर्णवाद या अयतना आदि किसी प्रसंग का प्रायश्चित्त चार पांच साधु (पंच) तथा सरपंच चिन्तन पूर्वक दे, उसे सहर्ष स्वीकार करें।
विभाग कार्य, विभाग का वजन लेने आदि के लिए जो धाराएं बनी हुइ हैं, उनके पालन में आनाकानी न करें ! इसमें अनमना बनने वाले को स्वच्छन्द, अविनीत, मर्यादा भंजक, कषायी, दुरात्मा तथा शेख अब्दुल का साथी कहा जाए।
१. एक व्यक्ति की प्रमुखता में स्थापित मुनियों का मंडल । २. भोजन के समय बिछाया जाने वाळा वस्त्र, उसे धोना ।
३. बार-बार गलती बतलाना ।
४. जयाचार्य द्वारा नियुक्त युवाचार्य श्री मघराज जी ।
५. मस्तक हिलाना, आनाकानी
करना ।
६. देखें- परिशिष्ट ।
टहुका १६१
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एकलौ साधु, एकली बाई तथा आर्यां सूं बात न करणी । कर्नै ऊभो पिण न रहणौ, इण मर्यादा में चूकां मंडल्या ५१ । इम साध्वी एकली, एकला भाई तथा साधू कनैं ऊभी न रैहणौ, बात न करणी, इण मर्यादा में चूकां मंडल्या
५१
और साध री पात्री रोकै बिनां कह्या, तौ मंडल्या च्यार पांच साधु देवै तै
लेणा ।
इमज चिलमलि' उडै तौ मंडल्यां री रीत छै ।
कारण में बोझ न उपाडै, तेतौ बोझ कारण मिटियां पछै उपाड़णौ ।
पांती रौ काम साहज्य वाळां नै करणो ।
कारण में गौचरी न उठै तौ तथा रात्रि दिशां जाय, कारण में पडिकमणौ बेठ करै, हाजरी न सुगेँ, दिने तथा पौहर रात्रि पहलां नींद लेवै तथा आण रा ऊन्हो आहार मंगावै, तौ च्यार पांच साधु तथा सिरपंच साधु ने भ्यासै पको कारण तौ मंडलीया न देवै, अनै थोड़ा कारण भ्यासै तो ते मंडलीय दीयां मन बिगाड़े तो शेख अबदुळ मुफ्त रौ साथी अविनीत अजोग्य कहणौ । संवत् १९११ वैशाख सुदि १० गुरुवार ।
(हिन्दी अनुवाद)
अकेला साधु, अकेली बहन तथा साध्वी से और अकेली साध्वी, अकेले साधु तथा अकेले भाई से बात न करें व पास में भी खड़ी न रहे। इस मर्यादा का भंग होने पर प्रायश्चित्त ५१ मंडलिया।
दूसरे साधु की पात्री उसकी आज्ञा बिना काम में ले तो पंच-रूप में अधिकृत साधु जितना प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकृत करे।
इसी प्रकार चिलमलि उड़े तो प्रायश्चित्त की व्यवस्था है।
रुग्णावस्था में समुच्चय का वजन न ले तो स्वस्थ होने पर उतना बोझ उठाये।
रुग्णावस्था में उसके विभाग का काम साझ वाले करें!
कारण में गोचरी न जाए, रात्रि में पंचमी समिति का कार्य करे, प्रतिक्रमण बैठकर करे, हाजरी की शिक्षा न सुने, दिन में या प्रहर रात बीतने से पहले सोए तथा सांय काल के समय गर्म आहार मंगाए -आदि के लिए अधिकृत साधु या सरपंच को रोग का पक्का भरोसा हो जाए तब प्रायश्चित्त न दे और थोड़ा रोग लगे तब प्रायश्चित्त दे, ऐसे प्रसंग पर अनमना बने उसे 'शेख अब्दुल मुफ्त का साथी, अविनीत, अयोग्य समझा जाए।
(संवत् १९११ वैसाख शुक्ला १० गुरुवार)
१.
पर्दा । (पारसी भाषा का शब्द)
१६२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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कारणीक साधु नै आहार देणौ पडै तो पइसा भर तौ सप्पी', करवाली २ उतकष्टी सरस नहीं, अनै अत्यंत निरस पिण नहीं, इसौ देणौ। व्यंजन ६ पइसा भर रै आसरै मझम बंजण। अनै पांच बिगै समचा मांहि थी नही देणी। परभाते विनां पांती रौ लेणौ ए कारणीक नी रीत छै, वैद औषध बतावै तौ बात न्यारी तथा आचार्य आज्ञा देवै तौ बात न्यारी। द्रव्य खेत्र काळ भाव देखी साधु आहार जव, गवू, मकी, बाजरी नी रोटी बहुल पण जे आहार आवै ते माहिलो दीधां कारणीक नै मंढो बिगाड़णो नहीं, 'कुलक भाव' आणें तिण कारणीक रा लखण खोटा। पैंताळीसा रा लिखत में रोगिया विचै सभाव रा अजोग्य नै खोटो कह्यौ" ते भणी कारणीक नै समभाव राखणा। ए सर्व साधां भेळा होय नैं रीत बांधी छै। कारणीक नैं रीत उपरंत आहार व्यंजन विगै तौ देवण वाळा रै अनैं लैण वाळा रै मंडल्या७।
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(हिन्दी अनुवाद) रोगी साधु को समुच्चय का आहार देना पड़े तो पैसा भर घृत,रोटी (न अधिक सरस और न अधिक नीरस) मध्यम व्यंजन छः पैसा भर लगभग दें, पर पाच विगय समुच्चय से न दे। यह प्रातःकाल बिना विभाग की वस्तु लेने की रोगी के लिए व्यवस्था है। इसमें भी वैद्य औषध बताए या आचार्य आज्ञा दे तो अलग बात है ? साधु द्रव्य, क्षेत्र काल भाव देखकर आहार में से जव, गेहूं, मक्की या बाजरी आदि की रोटी जो अधिकांश रूप से मिले उसमें से दे तो रोगी मुंह न बिगाड़े। कालुष्य भाव लाने वाले रोगी की आदत बिगड़ी हुई होती है। संवत् १८४५ के लिखित में "रुग्ण की अपेक्षा स्वभाव के अयोग्य को बुरा कहा है" इसलिए रुग्ण व्यक्ति को समभाव रखना चाहिए। यह व्यवस्था सभी साधुओं ने सम्मिलित होकर की है ! रुग्ण व्यक्ति को इस व्यवस्था के उपरान्त भोजन, व्यंजन, विगय वगैरह दे तो देने वाले तथा लेने वाळे को प्रायश्चित्त मंडल्या ७।
१४
३. कलुषभाव।
१. घृत । २.रोटी।
टहुका १६३
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दूजौ साधु कहै-इण रीत उपरंत दीयौ, तो डंड मण्डल्या ७ देणा। अनै जौ कारणीक नैं समचा रौ आहार देवण वाळौ और साहज्य वाळा साधां नै पूछ नैं देवै तो देण वाला रे मंडल्या नहीं, भीखनजी स्वामी पैंताळीसा रा लिखत में कह्यौ। ते भणी बीजा साहज्य वाळां नै पूछ नै रीत प्रमाणे देवै तौ मंडल्या नहीं संवत् १९११ चैत सुदि ५।
(हिन्दी अनुवाद)
दूसरा साधु कहै-इसने व्यवस्था उपरान्त दिया है तो भी देने वाळे प्रायश्चित्त मंडळिया ७ अगर रुग्ण को समुच्चय का आहार देने वाला अन्य साझ वाले साधुओं को पूछ कर दे तो उसे प्रायश्चित्त नहीं ! "आचार्य भिक्षु ने १८४५ के लिखित में रोगी के आहार की व्यवस्था के संबंध में कहा है-सब साधु सम्मिलित होकर दे तो लेना" इसलिए दूसरे साझ वालों को पूछकर विधिपूर्वक दे तो प्रायश्चित्त नहीं!
(संवत् १९११ चैत्र शुक्ला ४)
१६४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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मर्यादा मोच्छबरी ढाळां
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भरत क्षेत्रे भिक्षु
पट तीजे
ढाळ १
१. लय-चरखा नीं
'वारी रे जावूं म्हारा गणपति नी ।।
फूल क्यारी शासण गणि संपति नी, स्वामी शासण कलश चढायो, वारी० ॥ ध्रुपदं ॥ परगटिया, भारीमाल शिष्य भारी ।
सुयश
ऋषिराय जंबू सा,
मर्यादा बांधी भिक्षु,
देणी, वर्ष
पच्चासे
विविध गणपति नामे दीक्षा दोष देखै तो तुरत दाखणों, लिखत घणां दिवस पाछै दोष कहै तो, धणी- दोष रो इमहिज लिखत बावनां मांहि, इमहिज रास 'साध-सिखामण-ढाळ' दुहा में, इमहिज बहु अधिकारो || लिखत बावनें दाख्यौ अज्जा, जाणी दोष लगावै ।
तो पानां में लिखी राखणौ, इम भिक्षु फरमावै ॥
विण लिखै विगै तरकारी न खाणी, कदा कारण में न लिखायो । तो और अज्जा ने सायदार करणा, वेगो लिखणो तायो । साधु ने आर्या न सु 'स्वामभणी कहिजो' - इम कहिणो, लिखत बावने
केरी,
अवर्णवादो।
दोष धणी ने तथा गुरां ने, कहिणो इण विध अवर किणहि ने कहिणो नाही, पच्चासे बावनें गण बाहिर नीकळ नै पोथी, पाना ले जावणां अंश अवगुण बोलण रा त्याग छै, गुणसठै गण में वा बाहिर निकळ नैं, अवगुण लिखत पैंतालीसा में भाख्यो, बलि जिलो न उगणीसै पनरे सुदि एकम, माघ मास रे मांह्यो । गणपति जोड़ करी ए, स्वाम वचन सुखदायो ।
बोलण रा त्यागो ।
बांधणौ धर रागो ||
जयजश
दिशा जयकारी ॥
लिखत मझारो ।
बत्तीशे सारो ||
एही ।
तेही ॥
मझारो ।
लाधो ॥
आख्यो ।
आख्यो ॥
नहीं साथो ।
पच्चासे ख्यातो ॥
मर्यादा मोच्छब री ढाळां : दा० १
:
१६७
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ढाळ २
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9
भिक्षु भज ले रे धर भाव ॥धुपदं ।। १ अष्टादश सोळे वर्षांते, ते भाव चरण मुनि लीध।
धुर मर्यादा बत्तीसे बांधी, चरम गुणसठै सिद्ध। भारीमाल प्रमुख गणपति ने, नामे देणी दीख। सेखे काळ चौमासो आज्ञा थी, ए भिक्षु नी सीख। गणि इच्छा सूं पद युवराज आपे, तसु आंण प्रमाण।
एक तणी आज्ञा में रहिणो, ए रीत पंरपर जाण। ___कर्म योगे एक दोय प्रमुख, टळियां तीर्थ में नाहि।
तेहनें वांदे पूजे ते पिण, नही जिन आज्ञा मांहि ।। कर्म योग गण सूं निसरिया, अवगुण बोलण रा पचखांण।
पांच पदां री आण तास है, बलि अनंत सिद्धां री आण।। ____ कदा विटळ थई सूंस भांगे, ओ हळुकर्मी माने नाय।
कोई विटळ उण सरीखो माने, तो लेखां में न गिणाय ।। गण में लिखिया जाच्या उपधि, लेई जाणा नहीं जाण । क्षेत्रां मांहि इक निशि उपरंते , रहिवा रा पचखांण।। गुणसठे महा सुदि सातम दिन, बांधी ए मरयाद । अष्टादश साठे भाद्रवे अणसण, करी लही समाध॥ भारीमाल पट अधिक ओजागर, भद्र प्रकृति गुण खान । अठंतरे अणसण कर महा विद, अष्टम कियो प्रयाण ।। पट तीजे ऋषिराय जंबू जिम, प्रबल दशा पुन्यवान।
उगणीशै आठे महाविद चवदश, तिथी कियो कल्याण॥ ११ चोथा आरा जिसा आचार्य, ए प्रगट थया इण आर।
अतिशयधारी अधिक ओजागर, शासण नां सिणगार ।। १२ तास प्रसादे लही संपदा, च्यार तीर्थ सुखकार।
गण वृद्धि समृद्ध सुख संपति वर, जयजश हर्ष अपार।। १३ स्वाम चरम मर्यादा गणि पट, महोत्सव मंगळमाळ।
उगणीसै इकवीसै जोड़ी, जयजश हर्ष विशाल॥ १. लय-सीता आवै रे धर राग। ३. प्रथम। २. आषाढ़ पूर्णिमा।
४. अंतिम १६८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ ३
'अहो मुज गुणवंत पूज्यजी, मुनिंद मोरा। धन्य-धन्य भिक्षु स्वाम हो ॥ध्रुपदं॥ संवत् अठारे बत्तीस में, मुनिंद मोरा, बांधी मर्यादा ताम हो। शिष्य शिष्यणी करणा सही, मु० भारीमाल ने नाम हो। गुणसठे दृढ़ बांधी बळि, भारीमाल ने नाम। शिष्य शिष्यणी करणा सही, दीक्षा दे सूंपणा ताम॥ भारीमाल री आण थी, बलि करणो चउमास। शेषकाळ पिण विचरणो, . आज्ञा ले गुण रास॥ इण वचने करी जाण जो, उतरियां चउमास ।
आज्ञा लेइ . ने विचरणो, शेषकाळ विमास॥ ___ अथवा चउमासो धारे तरे, चउमासा पहिला शेषकाळ।
वा चउमासा पछै शेषकाळ नीं, गणि आज्ञा ले विचरे विशाल॥ __ भारीमाल इच्छा थकी, पद युवराज पिछाण ।
गुरु भाई शिष्य ने दियां, रहिवो तेहनी आण। सर्व साधु ने साधवी, इक गणि आणा मांहि ।
रहिवो रूडी रीत सूं, ए रीत परंपर ताहि॥ ८ संत अने सतियां । तणो, चाले मार्ग जाण।
त्यां लग ए मर्याद है, इक गणी आण प्रमाण॥ कोइक कर्म योग गण थी टळे, एक दोय तीन आदि। करे धुरताई बुगल ध्यानी हुवे, श्रद्धणो नहीं तसु साध। च्यार तीर्थ में गिणवो नही, निंदक तीर्थ नो धार ।
एहवा ने बांदे तिके, छै जिन आज्ञा बार ।। ११ और मुनि ने असाधु श्रद्धायवा, कदा फेर दीक्षा लेवे कोय।
तो पिण उण ने साधु न श्रद्धणो, ए भिक्षु वच जोय।। १२ उण ने छेड़वियां ओ आळ दे, तिणरी बात न मानणी एक।
उण तो अनंत संसार आरे कीयो, दीसे छे सुविशेष।।
१. लय-सिंहल नृप कहै चंद ने।
मर्यादा मोच्छबरी ढाळां : ढा० ३ : १६९
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१३ कदा कर्म योग गण सूं टळे, गण रा संत सत्यां रा जाण।
अवर्णवाद बोलण तणा, अंश हुंता अणहुंता पिछाण।। १४ अनंत सिद्धां री आण छै, बलि पांचूं पदां री आण।
पंच पदां री साख सूं, अवगुण बोलण रा पचखांण॥ १५ किण ही साधु साधवियां तणे, शंका पड़े ज्यूं जाण।
बोलण रा पचखांण छै, कांई ए भिक्षु नी वाण।। ___ कदाचित विटळ थई सूंस भांगै, हळुकर्मी न माने सोय।
कदा उण सरीखो विटळ हुवै, तो लेखा में नही कोय॥ शेष · काळ चउमासो उतस्या, वस्त्र जाच्यो ते गुरु पे आण।
काम जरूर रो ऊपना, जाडो-जाडो बाट लेणो जाण ॥ १८ कर्म धके गण सूं टळे, बाई भाई श्रद्धा रो होय।
इक पिण बाई भाई हुवे, तिहां रहिणो नही छे कोय॥ १९ बाटे बहितो इक निशा, कारण पझ्या रहे सोय। .. पांच विगय सुखड़ी रा त्याग छै, अनंत सिद्धां री साख सूं जोय॥ २० टोळा मांहि उपगरण करे, गण में पड़त पाना लिखे जाण।
जाचे पत्र पानादिक वस्तु ते, साथ ले जावण रा पचखांणा।। बोदो चोळपटो ने मुंहपति, बोदो ओघो पछेवड़ी जाण। खंडियादिक उपरंत ते, साथ ले जावण रा पचखाण ॥ कोई पूछे क्षेत्रां में रहिण रा, किम त्याग कराया तास।
उत्तर तेहने एह विधे, दीधो भिक्षु विमास ।। २३ रागाधेखो क्लेश वधतो जाण ने, उपगार घटतो जाण।
इत्यादिक बहुकारण जाणी करी, कराया छै पचखांण॥ २४ जिण रा परिणाम चोखा . हुवे तो, सूंस मर्यादा ताम।
आरे हुजो आछीतरे, नही सरमासरमी रो काम।। २५ मूढे और मन में और ढे, इम तो साधु ने करिवो न सोय।
बलि इण लिखत में खूचणो, काढ़णो नहीं छै कोय॥ २६ पछे ओर रो ओर न बोलणो, अनंत सिद्धां री साख सुजाण।
सगळा रे पचखांण छै, ए स्वामी नी बाण। २७ अन्य टोळा में जावा तणां, ए पिण छै पचखांण ।
मर खपणो पिण सूंस ए, भांगणो नहीं छै जाण।
१. पुराना।
१७० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२८ लिखत ए ऋषि भिक्खण तणो, कांई संवत अठारे सोय।
गुणसठे महा सुदि सप्तमी, वार शनेश्चर जोय। इम गुणसठैमहा सुदी सप्तमी, बांधी ए मर्याद । अष्टादश साठ भाद्रवे, अनशन भाव समाध ।। संवत अठारे अठंतरे, महा बदि आठम ताय। भारीमाल अनशन भलो, ए द्वितीय पाट सुखदाय ।। उगणीशै आठे समें, महा बदि चवदश सार ।
ऋषिराय परलोक पधारिया, ए तृतीय पाट गुणधार ।। ३२ तास पसाये संपदा, जयजश करण सुपसाय ।
ते सगळा गणपति तणा, पट महोत्सव सुखदाय॥ ३३ पाटानुपाट परबरा, रहिवो एक गणी आण।
गुणसठे महासुदि सप्तमी, बले विविध मर्याद पिछाण। ३४ तिण कारण मंगळीक ए, उत्तम दिवस उदार।
मर्यादा ने गणि पट तणो, महात्सव मंगळाचार ।। ३५ संवत उगणीशे बाबीस में, महा सुदि छठ चंद्रवार।
जयजश गणपति युक्त सूं, जोड़ी हर्ष अपार॥
मर्यादा मोच्छब री ढाळां : ढा०३ : १७१
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ढाळ ४
'स्वाम, सुखकारी जी, तीर्थ सिणगारी जी। हो जी म्हारा भिक्षु ने भारीमाल तणी वर जोड़ी जी,
धर्म ना धोरी जी ॥ध्रुपदं॥ भिक्षु भाणज भरत में, कांई अवतरिया इण आर।
मर्यादा बांधी भली, कांइ लिखत विषे सुविचार।। ___ वर मर्यादा . चरम, गुणसठे गुणरास।
चारू मर्यादा चरम, गुणसठे गुणरास ।। भारीमाल आज्ञा थकी, शेषकाळ चउमास। आज्ञा विन रहिणो नही, किण ही स्थानक तास ।। शिष्य शिष्यणी करणा सही, भारीमाल रे नाम। चरण देइ ने सूंपणा, गुणी संत गुण धाम॥ भारीमाल इच्छा थकी, थापे पद युवराज। रहिणो तसु आज्ञा मझे, ए रीत पंरपर साज।। कर्म योग गण सूं टळे, एक दोय ने तीन। तसु साधु नही श्रद्धणो, निंदक तेह मळीन ।। हूंता अणहूंता बलि, अवर्ण वाद पिछाण। अनंत सिद्धा साखे करी, बोलण रा पचखांण।। गण मांहि जाचे लिखे, वस्त्र पानादिक जाण। साथे लेजावण तणां, जावजीव पचखांण।। श्रद्धा रा क्षेत्रां मझे, एक रात्रि उपरंत।
रहिवा रा पचखाण छै, ए भिक्षु वच तंत ।। १० संवत अठारे गुणसठे, महा सुदि सातम सार।
ए मर्यादा स्वामीजी, बांधी अधिक उदार।। ११ तेह लिखत नी जोड़ ए, उगणीसै तेबीस।
माघ शुक्ल छठ तिथि करी, जयजश हर्ष जगीस।
१. लय-पायल वाली पदमणी
१७२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१
२
३
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५
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७
८
९
११
ढाळ ५
'चरम मर्याद भिक्षु नी भारी,
फुन शेष काळ विचरणो । गणपति
छंदे
तिरणो ॥
भाई ।
ठाइ ॥
बांधी महासुदी सातम सारी । च० ।तो गुणसठे लिखत उदारी ॥ च० ॥ धुपदं ॥ संवत अठारे बत्तीसे लिखत में शिष्य गणि नाम सुजाण । इम गुणसठे शिष्य गणि नामे, दीक्षा दे सूपणा आण ॥ गणि आणा सूं चउमास करणो, आज्ञा विना न रहणो किंहाइ, गणपति आप तणी इच्छा सूं, पद युवराज समापे तिण ने, सहु संत सती रहिणो इकगुरु साध साधव्या रो मार्ग चाले, कर्म योगे गण बाहिर निकळे, एक दोय तीन आद । च्यार तीर्थ में तिण ने न गिणवो, तसु वांदे तिण रे असमाध ॥ और साधा ने असाध श्रद्धावा, फेर दीक्षा लेवे तो पिण एहवा टाळोकर ने, साधु न श्रद्धणो सोई ॥ छेडवियां तो आळ देवे ओ, तिणरी न मानणी बात । उणतो संसार अनंतो आरे, कियो दीसे साक्षात ॥
रीत ।
सुवदीत ॥
कोई ।
जाण ।
आण ॥
कर्मयोगे गण सूं टळियां, टोळा रा हूंता अणहूंता अवगुण अंश बोलण त्याग छै, पांचू पदां री कदा विटळ होय सूंस भांगे, तो न्यायवादी तो उण सरीखो कोइ विटळ माने, तो लेखा में न १० शेष काळ चउमासो उतरयां, तंतू जाच्यो आचारज ने आण सूंपणो, आझा विन वर्तवो कदा जरूर रो काम पड़े तो, जाड़ो जाड़ो महीं तो आज्ञा विना बांटणो नाहि, गणपति ने सूप
बांट
क्षेत्रां में नहि
रहिणो, टाळोकर ने
इक निशि उपरांत, रहिणो नही क्षेत्रां
१२ इण श्रद्धा रा बाटे वहतो
शिष्य अथवा गुरु
तास आण शिर
१. लय-आवत मेरी गलियन में गिरधारी ।
आणा, एह परंपर तठां तांई
माने नाय ।
गिणाय ॥
ताहि ।
नांहि ||
लेणो ।
देणो ॥
ताहि ।
मांहि ॥
मर्यादा मोच्छब री ढाळां : ढा० ५ : १७३
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१३ कारण पड़िया क्षेत्रां मांहि रहे तो, पांच विगय पचखांण।
सूंखडी रा पिण त्याग छै तिण रे, अनंत सिद्धां री आण। १४ गण में थकां पाना लिखे जाचे, ते ले जावणा नहीं बार।
पात्रा जाचे ते ले जावणा नहीं, नवो तंतु इम धार। १५ इत्यादिक मर्याद लोप्यां, फिट-फिट जग में होवे।
निंदक टाळोकर दुख पावे, जीतब जन्म बिगोवे॥ १६ उगणीशे पणबीशे वर्षे, महासुदि छठ सोमवारं।
जयजश गणपति जोड़ करी ए, सातम महोत्सव सारं ।।
१७४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ ६
'आतो भिक्षु बांधी भारी रे, मर्यादा सुखकारी। वर्ष गुणसवै संवत अठारी रे, महा सुदी सातम सारी ॥ध्रुपदं॥ आचारज रे नामे दीक्षा, देणी मुनि श्रमणी ने। दीक्षा दे ने आण सूंपणा, गणपति परम गणी ने।। शेषकाळ चउमासे रहिणो, गणपति आण प्रमाणे।
आज्ञा बिना न रहिणो क्यांही, और कार्य इम जांणे॥ ३ आचारज अपणी इच्छा सूं, पट आपे धर पेमो।
गुरु भाइ अथवा चेला नें, तसु आज्ञा पिण एमो।। एकण री आज्ञा में रहिणो, सर्व भणी धर प्रीतं ।
संत सत्यां रो शुध मग चाले, त्यां लग एहिज रीतं ।। ५ कर्म योग गण सूं निकळे, तसु साध श्रद्धणो नाही।
तिण ने वांदे पूजे ते पिण, नही जिन आज्ञा मांही ।। कर्मयोग गण सूं टळिया, हूंता अणता जाण। गण रा अवर्ण बोलण रा, जावजीव पचखांण।। गण में लिखे तथा जाचे, ते वस्त्र पात्रादि पिछाणो । ते पिण साथे ले जावण रा, छै तेहने पचखांणो ।। इण श्रद्धा रा क्षेत्रां विषे, पिण रहिवा रा पचखांणो।
इक बाई भाई हुवै त्यां पिण, रहिणो नहीं छै जाणो॥ _शेषकाळ चउमास उतरियां, तंतू जाचे ज्यांही।
आचारज ने आण सूंपणो, बांट वावरणो नाही॥ १० काम जरूर पड़यां थी, जोडो-जाडो बांटी लेणो।
महीं आचार्य दै ते लेणो, बुरो दियो नहीं कहिणो।। ११ इत्यादिक मर्यादावां, बांधी भारी गुणकारी।
साठे भाद्रव परभव पहुंता, सात पोहर संथारी॥ १२ चरम मर्यादा स्वाम ए बांधी, तेह तणो सुविचारो।
नाम चरम मर्याद महोत्सव, च्यार तीर्थ हितकारो॥ १३ उगणीशै षट् बीस बीदासर, महा सुद छठ निशि तायो।
चालीश त्राणू वर मुनि अज्जा, जयजश हर्ष सवायो॥ १. लय-ए तो जिन मारग रा नायक रे।
मर्यादा मोच्छब री ढाळां : ढा० ६ : १७५
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ढाळ ७
भिक्षु स्वाम भला भिक्षु स्वाम भला अति ही उजला।
मर्यादा पाळ्या थी जीव निर्मळा ॥धुपदं ।। १ सर्व संत सतियां ने जोय, भारीमाल आज्ञा में सोय ॥भिक्षु०||
चउमासो ने शेषे काळ विहार, भारीमाल आज्ञा थी सार, भिक्षु०॥ विण आज्ञा रहिणो न किण ही ठाम, दीक्षा देणी भारीमाल रे नाम। दीक्षा देइ ने सूपनो आण, आज्ञा बिना नहीं राखणो जाण ।। आचार्य विण और रे जाण, चेला करण तणा पचखांण। और साधा ने आवे प्रतीत, तेहवो भारमाल ने शिष्य करणो वदीत। भारमलजी री इच्छा होय, जद गुरु भाइ अथवा चेला ने सोय।
भार टोळा रो सूपे जश जाण, सर्व संत सतियां ने चालवो तसु आण॥ ___ बांधी ए परंपर रीत, सर्व . संत सतियां सुवदीत।
एकण री आज्ञा रे मांय, चालणो एहवी रीत शोभाय ।। साधु-साधवियां रो चाले मग्ग, जठा तांइ ए रीत उदग्ग। अशुभ कर्म रे योगे कोय, टोळा मां सूं फाड़ातोड़ो करि सोय॥ एक दोय त्रिण आदि निकळेह, हुवै बुगल ध्यानी बहू धुर्ताइ करेह।
तिण ने साधु श्रद्धणो नाहि, गिणवो नही चिउं तीर्थ मांहि ।। ८ ते चिहुं तीर्थ ना निदंक सोय, तेहने वांदे पूजे कोय।
ते पिण छै जिन आज्ञा बार, ए भिक्षु रा वयण उदार ।। कदा कोई दीक्षा ले फेर, अवर साधां ने असाधु श्रद्धायवा हेर। तो पिण उण ने साधु न सरधणो न्हाळ, उण ने छेड़विया तो ओ देवे आळ।। तिण री पिण बात न मानणी जेह, उण तो अनंत संसार आरे कियो दीसेह।
कदा कर्म धक्को दीधा कोय, टोळा थकी जो टळे तो सोय।। ११ उण रे टोळा रा संत सत्यां रा जाण, हूंता अणहूंता अंश मात्र पिछाण।
अवगुण बोळण रा पांचूं पद री आण, अनंत सिद्धां री साख करी पचखांण। १२ किण ही साधू साधवी रा जाण, शंका पड़े ज्यूं बोलण रा पचखांण।
जो कदाचित ओ विटळ होय, सूंस प्रते भांगे ते जोय॥
१. लय-लाला कृष्णपुरी १७६ तेरापंध : मर्यादा और व्यवस्था
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१३ तो हळुकर्मी न्यायवादी हुवे जेह, तेह तणों वच नही मानेह ।
तिण रे सरीखो विटळ मांने कोइ बाय, ते तो लेखा में न गिणाय॥ १४ किण चरचा बोल रो पड़े कोइ काम, तो बुद्धिवंत संत विचारी करणो ताम।
बले श्रद्धा रो बोल पिण कोय, बुद्धिवंत विचारी संचै बेसाणणो सोय॥ १५ कोइ बोल बेसै जो नाही, तो पिण ताण न करणी ताहि।
केवळियां ने देणो भोळाय, पिण अंश खंच नही करणी काय ।। १६ चउमासो उतरीयां तथा शेषे काळ, तंतु जाच्यो तेह निहाल।
आपरे मते बांट बंटाय, फाड़तोड़ ने पहिरणो नांहि॥ १७ कदा पड़े जरूर रो काम, तो जाडो-जाड़ो बांट लेणो ताम।
महीं तो आचार्य नी आज्ञा बिन सोय, वावरणो नहीं छै अवलोय॥ १८ महीं तो आचार्य आगे मेलणो आण, आचार्य देवे तो लेणो जाण।
तिण री पाछी बात न चलावणी काय, मंही इण ने मोटो दियो कहिणो नाय॥ १९ कर्म धको दीयां टळे गणबार, श्रद्धा रा क्षेत्रों में न, रहिणो लिगार।
एक बाई भाई श्रद्धा रो होय, तिहां पिण नही रहिणो छै कोय॥ २० वाटे वहितां इक निशि उपरंत त्याग, कारण पड़ियां रहे तो तसु माग।
पांचू विगय ने सूखड़ी रा पचखांण, अनंत सिद्धां री साख करी जाण॥ २१ गण में जाचे लिखे वस्त्रादि, साथे ले जावण रा त्याग समाधि।
जूनो चोळपट्टो ओघो पछेवड़ी ताहि, मुंहपती खंडिया उपरंत ले जावणा नाहि। २२ कोइ पूछे यां क्षेत्रां में देख, त्याग कराया छै किण लेख।
तिण ने कहिणो रागा धेखो वधतो जाण, उपगार घटतो जाण कराया पिछाण॥ चोखा परिणाम है तो आरे होयजो ताम, सरमासरमी रो नही छै काम।
इण लिखत में चणो काढणो नाहि, सारां रे पचखांण छै ताहि ।। २४ ए मर्यादा बांधी भिक्षु स्वाम, संवत अठारे गुणसठै ताम।
महा सुदि सातम ने शनिवार, ए मर्यादा पाळ्यां जय-जय कार॥ २५ संवत उगणीशे गुणतीशे वास, महासुदि सातम जोड़ी हुल्लास।
भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, जयजश संपति हर्ष सवाय।।
मर्यादा मोच्छबरी ढाळां : ढा०७ : १७७
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ढाळ ८
'भिक्षु ए मर्यादा बांधी, अष्टादश गुणसवै जी ॥धुपदं॥ १ सहू संत सत्यां में भारीमाल री, आज्ञा मांहि रैणो जी।
तसु आज्ञा थी विहार चउमासो, ए भिक्षु ना वेणो जी काई।। आज्ञा विना कठे नहिं रहिणो, बलि भारीमाल रे नामो। शिष्य शिष्यणी करणा चरण देइ ने, आण सूपणा तामो॥ भारीमाल री इच्छा हुवै जद, गुरु भाई ने तामो। वा चेला ने भार टोळा नो, आपे अति अभिरामो॥ जद सगळा संत संत्यां ने उण री, आज्ञा मांहे रहिणो। एहवी रीत पंरपर बांधी, ए भिक्षु ना वेणो॥ सगळा संत सत्यां ने रहिणो-एकण री आज्ञा मांयो। साधु साधव्यां रो मारग चाले, जठे तांइ सुखदायो। अशुभ उदय गण थी कोइ, निकळे एक दोय त्रिण आदो।
बहु धुर्ताइ करे बुगल-ध्यानी हुवै, तसु गिणवा नहीं साधो॥ ७ तसु चिहुं तीर्थ में नही गिणवा, ते निंदक चिहुं तीर्थं नां।
तेह ने वंदे ते पिण श्री जिन-आज्ञा बार प्रपन्ना।। ८. साधां भणी असाधु श्रद्धायवा, फेर दीक्षा ले कोइ।
तो पिण तेह ने मुनि न श्रद्धवू, ए भिक्षु वच जोइ।। उण ने छेड़विया ओ देवे, और साधां शिर आळो।
उण तो अनंत संसार ने आरे, कीधो दीसै बालो। १० कदा कर्म धको दीधा टोळा सूं, निकळे जेह अयाणो।
तो उण रे गण रा संत सत्यां रा, अवगुण बोलण रा पचखांणो।। ११ अंश मात्र हूंता अणहूंता, अवगुण बोलण रा जाणो।
अनंत सिद्धां री आण छै तिण ने, बलि पांच पदा री आणो॥ १२ पांचू पद नी साख थकी, पचखांण तास पहिछाणो।
किण ही संत सत्यां री शंक पड़े ज्यूं, बोलण रा पचखांणो॥ १३ कदा ओ विटळ होय सूंस भांगे तो, हळुकर्मी न माने तायो।
उण सरीखो कोई विटळ मानें तो, लेखां में न गिणायो॥
१. लय-इण स्वार्थ सिद्ध रै चंद्रवै । १७८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१४ तंतू जाच्यो महीं हुवै ते, गुरु पे मूकणो सारो।
जरूर काम थी जाडो-जाडो, बांट लेणो सुविचारो॥ १५ गण में लिखे वस्तु जाचे ते, गण बारे निकळ्या जाणो।
साथ लेजावण तणां त्याग छ, अनंत सिद्धां री आणो॥ टाळोकर ने इक निशि उपरांत, क्षेत्र श्रद्धा रा जाणो।
अनंत सिद्धां री साख करि ने, रहिवा रा पचखांणो॥ १७ इत्यादिक मर्यादा बहु विध, बांधी भिक्षु स्वामो
संवत अठारे वर्ष साठे, महा सुदि सातम तामो॥ १८ तेह गुणसठा लिखत तणीं ए, जोड़ करी सुखकारो।
उगणीशे तीशे महासुदि सातम, जयजश संपति सारो॥
मर्यादा मोच्छबरी ढाळां : दा०८ : १७९
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गण विशुद्धिकरण हाजरी
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पहली बड़ी हाजरी
संवत् १९९० पोस बदि ९ वार शनेश्चर बड़ी रावळिया में ऋषि जीतमल गण विशुद्धिकरण हाजरी नी स्थापना कीधी । तेहनी विध- सर्व साधु 'बडा लहुडाइ " सूं मुख आगलि पंक्तिबंध उभा राखी नै आचार्य एतला वचन त्यां साधु हाथ जोड उभा त्यांन सुणावैते लिखीयइ छ ।
"नमिऊण असुर- सुर-गरुल-भुयंग-परिवंदिए गए किलेसे । अरिहे सिद्धायरिया, उवज्झाया
सव्वसाहूय ।”
श्री वीर वर्द्धमान शासण में संवत् १८१७ भीखणजी स्वामी सिद्धान्त देखी सूत्र प्रमाणै श्रद्धा आचार प्रगट कीयो । नवी दीक्षा लीधी । परंपरा रीत मर्याद अनेक प्रकारे
| बत्तीसारै वरस आप आप रै चेलो न करणो ए मर्यादा बांधी। गण बारै नीकळै, अपछंदो' है, तिण री बात-अवगुण बोलै तिका मानणी नहीं । तिण नै साधु सरधो नहीं, इम कह्यो । तथा बलि ओर लिखत में पिण टोळा में रही तथा बारै नीकळी उतरती बात करणी वरजी छै । ते भणी शासण री बात गुणोत्कीर्तन रूप करणी । अने गुणोत्कीर्तन रूप वार्ता सांभळणी । उतरती बात न करणी । अनै उतरती बात मन सहित न सांभळणी । कोई शब्द कान में पड़े ते गुरां नै कही देणो । उतरती बात कहैं तथा सु तथा सुणी नै न कहै ते इण भव में च्यार तीर्थ में हेलवा जोग निंदवा जोग 'कष्ट' करवा जोग' परभव में उतकृष्ट अनंत संसार रुळ एहनी रहस्य ज्ञाता सूत्र में कही-सेलक' सरीखा अपछंदा नै तथा उज्झिया भोगवती - रा साथी नै तथा सूत्र में, छकाय में, पंच महाव्रत धारी साधु में संका राखै - तिण नै हेलवा निंदवा जोग को जाव उत्कृष्ट अनंत संसारी कह्यो । तथा ठाणांग ठा० ५ उ०२ अरिहंतादिक नी आशातना कियां दुर्लभबोधिपणों लहै, एहवो कह्यो । तथा दशवैकाळिक अ०९ “ अबोहि आसायण नत्थि मोखो” गुरुवादिक नीं आशातना ते मिथ्यात अबोधि नों कारण कह्यो, तेहथी मोक्ष न मिलै एकेन्द्रियादिक में जाय, एहवो कह्यो । ते माटे आचार्यादिक नां अवर्णवाद नो बोलणहार शासण री उतरती बात ना करणहार नै तीर्थंकर नो चोर कहिणो ।
तथा संवत् १८५० वरस भीखणजी स्वामी मर्याद बांधी तिण में कह्यो - "एक दोष सूं बीजो दोष भेळो करै ते अन्याइ छै । जिण रा परिणाम मेला होसी ते साध
१. दीक्षा-क्रम से ।
२. स्वच्छन्द ।
३. साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका ।
१८२
४. अनादृत करने योग्य ।
५. णायाधम्मकहाओ - ६।७।२८, ३० ।
६. णायाधम्मकहाओ - १।५।१२५ ।
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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साधवियां रा छिद्र जोय-जोय नै भेळा करसी। ते तो भारीकर्मी जीवां रा काम छै। डाहो सरल आत्मा नो धणी होसी ते तो इम कहसी-कोइ गृहस्थ साध-साधवियां रो स्वभाव प्रकृति अथवा दोष कहि बतावै, तिण नै यूं कहिणो-"मोनै क्यांनै कहो, कहो तो धणी नै कहो, के स्वामीजी ने कहो, ज्यूं यांनै प्रायश्चित देइ नै सुद्ध करै, नहि कहिसो तो थे पिण दोषीला गरुना सेवणहार छो। स्वामीजी नै न कहिसो तो थामें पिण बांक छै। थे म्हांनै कह्यां कांइ हुवै।" यूं कहि नै न्यारो हुवै पिण आप वैहिदा' मांहि क्यांनै पड़े। पेलै रा दोष धार नै भेळा करै ते तो एकंत मृषावादी अन्याइ छै। किण ही नै खेत्र काचो बताया, किण ही नै कपड़ादिक मोटो दीधां, इत्याधिक कारणै कषाय उठे, जद गुरुवादिक री निंद्या करण रा, अवर्णवाद बोलण रा, एक-एक आगै बोलण रा, मांहा-मांही मिलनै जिलो बांधण रा त्याग छै। अनंता सिद्धां री आण छै। गुरुवादिक आगै भेळो आपरै मुतळब रहे। पछै आहारादिक थोड़ा घणा रो कपड़ादिक रो नाम लेइ नै अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै।" ए सर्व मर्यादा पचासा रा लिखत में भीखणजी स्वामी बांधी ते सर्व शद्ध पाळणी। तथा तिणहिज लिखत में एहवो कह्यो-"किण ही साधु साधवियां में दोष देखै तो तत्काल धणी ने कहिणो अथवा गुरां कहिणो पिण ओरां नैं न कहिणो । घणा दिन आडा घाल नै दोष बतावै तो प्रायश्चित रो धणी ऊहिज छै। प्रायश्चित रा धणी नै याद आवै तो प्रायछित उण नै पिण लेणो, नहि लेवै तो उण नै मुसकिळ छै।' ए पिण पचासा रा लिखत में और नै आगै उतरती दोष री बात करणी तथा घणा दिना पछै कहिणी बरजी छै। उतरती बात पर पूलै कहै तिण नै निषध्यो छै।
तथा पैंतालीसा रा लिखत में एहवो कह्यो-"जे कोइ आचार रो सरधा रो सूत्र रो अथवा कल्प रा बोल री समझ न पड़े तो गुरु तथा भणणहार साधु कहै ते मानणो। नहि तो केवळी नै भोळावणो पिण और साधां रै संका घाल नै मन भांगणो नहीं"
तथा पचासा रा लिखित में पिण एहवो कह्यो छै-“कोइ सरधा रो आचार रो नवो बोल नीकळे, तो बडा सूं चरचणो, पिण औरां सूं चरचणो नहीं, औरां सूं चरच नै औरां रै संका घालणी नहीं। बड़ा जाब देवै आप रै हियै बैसै तो मान लेणो। नहीं बैसे नो केवळ्यां नै भोळावणो, पिण टोळा मांही भेद पाड़णो नहीं'। तथा गुणसठा रा बरस रा लिखत में पिण एहवो कह्यो छै-“किण ही नै दोष भ्यास जावै तो बुधवंत साधु री प्रतीत कर लेणी पिण खांच करणी नहीं" इम अनेक ठामें सरधा आचार रो बोल औरां सूं चरचणो वरज्यो, गुरु तथा बुधिवंत साधु कहै ते मानणो कह्यो, गुरां री प्रतीत राखणी कही। तथा मांहो मांही जिलो बांधणो पिण अनेक लिखत जोड़ में बरज्यो छै।
१. झंझट।
२.सामान्य।
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सैंतीसा रा वर्ष रास जोड्यो। तिण में जिलो बांधणो घणो निषेध्यो छै। तथा 'गुरु सूकावै तो उभो सूकुँ' इण में पिण जिलो बांधणो बरज्यो छै। किण ही नै गुरां री आज्ञा विना आपरो रागी करणो वरज्यो छै। तथा पैंताळीसा रा लिखित में पिण एहवो कह्यो-“साधां रा मन भांग नै आप-आप रै जिलै करे ते तो महा भारीकर्मो जाणवो, विसवासघाती जाणवो, इसडी 'घात-पावडी' करै ते तो अनंत संसार री साइ छ। इण मरजादा प्रमाणे चालणी आवै नाहि तिण नै संलेखणा मंडणो सिरै छै। धनै अणगार तो नव मास माहै आत्मा रो कल्याण कीधो ज्यूं इण नै पिण आत्मा रो सुधारो करणो, पिण अप्रतीकारियो काम करणो न छै। ए पैंताळीसा रा लिखत में जिला नै निषेध्यो। तथा पचासा रा लिखत में पिण एहवो कह्यो छै-"टोळा में भेद पाड़णो नहीं, मांहोमां जिलो बांधणो नहीं। तथा चंद्रभाण तिलोकचंद जी नो जिलो जाण नै टोळा बारै किया। एहवो सैंतालीसा रा लिखित में कह्यो-“तिलोकचंद नै चंद्रभाण नै विसवासघाती जाण्या। सुखांजी आश्री दगाबाजी करता जाण्यां, गुरुद्रोही जाण्या, टोळा मांही भेद रा पाड़णहार जाण्यां, धर्माचार्य अनै साध-साधवियां रा अवगुण रा बोलणहार जाण्यां। धर्माचार्य री खिष्टीरा करणहार जाण्यां। धर्माचार्य आदि देइ नै साध-साधवियां ऊपर मिथ्यात पडिवज्यो जाण्यां। धर्माचार्य आदि देइ साध-साधवियां रा छिद्रपेही छिद्र ना गवेषणहार जाण्या। उपसम्या कळह ना उदीरणहार जाण्यां, साधु-साधवियां आलोइ पड़िकमी नै सुद्ध हुआ त्यां बातां रा उदीरणहार जाण्या। साधु-साधवियां नै माहोमां कळह रा लगावणहार जाण्या। गुरु सूं सनमुख नै विमुख करतां जाण्यां। टोळा माहैं छान-छानै साध-साधवियां नै फार-फार नै आपणा करणा मांड्या जाण्या। गुरु सूं फटाय-फटाय नै आपणा करणा मांड्या जाण्या। धर्माचार्य आदि देइ नै साध-साधवियां रै माथै अनेक विध आळ रा देणहार जाण्यां। टोळा मांही रही नै दगाबाजी करता जाण्यां। मांहोमां मिलनै एको कीधो नैं एको करता जाण्यां। आप सूं मिलियो चालै तिण री पखपात करता जाण्यां। औरां नै निखेदणा मांड्या जाण्या। आमी सामी सापादुती कर-कर मांहोमां मन भांगणा मांड्यां जाण्या। बले अहंकारी नै अवनीत घणा जाण्या। अपछंदा पिण घणा जाण्यां। यांरा अनेक छळ छिद्र रो लखावै पङ्यो जाण्यो। जद टोळा बारै काढ्या। ए सर्व सैंताळीसा रा लिखत में कह्यो। इम जिलो जाण नैं अवनीत जाण नै बारै किया इम जिला नैं घणो निषेध्यो गुरु री आज्ञा विना जिलो बांधे आपणो रागी करै ते मोटो अवनीत अपछंदो च्यार तीर्थ में हेलवा निंदवा जोग छै। आज्ञा विना प्रवरते तिण नै भीखणजी स्वामी पचासा रा वरस रा लिखत में कह्यो-“साधा रै मरजादा बांधी छै तिण परमाणे सगळां रै त्याग छै। उवा मरजादा पिण उलंघण रा त्याग छै। जो १. धोखाबाजी।
३. उल्टी-सीधी। २. अवगणना।
१८४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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किण ही साध मरजादा उलंघवो कीधो अथवा आगन्या मांही नहीं चालिया। अथवा किण ही नै अथिर परिणामी देख्यो। अथवा टोळा मांही टिकतो न देख्यो तो गृहस्थ नै जणावण रा भाव छै। साध साधवियां नै जणावण रा भाव छै। पछै कोइ कहोळा म्हारी लोकां मांही टोळा मांही आसता उतारी। तिण संघणा सावधानपणै सुद्धपणे चालज्यो। एक-एक नै चूक पड्यां तुरत कहिज्यो। म्हां तांइ कजीयो आणज्यो मती उठै रो उठै निवेरज्यो।' तथा संवत् १८५२ रै वरस मर्यादा आर्या रै बांधी, तिण में पिण एहवो कह्यो “किण ही आर्या आज पछै अजोगाइ कीधी तो प्रायश्चित तो देणो, पिण उणनै च्यार तीर्थ में हेलणी निंदणी पडसी, पछै कहोला म्हानै भांडै छै म्हारो फितूरो करै छै, तिंण सूं पहिला ही सावधान रहिज्यो। सावधान नहीं रही तो लोकां में मूंडी दीसोला, पछै कहोला म्हानै कह्यो नहीं" बावना रा लिखत में पिण भीखणजी स्वामी इण रीत आज्ञा विना प्रवरते तथा मरजादा लोपै तिण नै निषेध्यो छै। तथा बलि 'हिवै सांभळज्यो नर नार' या साध सिखावण री ढाळ में भीखणजी स्वामी मरजादा बांधी दोष देखै तो ततकाळ कहिणो पिण घणा दिन पछै न कहिणो तिण ढाळ रा दोहा में एहवो कह्यो
दोहा १ अरिहंत सिद्ध नै आयरिया, उवझाय सगळा साध।
मुक्ति नगर ना दायका, ए पांचू पद आराध ।। २ वांदीजै नित एहनै, नीचो सीस नमाय।
यारां गुण ओळख वंदणा किया, भव-भव ना दुख जाय।
साध-साधवी श्रावक श्राविका, जिन भाख्या तीर्थ च्यार। __ मोटी छोटी माळा गुणरतन री, त्यांनै सीख कहुं हितकार। ४ साध-साधवी सगळां भणी, चालणो इण मरजाद ।
दोष देखै तो तुरत बतावणो, ज्यूं वधै नहीं विषवाद ।। ५ कोइ कषाय वस दुष्ट आतमा, और साधां सिर दै आज।
त्यां में घणा दिना पछै दोष कहै घणा, तिणरो किणविध काढै निकाळ।। ६ औरां में दोष बतावै, घणा दिनां पछै, तिण री मूळ न मानणी बात।
आ बांधी मर्यादा सर्व साध नी, ते लोपणी नहीं तिल मात॥
१.उड्डाहा
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७
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९
२
३
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तो हि दोष काढै तिण में घणा, बलि झूठा करै विषवाद । ते अपछंदा निरळज नागड़ा, तिण लोप दीधी मरजाद ॥ इसडा अजोग नै अळगो किया, जब ओ काढै दोष अनेक ।
पिण घणा दिना पछै कहिणो नहीं । च्यारूं तीर्थ नै या सीख तीजा दूहा में इज दीधी । चोथा दूहा में कह्यो–दोष देख्यां ततकाळ कहिणो सो विषवाद बधै नहीं। तथा पाचवा दूहा में को-घणा दिना पछै दोष कहै तिण नै कषाइ, दुष्ट आत्मा रो धणी, आळ नो देणहार कह्यो । तथा छठा दूहा में को- घणा दिनां पछै दोष कहै तिण री बात मानणी नहीं। तथा सातमा दूहा में कह्यो-घणा दिनां पछै दोष कहै, तिण नै अपछंदो कह्यो, निरळज कह्यो, नागड़ो कह्यो, मरजादां नो लोपणहार कह्यो। इत्यादिक अनेक प्रकारै घणा दिनां पछै दोष कहै तिण नै निषेध्यो छै । तथा भीखणजी स्वामी रास जोड्यो तिण में पिण घणा दिनां पछै दोष कहै तिण नै निषेध्यो छै
१
५
बले ओगुण बोलै
इण रीतै साधु नै
बले विसेसै परगट
अति घणां तिण री बात न मानणी एक ॥
चालिया, किण रै संका
पड़े नहीं काय ।
करूं, ते सुणज्यो
अथ अठै साध सिखावण री ढाळ भीखणजी स्वामी
कधी तिण में कह्यो - दोष देखै तो ततकाळ तिण नै कहिणो ।
चित्त ल्याय ॥
'अवगुण सुण-सुण नै समदृष्टि, यांने जाणै धर्म सूं भृष्टि । यांरा बोल्यां री प्रतीत नाणै, झूठ में झूठ बोलता जाणे ॥
घट मांही।
सगळा श्रावक सरीखा समदृष्टि साची हुवै दिष्ट, ते यांनै करै
खिष्ट' |
मांही आब ।
ते यांनै न्याय सूं देवै जाब, पाड़ै घणा यांरी मूळ न आण संक, यानै देखाळ दै यांरो बंक ॥ थे घणा दोष कहो गुरु मांही, घणा वरसां रा जाणो छो ताही । तो थे पिण साधु किम थाय, जाण जाण रह्या भेळा माय ॥
नहीं छै एक ।
जो यामें दोष घणा छै अनेक, कदा दोष ते तो केवळ ज्ञानी रह्या देख, पिण थे तो
बूडा
ले भेख ॥
नाही, अकल जुदी - जुदी
थोड़ा में
लोकां
१. लय- म्हारी सासू रो नाम छै फूळी २. निरुत्तर ।
१८६
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६ जो यामें दोष कह्या ते साचा, तो ही थे तो निश्चै नहीं आछा।
जो झूठ कह्या तो विशेषै भुंडा, थे तो दोनूं प्रकारै बूडा॥ थे दोषीलां नै वांद्यां कहो पाप, भेळा पिण रह्या कहो संताप। ' दोषीला नै देवै आहार पाणी, बले उपधादि देवै आणी॥ ८ हर कोई वस्तु देवै आण, करै विनय व्यावच जाण।
दोषीलां सूं करै संभोग, तिण रा पिण जाणज्यो माठा जोग॥ ९ इत्यादिक दोषीला सूं करंत, तिण पाप कह्यो छै एकंत।
ए थे जाण किया सारा काम, ते पिण घणा वरसां लग ताम॥ १० घणा वरस किया एहवा कर्म, तिण सूं बूड गयो थारो धर्म।
निरंतर दोष सेवण लागा, हुवा व्रत विहुणा नागा। ११ थे कीधो अकारज मोटो, छान-छानै चलायो खोटो।
थे तो बांध्यो कां रो जाळो, आत्मा नै लगायो काळो। १२ थे गुरु नै निश्चै जाण्या असाध, त्यांनै वांद्यां जाणी असमाध।
त्यांराहिज वांद्या नित पाय, मस्तक दोनूं पग रै लगाय॥ १३ यां सूं कीधा थे बारै संभोग, ते पिण जाण्यां सावध जोग।
सावद्य सेव्यो निरंतर जाण, थे पूरा मूढ अयाण॥ १४ थे भण-भण नै पाना पोथा, चारित्र विण रह गया थोथा।
थे कहो अर्थ करां म्है कूड़ा, तो थे भण-भण नै कांय बूडा॥ १५ थे विहार करता गाम-गाम, शिष्य शिष्यणी वधारण काम।
किण नै देता बंधो कराय, किण नै देता घर छोडाय॥ १६ बले कर-कर गुरु रा गुणग्राम, चढावतां लोकां रा परिणाम।
बले थे गुरु नै खोटा जाण ताही, औरां नै क्यूं न्हाखता यां माही॥ १७ पोतै पड़िया जाणै खाड मांय, तो औरा नै न्हाखता किण न्याय।
ओरां रो डबोवण रो उपाय, जाण-जाण करता था ताय॥ १८ पांच पद वंदणा सिखावता तायो, तिण में गुरु रो नाम धरायो।
तिण गुरु नैं वांद्यां जाणता पाप, तो औरां नै कांय डबोया आप॥
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१९ ज्यूं नकटो नकटा हुवा चावै, असुभ उदै माठी मति आवै।
ज्यूं थे डूबता दोसीला मांही, ज्यूं औरां नै डबोवता ताही।। २० औरां सूं करता एहवो उपगार, थारा भणिया रो ओहिज सार।
इसडो कूड़ कपट थे चलायो, थारो छूटको किण विध थायो। २१ थे तो जिन मारग में हुवा ठगो, थे दियो घणा नै दगो।
ठग-ठग खाधा लोकां रा माल, थारो होसी कवण हवाल।। २२ आछी वस्तु हुंती घर मांही, आहार पाणी कपड़ादिक ताहि।
थांनै गुरु जाण हरष सूं देता, सो थारा रो निकळ गया पेंता॥ २३ म्हे थांने वांदता वारुंवार, जद म्हांनै हुतो हरष अपार।
थांने जाणता सुद्ध आचारी, थे छानै रह्या अनाचारी।। २४ म्हे थांने जाणता था पुरुष मोटा, पिण थे तो निकळ गया खोटा।
म्हे थांनै जाणता उत्तम साधू, थे तो होय नवरिया असाधू ।। २५ थे जाण रह्या दोषीला मायो, ठागा सूं थे काम चलायो।
थे जीतब जन्म बिगाड्यो, नर नो भव निरथक हास्यो ।। २६ थे घणा दिना रा कहो छो दोष, थारी बात दीसै छै फोक' ।
साच झूठ तो केवळी जाणै, छद्मस्थ तो प्रतीत नाणै ।। २७ थे हेत मांहीं तो दोष ढंक्यां, हेत तूटै कहिता नहिं संक्या।
थांरी किम आवै परतीत, थानै जाण लिया विपरीत ।। .२८ थे दोषिला सूं कियो आहार, जद पिण नहीं डरिया लिगार।
तो हिवै आळ देता किम डरसी, थारी परतीत मूरख करसी॥ २९ ए थे दोष क्यानं किया भेळा, ए थे क्यूं न कह्या तिण वेळा।
थांमै साध तणी रीत है तो, जिण दिनरो जिण दिन कहितो॥ ३० थे दोषिला सूं कियो संभोग, थारा वरत्या माठा जोग।
थारी परतीत न आवै म्हांनै, यारा दोष राख्या थे छान।। ३१ थे तो कीधो अकारज मोटो, जिन मारग में चलायो खोटो।
थांरी भिष्ट हुई मति बुद्ध, हिवे प्रायछित ले होय सुद्ध। १.तथ्यहीन। १८८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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उण रीतो थांरा कह्या संक, पिण थे तो दोषीला निसंक । इम कही उण नै घालणो कूड़ो, घणां बैठा देणी मुख धूडो ॥
अथ इहां पण भीखणजी स्वामी रास में घणा दिन आडा घालनै दोष कहै तिणनै इण रीत घणो निषेध्यो छै। ते भणी तत्काळ कहिणो पिण घणा दिन आडा घालनै दोष कहिणो नहीं । तथा सं० १८५२ रै लिखत में आर्यां रै मर्यादा बांधी। तिण में एहवो कह्या- "किण ही साध आर्या दोष देखै तो तत्काळ धणी नै कहिणो कै गुरां नै कहिणो पिण ओरा नै कहिणो नहीं । किण ही टोळा सूं न्यारो होवण रा परिणाम हुवै जब पिण और री उतरती कहिण रा त्याग छै । आप टोळा रा साध साधविया में साधपणो सरधो तिका टोळा मै रहिज्यो ठागा सूं मांहि रहण रा अनंत सिद्धां री साख करनै पचखाण छै । "
अथ इहां पिण दोष देखै तो तत्काळ धणी नै कहिणो, के गुरु नै कहिणो, पिण और नै कहो नहीं एहवो कह्यो। तथा पैंताळीसा रा लिखत में एहवो कह्यो - "टोळा माहै कदाच कर्म जोगे टोळा बार पड़े तो टोळा रा साध साधवियां रा अंश मात्र अवगुण बोलण रा त्याग छै । यांरी अंशमात्र संका पड़ै ज्यूं, आसता ऊतरै ज्यूं बोलण रा त्याग छै । टोळां मां सू फाड़ नै साथै ले जावण रा त्याग छै। ओ आवे तो ही साथे ले जावण रा त्याग छै। टोळा मांहे तथा टोळा बारे निकळ्या पिण अवगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फाटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै ।"
अथ इहां पण दोष देख्यां धणी नै तथा गुरु नै तत्काळ कहिणो कह्यो । और नै न कहिणो । तथा टोळा मांही तथा बारै निकळ्यां पछै पिण अवगुण बोलण । तथा टोळा मांही तथा बारै नकळ्यां पछै पिण अवगुण बोलण रा त्याग छै । एहवो कह्यो, ते मर्यादा लोपण रा सर्व रै त्याग छै, इमहिज पचासा रा लिखत में दोष देख्यां तत्काळ धणी नै तथा गुरां नै कहिणो कह्यो पिण औरां नैन कहि । तथा विनीत अविनीत री चोपी में पिण अविनीत श्रावक ऊपर जोड़ कीधी तिहां पिण हवो कह्यो ।
१
२
३
1. इ' अवनीत हुवै ते जनम कदाग्री
साध साधवी, कदा गुरु दै लोकां नै जतायो रे। सांभळे, तो तुरत कहै तिण नै जायो रे ||
अवनीत नै तीखो करै घणो, बिगड़या नै विसेस बिगाड़ै । तिण रो मन भागै कूड़ कपट करी, टोळा माहै भेद पाड़ै ॥
अवनीत नै पोगां चढाय नै, अवगुण
बोलै तिण पास।
ते सुण-सुण नै हरषित हुवै, तेतो बांधै कर्मा री रास ॥
१. लय - चंद्रगुप्त राजा सुणो । २. कदाग्रही ।
३. ऊंचा चढ़ाकर ।
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४
५
६
७
८
९
ओ छानो बिगड़यो थो घणा दिनो,
पिण लोकां में न पड़यो उघाड़ ।
अवनीत सूं एकट कियां पछै
परगट हुवो लोक मझार ॥
2
में,
तो कहि दै तिण नै एकंत ।
दोष देखै किण ही साध जो उ मानै नहीं तो कहिणो
गुरु कनै, ते श्रावक छै बुद्धिवंत ॥ सुविनीत श्रावक एहवा । धुपदं ॥ न कहै औरां रे पास । वीर वखाण्या तास ॥
१९०
प्रायश्चित दराय नै सुद्ध करै, पिण ते तो श्रावक गिरवा गम्भीर छै,
उण रै मूंहढै तो दोस कहै नहीं, उणरा गुरु नै पिण न कहै जाय । और लोकां आगे कहतो फिरै, तिणरी परतीत किण विध आय ॥ बले साधां नै आय वंदणा करै, साधवियां नै न वादै रूड़ी रीत । त्यानैं श्रावक-श्राविका म जाणज्यो, ते तो मूढमती तिण श्री जिन धर्म न ओळख्यो, बले भणभण करै आपछंदै माठी मति ऊपजै, तिण नै लागो नहीं गुरु कान ॥
अवनीत ॥
अभिमान ।
दोष
1
अथ इहां पिण भीखणजी स्वामी को कोई अजनीत साधु वै तेहनें गुरु लोकां नै जतायो जन्म कदाग्री सुणै तो तिण नै जाय कहै । तथा बलि कह्यो - दोष देख्या धणी नै तथा गुरु नै तुरत कहिणो, पण अनेरा नै न कहणो । इम अनेक ठामै और नै कहणो वरज्यो छै, ते भणी तुरत तथा गुरुनै कहिणो, पिण और नै न कहिणो तथा घणा दिन आडा घालनै पिण न होमर्यादा सुध पाळणी । किंचित मात्र लोपणी नहीं। तथा बलि पचासा रा लिखत में एहवी मर्यादा बांधी - "सर्व साधां नै सुद्ध आचार पाळणों ने मांहोमां गाढो हेत राखणो । तिण ऊपर मरजादा बांधी। कोइ टोळा रा साध- साधवियां से साधपणो सरधो आप मांहि साधपणो सरधो तिको टोळा मांहि रहिज्यो । कोई कपट दगा सूं साधां भेळो मांहे रहै तिण नै अनंता सिद्धां री आण छै। पांचू पदां री आण छै । साध नाम धराय नै असाधां भेळो रह्या अनंत संसार बधै छै, जिण रा चोखा परिणाम हुवै ते इतरी परतीत उपजावो । किण ही साध-साधवी रा ओगुण बोळ किण ही नै फाड़नै मन भांगनै खोटा सरधावण रा त्याग छै । किण सूं इ साधपणो पळतो दीसै नहीं। अथवा स्वभाव किण सूं ही मिलतो दीसै नही । अथवा कषाय धेठो जाणनै कोइ कनै न राखै। अथवा खेतर आछो न बताया अथवा कपड़ादिक नै कारण । अथवा अजोग जाणनै और साधु गण सूं दूरो करै । अथवा आपनै गण सूं दूरो करतो जाणनै इत्यादिक अनेक कारण ऊपनै टोळा सूं न्यारो पड़ै तो किण ही साध - साधवियां रा ओगुण बोळण रा, हुंतो अणहुतो खूंचणो काढण रा त्याग छै । रहिसै-रहिसै लोकां रै संका घाळनै आसता उतारण रा त्याग छै। कदा कर्म जोगे अथवा क्रोध वस साधा नै साधवियां नै सर्व टोळा नै असाध पर आप में पिण असाधपणो
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सरध नै फेर साधपणो लेवै तो ही पिण अठी रा साध-साधवियां री संका घालण रा त्याग छै । खोटा कहिण रा त्याग ज्यूं रा ज्यूं पाळणा छै । पछै यूं कहिण रा पिण त्याग छै 'म्है तो फेर साधपणो लीधो अबै म्हारैं आगला सूंस रो अटकाव कोइ नहीं' यूं कहिण रा पिण त्याग छै। किण ही साध आर्या नै पिण साध आय री आसता उतरै साध आर्यां री संका पड़ै ज्यूं असाधपणो सधै ज्यूं बोलण रा त्याग छै ।
अथ इहां पण अवगुण बोलण रा त्याग कराया ते पिण उत्तम जीव सुद्ध पाळे, किंचित मात्र लोपवा रा पचखांण छै। तथा बावना रा लिखत में आर्यों रै मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो - “किण ही आय जाणनै दोष सेव्यो हुवै ते पाना में लिख्या बिना विगै तरकारी खाणी हैं कदा कारण पड़िया न लिखै तो और आय ने कहणो सायद' करनै पछै पिण वेगो लिखणो, पिण लिख्या विना रहिणो नही, आयनै गुरां नै मूंढै सूं कहिणो नही, मांहोमां अजोग भाषा बोलणी नहीं, वो बावना रा लिखत में कह्यो, ते मर्यादा पिण । सुद्ध पाळणी । तथा सं० १८३४ रे वर्ष आर्यां रो लिखत कीयो तिण में पिण एहवो कह्यो - मांहो मांही आर्या आर्या नै तूंकारा दै, तिण नै पांच दिन पाचूं विगै रा त्याग । जितरा तूंकारा काढै जितरा पांच- पांच दिन रा विगै रा त्याग | तूं झूठा बोली छै, . एहवा वचन काढै जितरा पांच-पांच दिन विगै रा त्याग । प्रायछित आयो तिण रो मोसो बोलै जितरा पांच-पांच दिन विगै रा त्याग। गृहस्थ आगै टोळां रा साध-साधविया री निंदा करै तिण नै घणी अजोग जाणणी, तिण नै एक मास पांचूं विगै रा त्याग, जितरी वार करे जितरा मास पांगै रा त्याग, आर्या री मांहोंमांही री बाता करायनै उण रो परतो वचन उण कनै कहै उण रो मन भांगै जिसो कहीनै मन भांगे तो १५ दिन पांचूं विगै रा त्याग, मांहो मांही कहै तूं सूंसां
भागळ छै, एहवो कहै तिण रै १५ दिन रा त्याग छै । जितरी वार कहै जितरा १५ दिन रा त्याग छै। आंसू काढै जितरी वार १० दिन विगै रा त्याग छै, कै पनरै दिन माहै बेलो करणो । इत्यादिक करड़ो काठो वचन कहै तिण नै यथा योग प्रायछित छै । ए विगै रा त्याग छै ते उण री इच्छा आवै जद साधां सूं भेळा हुवा पहिली टाळणा, जो नहीं टाळै तो बीजी आर्यां यूं कहण पावै नहीं तूं टाळीज, साधा नै कहि देणो साधां री इच्छा आवै तो द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव, जाणनै और दंड देसी अनै साधां री इच्छा आवसी तो विगै रा त्याग घणां करावसी बळे आर्या रे मांहोंमांही साधसाधवियां ने न कल्पै न शोभै लोकां नै अणगमता लागे । उण री जातादिक से खूंचणो काढणो । जिण भाषा रोपण साधां री इच्छा आवै जितरा दिन विगै रो त्याग देवै ते कबूल करणो छै।
अथ हां क्रोध रै वस 'तूंकारादि' करडाकाठा वचन रो आंसू काढै जिण रो गृहस्थ आगे निंदा करे त्यांरो अथवा तूं झूठा बोली तूं सूंसां री भागल, इत्यादिक सर्व रो प्रायछित साधु देवै ते लेणो को ते मरयाद लोपण रा सर्व आय रे त्याग छै । अनेक लिखत में भीखणजी स्वामी साध आर्यां रे मर्यादा बांधी ते पिण लोपणी नहीं । आचार्य री आज्ञा सूं चोमासो करणो शेषे काळ विच-रणो। आहार पाणी वस्त्र पात्र आदि सर्व आचार्य री आज्ञा सूं करणा । दिख्या देणी ते पि आज्ञा सूं देणी आज्ञा विना किंचितमात्र न करणो, एहवो कह्यो । तथा आज्ञा विना प्रर्वते अथवा दिख्या देवै तिण नै अवनीत कह्यो, तथा वनीत अवनीत री चोपी में अवनीत रा लखण ओळखाया
१. साक्ष्य ।
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'विनो कीजै एहवा सतगुरु तणो रे || ध्रुपदं ॥ आज्ञा मझै रै, समीप रहै तो रुड़ी रीत । चेष्टा रे, तिण नै श्रीवीर को सुवनीत ।।
मूळ छै, विनय निरवाण साधन रो काज ।
पड़या, ते गया संजम तप सूं भाज॥
अवनीत भारीकर्मा एहवा || ध्रुपदं ॥
ते प्रत्यनीक अंतर में गुरु नो पापियो, उण तत्त्व न जाण्यो रूड़ी रीत । उण रैकूड-कपट नै धेठापणो घणो, तिणनै श्रीवीर कह्यो अवनीत ॥ जो तप कर काया कष्टै आपणी, तै जश कीरत कै खावा ध्यान । के पूजा श्लाघा रो भूखो थको, पिण विनय करणो नहीं आसान ॥ अवनीत नै आपो दमवो दोहिलो, तिणरा अथिर परिणाम रहे सदीव । ओ किणविध पाळे गुरु री आगन्या, जे क्रोधी अहंकारी दुष्टी जीव ॥
कोइ गुरु री आज्ञा लोपी चेलो करै, तिण छोडी छै जिण शासण री रीत । ते फिट-फिट होसी समझं लोक में, परभव में पिण होसी घणो फजीत ॥ वैराग्य घट्यो नै आपो वस नही, तिण रै रहे चेला करण रो ध्यान । उण नै शिष्य मिल्यां तो शिथिल पड़ै, बले वधै लोळपणो नै अभिमान ||
९
विनीत शिष्य रे शिष्य री मन ऊपनी, पिण गुरु री आज्ञा विन न करै चाव। तिण आत्मा दमनै इन्द्र्यां वस करी, शिष्य मिल्यां न मिल्यां सरल स्वभाव ॥ जो अवनीत आगै घर छोड़े तेहनै रे, तो वनीत बोलै सुत्तर रै न्याय । हुं गुरु री आज्ञा विन चेलो किम करूं, हूं दिख्या दे सूंपूं गुरु नै जाय ॥ १० केइ उपगारी कंठकळाधर साध री, प्रशंसा जश कीरत बोलै लोग । अविनीत अभिमानी सुण-सुण परजलै, उण रै हरष ११ जो कंठकळा न हुवै अवनीत रै, तो लोकां आगे बोलै विपरीत । यां गाय गाय रिझाया लोकां भणी, कहै हूं तत्त्व ओळखाउं रूडी रीत ॥
घटै नै बधै सोग ||
जे चालै निरंतर गुरु री
ते जाणवर्ते गुरु री
अंग
विनय तो जिन शासण रो
जे विनय करण सूं उपराठा
१. लय : आउखो टूट्यां नै सांधो को नहीं ।
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१२ एहवा अभिमानी अविनीत लोकां कनै, एहवी जणावै ऊंधी रेस।
उतारे उत्तम साधां री आसता, तिण छोड्यो छै सतगुरु नो आदेस॥ १३ गुरु रा पिण गुण सुण नै विलखो हुवै, ओगुण सुणै तो हरषित थाय। ___एहवा अभिमानी अविनीत तेहनें, ओळखाउं भवजीवां नै इण न्याय॥ १४ कोइ प्रत्यनीक अवगुण बोलै गुरु ताणां, अविनीत गुरुद्रोही पासे आय।
तो उत्तर पडउत्तर न दै तेहनै, अभ्यंतर में मन रळियायत थाय।। १५ प्रत्यनीक ओगुण बोलै तेहनी, जो आवै उण री पूरी परतीत।
तो अविनीत एकट करै उणसूं घणी, ओ गुरु रा अवगुण बोलै विपरीत ।। १६ बले करै अभिमानी गुरु सूं बरोबरी, तिणरे प्रबल अविनय नै अभिमान।
ओ जद तद टोळा में आछो नहीं, ज्यूं बिगड्यो बिगाडै सड़ियो पान। १७ ओ खिण माहै रंग विरंग करतो थको, बले गुरु सू पिण जाये खिण में रूंस।
जब गूंथै अज्ञानी कूड़ा गूंथणा, और अविनीत सूं मिलवा री मन हूंस॥ १८ जो अवनीत नै अवनीत भेळा हुवै, तो मिल-मिल करै अज्ञानी गूझ ।
क्रोध रे वस करै गुरु री आसातना, पिण आपो नहीं खोजै मूढ अबूझ।। १९ जो अवनीत अवनीत सूं एकट करै, ते पिण थोड़ा में बिखर जाय।
त्यारे क्रोध अहंकार नै लोळपणो घणो, ते टोळा में केम खटाय॥ २० उणनै छोटै नै छांदै चलावण तणी, ते पिण अकल नहीं घट माय ।
बडां रै पिण छादै चाल सकै नहीं, तिण अवनीत रा दुख माहे दिन जाय॥ पुस्तक पाना नै वस्त्र पातरा, इत्यादिक साधु रा उपधि अनेक।
गुरु और साधां नै देता देख नै, तो गुरु सूं पिण राखै मूरख धेष ।। २२ जब करे माहोमां खेदो ईसको, बले बांछै उत्तम साधां री घात।
तिण जन्म बिगाड्यो करे कदागरो, करे माहोमां मन भांगण री बात। २३ एहवा अभिमानी अवनीत री, करे भोळा भारीकर्मा परतीत।
उणरा लखण परिणाम कह्या छै पाड़वा, कोइ चतुर अटकळसी तिण री रीत॥
अथ इहां पिण अवनीत नै ओळखायो-गुरु रा गुण सुणी विलखो हुवै, अवगुण सुण राजी हुवै, तिण नै अवनीत कह्यो। प्रत्यनीक अवगुण बोलै तिण नै उत्तर पडुत्तर न देवै मन में रळियायत हुवै तिण नै अवनीत कह्यो। आज्ञा विना दीक्षा देवै खिण में रंग विरंग हुवै। विनीतां सूं इ ईसको
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खेधो करै इत्यादिक अवनीत रा लक्षण कह्या। ए प्रथम ढाळ री गाथा कही तथा वनीतअवनीत री चोपी री तीजी ढाळ में एहवो कह्यो२४ 'कोई भगता छै सुवनीत आत्मा, गुरु छांदै रो चाळणहार हो। जो हेत देखै तिण ऊपर गुरु तणों, तो अवनीत मुख दे बिगाड हो॥
श्री वीर कह्यो अविनीत नै अति बुरो ॥धुंपदं॥ २५ वनीत ऊपर घणो हेत हुवै गुरु तणो, तो अवनीत नै दुख हुवै साख्यात।
जब ओगुण सूझै अणहुंता गुरु तणा, बले बांछ वनीत री घात॥ २६ बलि अविनीत जाणै वनीत मूंआ थकां, पछै म्हारो इज होसी आघ।
एहवा परिणामां घात बांछै सुवनीतरी, तिण लीधो कुगति नो माग ।। २७ बलि ओषध भेषद आहार पाणी तणी, उ जाणी नै पाडै अंतराय।
दुख असाता बांछै सुवनीत री, अवनीत नै ओळखो इण न्याय॥ २८ गुरु बारा सूं आयां उठ ऊभो हुवै, पग पूंज नमें सुवनीत।
अवनीत नै इतरोइ करणो दोहिलो, कदा करै तोइ yडी रीत॥ २९ पग पूंज व्यावच करणी अवनीत नै, ते तो कठिन घणो छै काम।
ते काम पड़यां अवनीत टाळो दियै, तिण रे प्रबळ अविनय नै अभिमान। ३० गुरु भगतां ऊपर द्वेष अवनीत रे, बलै ईसको नै धैष अत्यन्त।
उणरा छिद्र जोवै छै उतारण आसता, तिण रा चरित्र जाणे मतिवंत॥ ३१ बले करै वनीत सूं मूढ बरोबरी, पिण विनय कियो मूळ न जाय। बले अवगुण न सूझे अवनीत नै आपरा, तिण सूं दिन-दिन दुखियो थाय॥
अथ इहां गुरु भक्तां गुरु छादै रो चालणहार तिण ऊपर गुरां रो हेत देखी दुख वैदे तिण नैं अवनीत कह्यो। बलि एहवो कह्यो-आहार पाणी ओषधादिक नी अंतराय पाडै, दुख असाता बांछै तिण नै अवनीत कह्यो। बलि गुरु वारै सूं आया सुवनीत उठ ऊभो हुवै पग पूंज नमें। अनै अवनीत नै इतरो करणो दोहिलो कदा करें तो भंडी रीत करें एहवो कह्यो। गुर भक्ता ऊपर धेष राखै बले खेधो ईसको करै। छळ छिद्र जोवै वनीत सूं बराबरी करै। पोता सूं विनय कियो जाय नहीं, पोता रा अव-गुण सूझै नही, तिण रा दुख माहै दिन जाय एहवो कह्यो। तथा विनीत अवनीत री चोपी री चोथी ढाळ में एहवो कह्यो
१. लय : पूज्यजी पधारो नगरी सेविया।
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१ 'उज्झिया भोगवती नै घर सूंपिया रे, तो करै खजानो खराब रे |सु०। ज्यूं अवनीत नै गण सूंपिया रे, तो जावै टोळा री आब रे।।
सुगुण जन भाव सुणो अविनीत नो रे लाल॥ २ जिण टोळा में अवनीत छै, तिण सूं आछो कदेय म जाण।
तिण री खप करनै ठाय आणज्यो, नहीं तो परहरो चतुर सुजाण ॥ ज्यारै शिषां रो लोभ लालच नहीं, ते तो दूर तजै अवनीत।
गर्ग आचार्य सारीसा रे, ते गया जमारो जीत। ४ ज्यूं अवनीत नै छोड्या थंका रे, ज्ञानादिक गुण वधता जाण।
मिट जाय कलेस कदागरो, त्यांनै नेड़ी होसी निरवाण॥ अवनीत रा भाव सांभळी, घणो हर्ष पामै नर-नार। केई भारीकर्मा उळटा पडै, त्यारै घट में घोर अंधार॥
अथ इहां उज्जिया भोगवती आदि नो दृष्टांत देइ अवनीत नै गण सूंपणो नहीं। अवनीत नै गण सूंपवा थकी टोला री आब जावै इम कह्यो। तथा जे गुरु नै शिष्यां रो लोभ न हुवै तेहने गर्गाचारज नी उपमा दीनी तथा अवनीत छोड्यां थकी टोळा में गुण वधै इम कह्यो। तथा वनीत अवनीत री चोपी री आठमी ढाळ में पिण एहवा भाव कह्या१ पाळे गुरु री निरन्तर आगन्या, कनै राख्या हुवै हरष अपारजी। बले वरतै गुरु री अंग चेष्टा, तिण सफळ कियो अवतारजी।
श्रीवीर वखाण्यो वनीत नै ॥धुपदं। २. तिणनै करडै काठे वचने करी, गुरु सीख देवै किण वार।
तो उ खिम्या करै धर्म जाण नै, पिण नाणै क्रोध लिगार॥ ३ सुकुमाल कठोर वचने करी, गुरु दीधी सीखावण मोय।
सुवनीत हुवै ते इम चिंतवै, मानै हित रो कारण होय।। ४ आहार पाणी कपड़ादिक भोगवै, ते पिण गुरु री आज्ञा सहीत।
शिष्य पिण न करै आगन्या विना, पाऊँ जिन शासण री रीत॥
m0
१. लय : पूज्यजी पधारो नगरी सेविया। २. लय : जीवा मोह अनुकंपा नै आणिय।
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९
बले उपधादिक
नो जाचवो,
बलि देवो लेवो और साधनै,
इत्यादिक काम अनेक आगन्या विन न करै एक ॥ परिवार ।
उपवास बेलादिक
गुरु तपस्या करै, करै रसादिक विना, बले और पासै करावै आप |
ते पिण न करै
आगन्या
संलेखणा संथार ॥
करै व्यावच और साधां तणी,
ते पिण गुरु आगन्या हुवा, एहवी जिन शासण री थाप ॥
अंशमात्र करणो रावणो, ते पिण
आगन्या लै सुवनीत ।
सर्व कार्य में लेणी आगन्या, एहवी बांधी
छै अरिहंत रीत ॥
तो
सगळा नै गमतो होय |
सुवनीत टोळा मांहे रह्या, ते और साधु साथै मेल्यां
थकां
तिण नै पाछो न ठेलै कोय ॥
११
१० गुरु गुरुभाइ नै टोळा
करतां
लोक पिण गुण ग्राम शिष्य शिष्यणी मिलै और बले कंठ कळा देखी १२ किण ही साधां
एहवा सुवनीत री १३ गमतो लागै तीर्थ एहवा सुनीत
१४ केइ क्रोधी अहंकारी
निरलजा, भेष पहरी करै कपटाय । इहलोक तणां अर्थी घणां, त्यां सू विनय कियो किम जाय ॥ १५. अवनीत में अवगुण घणां, ते तो जाक छोडै वनीत। विनय रा गुण सगळा आदरै, ते तो
गया जमारो जीत ॥
अथ इहां सुवनीत रा लक्षण कह्या, तिण में
कह्यो - आज्ञा विना अंशमात्र करे नहीं। बली कह्यो–गुरु आदि सर्व शासण रा गुण गावै । लोक गुण ग्राम करता देखी सुव सु-सुण नै हर साधुपणो पाळवा री आज्ञा आराधवा री नीत राखै । बलि कह्यो- क्रोधी अहंकारी
र्ला भेष पहरी कपटाइ करै । इहलोक रा अर्थी, आछो खाणो पीणो वस्त्र पात्र खेत्र आप रै वस रहणो, इत्यादिक पोता रा स्वार्थ पूंगा राजी, गुरु ना गुण गावै । अने गुरु आछो खेत्र न भोळावै तथा आहार पाणी वस्त्रादिक मन गमता न देवै तथा जुदो न विचरावै बीजा छोटा बड़ां रै लारे मेलै १९६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
तणां, गुण बोलै रूड़ी रीत । थकां, सुण-सुण हरषै सुवनीत ॥
साधां नै, मिलै उपधादिक अनेक । और नी, वनीत तो हरषै विशेष ॥ रो न करै ईसको, सर्व साधां रै हुवै हितकार । वंशावळी, फेलै तीनूं लोक मझार ॥ नै, जिन सासण रो सिणगार । रै पारौं रह्या, सिखावै विनय आचार ॥
च्यार
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जद मूढो बिगाडे, अवगुण बोलै, तिण पोता नो स्वार्थ ओळख्यो, पिण साधुपणो आज्ञा न ओळखी, इसा इहळोक रा अर्थी त्यां सूं विनय करणी आवणो अति कठिन छै। ए अवनीत रा लक्षण सर्व छोडै वनीत रा गुण सर्व आदरै पैंताळीसा रा वरस रा लिखत में अंशमात्र अवगुण बोलण रा त्याग कह्या छै। ते माटे उतरती बात करे ते भाग्यहीण, मन सहित सुणै ते पिण भाग्यहीण, तथा सुणी आचार्य ने न कहै ते पिण भाग्यहीण, यां तीनां नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।।
इति दशवैकाळिक' मैं कह्यो। ते आज्ञा अखंड आराध्या, इहलोक परलोक में सुख कल्याण हुवै।
इति जयाचार्य कृत बड़ी हाजरी।
१. दसवैकआळियं,५।२।४५,४०
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दूजी हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत सुध पाळणा। ईर्या भाषा एषणा में सावचेत रैहणो। आहार पाणी लेणो ते पकी पूछा करी लेणो। निर्दोष पिण घणी हठ मनुहार सूं लेणो। देवाळ नो मन घणो तीखो रहै ज्यूं लेवै ते चतुर, दातार नो अभिप्राय देखै नहीं ते मूरख, वस्त्रादिक लेतां मेलतां पूजतां परठतां उपयोग तीखो राखणो। इमहिज गुप्ति महाव्रत में सावचेत रैहणो। गुरांरी आज्ञा ऊपर दृष्टि तीखी राखणी। आज्ञा अखंड अराधै ते विनीत। तथा भीखणजी स्वामी री मर्याद शुद्ध पाळणी। पंताळीसा रै वर्ष मर्याद बांधी “आचार रो साधा रो सूतर रो अथवा कल्प रो बोळ री समझ न पड़े तो गुरु तथा भणणहार साधु कहै ते मांन लेणो कह्यो, न वेसै तो केवळी नै भळावणो कह्यो।
इमहिज सम्वत् १८५० तथा ५९ रा लिखत में कह्यो-“सरधा आचार रो बोल बड़ा सूं चरचणो, बड़ा कहै ते मान लेणो, पिण ओरां सूं चरच नै शंका घाळणी नहीं"
तथा पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो-“साधां रा मन भांगनै आपरै जिलै करै ते तो महाभारीकर्मों, विश्वासघाती जाणवो। इसड़ी घातपावड़ी करै ते तो अनन्त संसार नी साई छै। इण मर्यादा प्रमाणे नहीं चालणी आवै तिण नै संलेखणा करणी सिरै छै एहवो कह्यो।' तथा और लिखत में रास में पिण जिलो बांधणो निखेध्यो छै। ते मिल-२ नै जिलो बांधण रा त्याग छै। तथा बावना रा ळिखत में कह्यो-“किण ही साधु आर्यां माहै दोष देखै तो तत्काळ धणी नै केहणो, कै गुरांनै केहणो, पिण और ने न कहिणों। तथा पचासा रा लिखत में कह्यो-"किण ही साधु आर्यों में दोष देखै तो तत्काळ धणी नै केहणो, अथवा गुरु नै केहणो, पिण और नै न केहणो। घणा दिन आडा घालनै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी ओहिज छै। प्राछित रा धणी नै याद आवै तो प्राछित उण नै पिण लेणो, नहीं लेवै तो उण नै मुसकल छै," एहवो पचासा रा लिखत में कह्यो। तथा वनीत अवनीत री चोपी में पिण एहवी गाथा कही छै।
१ दोष देखै किण ही साध में, तो कह देणो तिण नै एकंतो रे। ___ जो उ मानै नहीं तो कहिणो गुरु कनै, ते श्रावक छै बुधिवंतो रे॥
- सुवनीत श्रावक एहवा ।। २ प्राछित दिराय नै सुध करै, पिण न कहै अवरां पास।
ते श्रावक गिरवा गंभीर छै, वीर बखाण्यां तास ।। ३ दोष रा धणीने तो कहै नहीं, उणरा गुरु नै पिण न कहै जाय। __ और लोंकां आगे बकतो फिरै, तिणरी परतीत किस विध आय॥
१. दाता।
२. लय-चन्द्रगुप्त राजा सुणो। १९८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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४ साधां ने आय वन्दना करे, साधवियां नै न वांदे रुड़ी रीत। त्यांने श्रावक श्रावका म जाण जो, ते ऊधमती अवनीत ।।
इत्यादिक अनेक ठांमै दोष रा धणी ने तथा गुरां ने कहणो कह्यो, पिण औरां ने न कहिणो, एहवो कह्यो। तथा घणा दिन पछै कहणो रास में तथा साध सीखावणी ढ़ाळ में तथा दुहा में घणा दिनां पछे दोष कहै तिण नै अपछंदो कह्यो, निर्लज कह्यो, नागङो कह्यो, मर्यादा नो लोपणहार कह्यो, कषाय दुष्ट आत्मा रो धणी कह्यो, तथा अनेक लिखत में बरज्यो। तथा पेंताळीसा रा लिखत में इम कह्यो-"टोळा मांहि छतां कदाच कर्म जोगे टोळा बारे पड़े तो टोळा रा साध साधवियां रा अंसमात्र अवगुण बोलण रां त्याग छै। यारी अंसमात्र शंका पड़े ज्यू ने आसता ऊतरै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळां मां सूं फाड़ने साथ लेजावण रा त्याग छै। ओ आवै तो ही ळे जावण रा त्याग छै। टोळा मांहि नै बारै नीकळ्यां पिण अवगुण बोलण रा त्याग छै। मांहो मां मन फाटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। ए सर्व पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो। टोळा माहै छतां तथा टोळा बारै पड़े तो पिण साधु-साधवियां रा अंसमात्र अवगुण बोलण रा त्याग छै। एहवो भीखणजी स्वामी कह्यो ते मर्यादा सुध पाळणी। तथा सम्वत् १८५० रा वर्ष भीखणजी स्वामी मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो-एक दोष सूं बीजो दोष भेळो करै ते अन्याई छै, जिण रा परिणाम मेला होसी ते साध-साधवियां रा छिद्र जोय-जोय नै भेळा करसी, ते तो भारीकर्मी जीवां रा काम छै। डाहो सरल आत्मा रो धणी होसी ते तो इम केहसी- कोई ग्रहस्थ साध-साधवियां रो स्वभाव प्रकृति अथवा दोष कोई कहि बतावे तिण नै यूं कहिणो-"मौने क्यांनै कहो कै तो धणी नै कहो, कै स्वामीजी नै कहो ज्यं यांने प्राछित देई नै शद्ध करै नहीं कैहसो तो थे पिण दोषीला गरां रा सेवणहार छो। स्वामीजी नै न कहिसो तो थांमै पिण बांक छै। थे म्हांनै कयां काई होवै इम कहीनै न्यारो हुवै पिण आप बैदां में क्यांनै पहै। पेला रा दोष धारने भेळा करै ते तो मृषावादी अन्याई छै। किण ही नै खेत्र काचो बतायां, किण नै कपड़ादिक मोटों दीधां इत्यादिक कारणै कषाय उठै जद गुरुवादिक री निंद्या करण रा नै अवरणवाद बोलण रा नै एकएक आगे बोलण रा माहोमां मिलने जिलों बांधण रा त्याग छै। अनंता सिद्धां री आण छै। गुरवादिक आगै भेळो आपरै मतळब रहे पछै आहारादिक थोडा घणा रो. कपडादिक रो नाम लेइने अवरणवाद बोलण रा त्याग छै। ए सर्व पचासा रा लिखतमें भीखणजी स्वामी कह्यो-ते मर्यादा सर्व सुध पाळणी एहवो कह्यो।
तथा बावना रा लिखत में भीखणजी स्वामी आर्यां रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो-किणही नै खेत्र आछो बतायां रागद्वेष करनै बात चलावण रा त्याग छै। खेत्र आश्री बात चलावण रा त्याग छै।चोमासो कहै तिहां चोमासो करणो। शेषे काळ बड़ा कहै तिहां विचरणो। किण ही साध आल् दोष जाणनै सेव्यो हुवै ते पाना में लिख्यां बिना विगै तरकारी खाणी नहीं। कदाच कारण पड्यां न लिखै तो और आ· नै
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केहणो, सायद करने पछै पिण बेगो लिखणो, पिण लिख्यां विना रेहणों नहीं। किण ही आर्यां आज पछै अजोगाई कीधी तो प्राछित तो देणो, पिण उणने च्यार तीर्थ में हेलणी निंदणी पड़सी। पछै कहोला म्हांने भांडे छै, म्हारो फितूरो करै छै, तिणसूं पेहलाइज सावचेत रहीजो, सावधान न रह्या तो लोकां में मूंडा दीसोला। पछै कहोला म्हांनै कह्यो नहीं। ए बावना रा लिखत में भीखणजी स्वामी आर्या रै मर्यादा बांधी तिण में कयो तिण प्रमाणे प्रवर्त्तणो। ए मर्यादा लोपणी नहीं। तथा चोतीसा रा लिखत कह्यो छै-"ग्रहस्थ आगे टोळा रा साधु-साध्वियां री निंदा करै तिण ने तो घणी अजोग जाणणी। तिण ने एक मास पांच विगैरा त्याग एहवो कह्यो। मर्यादा लोपणी नहीं आज्ञा बिना प्रवर्ते तिणनै भीखणजी स्वामी पचासा रा लिखत में एहवो कयो- “साधां रे मर्यादा बांधी छै तिण प्रमाणे सगळां रै त्याग छै। उवा मर्यादा पिण उलंघवा रा त्याग
। जो किण ही साधु मर्यादा उल्लंघवो कीधौ अथवा आगन्या माहें नहीं चलिया, अथवा किण नै अथिर परणामी देख्यो, अथवा टोळा मांही टिकतो न देख्यो तो गृहस्थ नै जणावण रा भाव छै। साधु-साधव्या ने जणावण रा भाव छै। पछै कहोला म्हारी लोकां मांहे आसता उतारी तिण सूं घणा सावधान पणै चालजो। एक-एक ने चूक पड्यां तुरत कहीजो। म्हां तांई कजीयो आणजो मती। उठे रो उठे निवेड़जों ए मर्यादा पचासा रा लिखत में आज्ञा उपरंत तथा मर्यादा उपरंत प्रवर्ते तिणनै इण रीते निखेध्यो छै, ते भणी आज्ञा मर्यादा में तीखो प्रवर्त्तणों। सर्व साधु-साधव्यां री नै शासण री वारता तीखी करणी, ऊतरती न करणी। पैंताळीसा रा लिखत में अंसमात्र अवगुण बोलण रा त्याग चाल्या छै ते भणी ऊतरती बात करै तथा मन सहित सुणै तथा सुणी आचार्य नै न कहै तिणनै तीर्थंकर नो चौर कहिणो, हरामखोर कहणो।
"आयरिए आराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंती, जेण जाणंति तारिसं ।। आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो।
गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।। दशकालिक' में कह्यो। ते मर्यादा आज्ञा सुध आराध्यां इहभव परभव सुख कल्याण होवै।
ए छोटी हाजरी नी स्थापना लिखी संवत् १९१० वस्त पंचमी बृहस्पतिवार उदैपुर मध्यै।
१. दसवेआलियं ५।२।४५,४० २०० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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जी हाजरी
सर्व साधु साधवी पंच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखण्ड अराधवा । आहार पाणी लेण ते की पूरी ताय तपाय नै लेणो । पकी चोकस निगे करनै देवाळ नै देणो, लेवाळ नै लेणो । तथा आहार करतां पकी जेणा करी बोलणो । उंधो हाथ न देणो, -तिरछो हाथ न देणो, पुणचो न देणो, अलगो हाथ न राखणो । पड़िलेहण करता, मा चालतां न बोळणों । आहार करतां, अजेणां सूं बोलतां, पड़िलेहण करतां बोलतां, मारग चालतां बोलतां यां तीनां रो साचो तथा झूठो खूंचणो कादै तो समभाव सं अंगीकार करणो पण बीजो शब्द न बोलणो ।
तथा भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धांत देख विविध मर्याद बांधी, ते पचासा रा लिखत में कह्यो - "किण ही साध आय में दोष देखै तो ततकाळ धणी नै कहिणो, अथवा गुरां ने कहिणो, पिण औरां नै न कहिणो । ”
इमहिज बावनां रा लिखत में कह्यो- तथा इमहिज वनीत अवनीत री चोपी में ह्यो । तथा बले साध सिखावणी ढाळ में तथा रास में तथा पचासा रा लिखत में घणा दिन आड़ा घालने दोष बतावै तिण नै निषेध्यो छै ।
तथा पैंतालीसा रा लिखत में एहवो कह्यो - टोळां मांहे कदाच कर्म जोगै टोळा बारै परै तो टोळा रा साध साधवियां रा अंस मात्र ओगुण बोलण रा त्याग छै । तथा पचासा रा लिखत में साधां रै मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो - किण: 'खेत्र काचो बताया, कि ही ने कपड़ादिक मोटो दीधां इत्यादिक कारणे कषाय उठै जद गुरुवादिक
निंद्याकरण रा, अवरणवाद बोलण रा, एक-एक आगे बोलण रा, मांहोमा मिलनै जिलो बांधण रा त्याग छै । अनंता सिद्धां री आण छै। गुरुवादिक आगै भेळो तो आपरै मुतळब रहै, पछै आहारादिक थोड़ा घणा रो, कपड़ादिक रो नाम लेई अवरणवाद बोलण रा त्याग छै, एहवो पचासा रा लिखत में कह्यो ते मर्यादा सुध पाळणी ।
तथा बावना रा लिखत में आय रै मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो- किण ने खेत्र आछो बताया राग द्वेष करने बात चलावण रा त्याग छै । खेत्र आश्री, कपड़ा श्री, आहार पाणी आश्री ओषधादिक आश्री बात चलावण रा त्याग छै। चौमासो क तिहा चौमास करणो । शेषकाळ बड़ा कहे तिंहा विचरणो । ” तथा किण ही आय दोष जाणनै सेव्यो हुवै तो पानां में लिख्यां बिना तरकारी खाणी नहीं | कदाच कारण पड़यां न लिखै तो और आर्य्या नै कहिणो । सायद करने पछै पिण बेगो लिखो, पिण बिना लिख्या रहिणो नहीं । आय गुरां ने मुंडा सूं कहिणो नहीं। मांहो मां अजोग भाषा बोलणी नहीं - एहवो बावना रा लिखत में कह्यो ते मर्यादा सुद्ध पाळणी ।
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तथा पैंतालीसा रा लिखत में एहवो कह्यो उणनै साधु किम जाणिये जो एकलो हैरी सरधा हुवै, इसड़ी सरधा धारनै टोळा मांहि बैठो रहे, म्हारी इच्छा आवसी तो मांहे रहिसूं, म्हारी इच्छा आवसी जब एकलो हुसूं, इसड़ी सरधा सूं टोळा मार तो निश्चै असाध छै । साधपणो सरधै तो पहिला गुणठाणा रो धणी छै । दगाबाजी ठागा सूं मां रहै तिनै मांहे राखे जाणने, त्यांनै पिण महादोष छै। कदाच टोळा मांहे दोष जाणै तो टोळा मांहे रहिणो नहीं । एकलो होय नैं संलेखणा करणी, बेगो आत्मा रो सुधारो करणो, आ सरधा हुवै टोळा मांहे राखणो, गाळागोळो करनै रहै तो राखणो नहीं, उत्तर देणो, बारे काढ़ देणो, पछै आळ दे नीकळै तो किसा काम रो ।
तथा चोतसा रा वर्ष आय रै मर्यादा बांधी तिण में कह्यो - " ग्रहस्थ आगै टोळा मेरा साध आय री निंद्या करे तिण नै घणी अजोग जाणणी । तिणने एक मास पांचूं विगै रा त्याग, जिती वार करै जिता मासं पांचूं विगै रा त्याग तथा आंसू कादै तथा तुंकारादिक करड़ा काठा वचन से प्राछित कह्यो ते पिण सुद्ध पाळणो ।
तथा पैंतालीसा रा लिखत में एहवो कह्यो - "बले कोई आचार्य मर्यादा बान्धी याद आवै ते कबूल छै ।
तथा पचासा रा लिखत में कह्यो बले कोई करली मर्यादा बांधे तिण में नां कहिणो नहीं। आचारनीं संका पड़यां थी बले कोई याद आवै ते लिखां ते पिण सर्व कबूल छै । ए मर्यादा लोपण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै पचखांण छै । जिरा परिणाम चौखा हुवै, सूंस पाळण रा परिणाम हुवै ते आरे होयज्यो । सरमासरमी रो काम छै नहीं ।
तथा गुणसठा रा वर्ष रा लिखत में कह्यो - " टोळा सूं न्यारो हुवै तो इण सरधा रा भाई बाई हुवे तिहां रहिणों नहीं। एक बाई भाई हुवै तिहां रहिणो नहीं । वाटै बहितो एक रात कारण पड़ियां रहै तो पांचू विगै नैं सूंखड़ी खावा रा त्याग छै । अनन्ता सिद्धां री साख करने छै । "
तथा पचासा रा वर्ष रा लिखत में कह्यो जिण रो मन रजामंद हुवै चोखी तरह साधपणो पलतो जांणों तो टोळा मांहे रहिणो । आप में अथवा पेलां में साधपणो जाणनै रहिणो । ठांगा सूं मांहे रहिवा रा अनंत सिद्धां री साख सूं पचखांण छै- एहवो पचासा रा लिखत में कह्यो । इत्यादिक अनेक भीखणजी स्वामी मर्यादा बान्धी, बले कोई आचार्य मर्यादा बान्धे ते सर्व साध - साधव्या रै लोपवा रा त्याग छै जावजीव लगे। तथा श्रावक क कोई अवनीत साधु श्रावक उतरती बात अवगुण रूप करै तो वनीत श्रावक तिण अवनीत साधु श्रावक ने निखेद देवे, अने तिण बात कही ते आचार्य नै सर्व सुणाय देवै ते सुवनीत रा लखण छै । पैंताळीसा रा ळिखत में अंस अवगुण बोलण रा त्याग चाल्या छै, ते भणी आचार्यादिक सर्व साध - साधवियां रा अवगुणवाद बोलण रा त्याग छै ।
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तिण सूं गुण रूप वार्ता करणी, पिण अवगुण रूप लेहर में बोलण रा अनंता सिद्धां री साख करनै सर्व साध -साधव्यां रै पचखांण छै। उतरती वार्ता कोई कहै तथा मन सहित सुणै ते पिण भाग-हीण, तथा सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भाग-हीण, या तीनां ने तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिरकार देणी। ए सर्व सुणाय ने आचार्य गत दिवस वार्ता सर्व साध साधवीयां नै पूछे-कोई कषाय रे वश शब्द बोल्यो तथा हास्य रे वश बोल्यो तथा उतरतो शब्द बोल्यो ए सर्व जाण अजाण शब्द बोल्यो तथा सुण्यो ते सर्व कहणो। तथा मार्ग चालतां, पडिलेहण करतां और ही अनेक गणी पूछै तो जथतथ अरज करणी। आचार गोचर में सावचेत रहिणो। भीखणजी स्वामी रा लिखत ऊपर दृष्ट तीखी राखणी। पासत्था उसनां कुसीळिया अपछंदा टाळोकर नी संगति न करणी। कर्म जोगे टोळा थी टळे अथवा कठणाई में चालणी नहीं आवै, आहारादिक रो ळोळपी घणो अथवा चोकड़ी रे वस थइ आग्या पालणी आपरो छांदो रुधंणो ए दोरो जद वक्र बुद्धि होय गण बारै नीकळे, अवगुणवाद घणा बोलै, पेटभराई वास्ते अनेक ऊंधी-ऊंधी परुपणा करै, लोकां नै बहकावा नै अजोग-अजोग निंद्या करै, केइ बेपत्ता अकल विनां एकला लाज छोड़ी फिरता फिरै तिणने श्री भीखणजी स्वामी एकल रा चोढळ्या में निखेद्यो छै। ते गाथा
दूहा १ आरम्भजीवी गृहस्थी, फिरे त्यांरी ने श्राय ।
अन्य तीर्थी पासत्थादिक, ते पिण तेहवा थाय ।। २ केइ वेरागै घर छोड़ने, राचै विषै रस रंग।
राग द्वेष व्याकुल थका, करै व्रत नो भंग।। ३ रित पामै पाप कर्म में; सावज सरणो मांन।
गण छोड़ी हुवै एकला, कूड़ कपट री खांन।। ४ न्यात लजावै पाछली, बले भेष लजावणहार।
एहवा मानव फिरै एकला, धिग त्यारों जमवार।। ५ घणां में रहै सकै नहीं, ते एकलड़ा थाय । ___ कुण कुण दोष तिण में कह्या,ते सुणज्यो चित्त ल्याय॥
१ 'आप छार्दै फिरै छै जे एकला, ते जिन मारग में नहीं रे भला। साध श्रावक धर्म थकी टळिया,संसार समुद्र माहै कळिया।।धुपदं ।।
२. लय-समर्मी मन हरष।
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२ एकलो देखनै लोग पूछा करै, घणो क्रोध करे त्यासू रे लड़े।
केई वंदे नहीं जब मान वहै, करड़ा वचन तिण नै रे कहै॥ कपटाई घणीं छै एकल तणी, सूत्र में भाखी त्रिभुवन धणीं।
बले लोभ घणो छै बोहलपणै, श्री वीर कह्यो छै एकल तणों। ४ बहु आरंभ नै विषै रक्त घणो, संचो करे वज्र पाप तणो।
नट नी परै अर्थी भोग तणों, बहु भेख धरै मांडै निधपणो।। ___ घणै प्रकारे धुरतपणो, संके नहीं करतो कर्म रिणो।
अध्यवसाय वर्ते मन रा अति ही घणा, सठ पणै छै एकल तणा॥ बहु कोहे माणे माया लोभ पणो, रडे नडे सढ़े संकल्प घणो।
ए आठ अवगुण घट में वर्ती, हिंसादिक आश्रव नो अर्थी ।। ७ बले साधुनो लिंग लिया रहै, कर्मे आछायो एम कहै।
हूं सुध चारित्रियो आचारी, सतरे भेदै संजमधारी॥ रखै कोई देखै अकारज करतो, आजीवका अर्थी रहे डरतो।
अज्ञान प्रमाद सुं दोष भस्यो, निरंतर मूढ मोह्यो कुपंथ पड्यो। जिण धर्म न जाणै आप छांदे रह्या, त्यांने कर्म बांधण नै पंडित कह्या
पाप करण सूं अळगा रहै नहीं, तिणनै संसार में भ्रमण कही। १० आचारंग पंचमै अधेने आख्यो, पहळे उदेसै जिण भाख्यो।
ए चरित कह्या छै एकळ तणां, इण अनुसारे तो अति ही घणां॥ ११ एहवा अपछंदा अवनीत, त्यां छोड़ी धर्म तणी रीत।
निरलज भागळ विपरीत, किम आवै त्यांरी परतीत।। उसन्नादिक पांचू तणी, संगति बरजी छै त्रिभुवन धणी।
ए मोख मार्ग ना छै फंदा, एहवा छै जैन तणां जिंदा॥ १३ त्यां छोड़ी लोकिक तणी लजिया, संका नहीं आणै करता कजिया।
दोषण काढ्यां तो तपता रहै, ते आया परिसा केम सहै।
इम इत्यादिक एकल नै घणो निषेध्यो, ते भणी तेहनी संगत न करणी। तथा पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो-टोळा माहे कदा कर्म जोग टोळा बारै पड़े तो टोळा रा साध साधविया रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यारी अंसमात्र संका पहै आसता उतरै ज्यू बोलण रा त्याग छै। टोळा मां सू फारने साथ ले जावण रा त्याग छै। माहोमां मन फाटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावा रा त्याग छै। टोळा मांहे नै बारै नीकळ्या पिण अंसमात्र अवगुण बोलण रा त्याग छै।
इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन बात करणी। भागहीण हुवै सो उतरती बात करै, भागहीण सुणै, सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भागहीण। २०४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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आयरिए आराहेइ, समणे या वि तारिसो। गिहत्था णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ आयरिए नाराहेइ, समणे या वि तारिसो।
हत्था णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं ।
इति' दसवैकालिक में कह्यो ते भणी आज्ञा मर्यादा सुध आराध्यां इहभव परभव सुख किल्यांण हुवै।
१. दसवे आळियं ५।२।४५,४०
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चोथी हाजरी
संमत १८३२ सा रै वर्ष स्वामी मरजादा बांधी, तिण में कह्यो-सर्व साधसाधवी एक री आज्ञा मांहे चालणों, एहवी रीत बांधी छै। कोइ टोळा मा सूं फाड़ा तोड़ो करनै एक दोय आदि नीकळे, घणी धुरताई करै, बगुळध्यानी हुवै, त्यांनै साध सरधणा नहीं, च्यार तीर्थ माहै गिणवा नहीं। यांने चतुरविध संघ ना निंदक जांणवा। एहवा नै वांदे पूजे तिके पिण आज्ञा बारै छै एहवो बतीसा रै वर्ष कह्यो।
__ इमहीज गुणसठा रै वर्ष मर्यादा बान्धी तिण में कह्यो-उसभ कर्म जोग सूं टोळा बारै नीसरै तिणनै साध सरधणो नहीं। कदा कोई फेर दिख्या ले आगला साधां नै असाध सरधायवा नै तो पिण उणने साध सरधणो नहीं। उणने छेरवियां तो उ आळ दे काढे तिणरी एक बात मानणी नहीं। उण तो अनन्त संसार आरै कीधो दीसै छै। कदाच कर्म धको दीधां टोळा सूं टकै तो उणरै टोळा रां साध साधव्यां रा अंसमात्र हुँता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा अनंत सिद्धां री नै पांचोई पदां री आण छै पांच पदां री साख सूं पचखांण छै। किण ही साध साधवियां री संका प. ज्यूं बोलण रा पचखांण छै। कदा उ विटळ होय सूंस भांगे तो हळुकर्मी न्यायवादी तो न मांने उण सरीषो विटळ कोई मांने तो लेखा में नहीं। किण नै कर्म धको देवै ते टोळा सूं न्यारो पड़े तथा न्यारो करै अथवा आप ही टोळा सूं न्यारो हुवै तो इण सरधा रा भाई बाई हुवै तिहां रहिणो नहीं। एक बाई भाई हुवै तिहां पिण रहिणों नहीं। वाटे वहतां एक रात, कारण पड़िया रहै तो पांचूइ विगै सूंखड़ी खावा रा त्याग छै। अनन्त सिद्धां री साख कर छै। बले टोळा मांहे उपगरण करै, पांना परत लिखे, टोळा मांहे थका परत पांना पात्रादिक सर्व वस्तु जा. ते सर्व साथे ले जावा रा त्याग छै-एक बोदो चोलपटो. महपती एक बोदी पिछैवड़ी खंडिया उपरंत बोदा रजूहरणा उपरंत साथे ले जावणा नहीं। उपगरण सर्व टोळा री नेश्राय साधां रा छै। और अंसमात्र साथे ले जावण रा पचखांण छै। अनंता सिद्ध री साख करीनै छै, ए सर्व गुणसठा रा वर्ष रा लिखत में कह्यो छै।
तथा पचासा रा लिखत में पिण एहवो कह्यो-"टोळां सूं न्यारो पड़े तो किण ही साध साधवियां रा हुंता अणहुंता अवगुण तथा लूँचणो काढ़ण रा त्याग छै। रहिसै-रहिसै लोकां रे संका घालीनै आसता उतारण रा त्याग छै। किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहणो अथवा गुरां ने कहिणो पिण औरां नै न कहिणो। पिण घणा दिन आडा घालनै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उ ही छै।" ।
तथा बावनां रा लिखत में पिण इम कह्यो-किण ही साध आ· मांहे दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहिणो के गुरां ने कहिणो पिण औरां ने कहिणो नहीं। तथा
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पेंताळीसा रा लिखत में पिण कह्यो - टोळा मांहे पिण साधां रा मन भांगनै आप आप रै जिले करै, ते तो महाभारीकर्मो जाणवो, विसवासघाती जाणवो। इसड़ी घात पावड़ी करै ते तो अनन्त संसार नही साई छै । इण मर्याद प्रमाणै चालणी नावे तिणने संलेखणा मंडणो सिरै छै । तथा पचासा रा लिखत में पिण जिला ने निषेध्यो । तथा रास में पिण भी भीखणजी स्वामी जिला ने निषेध्यो छै । ते गाथा
ढाल
तिनै गुर कहै सहज में सूधो, तो उ पड जाए मूर्ख ऊंधो। तिण रा लखण घणा छै माठा, उळटा गुरनै कहै करला काठा ॥ गुरु ने करलो काठ कहणो पाछो, ओ तो किरतब जांणियो आछो । तिरी फिर गई सवळी दिष्ट, हुओ जिण मार्ग थी भिष्ट || तिने गुर करो कहै किण वारै, जब उ अवनीत पास पुकारै। जब अवनीत कहै उण नै एम, थे पाछो को नहीं केम || इसड़ी करै अविना री थाप मांहोमांहे कियो त्यारै मिलाप । बले जिलो बांधण रे काज, हिवै कुणकुण करै अकाज ॥ हिवै मिलर नै करै चोरी, गण में करै फातोड़ी। उणरी बात करै उण आगै, जिण विध मांहोमो कळह लागै ।। गुरु सूं पण मेले मूरष डांडी, तिण भेष लेई आत्म भांडी । गुरु सूं चेलो हुवै उदास, तेहवी बात कहै तिण पास ॥ किणनै कहे थां उपर द्वेष, ते अरुबरु ल्यो किनै क थांरी कीधी उतरती, मो आगै पिण कीधी किनै बले कहै छै आम, थानै लोळपी कहै छै
देख |
परती ||
तांम ।
किनै कथां कहता वेणो, इण नै महीं कपड़ो नहीं देणो ॥ किनै कहै थे प्राछित लीधो, ते तो मो आगे कह दीधो । त्यांरी आसता एम उतारे, बले निंद्या करै पूठ लारे ॥ १० किणनै कहै थानै कहता चोरो, किणनै कहै थांसू हेत थोड़ो । किनै कथा कहिता अवनीत, किणनै कहै थारी करे अप्रतीत ॥ ११ केनै कहै थानै नहीं भणावै, किणनै कहै थानै नहीं बतळावै । किनै कहै थानै रोगी जाणै, पिण ओषद कदेय न आणै ॥ १२ किणनै कहै थांनै चौमासे काळ, लांबो खेतर बतावै टाळ । आछै खेतर थां नहीं मेलै, शेषै काळ पिण इमहीज ठेलै | १. लय - विनैरा भाव सुण-सुण गूंजै।
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१३ किणनै कहै थांरो न करै विश्वास, मांहै रहवारी न धरै आस । जिण विध गुरु सूं जागे द्वेष, तेहवी करै बात विशेष ॥ १४ जिण विध गुरु सूं मन भागै, तेहवी बात करै उण आगै । जिण विध गुरु सूं हेत टूटै, तेहवी बात करे पर पूठै ॥ १५ इण विध साध - साधवी फारै, गण में भेद इण विध पाड़ै । गुरु सूं परिणाम उतारै सुध साधां ने १६ बले गुरु में अवगुण दरसावै, झूठा- झूठा बले निंद्या करै छानै - छानै, जिण रै उसभ
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१७ जिणनै गुरु सूं करै उपराठो, आपरो कर राखे काठो । तिनै निसंक आपरो जाणै, तिणनै घणो घणो बखांणे ||
१८ और साध मेळे
पिण करै विस्वासघात ।
उण साथ, जब उणनै फार करै आप कानी, पछै निंद्या करै मनमानी || १९ इण विध करै फारा तोड़ी, गुरु सूं छान - छानै करै चोरी | त्यां सूं छान-छान जिलो बांधे, जिण धर्म न ओळख्यो आंधे || २० मांहोमां मिलनै जिलो बान्धे, गुरु आज्ञा विण आपरे छांदै । इसड़ो करे अकार्य खोटो, तिणनै दोष लागे छै मोटो | २१ एहवा दोष री कर राखै थाप, पछै सेवै निरंतर आप । बले साधू नाम धरावै, तो उ पहिलै गुणठांणै आवै ॥ २२ जो उ दोष नै दोष न जाणै, वो पिण पहिले गुणठाणै । तो मूढ मिथ्याती पूरो, पड़ियो च्यार
तीर्थ थी दूरो ॥
२३ तिरे सरधा जमाळी री आइ, मूळगी पूंजी सर्व गमाई | सम्यक्त साधूपणो खोयो, जिलो बांध नै जन्म विगोयो || एहवा गैरी थका गण मांय, तिणरी गुरु ने खबर न काय । मुख उपर करै गुणग्राम, छानै २ करै एहवा कांम ॥ २५ गुरु रै मुख तो गुण गावै, छानै २ अवगुण दरसावै। राजी, छानै करै दगाबाजी ॥ हाथो, पगां में नितर देवै माथो । वदतां करै गुणग्राम, सारा पेहली लै गुरु रो. नाम ॥
मुख उपर तो बोलै २६ बले वांदे गुरु नै जोड़ी
२७ बले लोकां नै वंदना सिखावै, त्यांमै पिण गुरु नो नाम घलावै । लोकां आगै करै गुणग्राम, पिण मना रा मैला परिणाम ॥
इम अनेक प्रकारे जिला ने निखेध्यो छै। मुहढ़े तो मीठो बोलै गुरु रा गुण गावै अनै छानैछानै दगाबाजी करै इसड़ा अवनीत दुष्ट अजोग प्रतनीक मुखअरी नै भगवान कुह्या कांनां री
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
मूढ़ बिगाड़े || दोष बतावै ।
उदै ते मांने ॥
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कुतरी, भंडसूरी री ओपमां दीधी छै। तथा बले भीखणजी स्वामी पिण अवनीत रा लखण ओळषाया तेगाथा१ छिद्र' पेही छिद्र धारी राखै, कदे काम पड़े जब कहै दाखै।
तिणरै चरित्र पाळण री नहीं नीत, इसड़ा भारीकर्मा अवनीत।। २ और साधु ने दोष लागो देखी, जो उ तुरत कहै तो निरापेषी।
आ सुध साधांरी छोड़ी रीत। इस ड़ा.... || ३ गुर री निंद्या करै छान-छाने, तिण अवनीत री बात अवनीत मानै।
ते चिंहु गति में होसी फजीत। इसड़ा.।। ४ छान-छानै टोळा में जिलो बांधे, गुरु आज्ञा विण आपरे छादै।
तिण संजम सहीत खोई प्रतीत। इसड़ा....|| ५ गुरु सूं चेला रो मन फाइँ, बले टोळा मांहे मूर्ख भेद पाड़े।
कूड़ कपट कर २ बोले विपरीत। इसड़ा..... || ६ सतगुर री बात देवे ठेली, अवनीत रो तुरत हुवै बेली।
तिण छोडी सतगुर सूं प्रीत। इसड़ा । ७ गुर नै वांदे तिक्खूता रा पाठ गुणी, पिण मन माहे ओघटघाट घणी।
छळ खेळे कपट दगा सहीत। इसड़ा ।। ८ जिण सूं हेत राखे तिणरा दोष ढंके, तूटा हेत देतो आळ नहीं संके।
पछै मन मानै ज्यूं बोळे नसीत। इसड़ा....।। ९ ते नागा निरलज होय बेठा, त्यांनै बतलाया वचन बोलै धेठा।
त्यांरै संजम रूप खिस गई भीत। इसड़ा....।। १० अवनीत भण-भण उळटो बूडै, कर-कर अभिमान वेसै तूंडै ।
तिणरै विनो नरमाई नहीं घट भीत। इसड़ा...|| ११ इसड़ा अवनीत जाबक भंडा, त्यारै केरै लागा ते पिण बूडा।
त्यांमें पिण होसी घणी कुपीत। इसड़ा...|| अथ इहा पिण अवनीत रा लखण ओळखाया ते लखणां नै छांडणा। तथा साध सीखावणी ढाळ रा दूहा में पिण घणा दिन पछै दोष कहै तिणनै अपछंदो कह्यो, निर्लज कह्यो नागड़ो कह्यो, मरजादा रो ळोपणहार कह्यो। तिणरी बात मूळ मानणी नहीं, एहवो कह्यो।
तथा बावना रा लिखत में आर्यां रै मर्यादा बांधी-किण ही आर्यां जांणनै दोष सेव्यो हुवै
१. लय :एहवा भेषधारी पंचम काळे।
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ते पाना में लिख्या बिना विगै तरकारी खाणी नहीं। कदाच कारण पड्यां न लिखै तो और आर्थ्यां ने कहणो। सायद करने पछै पिण बेगो लिखणो। पिण बिना लिख्यो रहिणो नहीं। आयने गुरां ने मूंहढा थी कहणो नहीं। अजोग भाषा बोलणी नहीं। एहवो बावना रा लिखत में कह्यो ते मर्यादा सुद्ध पाळणी। तथा पैंताळीसा रा लिखत में एहवो कह्यो-टोळा मांही कदाच कर्म जोग टोळा बारै पड़े तो टोळा रा साध साधवियां रा अंसमात्र अवगुण बोलण रा त्याग छै। यारी अंसमात्र शंका पडै आसता उतरै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मांहे सूं फाड़नै साथै ले जावण रा त्याग छ। उ आवै तो ही ले जावण रा त्याग छै। टोळा माहै नै बारै निकल्या पिण अवगुण बोलण रा त्याग छै, माहोमाहै मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में पिण अंसमात्र अवगुण बोलण रा त्याग कह्या छै ते भणी उतरती बात करै तथा मन सहित सुणै तथा सुणी आचार्य नै न कहै तिणनै तीर्थंकर नो चोर कहिणो, हरामखोर कहिणो, तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो । गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणेयावि तारिसो।
गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं । इति 'दशवैकाळिक में कह्यो मर्यादा आग्या सुध आराध्यां इहभव परभव में सुख किल्याण हुवै।
१. दसवेआळियं, ५/२/४५,४०
२१० - तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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पांचवी हाजरी
सम्वत् १८५० वर्ष स्वामी भीखणजी सर्व साधां ने सुध आचार पाळणो नै मांहोमांहै गाढ़ो हेत राखणो, तिण ऊपर मरजादा बांधी-"कोई टोळा रा साधसाधवियां में साधपणो सरधो, आप में साधपणो सरधो, तिको टोळा में रहिजो। कोई कपट दगा सूं साधां भेळो मांहि रहै, तिण नै अनन्ता सिद्धां री आंण छै। पांच पदां री आंण छै। साध नांव धरायनै असाधां भेळो रह्यां अनंत संसार वधै छै। जिण रा चोखा परिणाम हुवै ते इतरी परतीत उपजावो। किण ही साध-साधवियां रा अवगुण बोलनै किण ही नै फाइनै, मन भांगनै खोटा सरधावण रा त्याग छै। किणसूई साधपणो पलतो दीसै नहीं, अथवा सभाव किणसूइ मिलतो दीसै नहीं, अथवा कषाई धेठो जाणनै कोई कनै न राखै, अथवा क्षेत्र आछो न बतायां अथवा कपड़ादिक रै कारणै अथवा अजोग जाणनै और साधु गण सूं दूरो करै, अथवा आपने गण सूं दूरो करतो जाणनै इत्यादिक कारण उपनै टोळा सूं न्यारो पड़े तो किण ही साध-साधवियां रा अवगुण बोलण रा त्याग छै। हुँतो अणहुंतो खूचणो काढ़ण रा त्याग छै। रहिसेरहिसे लोकां रे संका घालनै आसता उतारण रा त्याग छै। कदा कर्म जोगे कदा क्रोध रे वशै साध-साधवियां में असाधपणो सरधै आप में पिण असाधपणो सरधै फेर साधपणो ळेवै तो ही पण अठीला साध-साधवियां री संका घालण रा त्याग छै। खोटी कहण रा त्याग छै ज्यूं रा ज्यूं पाळणा छै। पछै यूं कहिण रा पिण त्याग छै, म्हे तो फेर साधपणो लीधो अबे म्हारै आगला सूंसां रो अटकाव कोई नहीं। किण ही साध साधव्यां नै पिण साध साधवियां री आसता उतरै साध आर्या री संका पड्रै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। किण ही साध आर्यों में दोष देखै तो ततकाळ धणी नै कहिणो, अथवा गुरां नै कहिणो, पिण ओरां नै न कहिणो। घणा दिन आड़ा घाळनै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उहीज छै। प्राछित रा धणी नै याद आवै तो प्राछित उण नै पिण लेणो, नहीं लेवै तो उणनै मुसकळ छै, ए पचासा रा लिखत में कह्यो।
तथा संवत् १८४५ रा लिखत में कह्यो-"टोळा मांहे पिण सांधां रा मन भांगनै आप २ नै जिले करै ते तो महामारीकर्मो जाणवो। इसड़ी घात पावड़ी करै ते तो अनंत संसार री साई छै। इण मरजादा प्रमाणे चालणी नावै तिण नै संलेखणा मंडणो सिरै छै। धनै अणगार तो नव मास माहे आत्मा नो किल्याण कीधो ज्यूं इण नै पिण आत्मा रो सुधारो करणो। पिण अप्रतीत-कारियो काम न करणो। रोगिया बिचै तो सभाव रा अजोग नै माहे राख्यो भूडो छै। यां बोलां री मरजादा बांधी ते लिखी छै ते चोखी पाळणी। अनन्ता सिद्धां री साख करनै पचखांण छै। ए पचखांण पाळण रा परिणाम
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हुवै ते आरै हुयज्यो। विनै मार्ग चालण रा परिणाम हुवै,गुरू नै रीझावणा हुवै, साधपणो पाळण रा परिणाम हुवै ते आरै हुयज्यो। आगे साधां रे समचे आचार री मरजाद बांधी ते कबूल छै। बले कोई आचार्य मरजादा बांधे ते याद आवै ते पिण कबूल छै" एहवो पैंताळीसा रे वर्ष कह्यो छै।
तथा पचासा रा लिखत में जिला नै निषेध्यो छै। तथा रास में पिण जिला ने घणो निषेध्यो छै। तथा 'गुरु सूकावे तो उभो सूकै' इण ढाळ में पिण जिला नै निषेध्यो छै। १ गण में रहूं निरदावै एकळो, किण सूं मिलनै न बांधू जिळो।
किण नै रागी करै राघू म्हारो, एहवो पिण नहीं करूं विगारो॥ इम गुरां री आज्ञा विना आपरो रागी करै तिण नै बिगाड़ा में घाल्यो छै। ते माटै जिलो बांधण रा सर्व साध साधव्यां रै अनन्ता सिद्धां री साख सूं त्याग छै। तथा घणा दिनां पछै दोष न कहिणो, ठांम २ कह्यो छै। साध सीखावणी ढाळ रा दूहा में पिण घणां दिना पछै दोष कहै, बले झूठो विषवाद करै, तिण नै अपछंदो कह्यो, निर्लज कह्यो, नागड़ो कह्यो, मर्यादा रो लोपणहार कह्यो, कषाय दुष्ट आत्मा रो धणी कह्यो छै।तथा साध सीखावणी ढाळ में पिण एहवी गाथा कही२ घणा दिनां रा दोष बतावै, ते तो मानवा में किम आवै।
साच झूठ तो केवळी जाणै, छद्मस्थ प्रतीत नांणै।। २ हेत मांहे तो दोषण ढ़ाकै, हेत तूटां कहितो नहीं सांकै।
तिण री किम आवै परतीत, तिण नै जाण ळेणो विपरीत॥ ३ इण दोषीला सूं कीयो आहार, जब पिण नहीं डरियो लिगार।
तो हिवै आळ देतो किम डरसी, इण री परतीत मूरख करसी॥ ४ इण दोष क्यांने किया भेळा, इण क्यूं न कह्यो तिण वेळा।
इण में साध तणी रीत हुवै तो, जिण दिन रो जिण दिन कहेतो॥ ५ जब उ कहै मैं न कह्यो डरतै, गुर सूं पिण लाजां मरतै।
तब उणनै बलै कहिणो पाछो, तोनै किण विध जांणां आछो॥ ६ थे तो दोषीलां सूं कियो संभोग, थारा वरत्या माठा जोग।
थारी प्रतीत नावे म्हांनै, इण रा दोष राख्या थे छानै॥
१.लय : विनै रा भाव सुण-सुण गूंजे। २.लय : विनै रा भाव सुण-सुण गूंजे । २१२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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७ थे तो कीधो अकारज मोटो, जिण मारग में चलायो खोटो।
थारी भिष्ट हुई मत बुध, हिवै प्राछित ळे होय सुध। ८ उण नै पूछ्यां आरै होय, तो उण नै प्राछित देस्यां जोय।
जो उ पूछयां आरै न होय, तो उण सूं जोर न लागै कोय॥ उण री तो थारां कह्या थी संक, पिण तू तो दोषीलो निसंक।
इम कही उण नै घालणो कूड़ो, प्राछित न ले तो करणो दूरो। १० ज्यूं कोई बले न दूजी वार, किण रा दोषण ढाके ळिगार।
दोष ढाक्या हुवै घणी खुवारी, टांको झडै तो अनन्त संसारी॥ ११ संका सहित नै राखैमांय, और साध दोषीळा न थाय।
दोषीला नै जांणी राखै मांय, तो सगळाई असाधु थाय॥ १२ छिद्रपेही छिद्रधार राखै, कदे काम पड्या कहि दाखै।
तिण में साध तणीं नही रीत, तिण री कुण मांनै परतीत।। १३ घणा दिनां कादै दोष विख्यात, तिण री मूळ न मानणी बात।
सुध साधां री आ मरजाद, तिण सूं वधै नहीं विषवाद ।। १४ और साधां में दोषण देखी, तुरत कहै ते निरापेखी।।
तिण रे मूळ नहीं पखपात, तिण री मानणी आवै बात ।।
अथ इहा पिण घणा दिनां पछै दोष कहै तिण नै अन्याइ कह्यो। तिण में साध नी रीत नहीं। तिण री मूळ बात मानणी नहीं, एहवो कह्यो। तथा पचासा रा लिखत में एहवो कह्यो- किणनेई खेत्र काचो बतायां, किणनेइ कपड़ादिक मोटो दीधां इत्या-दिक करणे कषाय उठे जद गुरुवादिक री निंद्या करण रा, अवगुणवाद बोलण रा, एक २ आगै बोलण रा, मांहोमाहै मिलने जिलो बांधण रा त्याग छै। अनन्ता सिद्धां री आण छै। गुरवादिक आगै भेळो तो आपरै मुतळब रहै, पछै आहारादिक थोड़ा घणा रो कपड़ादिक रो नाम लेई अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। इण सरधा रा भायां रै कपड़ा रा ठिकाणा छै विना आज्ञा याचण रा त्याग छै तथा विनीत अवनीत री चोपी री प्रथम ढाळ में एहवी गाथा कही१ 'उ गुर रा पिण गुण सुणनै विलखो हुवै रे,अवगुण सुणनै हरषत थाय रे। एहवा अभिमानी अविनीत तेहनै रे, ओळखाउं भवियण नै इण न्याय रे ।।
अवनीत भारी कर्मा एहवा रे।। २ कोई प्रत्यनीक अवगुण बोलै गुर तणा, अवनीत गुरद्रोही पासै आय।
तो उत्तर पड़ उत्तर न दे तेहने, अभिंतर में मन रळियायत थाय॥
अथ इहां गुरु रा गुण सुण विळखो हुवै तिण नै अवनीत कह्यो कोई अविनीत अवगुण १. लय-श्री जिनवर गणधर मुनिवर।
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बोले तेहनै पाछो जाब न दे मून राखै मन में रळियात वै यां लखणां अवनीत नै ओळखणो तथा वनीत अवनीत री ढाळ नवमीं में एहवी गाथा कही१ गुरु निषेध्यो सुणै अवनीत, ऊंधा अर्थ करे विपरीत ।
नहीं विनौ करण री नीत, तिण सूं बोले कपट सहीत।। २ उण तूं विनो कियो नहीं जावै, तिण सूं गुर नै कुगर सरधावे।
आपणां दोष सगळा ढाकै, साधा सिर आळ देतो ना साकै। ३ ते तो गुर सूं पिण नहीं गुदरै, तिण रा कारज किण विध सुधरै।
तिण नै करै टोळा सूं न्यारो, तो उ चोर ज्यूं करे बिगाड़ो॥ ४ सगळां साधां नै कहै असाध, बलै करै घणो विषवाद।
सर्व साधां रो होय जावै वैरी, के एहवा छै अवनीत गैरी। ५ तिण नै लोक आरै करै नांहीं, तो उ प्राछित ले आवै मांही।
ज्यांनै असाध परूप्यां मुख सूं, त्यांरा वांदै पग मस्तक सूं। ६ जो उ बलै न चाले सूधो, तो उण नै करदै गण सू जूदो। __ जब अवनीत रे उवाहीज रीत, न्यारो किया बोलै विपरीत। ७ लोकां नै साधा सूं भिड़कावै, आप बुगलध्यानी होय ज्यावै।
बलै कूड़ कपट रो चाळो, आत्मा नै लगावै काळो।। ८ उ तो अवगुण काढ़े अनेक, बुधवंत न मांनै एक।
एहवा अवनीत छै गुरद्रोही, तिण आत्म पूरी विगोई ।। ९ जे माने अवनीत री बात, ज्यां रा घट माहै आवै मिथ्यात।
एहवा अविनीत अवगुणगारा, ज्यां सू बुधवंत रहसी न्यारा॥ . १० इम सुण २ नै नरनारी, छोड़ो कुगुरु हीण आचारी।
अवनीत सूं रहसी दूरा, ते तो परमेसर रा पूरा ।। ११ वनीत सुण २ पांमै हरख, प. अवनीत रे मन धड़क।
ते तो रहै चोर जिम राच, लेवै आपणै ऊपर खांच ।। १२ वनीत अवनीत रा एहलाण, इम ओळख कीजो पिछाण।
___ रुड़ी रीत सू काढै नीकाळो, अवनीत सूं दीजो टाळो॥ १. लय- विनै रा भाव सुण २ गूंजे। २१४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१३ विना अविना रो ए विस्तार, कीधो खेरवा सैहर मझार।
बतीसै वरस संमत अठारो, भादवा सुदि छठ सुकरवारो।। अथ इहां पिण अविनीत नै ओळखायो-टोळा बारे नीकळी, क्रोध रै वस साधां नै असाधु कहै अवगुण बोलै चोर ज्यूं बिगाड़ो करै तिण री बात बुधवंत न मांनै। तिण नै लोक आरै न करै जद पाछो माहै आवै, जो उ बलै सुध न चालै जद गुरु दूर करै तथा आचार्य रै छांदे चालणी नावै संकड़ाइ मै चालणी नावै जद आपही टोळा वारै नीकळी फेर अवगुण बोलै, इसड़ा अवनीत विवेक विकळ री बात न मानणी, एहवो कह्यो। अवनीत रो ठागो प्रगट कियो।
तथा पैंताळीसा रे वर्स मर्यादा बांधी तिण में कह्यो-टोळा मांहि कदाच कर्म जोगे टोळा बारै पड़े तो टोळा रा साध साधवियां रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यांरी अंसमात्र संका पडै आसता ऊतरै ज्यूं बोलण रा त्याग छै टोळा मासूं फाड़नै साथै ले जावण रा त्याग छै। ओगुण बोलण रा त्याग छै। माहोमा मन, फाटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन रूप बात करणी। भागहीण हुवै सो उतरती करै तथा भागहीण सुणै तथा सुणी आचार्य नै कहे नही ते पिण भागहीण, तिण नै तीर्थकर नो चोर कहणो हरामखोर कहणो तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणेयावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥
आयरियं नाराहेई, समणेयावि तारिसो। गिहत्थावि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं॥ इति 'दशवैकाळिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुद्ध आराध्यां इहभव में परभव में सुख कल्याण हुवै।
१. दसवेआळियं, ५/२/४५,४०
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छठी हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्त पंच महाव्रत अखण्ड आराधणा । ईर्या, भाषा, एषणा में सावचेत रहणो । आहार पाणी लेणो पड़े तो पक्की पूछा करी ने लेणो । सूझतो आहार पानी लेणी ते पक्की पूछा करी ने लेणो । आगला रो अभिप्राय देखने लेणो । पूजतां परठवता सावधान पणे रहणो । मन वचन काया गुप्त में सावचेत रहणो, तीर्थंकर नी आज्ञा अखण्ड आराधणी, श्री भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देखने आचार श्रद्धा प्रगट कीधी । बिरत में धर्म, अविरत में अधर्म, आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे - अधर्म, असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछै ते द्वेष, तिरणो बंछै ते वीतराग देवनो मार्ग छै । तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी। संवत् १८५० रे वर्स भीखणजी स्वामी साधां रे मर्यादा बांधी, किण ही साधु आय में दोष देखे तो ततकाळ धणी कहिणो, अथवा गुरां ने कहिणो, पिण ओरां ने न कहिणो, घणा दिन आड़ा घालने दोष बतावे तो प्राछित रो धणी उ हीज छै । प्राछित रा धणी ने याद आवे तो प्राछित उण ने पण लेणो न लेवे तो उण मुसकळ छै । कोई सरधा आचार रो बोल नीकळे तो बड़ा सू चरणो पिण औरां सूं चरच औरां रे संका घालनी नहीं। बड़ा जाव देवे ते आपरे हिय वेसे तो मान लेणो, नहीं वेसे तो केवळिया ने भळावणो । पिण टोळा मां भेद पाड़णो । नहीं मांहोमांहि जिलो बांधणो नहीं । आपरो मन टोळा सूं उचक्यो अथवा साधपणों पळे नहीं तो किण ही ने साथ ले जावण रा अनन्ता सिद्धां रो साष करने पचषांण छै । किण रा परिणाम न्यारा होण रा हुवे जब ग्रहस्थ आगे पेला री परती करण रा त्याग छै । जिण रो मन रजामंद हुवे । चोखी तरह साधपणो पळतो जांणो तो टोळा मांहे रहणो । आप में अथवा पेळा में साधपणो जाणने रहिणो, ठागा सूरहिवारा अनंता सिद्धां री साष सूं पचषांण छै। कोई टोळा मा सूं टळने साधसाधवियां रा दोष बतावे अवरणवाद बोळे तिण री बात मांनणी न ही, तिण ने व्यवहार में तो झूठो बोलो जाणणो, साचो हुवे तो ज्ञानी जाणे पिण छद्मस्थ रा व्यवहार में तो झूठे जाणणो । एक दोष सूं बीजो दोष भेळो करे ते तो अन्याई छै, जिण, रा परिणाम मेला होसी ते साध आय्य रा छिद्र जोयने भेळा करसी, ते तो
कर्मा जीवां रा काम छै, अने डाहो सरळ आत्मा रो धणी होसी ते तो इम कहसी - कोइ ग्रहस्थ साध - साधवियां रो सभाव प्रकत अथवा दोष कहि बतावे जिण
यूं कहो - मोने यानें कहो, के तो धणी ने कहो, के स्वामीजी ने कहो, ज्यू यांने प्राछित देने सुध करे, नहीं केसो तो थे पिण दोषीला गुरां रा सेवणहार छो। जो स्वामीजी ने न कहिसो तो थांमे पिण बांक छै । थे म्हांने कह्या कांइ हुवे, यूं कहिने न्यारो हुवे पिण आप बेदा मांहे क्यानें पड़े । पेला रा दोष धारने भेळा करे ते तो तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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एकंत मिरषावादी अन्याई छै। किण ने खेत्र काचो बतायां किण ही ने कपड़ादिक मोटो दीधां इत्यादिक कारणे कषाय उठे जद गुरवादिक री निंद्या करण रा अवगुणवाद बोलण रा मांहोमांहे मिलने जिलो बांधण रा त्याग छै। अनन्ता सिद्धां री आण छै। डाहा होवे ते विचार जोइ जो। लूषे षेतर तो उपगार होवे तो ही न रहे आछे तर उपगार न होवे तो ही पर रहे, यूं तो साध ने करणो नहीं चोमासा तो अवसर देखे तो रहणो पिण शेषे काळ तो रहिणो हीज। किण री खावा पीवादिक री संका पड़े तो उण ने साध कहे-बड़ा कहे ज्यूं करणो। दोय जणां तो विचरे आछा-आछा मोटामोटा साताकारिया क्षेत्र लोळपी थका जोवता फिरे, गुरु राखे तठे न रहे, इम करणो नही छै। घणां भेळां रहिता तो दुःखी, दोय जणां में सुखी, लोळपी थको यूं करणो नहीं छै। ए सर्व पचासा रा लिखत मैं कह्यो छै।
तथा पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो-"मांहोमाहि जिलो बांधे तिण में महाभारीकर्मो कह्यो, विस्वासघाती कह्यो, इसड़ी घात पावड़ी किया अनंत संसार नी साई कही।"
तथा बावनां रा वर्स लिखत में कह्यो-दोष देख्यां ततकाळ धणी ने केहणो के गुरां ने कहणो पिण ओरां ने न कहिणो ए मर्यादा लोपवा रा सर्व साध-साधव्यां रे अनन्ता सिद्धां री साख सूं पचखांण छै। तथा वनीत अवनीत री चोपी ढाळ ७ मी में एहवी गाथा कही.१ जो दोष लागो देखे साधने, तो कह देणो तिण ने एकंतो रे। जो उ माने नहीं तो कहणो गुरु कने, ते श्रावक छै बुधवंतो रे॥
सुवनीत श्रावक एहवो ।। २ प्राछित दिराय ने सुध करे, पिण न कहे ओरां पास।
ते तो श्रावक गिरवा गंभीर छै, वीर वखाण्यां तास॥ ३ उण रे मुंहढे तो दोष कहे नही,उण रा गुर कने पिण न कहे जाय। और लोकां आगे कहितो फिरे, तिण री परतीत किण विध आय॥
अवनीत श्रावक एहवा।। ४ वले साधां ने आय वंदना करे, साधवियां नै न वांदे रुड़ी रीत।
त्यांने श्रावक श्रावका म जाणजो, ते तो मूढमती अवनीत॥ ५ तिण श्री जिन धर्म न ओळख्यो, बले भण २ ने करे अभिमान।
आप छांदे माठी मति उपजे, तिण ने लागा नहीं गुर कान॥ इहा गाथा में विनीत अवनीत श्रावक रा लिखण कह्या बले आगल तिणहीज ढ़ाळ में सुगरा-नगुरा साप रो दिष्टंत देइ कहे छै१. लय-चंद्रगुप्त राजा सुणो।
छठी हाजरी : २१७
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६ कोइ' साप पड्यो थो उजाड़ में चेत नहीं सुध काय। तिण सर्प री अणुकंपा आणने, मिश्री घाली ने दूध पाय ।।
भाव सुणो अवनीत रा॥ ७ ते सर्प सचेत थया पछे, आड़ो फिरियो खावा ने आय।
जो उ लूंठो हुवे तो उण दे दाब दे, काचो हुवे तो डंक दे लगाय॥ ८ सर्प सरीषा अवनीत मानवी, एकल फिरे ज्यूं ढोर रुळीयार।
त्यां ने समकित चारित्र पमाय न, कीधो मोटो अणगार।। ___ एहवो उपगार कियो तिको, ततकाळ भूले अवनीत।
बले उळटा अवगुण बोले गुर तणा, उण रे सर्प वाळी छै रीत॥ आहार पांणी कपड़ादिक कारणे, ते पिण झूठो झगड़ो मांडे।
इण ने उपरलो हुवे तो दाबै दंड दे, आघो काढ़े ते उळटो भांडे।। ११ सर्प ने दूध मिश्री पाया पछै, डंक देवे ते सर्प गेरी।
ज्यूं ओ समकत चारित ळिया पछै, हुवो साधां रो वेरी।। १२ बले खाणां पीणां रो हुवो लोळपी, आप रा दोष मूळ न सूजे।
उ छेड़विया सूं सांहमों, मंडे, बले क्रोध करे तन धूजे॥ १३ तिण ने दूर करे तो दूसमण थको, बोले घणो विपरीत।
असाध परूपे सगळा साध ने, साच बोलण री नहीं रीत ।। १४ बले प्राछित देने मांहे लिये, तो मांहे आवे ततकाळ।
इसड़ा अजोग अवनीत रो, साच मांने अज्ञानी बाल ।। १५ ज्यांने भागल असाध परूपियां, त्यां में प्राछित ले मांहे आवे।
कदे कर्म जोगे हुवे एकलो, तिण ने बुधवंत मुहढ़े ने लगावे॥ १६ सुगुरा साप ने दूध पाया थकां, तो उ करे पाछो उपगार।
तिण ने धन देइने धनवंत करे, बले दीठा हुवे हरष अपार ।। १७ ज्यूं केइ आपछांदे था एकला, पिण सरल परणामी ने सुध रीत।
तिण ने समजाय ने संजम दियो, ते आज्ञा पाळे रूड़ी नीत॥ १८ कीधो उपगार कदे नहीं वीसरे, सर्व देही त्यारे काज सूंपै।
त्यांरो दरसण देख हरषत हुवे, सर्व काम में धोरी ज्यूं जूपै॥ १९ तिण ने समकत ने संजम बेहु, रूचिया अभिंतर पूरा।
ते चलावे ज्यूं चाले छांदो रूंधने, पाछो उपगार करण ने सूरा॥ २० बले गांवा नगरां फिरतां थकां, सदा काळ करे गुण ग्राम।
ते सुवनीत गुणग्राही आतमा, त्यांने वीर वखाण्यां ताम॥ १. लय-चन्द्रगुप्त राजा सुणो। २१८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२१ ए भाव कह्या विनीत अविनीत रा, सांभळ ने नर नार।
सतगुर रो विनो करो, तों पामौ भव पार॥ अथ अठे विनीत अविनीत रा लक्षण ओळखाया। विनीत ने गुणग्राही रा गुण वर्णव्या। अविनीत कृतघ्न रा अवगुण बताया। ए भाव सुण ने उतम जीव गुण ग्रहे। बले श्री भीखणजी स्वामी री-मर्याद सुध पाळे।
तथा चोतीसा रा लिखत में आर्यां रे मर्यादा बांधी ते कहै छै "टोळा रा साध आर्थ्यां री निंद्या करे तिण ने घणी अजोग जाणणी। तिण रे एक मास पांचूं विगे रा त्याग। जित री वार करे जितरा मास पांचूं विगै रा त्याग छ।
तथा बावनां रा लिखत में आर्यां रे मर्यादा बांधी-किण ही आल् दोष जाणने सेव्यो हवे ते पाना में लिख्या विना विगै तरकारी खाणी नहीं कदाच कारण पड्या न लिखे तो ओर आ· ने कहणो। सायद करने पछे पिण बेगो लिखणो। पिण बिना लिख्यां रहिणो नहीं। ए आयने गुरां ने मूहढ़ा सूं कहणो नहीं। मांहोमां अजोग भाषा बोलणी नहीं। एहवो बावना रा लिखत में कह्यो।
तथा संवत् १८४५ रे लिखत में कह्यो-टोळा मांहे कदाच कर्म जोगे टोळा बारे पड़े तो टोळा रा साधु-साधवियां रा अंस मात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंस मात्र संका पड़े आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै ।टोळा मा सूं फाड़ने साथे ळे जावा रा त्याग छै। उ आवे तो ही ले जावा रा त्याग है। टोळा मांहे नै बारे नीकल्यां पिण आगण बोलण रा त्याग छै। माहोमां मन फटे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन बात करणी। भागहीण हुवे सो उतरती बात करे, भाग हीण ते सुणे तथा सुणी आचार्य नै न कहे ते पिण भागहीण तिण ने तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी।
१ आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो।
गिहत्था वि णं पूंयति, जेण जाणंति तारिसं।। २ आयरिए नाराहेई, समणे यावि तारिसो।
गिहत्था वि णं गरहंति,जेण जांणति तारिसं।
इति 'दशवैकाळिक में ते मर्यादा आज्ञा सुध आराध्यां इहभव परभव में सुख कल्याण हुवे।
एह हाजरी रची। संवत् १९१० का जेठ विद बगतगढ़ मध्ये।
१. दसवेआलियं,५/२/४५,४०
छठी हाजरी : २१९
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सातवीं हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखण्ड आराधणा। ईर्ष्या, भाषा, एषणा में सावचेत रहिणो। आहार पाणी लेणो ते पकी पूछा करी ने लेणो। सूजतो आहार पिण आगळा रो अभिप्राय देखने लेणो। पूंजतां परिठवतां सावधान पणे रहणो। मन वच काया गुप्ति में सावचेत रहिणो, पंच महाव्रत सुद्ध पाळणा। तीर्थंकर नी आज्ञा अखण्ड आराधणी। भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धांत देखने आचार श्रद्धा प्रगट कीधा-विरत धर्म ने अविरत अधर्म, आज्ञा मांहे धर्म आज्ञा बारे अधर्म, असंजती रो जीवणो बंछे ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग नो मार्ग छै। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
संवत् १८४५ सा रे वर्ष भीखणजी स्वामी मर्यादा बांधी- “किण ही रो सभाव अजोग हुवे, तिण ने कोई टोळा मांहे बेठणवाळो नहीं, जद पेला ने घणी प्रतीत उपजावे घणी नरमाइ करने हाथ जोड़ने कहिणो-थे मोने निभावो, यूं कहिने साथ जाणो, आगलो चलावे ज्यूं चालणो, जको काम भळावे ते करणो, उण ने घणो रीझाय ने रहिणो, जो अतरी आसंग विनो नरमाई करण री न हवे तो संलेषणां मंडणो, वेगो कारज सुधारणो। जो दोयां बोल माहिलो एक बोल पिण आरे न हुवे तो उण सूं कळेश कर २ ने कुण जमारो काढ़सी।
उण ने साधु किम जाणीये जो एकलो वेण री सरधा हुवे इसड़ी सरधा धारने टोळा मांहे बेठो रहे माहरी इच्छा आवसी जद तो मांहे रहितूं मारी इच्छा आवसी जद एकलो हुसूं इसड़ी सरधा सूं टोळा मांहे रहे ते तो निश्चै असाध छै, साधपणो सरधे तो पहला गणठाणां रो धणी छै। दगाबाजी ठागा सं माहे रहे छै तिण ने माहे राखे जाणने तिण में पिण महादोष छै। कदा टोळा मांहे दोष जाणे तो टोळा मांहे रहणों नहीं, एकलो होयने संलेषणा करणी, वेगो आत्मा रो सुधारो हुवे ज्यूं करणो। आ सरधा हुवे तो टोळा मांहे राखणो। गाळागोळो करने रहे तो राखणों नहीं, उत्तर देणो, बारे काढ़ देणो, पछेइ आल दे निकले ते किसा. काम रो। टोळा मांहे पिण साधां रा मन भांगने आपरे जिले करे ते तो महाभारीकर्मों जाणवो। विसवासघाती जाणवो। इसड़ी घात-पावड़ी करे ते तो अनन्त संसार नी साई छै, इण मर्यादा प्रमाणे चालणी ना वै तिण ने संलेखणां मंडणो सिरे छै, धने अणगार तो नव मास माहे आतमा रो किळ्यांण कीधो ज्यूं इण ने पिण आत्मा रो सुधारो करणो, पिण अप्रतीतकारियो काम न करणो। रोगिया विचै तो सभाव रा अजोग ने मांहे राख्यो भंडो छै–“ए सर्व पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो।
२२०
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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तथा रास में पिण जिला ने घणो निषेध्यो छै तथा पचासा रा लिखत में पिण जिला ने निषेध्यो तथा 'गुरु सूकावे तो उभो सूके' इण ढाळ में जिला ने निषेध्यो तथा अविनीत री ढाळ में पिण जिला ने घणो निषेध्यो
१
'छाने - छाने टोळा में जिलो बांधे, गुर आगन्या विण आपरे छांदे । तिण संजम सहित खोई परतीत, इसड़ा भारी कर्मा अवनीत ॥ गुरु सूं चेला रो मन फाड़े, बले टोळा में मूर्ख भेद पाड़े । कूड़े कपट कर बोले विपरीत, इसड़ा भारीकर्मा अवनीत ॥
२
१
तथा दशमा प्राछित री ढाळ में पिण जिला ने निषेध्यो ते गाथारहे एक आचार्य रा शिष भेळा, कुल मांहे वसे सहु मन मेला । त्यांमें भेद पारण उदमी थावे, तिण ने दसमों प्राछित आवे ॥ २ और साधां रा छिद्र जोवे तांम, तिण ने हेलवा निदंवा रे काम | दोष भेळा कर-कर पछे उड़ावे, तिण ने दसमों प्राछित आवे || कुल गण में भेद पाड़े केइ, हंस्या ने छिद्र तणो पेही । सावज प्रश्न बारुं वार बतावे, तिण ने दसमो प्राछित आवे ।। ठाणा अंग तीजे ने पांचमें ठाणे, त्यांरा भेद अनेक पंडित जांणे । झरा भेद न्यारा थावे, उत्कष्टो प्राछित दसों आवे ||
३
४
sti पिपा जिला ने निषेध्यो । तथा पचासा रा लिखत में कह्यो किण ही साध आय्य में दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहिणो । अथवा गुरां ने कहणो । पिण ओरां ने न कहिणो । घणा दिन आड़ा घालने दोष बतावे तो प्राछित रो धणी उहीज छै ।
तथा बावना र वरस आर्य्यां रे मरजादा बांधी तिण में कह्यो - " दोष देख्यां ततकाळ धणीने केहणो, के गुरां ने कहणो, पिण ओरां ने न कहिणो । किण ही आर्य्या ने दोष जाण ने सेव्यो हुवे ते पाना में लिखिया बिना विगै तरकारी खाणी नहीं कदाच कारण पड्यां न लिखे तो ओर आय ने कहिणो । सायद करने पछै पिण बेगो लिखो । पिण बिना लिख्यां रहिणो नहीं। आय ने गुरां ने मूंढ़ां सूं कहिणो नहीं मांहोमां अजोग भाषा बोलणी नहीं। कोई साधसाधवियां रा अवगुण काढ़े तो सांभळण रा त्याग छै । इतरो कहणो-स्वामी जी ने कहिज्यो” ए सर्व बावनां रे वर्स कह्यो ।
तथा गुणसठा रे वर्स मर्याद बांधी - "कदा कर्म धको दीधां टोळा सूं टळे उण रे टोळा रा साध-साधव्यां रा अंस मात्र हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा अनंत सिद्धां री ने पांच पदां री आण छै। पांचू इ पदां री साख सूं पचखांण छै । किण ही साध-साधव्यां री संका पड़े ज्यूं बोलण रा पचखांण छै ।" एहवो गुणसठा रे वर्स को छै । तथा संवत् अठारे बत्तीसा रे वर्स स्वामी भीखणजी विनीत अविनीत री चोपी जोड़ी, तिण में अवनीत रा लक्षण ओळखाया।
१. लय - एहवा भेषधारी पंच 1
सातवीं हाजरी : २२१
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लक्षण मेट्या विनीत कहिये । ते विनीत रा गुण वर्णव्या ते चोपी मांहिली प्रथम ढाळ नी केयक
गाथा
१
३
४
५
६
७
८
९
१०
१.१
१२
१३
जे पाले निरंतर गुर री आगन्या रे, समीपे रहे तो रूड़ी रीत रे । ते जांण वरते गुर री अंग चेष्टा रे, तिण ने श्री वीर कह्यो सुवनीत रे ॥ विनो कीजे एहवा सतगुर तणो ॥ निरवाण साधन काज । संजम ने तप सूं भांज || ते अवनीत भारी कर्मा एहवा ॥
के गुर री नहीं पाले मूर्ख आगन्या, समीपे रहता संके मन मांय । रखे करावे कार्य मो कनै, एहवो बूड़ण रो करे उपाय ॥ ते प्रतीक अंतर में गुर नो पापियो, उण तत्व न जाण्यो रूड़ी रीत । उणरे कूड़ कपट ने धेठापणो घणो, तिण ने श्री वीर कह्यो अवनीत ॥
विनो तो जिण सासण रो मूळ छै, विनो जेविनो ते करण सूं उपराठा पड़या, रह्या
जो कार्य करे अवनीत गुर तणो रे, ते जाणे अग्यानी बेठ समान । तिण धर्म जिणेसर नो नहीं ओलख्यो, चिंहु गति में होसी घणो हेरान ॥ जो तप कर काया कष्टे आपणी, ते जश कीरत के खावा ध्यान । के पूजा श्लाघा रो भूखो थको, पिण विनो करणो नहीं आसान ॥ जो धरावे ग्रहस्थ ने बोल थोकड़ा, ते पिण मान बड़ाइ काज | उ आपो परसंसे अवर ने निंदतो, ते अवनीत निरलज नांणें लाज ॥ अवनीत ने आपो दमवो दोहिलो, तिण रा अथिर परिणाम रहे सदीव | उ किणविध पाळे गुर री आगन्या, जे क्रोधी अहंकारी दुष्टी जीव || उण रे चेला करण री मन में अति घणी, गुर रा गुण मुख सुं कह्या न जाय । रखे मोने छोड़े ले दिख्या गुरु कनै, एहवी ओघटघाट घणी घट मांहि ॥ के गुर री आज्ञा लोपी चेलो करे, तिण छोड़ी छै जिण सासण री रीत । ते फिट-फिट होसी समझू लोक में, परभव में पिण होसी घणो फजीत ॥ वैराग घट्यो ने आपो वस नहीं, तिण रे रहे चेला करण रो ध्यान । उण ने सिख मिलायां सूं तो उ शिथल पड़े, बले वधे लोळपणो ने अभिमान ॥ वनीत सिख रे सिख री मन ऊपनी, पिण गुर री आज्ञा विण न करे चाव । तिण आत्म दमी ने इंद्र्यां वस करी, सीख मिलियां सरल सभाव ॥ जो वनीत आगे घर छोड़े तेहने रे, तो वनीत बोले सूतर रे न्याय । हूं आज्ञा विण चेलो किम करूं रे, हूं दिख्या देसूं पूछी गुर ने जाय ॥
१. लय - श्री जिनवर गणधर मुनिवर ।
२२२
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१४ उ गुर रा गुण सुणनै बिलखो हुवे, ओगुण सुणे तो हरष थाय।
एहवा अभिमानी अवनीत तेहने, ओलखाउं भवजीवां ने इणन्याय॥ १५ कोई प्रतनीक अवगुण बोले गुर तणा, अवनीत गुरद्रोही पासे आय।
तो उत्तर पड़उत्तर न दे तेहने, अभिंतर में मन रलीयायत थाय।। प्रतनीक अवगुण बोले तेहनी, जो आवे उण रे पूरी परतीत । तो अवनीत एकठ करे उण सूं घणी, उ गुर रा अवगुण बोले विपरीत।। बले करे अभिमानी गुर सूं बरोबरी, तिणरे प्रबल अविनो नै अभिमान। उ जद तद टोळा में आछो नहीं, ज्यूं बिगड्यो बिगाड़े सड़ियो पान। उ खिण मांहे रंग विरंग करतो थको, बले गुर सूं पिण जाए खिण में रूस। जब गूंथे अज्ञानी कूड़ा गूंथणा, ओर अवनीत सूं मिलण री मन हूंस॥ जो अवनीत ने अवनीत भेळा हुवे, तो मिल-मिल करे अज्ञानी गूझ । क्रोध रे वस गुर री करे असातना, पिण आपो नहीं खोजे मूढ़ अबूझ॥ जो अवनीत अवनीत सूं एकठ करे, ते पिण थोड़ा में बिखर जाय। त्यारे क्रोध अहंकार ने लोळपणो घणो, ते तो साधां में केम खटाय॥ उण ने छोटां ने छांदे चलावण तणी, ते पिण अकल नहीं घट मांय।
बड़ा ने छांदे चाल सके नहीं, तिण रा दुःख मांहि दिन जाय॥ २२ पुस्तक वस्त्र पाना ने पातरा, इत्यादिक साधू रा उपध अनेक ।
गुर ओर साधां ने देता देखने, तो गुर सूं पिण राखे मूर्ख धेष २३ जब करै माहोमां खेदो ईसको, बले बांछे उत्तम साधां री घात।
तिण जन्म बिगाइयो करे कदागरो रे, करै माहोमा मन भांगण री बात॥ २४ एहवा अभिमानी ने अवनीत ने अवनीत री, करे भोळा भारीकर्मा परतीत।
उण रा लखण परिणाम कह्य छै पाड़वा, कोइ चतुर अटकल सी तिणरी रीत॥ एहवा अवनीत रा लषण कह्या छै तथा पेंतालीसा रा लिखत में एहवो कह्यो-"टोळा मांहे कदाच कर्म जोगे बारे पड़े तो टोळा रा साध-साधवियां रा अंस मात्र ओगुण बोलण रा त्याग छै। यारी अंस मात्र शंका पड़े आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै,टोळा मां सूं फार ने साथे ले जावा रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावा रा त्याग छै। टोळा मांहे नै बारे निकळयां पिण अवगुण बोलण रा त्याग छै। माहोमां मन फटे ज्यूं बोलण ना त्याग छै। इम पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन सूप बात करणी। भागहीण हुवे सो उतरती बात करे, तथा भागहीण सुणे, सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भागहीण। तिण ने तीर्थंकर नो चोर कहणो. हरामखोर कहणो तीन धिकार देणी।
सातवीं हाजरी : २२३
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आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो।
गिहत्था विणं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं॥ इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुद्ध आराध्या इहभव में परभव में सुख किल्यांण हुवे। ___ ए हाजरी नी स्थापना रची संवत् १९ से १० रा वर्शे जेठ विद १० वार मंगल बषतगढ़ मध्ये।
१. दसवेआलियं ५/२/४५/४०
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तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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आठवीं हाजरी
संवत् १८४५ रे वरस भीखणजी स्वामी मरजादा बांधी-जे कोइ सरधा रो आचार रो सूतर रो अथवा कल्प रा बोल री समझ न पड़े तो गुर तथा भणणहार साधू कहे ते मान लेणो। नहीं तो केवळी न भळावणो पिण और साधु रे संका घालने मन भांगणो नहीं। एहवू कयूं।
तथा पचासा रा लिखत में कह्यो-"कोई सरधा आचार नो नवो बोल नीकळे तो बड़ा सूं चरचणो, पिण ओरां सूं न चरचणो। ओरां सूं चरच ने ओरां रे संका घालणी नहीं। बड़ा जाब देवे आपरे हिये बेसे तो मान लेणो, नहीं बेसे तो केवळी ने भळावणो पिण टोळा मांहे भेद पाड़णो नहीं, एहवो कह्यो।
तथा गुणसठा रा लिखत में पिण कह्यो-किण ही ने दोष भ्यास जाय तो बुधवन्त साधु री प्रतीत कर लेणी पिण खांच करणी नहीं, इम अनेक ठामें सरधा आचार रो बोल चरचणों बरज्यो। गुरु तथा बुधवंत साध कहे ते मान लेणो कह्यो। गुरां री प्रतीत राखणी कही। तथा माहोमांहि जिलो पिण अनेक लिखत जोड़ में बरज्यो छै। रास में पिण 'गुरु सुकावे तो उभो सूके' इहा पिण जिला ने निषेध्यो छै तथा पेंताळीसा रा लिखत में पिण एहवू कह्यो-साधां रा मन भांगने आपरे जिले करे ते तो महाभारीकर्मो जाणवो। विश्वासघाती जाणवो। एहवी घात पावड़ी करे ते तो अनंत संसार नी साइ छै, इण मरजादा प्रमाणे चालणी नावे तिण ने संलेखणा मंडणो सिरे छ।
तथा चंद्रभाणजी तिलोकचंन्दजी नो जिलो जाणने टोला बारे किया, एहवो सेंतीसा रा लिखत में कह्यो-तिलोकचन्दजी चन्द्रमाण ने विस्वासघाती जांण्या सुखांजी आश्री दगाबाजी करता जाण्या। गुरद्रोही जाण्या। टोळा मांहे भेद रा पाड़णहार जाण्या, धर्म आचार्य ने साधु-साधवियां रा अवगुण रा बोलणहार जाण्या। धर्म आचार्य री खिष्टी रा करणहार जाण्या। धर्म आचार्य ने साधु-साधवियां ऊपर मिथ्यात पड़िवज्यो जाण्या। धर्म आचार्य आदि देइ ने साधु-साधवियां रा छिद्रपेही छिद्रनां गवेषणहार जाण्या। उपसम्या कळह रा उदीरणहार जाण्यां। आलोइ पडिकमी ने सुद्ध हुवा त्यां बातां रा उदीरणहार जाण्या। साधु-साधवियां ने माहोमां कळह रा लगावणहार जाण्या। गुरु सूं सनसुख ने बेमुख करता जाण्या। टोळा मांहे छाने २ साधु-साधवियां ने आपणा करणा मांड्या जाण्या। गुरु सूं फटाय ने आपणा करणा मांड्या जाण्या। धर्म आचार्य आदि देइ ने साधु साधवियां माथे अनेक विध आळ ना देणहार जाण्या। टोळा मांहिने दगाबाजी करता जाण्या। माहोमां मिलने एको कीधो ने एको करता जाण्या। आप सूं मिलियो चाले तिण री पषपात करता जाण्या। ओरा ने निषेदता मांडता जाण्या। आहमी साहमी सापांदूती कर २ मांहोमां मन भागणां मांड्या जाण्या। बले अहंकारी अवनीत
आठवीं हाजरी : २२५
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घणा जाण्या। अपछंदा पिण घणा जाण्या। यां रा अनेक छळ छिद्र रो लखाव पड़यो जांण्यो, जद टोळा बारे काढ्या।" ए सर्व सेंतीसा रा लिखत में कह्यो।
इम जिलो जाणने अवनीत जाणने बारे किया। इम जिला ने घणो निषेध्यो छै। ते माटे जिलो बांधण रा सर्व सर्व साध-साधवियां रे त्याग छै।
तथा पचासा रा वर्ष साधा रे मरजादा बांधी-“किण ही साध-साधवियां में दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहिणो अथवा गुरां ने कहिणो ओरां ने न कहिणो। घणा दिन आडा घालने दोष बतावे तो प्राछित रो धणी उहीज छै। प्राछित रा धणी ने याद आवे तो प्राछित उण ने पिण लेणो नहीं लेवे तो उण ने मुसकळ छै।' एहवो पचासा रा लिखत में कह्यो।
तथा बावना रे वरस आर्या रे मर्यादा बांधी छै-किण ही साध आर्थ्यां मांहे दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहिणो तथा गुरां ने कहिणो पिण ओरां नै कहिणो नहीं तथा विनीत अवनीत री चोपी में पिण एहवी गाथा कही छै१ दोष देखे किण ही साध में, तो कहि देणो तिण ने एकंतो रे। जो उ माने नहीं तो कहिणो गुरु कने, ते श्रावक छै बुधिवंतो रे॥
सुवनीत श्रावक एहवा ।। २ प्राछित दिराय ने सुद्ध करे, पिण न कहे ओरां पास।
ते श्रावक गिरवा गंभीर छ, वीर बखाण्यां तास ।। ३ दोष रा धणी ने तो कहै नहीं, उणरा गुर ने पिण न कहै जाय।
और लोकां आगे कहितो फिरे, तिण री परतीत किण विध आय॥ इत्यादिक अनेक ठामे दोष रा धणी ने तथा गुरां ने कहिणो कह्यो। पिण ओरां ने न कहणो एहवो कह्यो। तथा घणा दिनां पछे न कहणो रास में बरज्यो छै। तथा साध सीखावणी ढाळ रा दूहा में घणा दिनां पछे दोष कहे तिण ने अपछंदो कह्यो, निरलज कह्यो, नागड़ो कह्यो, मर्यादा रो लोपणहार कह्यो, कषाय दुष्ट आत्मा रो धणी कह्यो छै।
तथा बावना रे वरस आर्सा रे मरजादा बांधी, तिण में एहवो कयो-"किण ही आर्यां दोष जाणने सेव्यो हुवे तो पाना में लिखियां विना विगै तरकारी खाणी नहीं। कदाच कारण पड्या न लिखे तो और आर्या ने कहिणो, सायद करने पछे पिण वेगो लिखणो। पिण विना लिख्यां रहणो नहीं। किण ही आ· आज पछे अजोगाइ कीधी तो प्रायछित तो देणो पिण उण ने च्यार तीर्थ में हेलणी निंदणी पड़सी। पछे कहोला म्हाने भांडे छै, मांहरो फितूरो करे छ। तिण सूं पहिलाइज सावधानरहिजो। अने सावधान न रही तो लोकां में भुंडी दीसोला। पछे कहोला म्हांने कह्यो नहीं, कोइ साध-साधव्यां रा अवगुण काढ़े तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहिणो-'स्वामीजी ने कहिजो' एहवो बावनां रा लिखत में कह्यो।
१. लय-चन्द्रगुप्त राजा सुणो। २२६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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तथा संवत् १८५९ रे वरस साध-साधवियां रे घृत, दूध दही आदि खावा री मर्यादा बांधी, तिण लिखत में एहवो कह्यो-आगन्या विण सेषे काळ चोमासो रहे तिण रे जितरा दिन पांचोइ विगै ने सूंषरी रा त्याग छै, ए सूंस जावजीव तांई छै। .
तथा संवत् १८५९ रा लिखत में कह्यो-“कदा कर्म धकौ दीधा टोळा सूं टळे तो उण रे टोळा रा साध-साधवियां रा अंस मात्र हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा अनंत सिद्धां री ने पांचोंइ पदां री आंण छै। पांचोंइ पदां री साख सूपचखांण छै। किण ही साध-साधव्यां री संका परै ज्यूं बोलण रा पचखांण छै। कदा उ विटळ होय सूंस भांगे तो ही हलुकर्मी न्यायवादी तो न माने। उण सरीषो विटळ कोई माने तो लेखा में नहीं।
__ तथा इमहिज संवत् १८५० रा वर्स में कह्यो-टोळा सूं टळने किण ही साध-साधव्यां रा अवगुण बोलण रा, हुतो अणहूंतो ख्रचणो काढ़ण रा त्याग छै। रहिसे२ लोकां रे संका घालने आसता उतारण रा त्याग छै'। एहवो पचासा रा लिखत में कह्यो।
तथा संवत् १८४५ रा लिखत में कह्यो-“उण ने साधु किम जाणिये जो एकलो वेण री सरधा हवे, इसड़ी सरधा धारने टोळा मांहे बेठो रहे छै माहरी इच्छा आवसी तो माहे रहिसं. म्हारी इच्छा आवसी जद एकलो हुसूं, इसड़ी सरधा सूं टोळा माहे रहे ते तो निश्चें असाध छै। साधपणो सरधे तो पहला गुणठाणां रो धणी छै। दगाबाजी ठागा सूं मांहे रहे तिण ने मांहे राखे जाणने त्यांने पिण महादोष छै। कदाच टोळा मांहे दोष जाणे तो टोळा माहे रहिणो नहीं । एकलो होय न सलेषणा करणी। वेगो आत्मा रो सुधारो हुवे ज्यूं करणो। आ सरधा हुवे तो टोळा मांहे राखणो। गाळागोळी करने रहे तो राखणो नहीं। उत्तर देणो, बारे काढ़ देणो, पछे इ आळ दे नीकळे तो किसा काम रो"-एहवो पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो।
तथा संवत् १८५९ रा वरस लिखत में कह्यों-"टोळा मांहे सूं टळें तो टोळा मांहे उपगरण करे ते, पाना लिखे जाचे ते साथे ले जावा रा त्याग छै। अनन्ता सिद्धां री साख करने छ। टोळा सू न्यारो हुवे इण सरधा रा बाई भाई हुवे त्यां रहिणो नहीं। एक बाई भाई हुवे तिहां रहिणो नहीं। वाट वहितो एक रात कारण पडिया रहे तो पांच विगै ने संखडी खावा रा त्याग छै। अनन्ता सिद्धां री साख करने छै” ए गुणसठा रा लिखत में कह्यो। तथा अवनीत रा लषण वनीत अवनीत री ढाळ में ओळषाया ते गाथा
'उ गुर रा पिण गुण सुणने विलषो हुवे रे, अवगुण सुणे तो हरषत थाय रे। ___ एहवा अभिमानी अवनीत तेहने रे, ओळषावू भव जीवा ने इण न्याय रे॥
अवनीत भारीकर्मा एहवा रे।। कोई प्रतनीक अवगुण बोले गुर तणा, अवनीत गुरद्रोही पासे आय।
तो उत्तर पडउत्तर न दे तेहने, अभिंतर में मन रलियायत थाय॥ ३ उ खिण माहे रंग विरंग करतो थको,बली गुर सूं पिण जाए खिण में रूस।
जब गूंथे अज्ञानी कूड़ा गूंथणां, ओर अवनीत सूं मिलवा री मन हूंस॥
१. लय-श्री जिनवर गणधर मुनिवर ने कहे।
आठवीं हाजरी : २२७
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इत्यादिक अवनीत रा लखण ओळखाया तथा अवनीत ने वधारणो नहीं कृतघनी कीधा उपगार नो अजांण, तिण ने हरामखोर लूणहरामी सांमद्रोही री उपमा दीधी ते वनीत ने सामधर्मी नी उपमा दीधी छै, ढाळ में दृष्टांत सहीत कही ते गाथा
ऊंदर ऊपर मनकी त्रापी जांण, जब जोगी उंदर री अणकंपा आण। तिण जोगी मंत्र पढ़ ततकाल, उंदरा ने कीयो गोधड़ विकराल ।। जब मिनकी नाठी गोधड़ ने देख गोघड़ देखने त्राप्यो स्वान विशेष। जोगी गोघड़ नी कुरणा लीध, कुत्तो सिकारी ततक्षिण कीध ।। अहो कर्म गति इधकी देष, जोगी मोह्यो राग विशेष। स्वान देखी चीतो त्राप्यो आय, जब स्वान ने जोगी सिंघ कीधो ताय॥ जब चीतो नाठो सिंघ री देख हाक, सीकंप हुवो पड़ी मन में धाक। हिवे तिण सिंघ ने भूख लागी छै ताम, तिण जोगी ने खावा उठ्यो तिण ठाम। जब जोगी देख मन इचरज थात, देखो नीच उदर री जात। इण री मिनकी करती अकाले घात, ते म्हे बचाय लियो साख्यात।। माहरो उपगार कियो न गिण्यो तिल मात,म्हारी उळटी मांडी करवा घात॥ म्हे नीच उंदर ने उंचो लियो. सिंघनी पदवी देने मोटो कियो। नीच ने वधारया आछो हुवे नाहि, ते भाख्यो छै नीत सास्त्र मांहि। तो इण ने पाछो ऊंदर करूं मंत्र राल, सिंघ ने उंदर कियो ततकाळ।। ते उंदर जाबक हुवो अनाथ, तिणरी मिनकी बले करवा मांडी घात। जोगी देख अणकंपा कीधी नांहि, किरतघन मूवो ते बिल रे मांहि॥ ज्यूं नीच ने ऊंच पदवी जीरवे नाहि, जोय देखो लोकिक लोकोत्तर माहि। किण ही राय वधाऱ्या अमराव दोय, बले किया पदवी धर मोटा सोय।। यां में एक तो सामधर्मी सुवनीत, बले राजनीत जाणे सर्व रीत।
तिण सूं राय रूठो किणवार, पटो उतार काढ्यो देश बार।। ११ जब राय उपर इण न करयो रोस, जांण लियो निज कर्म रो दोष।
अळगो रहे तो ही मांने कियो उपगार, राजा तणो सदा रहे हितकार।। ___ कदा राजा ने भीड़ पड़ी सुण कान, भीड़ी आयो लेई साथ समान।
बले मुख सूं कहै माहरां सिरधणी आप, सारो दीसे ते आप तणो परताप। १३ इम सुण ने तिण सूं रीज्यो राय, आगे विचे इ घणो वधरायो ताय।
बले घणो वधारयो तिण रो मान, आगेवाण कियो सगली ठाण।।
१. लय-म्हे तो भार लियो ४. बिल्ली। २. वन- विलाव।
५. जागीरदार विशेष। ३. दया, करुणा।
६. मालिक। २२८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१४ बीजो हरामखोर लूणहराम, सामद्रोही रा दुष्ट परिणाम।
तिण तूं पिण राय रूठो किणवार, तिण रो पटो उतार काढ्यो देश बार। १५ जब उ दोरा करे बले करे उजाड़, राय तणा देश में करे बिगाड़।
फिर २ मारे बले नगर ने गांम, बले राय सूं सनमुख करे संग्राम। १६ राजा सूं जुझ करे तांण ताण, देखो नीच वधारया रा झै फळ जाण।
ज्यां वधारयो त्यांसू इ मांड्यो गर्व, उपगार कीधो ते भूळ गयो सर्व॥ १७ जब राजा अनेक करने उपाय, हरामखोर न कपड़ लियो ताय ।
इण रा हाथ पाव कान नाक ने काट, गाम दोळो फेस्यो गधे चाढ़। बले विविध प्रकारे दीधी मार, फिट-फिट हुवो लोक मझार। ए तो लोकिक कयो दिष्टंत, हिवे लोकोत्तर सुणो मन षंत ।। एक आचार्य मोटा अणगार, दोय जणा सूं कियो उपगार।
त्यां ने समकम पमाय ने किया साध,बले ज्ञान भणाय ने करी छै समाध॥ __यां मे एक तो गुर भगता सुवनीत, तिण में असल साधू री रीत।
घणो भणे तो ही न करे मान, अवनीत री बात सुणे नहीं कान।। तिण ने गुर करड़े वचने देवे सीख, तो पिण अविना साहमी न भरे वीख।
वले गुर निषेदे वारंवार, तो पिण न करे क्रोध लिगार। ___ गुर ने देखी करड़ी निजर करुर, तो पिण न बिगाड़े मुख नो नूर।
गुर राखे तो रहे गुर नी हजूर, गुर न राषे तो सुषे रहे दूर ।। सदा गुर सूं राखे सुध परिणाम, रात दिवस करे गुर रा गुण ग्राम।
याद आवे गुर नो कियो उपगार, ते तो कदेय न घाले विसार।। ___ एहवा गुणां करे कर्मा नो सोष, अनुक्रमे पांमे अविचल मोष।
एहवा ऊंच जीव ऊंच पदवी लही, त्यां रा सुषां रो कोई पार नहीं॥ दूजा वनीत री ऊंधी रीत, जो घणो भणे तो घणो अवनीत।
गुर सूं पिण यो करे अभिमान, ओर अवनीत ने लगावे कांन॥ . तिण नै गुरुं सीख देवे चूको देष, तो तुरत जागे अवनीत ने धेष।
घणो छेड़वे तो करे बिगाड़, क्रोध करने होय जाजै न्यार॥ २७ बले दूजो अविनीत हुवै टोळा मांय, तिण ने पिण देवे भरमाय ।
गुर सूं मन भागे कूड़ी कर २ बात, तिण अवनीत ने ले जावे साथ।। २८ गुर ना अवगुण बोळे दिन रात, संका पिण नाणे तिल मात।
अवनीत वधास्या अति ही मिथ्यात, झूठी कर २ मुख सूं बात।।
१.गति।
आठवीं हाजरी : २२९
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२९ टोळा ने गुर सूं जागे वेर, अविनीत हुवै छै एहवा गेर।
केयक एहवा हुवे अवनीत, त्यां ने छेड़वियां बोले विपरीत।। ते फिट २ हुवे इहलोक मझार, आगे नरक निगोद में खाए मार।
घणो भमण करे संसार मझार, तेह नो कहितां नावे पार ।। ३१ नीच ने वधारया आछो नांहि, ज्यूं अविनीत जांण लेजो मन मांहि।
इम सांभळ ने उत्तम नरनार, अवनीत ने नीच नो संग निवार ।।
इहा वनीत तथा अवनीत रा लखण ओळखाया ते उत्तम जीव सांभळी ने अवगुण छोड़े। गुण आदरे। नीच अवनीत ने वधारणो नहीं, तिण की संगत न करणी।
तथा पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो-"टोळा मांहि कदाच कर्म जोगे टोळा बारे परे तो टोळा रा साधु-साधवियां रा अंसमात्र अवगुणवाद बोलण रा त्याग छै, यां रा अंस मात्र संका पड़े आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मां सूं फार साथे ले जावा रा त्याग छै। ओगुण बोलण रा त्याग छै। माहोमांहि मन फटे ज्यूं बोलण रा त्याग छै।" इम पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणात्कीर्तन रूप बात करणी। भागहीण हुवे सो उतरती करे, तथा भागहीण सुणे तथा सुणी आचार्य ने न कहे ते पिण भागहीण, तिणने तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्थ वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ।।
आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।
• इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुध आराध्यां इहभव परभव में सुख कल्याण हुवे।
१. दसवैआलियं, ५/२/४५,४०
२३०
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नवमी हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्त पंच महाव्रत अखंड आराधणा। ईर्य्या भाषा एषणा में सावचेत रहणों। आहारपाणी लेणो ते पक्की पूछा करीने लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देखने लेणो। पूजतां परठतां सावधान पणे रहणो । मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी । भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देखने आचार श्रद्धा प्रकट कीधी - विरत धर्म, अविरत ते अधर्म | आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछे ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग छै । तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
संवत् १८४५ रे वरस भीखणजी स्वामी मर्यादा बांधी - सरधा आचार रो तथा कल्प रा सुत रो बोल री समझ न पड़े तो गुरु तथा भणणहार साधू कहे ते मानणों न वेसै तो केवळ्यां ने भळावणों कह्यो । इमहीज पचासा रा गुणसठा रा लिखत में कोसरधा आचार रो बोल बड़ा सूं चरचणों, बड़ा कहे ते मान लेणो पिण ओरां सूं चरच ने संका घालणी नहीं, एहवो कह्यो ।
तथा पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो- साधां रा मन भांग ने आप रे जिले करे ते तो महाभारीकर्मो यो तथा ओर लिखत में रास में पिण जिलो बांधणो निषेध्यो छै तथा बावना रे वर्ष आय ने मर्यादा बांधी तिण में पिण कयो - किण ही साध आर्यां मां दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहणो के गुरां ने कहणो, पिण ओर ने कहणो नहीं । किण ही आर्य्यां दोष जाणने सेव्यो हुवे ते पाना में लिखिया विना विगै तरकारी खांणी नही, कदाच कारण पड़या न लिखे तो ओर आय ने कहणो, सायद करने पछे पिण वेगो लिखणो पिण विनां लिख्यां रहणो नहीं, आय ने गुरां ने मूहढा सूं कहणो नहीं, मांहोमां अजोग भाषा बोलणी नही, कोइ साध - साधवियां रा अवगुण काढ़े तो सांभळवा रा त्याग छै, इतरो कहिणो-स्वामी जी ने कहिजो तथा पचासा रा लिखत में हव कयो-किण ही साध आय में दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहणो अथवा गुरां ने कहणो पिण ओरां ने न कहिणो, घणा दिन आडा घालने दोष बतावे तो प्राछित रो धणी उहि छै तथा विनीत अवनीत री चोपी में पिण एहवी गांथा कही
१ दोष' देखे किण ही साध में, कहि देणो तिण नै एकंतो रे । उमांने नहीं तो कहणो गुरु कनें, ते श्रावक छै बुधिवंतो रे ॥ सुवनीत श्रावक एहवा ।
१. लय - चंद्रगुप्त राजा सुणो ।
नवमीं हाजरी :
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२ प्राछित दिराय ने सुध करे, पिण न कहे ओरां पास।
ते श्रावक गिरवा गंभीर छै, बीर वखांण्या तास ।। ३ दोष रा धणी ने तो कहे नही, उण रा गुर ने पिण नहीं कहे जाय।
ओरा लोकां आगे कहितो फिरे, तिण री परतीत किण विध आय। इत्यादिक घणां दिनां पछे दोष न कहिणो रास में कह्यो छै। तथा 'साध सीखामण' दाळ रा दूहा में घणा दिन हुवां पछे दोष कहे तिण ने अपछंदो कह्यो, निरलज कह्यो, नागड़ो कह्यो, मर्यादा रो लोपणहार कह्यो, कषाइ दुष्ट आत्मा रो धणी कह्यो छै।
तथा चोतीसा रे वर्स आर्सा रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो- ग्रहस्थ आगे टोळा रा साध आर्यां री निंदा करे तिण ने घणी अजोग जाणणी। तिण ने एक मास पांचूं विगै रा त्याग छै। जितरी वार करे जितरा मास पांचूं विगैरा त्याग तथा तूंकारो काढ़े तूं सूंसां री भागळ तूं झूठाबोली, इत्यादिक रो प्राछित कह्यो ते पाळणो तथा साधां ने आय ने कहणो। गुर देवे ते लेणो, एहवो चोतीसा रा लिखत में कह्यो। उसभ उदे टोळा बारे नीकळ्या तिण ने साध सरधणो नहीं, च्यार तीर्थ में गिणणो नहीं, एहवा ने वांदे पूजे तिके पिण आज्ञा बारे छ।
तथा पचासा रा लिखत में कहयो-कर्म धको दीधां टोळा सूं टळे तो टोळा रा साध साधव्यां रा हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। टोळा ने असाध सरध ने नवी दिख्या लेवे तो पिण अठी रा साध साधव्यां री संका घालण रा त्याग छै।
तथा गुणसठा रा लिखत में पिण इमहीज कह्यो-टोळा बारे नीकळी एक रात उपरंत सरधा रा क्षेत्रां में रहिवा रा त्याग छै ! उपगरण टोळा मांहे करे ते परत पाना लिखे जाचे ते साथे ले जावण रा त्याग छै। तथा पचासा रा लिखत में कयो-पेला रा दोष धारने भेळा करे ते ते एकंत मिरषावादी अन्याइ छै। किण ने ही क्षेत्र काचो बताया किण ही ने कपड़ादिक मोटो दीधो इत्यादिक कारणे कषाय उठे जद गुरवादिक री निंद्या करण रा अवर्णवाद, बोलण रा एक आगे बोलण रा माहोमां मिल-मिल जिलो बांधण रा त्याग छै, अनंता सिद्धां री आण छै। गुरवादिक रे आगे भेळो तो आप रे मुतळब रहे पछै आहारादिक घणा थोड़ा रो कपड़ादिक रो नाम लेई ने अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। इम इत्यादिक घणे ठामें कयो छै, ते माटे अवनीतपणो छोड़े, अने मर्यादा सुध पाळे, आखी उमर ताई तन मन सूं सेवा भक्ति करे आछी तरे सूं पूर्व उपगार लेखवी ने संजम सम्यक्त रा दाता जाणी ने विनय में प्रवर्ते। तथा ठाणांअंग ठाणे तीजे तीनां सूं उरण हुवे तेह समास नी ढाळ भीखणजी, स्वामी कीधी तेह माहे सिष्य गुरां सूं उरण हुवे ते माहिली केयक गाथा१ जो गुर भगता सिख सुवनीत, गुर सूं उरण हुवे इण रीत।
ए ठाणां अंग सूत्र रे मांय, तीजे ठाणे कयो जिनराय॥ २ गुर कीधो भारी उपगार, उतारयो संसार थी पार।
कियो मुगत तणो अधिकारी, त्यां ने किण विध घाळे विसारी।। १. लय-विनै रा भाव सुण-सुण गूंजे।
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रात दिवस
गुर
रो ध्यान ध्यावे, रात दिवस गुर रा गुण गावे । गुर कीधो उपगार बतावे, गुर रा गुण किण विध गावे ॥ गुर मोसुं कियो उपगार, ज्ञानादिक गुण रा दातार । हुं तो हूंतो जीव अज्ञानी, मोने सतगुर कीधो ग्यानी || हुं तो अनाद काळ रो मिथ्याती, हिंस्या धर्म तणो पखपाती। ते माहरी सरधा खोटी छोड़ाय, गुर सम्यक्त दे आंण्यो ठाय ॥ हूं खूतो थो संसार मझार, जब हूं सेवतो पाप अठार । मोने दिया दे गुर कियो साध, म्हारी भव भव मेटी असमाध ॥ हूं डूबो इण संसार रे मांहि, गुर बारे काढ्यो बांह समांहि । साध श्रावक धर्म पमायो, त्यां सूं ऊरण किणविध थायो || हूं अनंत संसारी जीव थो भारी, मोने गुर कियो परत संसारी ।
पावे ।
लेषवे सिर धणीनाथ ॥
दुर्लभ बोधी जीवो करलो, गुर मोने सुळभ बोधी कियो सरळो ॥ हूं तो अचरम मिथ्यात सहीत, संसार रा छेहड़ा रहीत। गुर चरम करे सिर चाढ्यो, म्हांरा संसार से छेड़ो काढ्यो || १० मोने गुर कियो मुगति नजीक, इंद्रां नो पिण कियो पुजनीक । म्हारो जीतब जन्म सुधारयो, मोने संसार थी पार उतारयो ॥ ११ सिख सुवनीत हलुकर्मी होवे, ते गुर रा उपगार सांहों जोवे । जिण आगम सीषामण धारी, हिवे कुणकुण करे विचारी ॥ १२ कोइ पटो राजा रो खावे,. कोइ रोजगार नित ते पिण विनो करे जोड़ी हाथ, बले १३ तिण ने करड़ी 'मूम धणी मेले, ते पिण धणी रो वचन न ठेले । मर जावे तिण रा मूढा आगे, धणी मेल पाछो नहीं भागे ॥ १४ तिण धणी रो पिण काचो आधार, थोड़ा में देवे पटो उतार । बले काढ़ दे देस रे बार, कदा जीवां पिण न्हाषे मार || १५ तिण धणी रो पिण वचन न लोपे, मरणे सांहमो मंडे पग रोपे । जा आउंधणी रे काम, तो हूं नहीं होवूं लूणहराम || १६ रिजक रोटी पटा रे काजे, मर जाए पिण पाछो नहीं भाजे । तो हूं मुगत जावा रे काज, पंडित मरण करतो नाणुं लाज ॥ १७ गुर शिष ने मुगत गामी कीधो, मोष रो पटो अवचल दीधो ॥ दल दियो दूर गमाय, ग्यांन दरसण चारित तप प्रमाय ॥
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७
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९
१. स्थिति ।
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१८ जो उ शिष हुवे सुवनीत, गुर री आज्ञा पाले रूड़ी रीत ।
ते गुर रो वचन किण विध लोपे, मरणां सांहमो तुरत पग रोपे।। एहवा वनीत रा गुण कह्या। ते विनीत कीधा उपगार रो जांण तिण ने वखाण्यो। तिण सूं विनीत ते गुर री आज्ञा अखण्ड पाळे । आखी उमर मुरजी प्रमाणे प्रवर्ते। गुर बांधी मर्यादा सर्व चोखीपाळे।
तथा पेंताळीसा रा लिखत में कयो-"टोळा मांहे कदाच कर्म जोगे टोळा बारे पड़े तो टोळा रा साधु-साधवियां रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंसमात्र संका पड़े आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मांहे सूं फारने साथे ले जावा रा त्याग छै। उ आवे तो ही ले जावा रा त्याग छै। टोळा मांहे ने बारे नीकळ्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। माहो मां मन फटें ज्यूं बोलण रा त्याग छै।'' इम पेंताळीसा रा लिखत में कहयो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन सूप बात करणी। भागहीण हुवे सो उतरती बात करे, तथा भागहीण सुणे, तथा सुणी आचार्य ने न कहे ते पिण भाग-हीण। तिण ने तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं।।
आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।।
इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुद्ध आराध्यां इहभव परभव में सुख किल्याण हुवे।
एह हाजरी रची, संवत् १९१० रा जेष्ठ विध ५ वार बुध बखतगढ़ मध्ये देश मालवा में।
१. दसवेआलियं, ५/२१४५,४०
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पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणा। ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहणो। आहार पाणी लेणो ते पक्की पूछा करीने लेणो। सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देखने लेणो। पूजतां परठतां सावधान पणे रहणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी। श्री भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देखने आचार श्रद्धा प्रकट कीधी-विरत धर्म, अविरत ते अधर्म। आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछे ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग नो मार्ग छै।
तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी। संवत् १८५० रे वरस भीखणजी स्वामी साधां रे मर्यादा बांधी-"किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहणो तथा गुरां ने कहिणो, पिण ओरां ने न कहिणो। घणा दिन आडा घालने दोष बतावे तो प्राछित रो धणी उहीज छै।
तथा संवत् १८५२ वरस आर्यां रे मरजादा बांधी, तिण में एहवो कह्यो-किण ही साध आर्यों में दोष हुवे तो दोष रा धणी ने कहिणो, तथा गुरां ने कहिणो और किण ही आगे नहीं। रहिसे रहिसे और भुडी जांणे ज्यूं कहणो नहीं। किण ही आर्यां दोष जाणने सेव्यो हुवे ते पाना में लिखिया बिना विगै तरकारी खाणी नहीं। कदाच कारण पक्ष्यां न लिखे तो ओर आर्यों ने कहिणो। सायद करने पछे पिण वेगो लिखणो। पिण विना लिख्यां रहिणो नहीं, आय ने गुरां नैं मूहढ़ा सूं कहणो नहीं। माहोमां अजोग भाषा बोलणी नहीं। जिण रा परिणाम टोळा मांहे रहिण रा हुवे तो रहिजो। पिण टोळा बारे हुवां पछे टोळा रा साध साधव्यां रा अवगुण बोलण रा अनंता सिद्धां री साख करने त्याग छै। कोई साध साधव्यां रा ओगुण काढ़े तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहणो-- 'स्वामीजी ने कहिजो, ए बावनारा लिखत में कह्यो।
तथा पचासा रे वरस साधां रे लिखत कीधो, तिण में एहवो कह्यो-“किण ही साध साधव्यां रा ओगुण बोलने किण ही ने फारने मन भांगने खोटा सरधावा रा त्याग छै। किण ही सूं साधपणो पळतो दीसे नहीं, अथवा सभाव किण सू इ मिलतो दीसे नहीं, अथवा कषाइ धेटो जाणने कोइ न राखे अथवा खेत्र आछो न बतायां अथवा कपड़ादिक रे कारणे अथवा अजोग जाण ओर साधु गण सूं दूरो करे अथवा आपने गण सूं दूरो करतो जाणने इत्यादिक अनेक कारण उपने टोळा सूं न्यारो पड़े तो किण ही साध-साधवियां रा ओगुण बोलण रा हूंतों अणहूंतो खूचणो काढ़ण रा त्याग छै।
तथा जिलो न बांधणो, संवत् १८४५ रा लिखत में कह्यो-टोळा माहे पिण साधां रा मन भांगने आपरे जिले करें ते तो महाभारीकर्मो जाणवो, विस्वासघाती जाणवो, इसड़ी
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घात पावड़ी करे ते तो अनंत संसार नी साइ छै। रोगिया वचे तो सभाव रा अजोग ने मांहे राखे ते मँडो छै। या बोलां री मर्यादा बांधी ते चोखी पाळणी, लोपवा रा अनंता सिद्धां री साख करने पचखांण छै। ए पचखांण पाळण रा परिणाम हुवे तो आरे हुयज्यो। बिनै मार्ग चालण रा परिणाम हुवे गुरु ने रीझावणा हुवे ठागा सूं टोळा मांहि रहिणो न छै। तथा पचासा रा लिखत में तथा रास में जिला ने घणो निषेध्यो छै, ते माटे जिलो बांधवा रा त्याग छै।
तथा चोतीसा रा लिखत में आर्यां रे मर्यादा बांधी ते कहे छै-टोळा सूं छूटक हुवां री बात माने त्यांने मूरख कहीजे, चोर कहीजे, अनेक अनेक सूंस करण ने त्यारी हुवे तो ही उत्तम जीव न मांने एहवो कह्यो।
तथा ५०सा रे लिखत में मर्यादा बांधी "दोष कोइ ग्रहस्थ कहे जिण ने यूं कहणो-म्हांने क्यांने कहो, के तो धणी ने कहो, के स्वामी जी ने कहो, ज्यूं यां ने प्राछित दिराय ने सुद्ध करे, नहीं कहो तो थे पिण दोषीला गुरां रा सेवणहार छो। जो स्वामी जी ने न कहिसो तो थां में पिण बांक छै। थे मांने कह्या कांइ हुवें, यूं कहिने न्यारो हुवे पिण आप वेदा में क्यांने परे। पेला रा दोष धारने भेळा करे ते तो एकंत मरषावादी अन्याइ छै। किण ही ने खेत्र काचो बतायां. किण ही ने कपडादिक मोटो दीधा. इत्यादिक कारणे कषाय उठे जद गुरवादिक री निंदा करण रा अवरणवाद बोलण रा एक एक आगे बोलण रा मांहो मांहि मिलने जिलो बांधण रा त्याग छै। अनंता सिद्धां री आंण छै। डाहा हुवे ते विचार जोयजो। लुखे खेत्र तो उपगार हुवे तो ही न रहे, आछे खेत्र उपगार देखे नहीं तो इ पर रहे, ते यूं करणो नहीं, चोमासो तो अवसर देखे तो रहिणो. पिण शेषे काल तो रहणोहीज। किण ही री खावा पीवादिकरी संका पडे तो उण ने साध कहे, बड़ा कहे ज्यूं करणो, दोय जणा तो विचरे ने आछा-आछा मोटामोटा साताकारिया खेत्र लोळपी थका जोवता फिरे गुर राखे तठे न रहे। इम करणो नहीं छै, घणा भेळा रहितो दुखी, दोय जणां में सुखी, लोळपी थको यूं करणो नहीं है, ए सर्व पचासा रा लिखत में कह्यो छै। _ तथा चोतीसा रे वर्श आर्यां रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो-ग्रहस्थ आगे टोळा रा साध आर्यां री निंद्या करे तिण ने घणी अजोग जाणणी, तिण ने एक मास पांचू विगै रा त्याग छै। तथा तूंकारो काढ़े तूं सूंसां री भागल तूं झूठाबोली इत्यादिक रो प्राछित कह्यो ते पाळणो । तथा साधां ने आय ने कहणो। गुर देवे ते दंड ळेणो। एहवो चोतीसा रा लिखत में कह्यो, तथा घणा दिन पछे दोष कहे तिण ने 'साध सीखामणी' रा दूहा में अपछंदो कह्यो। निरलज कह्यो, नागड़ो कह्यो। मर्यादा रो लोपणहार कह्यो। तिण री : बात मूळ मानणी नहीं। एहवो कह्यो। तथा घणा दिना पछे दोष कहे तिण टाळोकर ने रास में घणो निषेध्यो ते गाथा
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१ 'अवगुण सुण-सुपा ने समद्दिष्टी, यां ने जाणे धर्म सूं भिष्टी।
यां रा बोल्यां री परतीत नाणे, झूठ में झूठ बोलतो जांणे।। २. सगळा श्रावक सरीषा नांहि, अकल जुदी-जुदी घट मांहि।
समद्दिष्टी री साची हुवे दृष्ट, यां ने करे थोड़ा मांहे खिष्ट । ३ यां ने न्याय सूं देवे जाब, पाड़े घणा लोकां मांहे आब ।
यां री मूल न आणे संक, यां ने देखाड दे यांरो बंक। ४ थे घणा दोष कहो गुरु मांहि, घणां वरसां रा जांणां छो ताहि।
तो थे पिण साधू किम थाय, जाण-जांण भेला रह्या मांय॥ ५ जो यां में दोष घणां छै अनेक, कदा दोष नहीं छै एक।
ते तो केवळ ज्ञानी रह्या देख, पिण थे तो बूडा लेइ भेष।। ६ जो यां मे दोष कह्या थे साचा, तो ही थे तो निश्चे नहीं आछा।
जो झूठा कह्या तो विशेष भंडा, थे तो दोनूं प्रकारे बूडा॥ थे दोषीला ने वाद्यां कहो पाघ, भेळा रह्या पिण कहो संताप।
दोषीला ने देवे आहार पाणी, वले उपधादिक देवे आणी।। ८ हर कोइ वस्तु देवे आण, करे विनो वैयावच जाण ।
दोषीला सूं थे कियो संभोग, तिण रा पिण जाणजो माठा जोग। ९ इत्यादिक दोषीला सूं करंत, तिण ने पाप कह्यो छै एकंत।
ए थे जाण-जाण किया काम, ते पिण घणां वरसा लग ताम।। १० घणां वरस किया एहवा कर्म, तिण सूं बूड़ गयो थांरो धर्म।
निरंतर दोष सेवण लागा, हुआ व्रत बिहूणा नागा॥ ११ थे कियो अकारज मोटो, छान-छाने चलायो षोटो।
थे तो बांध्यां करमा रा जाळो, आत्मा ने लगायो काळो। १२ थे गुर ने निश्चे जाण्यां असाध, त्यां ने वाद्यां जाणी असमाध।
त्यां रा हिज वांद्या नित पाय, मस्तक दोनूं पग रे लगाय।। १३ यां सूं कीधा थे बारे संभोग, ते पिण जाण्यां सावध जोग।
सावज सेव्यो निरंतर जांण, थे पूरा मूढ़ अयाण।। १४ थे भण-भण ने पाना पोथा, चारित्र विण रह गया थोथा।
थे कहो अर्थ करां म्हे उंडा, थे भण-भण ने काय बूड़ा। १५ थे विहार करता गांम-गांम, सिख सिखणी वधारण काम।
किण ने देता बंधो कराय, किण ने देता घर छोड़ाय ।।
१. लय : विनै रा भाव सुण-सुण गूंजे।
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१६ बले कर-कर गुर रा गुणग्राम, चढावता लोकां रा परिणाम।
बले थे गुर ने खोटा जाणता ताहि, ओरां ने क्यूं नाषता माहि। १७ पोते पड़िया जाणो खाड़ मांय, तो ओरां ने नाषता किण न्याय।
ओरा ने डबोवण रो उपाय, जांण-जांण करता था ताय ।। १८ पंच पद वंदन सीखावत ताह्यो, तिण में गुर रो नाम धरायो।
तिण गुर ने वंदया जाणता पाप, ओरां ने कांय डबोया आप॥ १९ ज्यूं नकटो नकटा हुवा चावे, उसभ उदै माठी मति आवे।
ज्यूं थे डूबता दोषीला मांहि, ज्यूं ओरां ने डबोवता ताहि॥ २० ओरां सूं करता एहवो उपगार, थां रा भणिया रो ओहीज सार।
इसड़ो कूड़ कपट थे चलायो, थां रो छूटको किण विध थायो॥ २१ जिण मार्ग में हुवा ठगो, थे दियो घणा ने दगो
ठग-ठग खाधा लोका रा माल, थां रो होसी कवण हवाल।। २२ आछी वसत हुँती घर मांहि, आहार पाणी कपड़ादिक ताहि।
थांने गुर जाण हरष सूं देता, सो थारां नीकळ गया पेंता।। २३ म्हे थांने वांदता वारूंवार, जद म्हांने हुँतो हरष अपार।
थांने जाणता सुद्ध आचारी, थे तो छाने रह्या अणाचारी।। २४ म्हे थांने जाणता था पुरस मोटा, पिण थे तो नीकळिया खोटा।
म्हे थांने जाणता उत्तम साध, थे तो होय नीवड़िया असाध।। २५ थे जांण रह्या दोषीला मांयो, ठागा सूं थे काम चलायो।
थे जीतव जन्म बिगाड्यो, नर नो भव निरथक हास्यो। २६ थे घणां दिनां रा कहो छो दोष, थां री बात दीसे छै फोक।
साच झूठ तो केवळी जाणे, छद्मस्थ प्रतीत नाणे॥ २७ थे हेत मांहे तो दोषण ढंक्या, हेत तूटा कहता नही संक्या।
थांरी किम आवे परतीत, थां ने जाण लिया विपरीत।। २८ थे दोषीला सूं कियो आहार, जद पिण नही डरिया लिगार।
तो हिवे आळ देतो किम डरसी, यां री परतीत मूर्ख करसी॥ २९ ए दोष क्यांने किया भेळा, थे क्यूं न कया तिण वेळा।
थां में साध तणी रीत हुवे तो, जिण दिन रो जिण दिन कहतो॥ ३० थे दोषीला सूं कियो संभोग, थांरा वरत्या माठा जोग।
थांरी परतीत नावें म्हांने, यां रा दोष राख्या थे छाने।। ३१ थे तो कीधो अकारज मोटो, जिण मारग में चलायो खोटो।
थारी भिष्ट हुई मति बुध, हिवै प्राछित ले होय सुध।।
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३२ उण री तो थारा कह्या सूं संक, पिण थे तो दोषीला निसंक । इम कही उण ने घालणो कूड़ो, घणा बेठां देणी मुख धूड़ो || ३३ ज्यूं कोइ बले न दूजी वार, किण रा दोष न ढांके लिगार । दोष ढांक्या सूं हुवे सुवारी, टांको झलै तो अनंत संसारी ॥ ३४ संका सहित न राखे मांय, ओर साधु दोषीला न थाय । दोषीला ने जाणी राखे मांय, तो सगला असाधु थाय ॥ ३५ इम कह्यां यां ने जाब न आवे, जब झूठी बात बणावे । यां रा दोष न कया म्हें तो डरते, गुर सूं पिण लाजां मरते ॥ ३६ रखे करदे मोने टोळा बारे, मुढ़े तो ओहिज डर रह्यो म्हारे । म्हे दोष सेव्यां यां रे कये जांण, यां सेव्यां री न करी तांण ॥ ३७ कदे हूं दे तो दोष बताय, जब मारी देता बात उड़ाय । मांहरी एकलां री आसंग न काय, तिण सूं रह्यो दोषीला मांय || ३८ हिवै तो हुआ म्हे दोय, दोष सेवण न दां. कोय । इसड़ी जोम री बातां बणांवे, मन मांने ज्यूं गोळा चलावै ॥ ३९ जब यां ने कहिणो एम, थांरो साधपणो रह्यो केम । थे तो डरता अकारज कीधो, तिणरो प्राछित पिण नहीं लीधो ॥ ४० कदा गुर काचो पाणी मंगावत, तो थे डरता थका भर ल्यावत । करावत पाप हर कोई, तो थे डरता करता सोइ ॥ ४१ कदा गुर पिण भारी पाप करता, तो ही भेळा रहिता डरता । भागळां मांहे रहता खूता, पिण एकला कदेय न हूंता ॥ ४२ इसड़ी थांरी गीदड़ाइ, थे इज थांरा मुख सूं बताइ । इसड़ा प्राक्रम थां मांहे नावे, थांरी आगा सूं परतीत ना आवे || ४३ साधां ने डरतो मूल न रहणो, दोष देखे सताब सूं कहणो । डरता न कया तो गीदड़ पूरा, हिवै किण विध होस्यो सूरा || ४४ एकला होयवा स्यूं डरते, दोष न कह्या थे लाजा मरते । जो हिवै ढाकोला दोष अनेक, जांणे होय जावाला एक एक ॥। ४५ हिवै थां दोयां रे मांय, कोइ दोष दे अनेक लगाय । तो पिण चावा' न करो लाजा मरता, एकला होण सूं बले डरता ॥ ४६ एकला होण सूं डरो दोइ, मांहोमां देसो दोष लकोइ । या देख लीधी थांरी रीत, हिवै जाबक नावै परतीत ॥
१. झूठ । अहंकार ।
२. प्रगट ।
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४७ थारे तो माहोमां दोष देख, हिवे तो थे ढाकसो विशेष।
एकला होवण रो डर थाने, मांहोमां दोष राखसो छांने । ४८ जो हिवै थे कहो म्हे न राखां छाने, तो हिवै बात थांरी कुण माने।
थे तो बेठा परतीत गमाय, थां री मूरख माने वाय ।। ४९ किण ही चोर रो हुवो उघाड़ो, फिट-फिट हुवो लोक मझारो।
घणां लोका जांणे लियो तास, पछे कुण करे तिण रो वेसास।। ५० ज्यूं थांरो पिण हुवो उघाड़ो, दोषीला भेळा काढ्यो जमारो।
परगट न कियो थे दोष, थे जन्म गमायो फोक। इम घणा दिनां पछै दोष कहे तिण ने भीखणजी स्वामी निषेध्यो छै। ते माटे टोळा माहै तथा बारै नीकळ्या घणां दिनां पछै दोष न कहणा। दोष रा धणी ने तुरत कहणो। पिण परपूठे ओर आगे न कहिणो।
ताळीसा रा लिखत में एहवो कयो-टोळा माहि कदाच कर्म जोगे टोळा बारे पड़े तो टोळा रा साध साधवियां रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंसमात्र संका पड़े आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मां सूं फारने साथे ले जावा रा त्याग छै। उ आवे तो ही ले जावण रा त्याग छै। टोळा माहै ने बारे पिण नीकळ्यां ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मनफटै ज्यूंबोलण रा त्याग छै। इम पेंताळीसा रा लिखत में कयो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन सूप बात करणी। भागहीण हुवे सो उतरती करे, तथा भागहीण सुणे, सुणी आचार्य ने न कहे ते पिण भागहीण। तिण ने तीर्थंकर रो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिरकार देणी
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं।। आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं॥ इति 'दशवैकालिक में कयो ते मर्यादा आज्ञा सुध आराध्यां इहभव परभव सुख कल्याण हुवे।
ए हाजरी रची सवत् १९१० जेठ विद ८ वार शुक्र बषतगढ में।
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ग्यारहवीं हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणा । ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहणो। आहार पाणी लेणो पड़े ते पकी पूछा करने लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देखने लेणो । पूजतां परिठवतां सावधानपणे रहणो । मन वचन काया गुसि में सावचेत रहणो । तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड अराधणी । श्री भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देखने आचार श्रद्धा प्रकट कीधी - विरतधर्म ने अविरत अधर्म | आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म । असंजती रो जीवणो बंछे ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देवनो मार्ग छै । तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
तथा संवत् १८४१ रे वरस भीखणजी स्वामी मर्यादा बांधी तिण में कहयो- किण ही साधने दोष लागे तो धणी ने सताब सूं कहणो, पिण दोष भेळा करणा नहीं। तथा संवत् १८५० रा लिखत में कह्यो किण ही साध - साधवियां रा ओगुण बोल ने किणी ने फाड़ने मन भांग ने खोटा सरधावण रा त्याग छै । एहवा कह्यो तथा अनेक कारण उपने टोळा थी न्यारो पड़े तो किण ही साध - साधवियां रा ओगुण बोलण रा हुंतो
तो खूंचों काढण रा त्याग छै। रहिसे-रहिसे लोकां रे संका घालने आसता उतारण रा त्याग छै, एहवो कह्यो । तथा किण ही साध आर्य्यां में दोष देखे तो ततकाळ धणी ने अथवा गुरां ने कहिणो पिण ओरां ने न कहिणो घणां दिन आड़ा घालने दोष बतावे तो प्राछित रो धणी उहिज छै । तथा टोळा मांहे भेद पारणो नहीं । मांहोमां जिलो बांधणो नहीं ! मिल-मिल ने टोळा सूं मन उचक्यो अथवा साधपणों पळे नहीं तो किण ही ने साथ ले जावण रा अनंता सिद्धां री साख करने पचखांण छै, एहवो कह्यो ।
तथा संवत् १८५२ रे वर्स आय रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो - किण ही साधसाधवी में दोष देखे तो दोष रा धणी आगे कहणो के गुरां आगे कहणो के गुरां आगे कहणो पिण ओर किण ही आगे कहणो नहीं । किण ही आर्य्या दोष जाणने सेव्यो हुवे ते पाना में लिखिया विनां विगै तरकारी खाणी नहीं | कदाच कारण पड्यां न लिखे तो ओर आर्य्यां ने कहणो। सायद करने पछे पिण वेगो लिखो । जिण रा परिणांम टोळां मां रहिण राहुवे ते रहिजो। पिण टोळा बारे हुआं पछे साध - साधव्यां रा अवगुण बोलण रा अनंता सिद्धां री साख करने त्यांग छै । बले करली - करली मरजादा बांधे त्या में पिण अनंता सिद्धां री साख करने ना कहिण रा त्याग छै । कोइ साध - साधवियां रा ओगुण काढ़े तो सांभळण रा त्याग छै । इतरो कहिणो- 'स्वामी जी ने कहिजो ' ।
तथा चोतीसारा लिखत में आर्य्या रे मरजादा बांधी तिण में कह्यो - टोळा रा साध आय री निंदा करे तिण ने घणो अजोग जाणणी, तिण रे एक मास पांचूं विगै रा त्याग, जितरी वार करे जितरा मास पांचू विगै रा त्याग, जिण आर्य्यां ने ओर आय सा ग्यारहवीं हाजरी : २४१
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मेल्यां ना न कहणो। साथे जांणो। न जाय तो पांचू विगै खावा रा त्याग न जाए जितरा दिन। बले ओर प्राछित जठा बारे। साधां रा मेलीया विना आ· ओर री ओर आर्यां साथे जाए तो जितरा दिन रहे जितरा दिन पांचू विगै रा त्याग। बले ओर भारी प्राछित जठा बारे। जिण आ· साथे मेल्यां तिण आर्यां भेळी रहे, अथवा आर्यां माहोमांहि सेषे काळ भेळी रहे, अथवा चोमासे भेळी रहे त्यां रा दोष हुवे तो साधां सुं भेळा हुआ कहि देणो न कहे तो उतरो ही प्रायछित उणने छै। टोळा सूं छूट न्यारी हुआ री बात माने त्यां ने मूर्ख कहीजे। त्यां ने चोर कहिजे, ए, सर्व संवत् १८३४ रा लिखत में कह्यो।
तथा पेंताळीसा रा लिखत में जिलो बांधे तिण ने महाभारीकर्मो विसवासघाती कह्यो। तथा संवत् १८५० रा लिखत में तथा रास में जिले में घणो निषेध्यो छै, ते माटे जिलो बाधण रा जावजीव त्याग छै।
तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-कर्म धको दियां टोळा बारे नीकळे तो टोळा रा साध-साधव्यां रा अंसमात्र हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा अनंता सिद्धां री ने पांचोइ पंदां री आण छै, पांचूइ पदां री साख सूं पचखाण छै। सरधा रा क्षेत्रा में एक राति उपरंत रहिणो नहीं। टोळा में पाना लिखे जाचे ते साथे ले जावणा नही। तथा 'साध सीखावणी' ढाळ रा दूहा में घणा दिनां पछे दोष कहे तिण ने अपछंदो निर्लज नागड़ो मर्यादा रो लोपणहार कह्यो। तिण री बात मूळ मानणी नहीं। तथा रास में पिण घणा दिनां पछे दोष कहे तिण ने निषेध्यो छै।
तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-सेषाकाळ चोमासो आज्ञा बिना रहे जितरा दिन सूंखड़ी सहित पांचू विगै रा त्याग छै। इत्यादिक लिखत में तथा रास में तथा विनीत अवनीत री चोपी में अवनीत ने घणों निषेध्यो छै।
अजुणाकाल में भारीकर्मा जीव घणा छै। ज्यां री आत्मा वस नहीं। गुर छांदे रहिणो कठण जद ए मर्याद लोपने टोळा बारे नीकळी ने अवगुणवाद बोले, त्यां ने श्रावक न माने जद पाछा गण में आवे त्यां रो लेखो भीखणजी स्वामी रास में ओळषायो ते गाथा१ 'आप मांहे छै दोष अनेक, ते तो बारे न काढ़े एक।
उळटो ओरां में दोष बतावे, झूठ में झूठ जांण चलावे।। २ अवगुण सुण-सुण ने समदृष्टि, यां ने जाणे धर्म सूं भिष्टी।
यां रा बोल्यां री प्रतीत नाणे, झूठ में झूठ बोलता जाणे।। ३ श्रावक आरे करता दीसे नाहि,जद प्राछित ओट आया गण मांहि।
आलोवण करणी थापी ताय, प्राछित पूरो लेणो ठहराय।। १. लय-म्हारी सासू रो नाम छै फूली। २४२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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४ पांच पद विचे दे आया मांय, परतीत पूरी उपजाय ।
तिण रा साषी ग्रहस्थ छैहराय, तठा पछै लिया गण माय॥ टोळा रा साध साधवियां मांहि, किण रे प्राछित ठहरायो नांहि। किण ही प्राछित मूल न ळीधो,मिच्छामि दुक्कडं पिण नहीं दीधो॥ किण ही में न काढ्यो बंक, सगळा ने कर दीधा निसंक। प्राछित विण दीधा आया मांहि, सगळा ने सुध जांणी ताहि॥ यां री तरफ सू चोखा जाण, गुर रे पगा पड़िया आंण । जो ए दोष जाणे किण मांहि, तो ए आगो काढे जिसा नांहि॥ ज्यां ने असाध कह्या था मुख सूं, त्यां रा वांदया पग मस्तक सूं। त्यां ने प्राछित मळ न दीधो. उळटो आप प्राछित ओढ लीधो।। ज्यां ने पांचू व्रत कह्या भागा, त्यारेहीज पगां आय लागा।
ज्यां ने कह्या था लोका में खोटा,त्यां ने हीज लेखव लिया मोटा। १० ज्यां में काढ्या था अनेक दोष, ते तो कर दीया सगला फोक।
उळटो आपरे डंड ठेहराय, इण विध आया गण मांय ।। ११ ज्यां ने ढीळा कहता तांणतांण, बले भागळ कहिता जाण-जांण।
ज्यां री वंदणा देता छोड़ाय, त्यां रा हीज पोते बंदिया पाय॥ १२ ज्यां ने कहिता पेहले गुणठांण, त्यां रा ही पग वांदिया आंण।
अणाचारी कहता दिन रात, तिका पाछी न पूछी बात।। १३ ज्यां ने प्राछित कहिता आप, ते तो जाबक दियो उथाप।
उळटो आप' डंड कराय, गण मांहे पेठा छै आय। १४ कहितो थो मोमे दोष न पावे, मिच्छामिदुक्कडं पिण नहीं आवे।
तिण ने प्राछित देणो ठहराय, तठा पछै लियो गण मांय ।। १५ कहितो आलोवण करूं नाहि. आप छांदे रहिसं गण माहि।
तिण री आलोवण करणी थाप, ते प्राछित पिण ओढियो आप। १६ ज्यां में कहता कपट ने झूठ, पहिला निंद्या करता परपूठ।
त्यां ने उत्तम पुरुष ठहराय, प्राछित ओढ आया त्यां माय॥ १७ ज्यां ने खोटा सरधावण ताय कीधा था अनेक उपाय।
त्यां ने तिरण तारण ठहराय, प्राछित ओढ़ आया त्यां माय॥ १८ यां री करता था के इ ताण, त्यां रो गळ गयो सगळो माण।
यां री करता केइ पषपात, त्यांरी पिण बिगड़े गइ बात। १९ यां ने जाणता था केइ साचा, ते तो प्राछित ले हुवा काचा।
बले ताणे यांरी दूजीवार, तो ए पूरा मूढ गिंवार।।
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२० आगे तो यां री राखत परतीत, निज गुर सूं हुआ विपरीत।
सुद्ध साधां ने कह्या बले भंडा, ते तो दो प्रकारे बूडा।। २१ जो यारे बंधिया निकाचित कर्म, तो छूट जासी आं सूं जिन धर्म।
जासी मानव रो भव हार, पड़सी नरक निगोद मझार ।। २२ जो यां रे न बंध्यो निकाचित कर्म, कदा पड़ जाये पाछा नर्म।
कदा आलोय ने सल काढे, निज काम सिराड़े चाढ़े। २३ न्यारा थकां हुंता घणा गेरी, गण रा हुआ छा पूरा वैरी।
सर्व साधां ने असाध सरधाया, त्यां में हीज डंड ओढ नैं आया। २४ यां तो च्यार तीर्थ रे मांय, कीधो थो घणो अन्याय।
पिण प्राछित ले आया मांही, टोळा री परतीत अणाई॥ २५ घणा श्रावक हुआ निसंक, यां में हीज जाणियो बंक ।
यां तो दोष बताया मांय. आंतो झठी कीधी वकवाय।। २६ बारे थकां तो कहिता असाध, मांहे आए सरधे लिया साध।
इण विध बोल्या विपरीत, त्यां री तुरत नावै परतीत ।। २७ टोळा रा साध साधवियां मांहि, साधपणो न कहता ताहि ।
इण बात सूं भंडा घणा दीठा, पड़िया च्यार तीर्थ में फीटा। २८ कदा गुरू ने पिण दोषण लागे, तो कहिणो नहीं ओर आगे।
गुर ने हीज कहिणो सताब, घणा दिन नहीं राखणो दाब ।। २९ बले फाड़ा तोड़ा री बात, किण सूं करणी नहीं तिलमात।
जिलो बांधणो नहीं मांहो मांहि, फेर साथे ले लावणों नांहि। ३० पांचू पद विचे दे आया मांय, आलोवणा प्राछित ठहराय।
आज्ञा में चालणो रूड़ी रीत, पूरी उपजावणी परतीत ।। ३१ आगा विचैइ रहणो विनीत, बाकी सब आगली रीत।
इत्यादिक पहली सैंठी ठहराय, पछे गण में लेणा थाप्या ताय॥ अथ इहां जे अवनीतरी प्रकति ओळखाइ, गण में तो गुरां रा गुण गावे, बारे नीकळी अवगुण बोले, फेर डंड पोत ले इ माहै आवे, कर्म जोगे बले बारे पड़यां अवगुण बोले ए अवनीत अजोग रा लखण न्यारो थया अवगुण बोले तथा मर्याद लिखत सुणी आप ऊपर खांचे। बले रास में एहवी गाथा कही३२ विनीत सुण-सुण पामै हरष, पड़े अवनीत रै मन धड़क।
ते तो रहे चोर ज्यूं राच, लेवे आपण ऊपर खांच।।
१. लय. : म्हारी सासू रो नाम छै फूली।
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अथ अठे पिण इम कह्यो-विनीत सुण-सुण हरषे,अवनीत रे धड़क पड़े, पोता ऊपर खांच लेवे। आगे पिण वीरभांण जी हुओ तिण विनीत अवनीत री चोपी भीखणजी स्वामी जोड़ी तिका तिण पोता ऊपर खेंची। साधां कने अनेक अवगुण बोल्या। फटावा रोउ पाय कीधो। तिण ने भीखणजी स्वामी अवनीत अजोग जांणने टोळा बारे कियो। ते विराधकपणे मूओ। जे कोइ इसड़ा लखण राखे तिण रा पिण एहवा इज हवाल हुवै तिण सूं थोड़ा वरस रे काजे अनंत सुख आत्मिक पुद्गलिक हारज्यो मती। भीखणजी स्वामी री मर्यादा सुद्ध पाळ्यां आराधक पद पावोला तिण कारण मर्यादा लोपजो मती।
व तथा पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो-टोळा मांहे कदाच कर्म जोगे टोळा बारे परे तो टोळा रा साध-साधवियां रा अंस मात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंस मात्र संका पड़े आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै टोळा मां सूफारने साथे ले जावा रा त्याग छै। उ आवे तो ही ले जावा रा त्याग छ। टोळा मांहे नै बारे नीकळ्या पिण अवगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन रुप बात करणी। भागहीण हुवे सो उतरती बात करे, तथा भागहीण सुणे, सुणी आचार्य ने न कहे ते पिण भाग हीण, तिण ने तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहिणो। तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं।।
आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।।
'इति दशवइकालिक में कह्यो ते मर्यादा आराध्यां इहभव परभव में सुख कल्याण हुवे । ए हाजरी रची संवत् १९१० जेठ विद १० वार सोम बषतगढ़ मध्ये
१. दसवेआलियं,५/२/४५,४०
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बारहवीं हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणा । ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहणो। आहार पाणी लेणो ते पकी पूछा करी ने लेणो । सूजतो आहार पाणी पण आगला रा अभिप्राय देख लेगो । पूजतां परठवतां सावधान पणे रहणो । मन वचन काय गुप्ति में सावचेत रहणो । तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी । श्री भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देखने आचार सरधा प्रकट कीधा - विरत धर्म ने अविरत अधर्म । आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म । असंजती रो जीवणो बंछे ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरो बंछे ते वीतराग देवनो मार्ग । तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
संवत् १८५० रे वरस साधां रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो - किण ही साध आय दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहणो अथवा गुरां ने कहणो पिण ओरां ने न कहो । घणा दिन आडा घाल न दोष बतावे तो प्राछित रो धणी उहीज छै ।
तथा संवत् १८५२ रे वरस मर्यादा बांधी, तिण में कह्या- किण ही साध आय मTहै दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहणो के गुरां ने कहणो पिण ओरां ने कहणो नहीं । किण ही आय दोष जाण ने सेव्यो हुवे ते पाना में लिख्यां विना विगै तरकारी खाणी नहीं। कोइ साध-साधव्यां रा अवगुण काढ़े तो सांभळवा रा त्याग छै । इतरो कहिणो स्वामी जी ने कहिजो इमहीज पेंताळीसा रा पचासा रा लिखत में अने रास में जिला ने घणो निषेध्यो छै । माटे जिलो बांधण रा त्याग छै । तथा घणां दिनां पछें दोष न कहणो रास में वरज्यो छै। तथा 'साध सीखावण' ढाळ रा दूहा में घणां दिन पछै दोष कहे तिण ने अपछंदो कह्यो । निर्लज कह्यो । नागड़ो को छै ।
तथा संवत् १८३४ ने वरस आर्य्यां रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो - गृहस्थां महि आमना जणाय ने एक-एक री आसता उतारे तिण में तो अवगुण घणाहीज छै । बले फजी ने मांहि लीधी तिको लिखत सगळी आर्य्यां रे कबूल छै । बले अनेक-अनेक बोल करली मर्यादा बांधी ते कबूल छै। ना कहिण रा त्याग छै ।
तथा बत्तीसा रा पचासा रा गुणसठा रा लिखत में कह्यो उसभ उदै टोळा बारे कळ्यांत ने साध सरधणो नहीं । च्यार तीर्थ में गिणणो नहीं । एहवा ने वांदे पूजे तिके पिण आज्ञा बारे हैं।
तथा पचासा रा लिखत में कह्यो पेलां रा दोष धार ने भेळा करे ते तो एकत मृषवादी अन्याइ छै । किण ही ने खेत्र काचो बतायां किण ही नें कपड़ादिक मोटो दीधां इत्यादिक कारणे कषाय उठे जद गुरवादिक री निंद्या करण रा अवर्णवाद बोलण रा - एक-एक आगे बोलण रा मांहोमां मिलने जिलो बांधण रा त्याग छै । अनंता सिद्धां री आण छै। कदा कर्म धको दीधां टोळा सूं टळे टोळा रा साध - साधव्यां रा अंस मात्र हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै । टोळा ने असाध सरधने नवी दिख्या लेवे तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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तो पिण अठीरा साध-साधव्यां री संका घालण रा त्याग छै।
तथा गुणसठा रा लिखित में पिण इमहीज कह्यो-टोळा बारे नीकळी एक रात उपरंत सरधा रा खेत्रां में रहिवा रा त्याग छै। उपगरण टोळा माहे करे. परत पाना लिखे, जाचे ते साथे ले जावण रा त्याग छै। तथा चोतीसा रा लिखत में आर्यां ने मर्यादा बांधी तिण में कह्यो-गृहस्थ आगे टोळा रा साध-आल् री निंद्या करे तिण ने एक मास पांच विगै रा त्याग। जितरी वार करे जितरा मास पांचू विगै रा त्याग। तथा जिण आल् साथे मेल्यां तिण आर्यां भेळी रहे अथवा आर्यां माहोमांहि सेष काळ भेळी रहे अथवा चोमासों भेळो रहे त्यां रा दोष हुवे तो साधां सूं भेळा हुवां कहि देणो न कहे तो उतरो प्रायछित उण ने छै। तथा जिण आर्यां ने ओर आर्यां साथे मेल्यां ना न कहिणो साथे जाणो न जाए तो पांचू विगै खावा रा त्याग न जाए जितरा दिन। बले और प्राछित जठा वारे। एहवो कह्यो छै। तथा साधां रा मेलिया बिना आर्यां ओर री ओर आ· साथे जाए तो जितरा दिन रहे जितरा दिन पांचू विगै रा त्याग, बले भारी प्राछित जठा वारे। एहवो कह्यो। ___टोळा सूं छूट हुआ री बात माने त्यांने मूर्ख कहीजे। त्यां ने चोर कहीजे। सूंस करण ने त्यारी हुवे तो ही उत्तम जीव तो न माने। ए सर्व चोतीसा रा लिखत में कह्यो।
तथा आगे पिण गण बारे नीकळी अवगुण बोल्या ते पिण मुंडा दीठा। वीरभाण टोळा बारे नीकळी अवगुण बोल्या तिण री पिण बिगड़ी। तथा चंदू वीरां फतू आदि टोळा बारे थइ जन्म बिगाड्यो। तथा बड़ो रूपचन्द चन्द्रभाण जी तिलोकचन्द जी आदि जे बेमुख हुआ त्यांरो जन्म सुधरयो नहीं ते भणी उत्तम जीव वैमुख री संगत न करे। तथा श्री भीखणजी स्वामी रास में अवनीत ने भांत-भांत करने ओळखायो ते गाथा
मद विषय कषाय वस आत्मा, तिण सूं विनो कियो किम जाय। तिण री बणे खूराबी अति घणी, ते सुणजो चित ल्याय।।
कोई गण में हुवे साध अहंकारी, तिण सूं थोड़ा में हुए जाये खुवारी।
उण रा गुण कही पोगां चढावे, तो उ थोड़ा में फिलफुल थावे॥ ३ जो उण नै गुर गुरभाइ सरावे, तो मगज में पूरो न मावे।
जब रहे टोळा में राजी, ठाला बादल ज्यूं करे ओगाजी॥ ४ इसड़ो अभिमानी दोष लगावे, तिण सूं आलोवणी नहीं आवे।
इह लोक रो अर्थी मूढ बाल, सल सहित कर जाए काळ॥ ५ इसड़ा अभिमानी अवनीत, कदे चाले रीत कुरीत।
तिण ने गुर नषेदे घणा मांय, तो उ गुर रो द्वेषी होय जाय॥
१. लय : विनै रा भाव सुण-सुण। २. प्रफुल्ल।
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६ तिण झूठा ने कहे कोइ झूठो, तिण सूं तो रहे नित रूठो।
खपे छै तिण रे देवा आळ, जांणै टोळा मां सूं देउं टाळ। ७ यां तो घणां साधां रे मांय, म्हारी आब न राखी काय।
म्हारी आसता चोड़े उतारे, तो हूं क्यांने रहूं यारे सारे।। त्यां ने छोड़ ने होय जाऊंन्यारो, यां रे पिण करूं बोहत बिगाड़ो। यां में दोष परुपूं भारी, जब खबर पड़े यां ने म्हारी।। यां रा चेला ने बले चेली, त्यां ने फाड़ करूं म्हारा वेली।
इसड़ी चिंतवे मन माय, मिले ओर साधां सूं जाय। १० जिण विध गुर सूं मन भागे, तेहवी बात करे तिण आगे।
जिण विध गुर सूं जागे द्वेष, तेहवी बात करे , विशेष। ११ बले बोले आळ पंपाळ, झूठा-झूठा दे गुर रे आळ।
बले दोष अनेक बतावे, जाबक खोटा सरधावे।। १२ गुर गुरभाई ऊपर धेख, त्यां रा अवगुण बोले अनेक।
'ज्यूंना'-ज्यूंना खुरट' उखेले, आप रे मन माने ज्यूं ठेले॥ १३ बले आप रे स्वार्थ नावै, त्यां में दोष अनेक बतावे।
केका री तो परतीत नाणूं, त्यां ने थेट रा असाधु जाणूं। १४ टोळा मांहे तो घणी ढीलाइ, कह्यां ठीक न लागे कांइ।
तिण सूं म्हारे तो हुवणो न्यारो, यां में कुण बिगाड़े जमवारो।। १५ जो हूं इसड़ा जाणतो यां ने, तो हूं घर छोड़तो क्यांने ।
हूं तो घर छोड़ ने पिछताणो, म्हे तो खोटा खाधा अजाणो।। १६ कळह लगावण री करे बात, जांणे फाड़ लेउ म्हारे साथ।
जब पेलो हुवे कान रो काचो, तो उ मान ले उण न साचो॥ १७ जब ओ राखे इण री परतीत, ओ पिण बोले इणहीज रीत।
ओ तो किण ही में दोष न जाणे, इण रा कह्या सूं ओ पिण ताणे॥ १८ जब ओ आप रो बेली जाण, पछे गुर -सूं झगड़े आण।
यां बेठाहीज उधो बोले, आंगुणां रो पिटारो खोले। १९ यां आगे बोल्यो तिणहिजरीत. गरु आगे बोले विपरीत।
बले बोले अन्हाषी अलाल, गुर ने देवे झूठा आळ।। २० जिण इण ने घाल्यो थो झूठो, तिण सूं तो बेठो थो रुठो।
तिण में दोष अनेक बतावे, मन माने ज्यूं गोळा चलावे।। २१ हूं तो थांने न जाणुं साध, घर में थकां रो जाणूं असाध।
यां रा महाव्रत पांचूंइ भागा, सुमति गुप्त में दोषण लागा।। १. पुराने-पुराने २४८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२२ यां ने राखसो टोळा रे मांहि, तो हूं बारे निकळसूं ताहि।
थे तो यारी करो पखपात, तिण सूं मानूं नहीं थारी बात॥ २३ बले घणी साधवियां मांहि, साधपणो न जांण ताहि।
बले दोष घणा में बतावे, विपरीतपणे सुणावे॥ २४ हूं धरती छोड़ परो नहीं जाऊं, यां क्षेत्रों में साथे लगो आऊं।
थां सांहमो उतरतूं आंणो, ओर गया ज्यूं मौने म जाणो। २५ थां रा दोष घणां ने सुणाऊं थां ने चोड़े असाध सरधाऊं।
इम बोले घणो विकराळ, संके नहीं देतो आल।। २६ जिण सूं बात बांधी थी भेळी, तिण साथै चेपी मैली।
कायक दोष ओ पिण काढे, उण ने बले पोगां चाढ़े।। २७ इण री आगै इ कीधी पखपात, झूठी साख भरी साख्यात।
जब इण नै इनषेध्यो थो गाढो, तिण सूं ओ पिण बोले आडो-आडो॥ न्याय तणी नहीं बात. झठी करवा लागो पखपात।
न्याय निरणां री हुंती नीत, तो इण ने नषेदे इण रीत।। २९ ओ तो तोमें ही छै बांक, तू दोषण राख्या ढांक।
आ तो लोप दीधी मरजाद, तूं तो झूठो करे विषवाद।। ३० घणां दिना काढे दोष अनेक, तिण री बात न मानणी एक।
आपां रे छै इसड़ी मरजाद, हिवै क्यांने करे विषवाद ।। ३१ इण ने इण विध घाले कूड़ो, घणां बेठा घाले मुख धूड़ो।
पिण चोरां कुत्ती मिली तेह, ते तो पोहरा किण विध देह।। ३२ ज्यूं मिलियो अवनीत सूं जेह, तिण ने न निखेदसी तेह।
जब गर जाण्या इण रे सीहे. ओ तो बोलतो मूल न बीहे।। ३३ ओ तो दीसे छै भारीकर्मो, निरलज घणो वैसरमो।
इण ने परतष सूझी भंडी, जब गुर तो विचारी ऊंडी।। रखे छूट एकलो थावे, रखे संका घणां पर जावे।
रखे गूंजे पांखडी अयांण, रखे जिण मत री पड़े हाण ।। ३५ रखे घट जायेला उपगार, वेदो उठेला लोक मझार ।
जो इण ने करला कहूं इण वारो, तो ए छूट होय जायला न्यारो। ३६ ओ तो चढियो क्रोध अहंकारो, तो हिवे करणो कवण विचारो।
जो नरमाइ किया ठाम आवै, आलोय नै सुध थावे ।।
१. पक्ष।
२. स्थान पर।
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इम
जांणी की नरमाइ, परतीत पूरी उपजाइ । किण रे संका न राखी काय, सगला ने दिया समजाय ॥ जब ओ किण विध बोले उंधो, हिवै ओ पिण बोलियो सूधो । अब तो जावजीव रहूं मांय, गण छोड़ण री न काढूं वाय ॥ इण दोषण काढ्या था अनेक, तिण री पाछी न पूछी एक । किण ने थोड़ो घणो दंड देणो, ते पिण नहीं कढियो वेणो || बले घणी साधवियां मांहि, साधपणो न जाणतो ताहि । त्यां काढणी नहीं ठहराइ, त्यां री बात न कीधी कांइ ॥ यां ने छोड्यां रहूं गण मांय, तका पिण काढी बात न काय । टोळा मांहै कहतो थो ढीलाइ तिण री पाछी नहीं चलाइ ॥ सगली ढीली मेली दीधी बात, विनै सहित बोले जोड़ी हाथ । हिवै आप घणो पिछतावे, गुरु ने वारूंवार खमावे ॥
इम अठे पण अनेक भाव कह्या ते सुण ने हळुकर्मी हुवे ते सरल प्रकृति करने आत्मा वस करे। अवनीत री संगत छोड़े। मर्यादा सुद्ध पाळे गुर री मुरजी प्रमाणे सर्व काम में प्रवते ।
तथा पेंताळीसा रा लिखत में कह्या - टोळा मांहे सूं कदा कर्म जोगे टोळा बारे पड़े तो टोळा साध-साधव्यां रा अंस मात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटे ज्यूं बोलण रा त्याग छै । यां री अंस मात्र संका पड़े आसता उतरे जिम बोलण रा त्याग छै। टोळा मांहे सूं फाड़ने साथ ले जावा रा त्याग छै । उ आवे तो ही ले जावा रा त्याग छै । टोळा मांहे न बारे . नीकल्या अंस मात्र अवगुण बोलण रा त्याग छै । इम पैताळीसा रा लिखत में कह्यो । ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन सूप बात करणी । भागहीण हुवै सो उतरती बात करे । तथा सु भागहीण तथा सुणे आचार्य ने न कहे ते पिण भागहीण । तिण ने तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी ।
यावि जाणंति
आयरिए आराहेइ, समणे गिहत्था विणं पूयंति, जेण आयरि नाराहेइ, सम यावि गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति
' इति दशवैकालिक में कह्यो ते आज्ञा मर्यादा आराध्यां
उभय भवे सुख कल्याण हुवे । ए हाजरी रची संवत् १९१० वार वार सोम जेठ विद ११ बषतगढ़ मध्ये |
१. दसवे आलियं, ५।२।४५,४०
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तारसो ।
तारिसं ॥
तारिसो।
तारिसं । ।
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तेरहवीं हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणा । ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहणो । आहार पाणी लेणो ते पकी पूछा करी लेणो । सूजतो आहार पाणी पिण आगला रो अभिप्राय देख लेणो । पूजतां परठवतां सावधानपणे रहणो । मन वचन काया गुप्त में सावचेत रहणो । तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी । श्री भीखणजी स्वामी
सिद्धान्त देखने श्रद्धा आचार प्रगट कीधा - विरत धर्म ने अविरत अधर्म, आज्ञा मां धर्म, आज्ञा बारे अधर्म । असंजती रो जीवणो बंछे, ते राग मरणो बंछे, ते राग मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो वंछे ते वीतराग देव नो मार्ग |
तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी - संवत् १८४१ रे वरस भीखणजी स्वामी मर्यादा बांधी-ते साध - साध मांहोमांहि भेळा रहे । तिहां किण ही साध ने दोष लागे तो धणी ने सताब सूं कहणो । अवसर देखने। पिण दोष भेळा करणा नहीं, धणी ने कह्यां थका प्राछित लेवे तो पिण गुरां ने कहि देणो । जो प्राछित न ले तो प्राछित रा धणी ने आरे कराय ने जे जे बोल लिखने उण ने सूंप देणो । इण बोल रो प्राछित गुरथांने देवे ते लीजो। जो इण रो प्राछित न हुवे तो ही कहिजो । थे गाळागोळो कीजो मती । जो थे न
तो माहरा कहिण रा भाव छै । है थां रा दोषां रो आगो काढ़सूं नहीं । संका सहित दोष भासे तो संका सहित कहिसूं । निसंक पणे दोष जाणूं छू ते निसंकपणे कहि सूं । नहीं तो अजे ही पाधरा चालो इम कहि देणो, पिण दोष भेळा करणा नहीं। जो उ आरे न हुवे तो ग्रहस्थ पक्का हुवे त्यां ने ज़णावणो । उण बेठाहीज कहिणो, पिण छांने न कहिणो। ए तो चोमासो बंधियो काळ हुवे जब छै । शेषे काळ हुवै तो किण ही ने कहिणो नही। गुर हुवे जठे आवणो । पिण गुर कने बेदो घालणो नहीं। गुर किण ने साचो करे । किण ने झूठो करे । गुर तो इण बात में नहीं। एलांण सूं कदाच एक ने झूठो जाणे, एकण ने साचो जांणे। तो पिण निश्चे नहीं । ते किण विध प्राछित देवे आलोयां विनां । पछे तो गुर ने द्रव्य क्षेत्र काळ देख ने न्याय करणोहीज छै । पिण उण ने तो एक दोष थी दोय भेळा करणा नहीं। घणां दोष भेळा कर ने आवसी तो उ हाथां सूं झूठो पड़सी पछै तो केवळी जाणे छदमस्थ रा व्यवहार मांहे तो दोष भेळा करे तिण मांहे छै। लिखतूं ऋष भीखण रो छै सम्वत् १८४१ चेत विद १३
अथ इहां पण दोष रा धणी ने सताब सूं कहणो कह्यो । एक थी दोय दोष भेळा करणां नहीं, घणां दोष भेळा करे तिण ने झूठो कह्यो ।
तथा पचासा रा लिखत में पिण इमहीज कह्यो- एक दोष थी बीजो दोष भेळो करे तो अन्याइ छै। मांहो मांहि मिल ने जिलो बांधण रा त्याग छै । गुरवादिक ने भेळो तो आप रे मुतलब रहे। पछे आहारादिक रो कपड़ादिक घणा थोड़ा रो नाम लेइ अवर्णवाद
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बोलण रा त्याग छै। बले इण सरधा रा भायां रे कपड़ा रा ठिकांणा छै विनां आज्ञा जाचण रा त्याग छै। आर्यां आगे हुवे जठे जाणों नही। जाय तो एक रात रहिणो। पिण अधिको रहिणो नहीं। कारण पड़यां रहे तो गोचरी का घर बांट लेणां पिण नित रो नित पूछणो नहीं। कने बेसण देणी नही। ऊभी रहिण देणाी नही। चरचा बात करणी नही। बड़ा गुरवादिक रा कह्या थी, कारण पड्या री बात न्यारी छै। सरस आहारादिक मिले तिहां आज्ञा विनां रहणो नहीं। बले काइ करली मरजाद बाधां तिण में ना कहिणो नहीं। आचार री संका पड़यां थी बांधे बले कोइ याद आवे तो लिखां ते पिण सर्व कबूल छै, ए मरजादा लोपण रा अनंता सिद्धां री साख कर ने पचखांण छै, जिण रा परिणाम चोखा हुवे सूंस पालण रा परिणाम हुवे ते आरे होयजो। सरमासरमी रो काम छै नहीं। एहवो पचासा रा लिखत में कह्या।
तथा बावने रे वर्स आर्यां रे मरजादा बांधी तिण में कह्यो-किण ही साध आर्यों मांहे दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहणो के गुरां ने कहणो, पिण ओरां ने कहणो नहीं, किण ही आर्यां दोष जाण ने सेव्यो हुवे तो पांना में लिख्या विनां विगै तरकारी खाणी नहीं कोइ साध-साधव्यां रा ओगुण काढे तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहणो–'स्वामी जी ने कहीजे।
किण ही आर्यां में मांहोमां संका पड़े जांणे कारण पड्यां विनां कारण रो नाम लेने ओर आर्यां आगे सूं काम करावे छै कारण रो नाम लेइ ओषध सूंठादिक उन्हो आहारादिक ल्यावे छै। इत्यादिक संका पड़े ते संका मेटण रो उपाय मर्यादा बांधी छै। जितरे गोचरी आप न उठे तिण सूं बिमणो उठणो, विहार में बोझ उपरावे जित रा दिन विगै रा त्याग छै बलै उण रो बोज बिमणो उपारणो। आछो आहार लेवे तो पाछो बिमणो टालणो । किण ही ने खेत्र आछो बताया राग द्वेष करने बात चलावा रा त्याग छै। खेत्र आश्री कपड़ा आश्री आहारपाणी आश्री ओषध भेषध आश्री बात चलावा रा त्याग छै। चोमासो कहे तिहां चोमासो करणो सेषा काळ बड़ा कहे तिहां विचरणो। ए सर्व बावना रा लिखत में कह्यो।
· बले गुणसठा रा लिखत में कह्यो-कर्म धको दिया टोळा बारे निकळे तो उण रे टोळा रा साध-साधवियां रा अंस मात्र हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा अनंता सिद्धां री ने पांचू पदां री आण छै पांचोंइ पदां री साख सूं पचखांण छै किण ही साध साधव्यां री संका पड़े ज्यूं बोलण रा पचखांण छै कदा उ विटळ होय सूंस भांगे तो हळुकर्मी न्यायवादी तो न माने। उण सरीषो कोइ विटळ माने तो लेखां में नहीं। किण ही ने कर्म धको देवे ते टोळा सूं न्यारो पड़े अथवा टोळा सूं आप ही न्यारो पड़े तो इण सरधा रा भाई बाई हुवे तिहां रहिणो नहीं। एक बाई भाई हुवे तिहां पिण रहिणो नहीं। वाटे वहितो एक रात कारण पड्यां रहे तो पांचू विगै सूंखड़ी खावा रा त्याग छै। अनंता सिद्धां री
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साख करने त्याग छै । इत्यादिक अनेक लिखत जोड़ में अवनीत ने निषेध्यो छै । अने विनीत ने सरायो छै। विनीत प्रतीत गुरां ने उपजावे ते रीत बताइ
१
'अपछंदा में घणां छै दोष, छांदो संध्या सूं पांमे मोष । उत्राध्येन चोथाधेन मझारो, कोइ बुधवंत करजो विचारो ॥ गुर ने शिष री ऊपजे अप्रतीत, विनादिकं में जाणे विपरीत । जो उ शिष हुवे सुवनीत, तो उपजावे गुर ने परतीत ॥ जिण - जिण बोलां री गुर रे संक, संका काढ़े नै करे निसंक । करला - करला सूंस खावे, गुर ने परतीत उपजावे ॥ सूंस कीधा इ परतीत नांणे, सूंसा ने पिण लोपतो जांणे । तो सूंस लिख देवे कोरे पाने, ते किण सूं न राखे हूं इण लिख्या प्रमाणे चालूं, आज्ञा लोप कदे नहीं हालूं । जो शिष हुवे सुवनीत, इम उपजावे
छांने ॥
परतीत ॥
सूंस लिखत री नांणे प्रतीत, आगे गुर ने घणी - अप्रतीत । तो ही हाथ जोड़े सुवनीत, विनय सहित बोले रूड़ी रीत || म्हारी परतीत मूळ न राखी, तो हिवे च्यार तीर्थ देउ साखी। म्हारा सूंस कागद में लिखाय, च्यार तीर्थ ने देउ वचाय ॥ हूं चालूं इण लिख्या प्रमांणो, कदा चूक में पडियो जांणो । तो च्यार तीर्थ ने देजो जताय, ते मोने हेले निदे आंणे ठाय ॥ जोयां रे कनै न चालू सूधो, तो मोने कर देजो गण सूं जूदो । पण मो सूं किरपा करो स्वामीनाथ ! म्हारे मस्तक राखो हाथ ॥ हूं मरजादा नहीं चूकूं, आप रो सरणो नहीं मूकूं | आप रो छै मोने आधार, मोने उतारो भव पार ॥ जब गुर कहे तूं बोले सूधो, हिवै मूळ न दीसे ऊंधो। रखे हुवेला तू विसासघाती, बांवळिया रे बीज रो साथी ॥ तो उ सूळां लियाइज ऊगे । ज्यूं वधे ज्यूं सूळां लागे || विनो करै छै ताहि ।
सूं परिणाम उतारे ॥ नै ले जावेला लारे ।
घणो
विषवाद ॥
२
३
४
५
६
७
८
९
१०
११
बावळ बीज बोयां पाणी पूगे, बावळ बीज सुंहाळो थो आगे, हिवै १३ ज्यूं तूं रहे छै गण मांहि, घणो रखे साध-साधवियां नै फारै, गुर पछे आळ दे नीकळे बारे, ओरा पाछला ने परूपे असाध,
करेला
१२.
१४
१. लय- तूं तो सुण हो राजा म्हांरी विनती
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१५ घणां जीवां रे घालेला संक, लगावे ला मिथ्यात रो डंक।
ओ तो भारी अकारज मोटो, इसड़ो मन में म राखज्यो खोटो॥ १६ आ पिण संका छै थारी मोने, वार-वार कहुं हिवै तोने।
आ परतीत उपजावे गाढ़ी, करला सूंसादिक काढी।। जो तूं सरल छै नही अन्हाषी', तो तूं च्यार तीर्थ दे साखी। जो थारे रहणो छै गण मांय, तो इण विध परतीत उपजाय ।। इम सांभळ ने सुवनीत, विनै सहित बोले रूड़ी रीत। आप कहो तिण ने साखी देऊ, आप कहो तिको सूंस लेऊ॥ कदा कर्म जोगे परूं न्यारो, तो ओरां नै नहीं ले जाऊं लारो।
कोइ आफे ही आवे मारी लार, तिणसूं भेळो नहीं करूं आहार॥ २० गण में रहूं निरदावे एकलो, किणसूं मिल नही बाधूं जिलो।
किण नै रागी करै राखू म्हारो, एहवो पिण नहीं करूं बिगारो॥ साध साधवियां री बात, उतरती न करूं तिलमात। बले माहोमां कलह लागे, किण री नहीं कहूं किण ही आगे।। इण विध रहूं गण मझारो, किण रा ओगुण न बोलूं लिगारो।
एहवा सूंस करावो आप, च्यार तीर्थ नै साखी थाप ।। ___ कदा कर्म जोग परूं न्यारो, तो हूं मुख में न घालू आहारो।
ओ पिण सूंस करावो मोय, तिण रा साखी करो सहु कोय।। २४ च्यार तीर्थ नै दो थे जणाय, मो छूटक री न माने वाय।
यांने ही दो सूंस कराय, पिण मोनै राखो गण मांय॥ २५ गुर ने उपनी जाणे अप्रतीत, तो इम उपजावे परतीत।
ज्यां रे मुगत जावा री छै नीत, ते गुर ने आराधे इण रीत॥ २६ जे समता रस में रह्या झूल, ते तो मरणो इ कर दे कबूल।
पिण गुरुकुलवासो नहीं मूके, विनादिक गुण नहीं चूके ।। २७ सुवनीत गुरां ने अराधे, ते आत्मा रा कारज साधे।
विनौ कर गुर नै रीझावे, ते मुक्ति तणा सुख पावे ।। अथ इहां पोता री परतीत जमावण रो उपाय गुरां ने रीझावा रो उपाय स्वामी भीखणजी बतायो। तिण सूं विनैवान हुवे ते ए सीख धारी गुरां ने अराधे। तेह नो इहभव परभव में जस वधे। मर्यादा सुध पाळ्यां मुक्ति मिले। अवनीत अजोग री संगत न करे। टाळो कर अनेक फेर फितूर करे आप री जमावण वास्ते अनेक उपाय घुनराइ कुबध केलवै।
तिण नै आछी तरै सूं ओळख ने संगत करे नहीं। काळा साप सरीषा किंपाक फळ
१.मायावी।
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सरीषा जाणी संग छांड़े। ते भणी पैंताळीसा रा लिखत में एहवो कह्यो छै टोळा मांहे सूकदाच कर्म जोग टोळा बारे पड़े तो टोळा रा साध-साधव्यां रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै यां री अंस मात्र संका पड़े आसता ऊतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मांहे सूं फारने साथे ले जावा रा त्याग छै उ आवे तो ही ले जावा रा त्याग छै टोळा मांहे अने बारे नीकळ्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन बात करणी, भागहीण हुवै सो उतरती बात करै, तथा भागहीण सुणे, तथा सुणी आचार्य ने न कहे ते पिण भागहीण छै। तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो। हरामखोर कहणो। तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो।
गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।। इति' दशवकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुध आराध्यां इहभव परभव में सुख कल्याण हुवै।।
ए हाजरी रची संवत् १९ से १० जेठ विद ११ वार सोम देस मालवो बषतगढ मध्ये धारानगरी के जिला में है।
१. दसवेआलियं,५।२।४५,४०
तेरहवीं हाजरी : २५५
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चौदहवीं हाजरी
___ पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणा। ई· भाषा एषणा में सावचेत रहिणो। आहार पाणी लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो। सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै लेणो। पूजतां परठवतां सावधानपणे रहणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी। भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देख नै श्रद्धा आचार प्रगट कीधा-विरत धर्म ने अविरत अधर्म , आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछे ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग छै। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
तथा संवत् १८५० रे वर्स तथा ५२ रे वरस आर्यां रे मरजादा बांधी। तिणमें कह्यो-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो दोष रा धणी ने कहणो तथा गुरां ने कहणो। पिण ओर किण ही आगे कहणो नहीं। किण ही आर्यां जांण ने दोष सेव्यो हुवे तो पांना में लिख्यां विना विगै तरकारी खाणी नहीं। कोइ साधु-साधवियां रा ओगुण काढ़े तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहणो 'स्वामी जी ने कहीजो' जिणरा परिणाम टोळा में रहिण रा हुवे ते रहिजो। कपट ठागां तूं मांहे रहिवा रा त्याग छै। टोळा बारे हवां पछै साध-साधवियां रा अवगण बोलण रा त्याग छै। अनंता सिद्धां री साख करने त्याग छै।
तथा चोतीसा रे वर्स आर्यां री मर्यादा बांधी-टोळा रा साध आर्यां री निंद्या करे तिण ने घणी अजोग जाणणी। तिण ने एक मास पांचू विगैरा त्याग छै। जितरी बार करै जितरा मास पांचू विगै रा त्याग छै। तथा पचासा रा गुणसठा रा लिखत में कदाच कर्म धक्को दियां टोळां तूं टळे तो टोळा रा साध-साधव्यां रा अंसमात्र हुंता अणहुंता अवगुण बोलण रा त्याग छै। टोळा नै असाध सरधने नवी दिख्या लेवे तो पिण अठी रा साध-साधव्यां री संका घालण रा त्याग छै। उपगरण टोळा मांहे करे ते, परत पांना लिखे जाचै ते, साथे ले जावण रा त्याग छै। इण सरधा रा भाई बाई हुवै जिण क्षेत्र में एक रात उपरंत रहिणो नहीं। ए मर्यादा उत्तम जीव हुवै ते लोपे नहीं। अवनीत नै निषेध्यां गुणग्राही तो राजी छै। उंधी प्रकृति वाला ने ऊंधो सूझे, ते द्वेष जाणे, 'सांनीयां'नै' दूध मिश्री संवली न परगमे। आगे भीखणजी स्वामी पिण किण ही री प्रकृति री खामी जांणी, तिण री खोड़ मिटावा अनेक बंधवस्ती कीधी। मेणांजी रे आंख रो कारण ते गोगूंदे हुंता त्यां ऊपर भीखणजी स्वामी कागद लिख्यो सिथलपणो जाण्यो ते मिटावा अर्थे कागद भिक्षु री हाथ अक्षरां रा देखादेख लिखिये छै
१. सन्निपात में आये हुए को। २. सही। २५६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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"-आर्यां मेणांजी धनांजी फूलांजी गुमानांजी गोगूदा माहे रहे तो वैसाख सुध १५ पछै चोपड़ी रोटी ने जाबक सूंखड़ी वैहरण रा त्याग छै। फूलांजी गुमानांजी रे घी रो आगार छै। घी वैहरणो, पिण चोपड़ी रोटी न वैहरणी मारगियां रै घरे आठ दिन टाळ नै नवमे दिन जाणो। एक रोटी तथा एक रोटी रो बारदानो वहरणो, पिण इधको न वैहरणो। इम मारगियां रे घरे च्यार पातरां टाळ जांणो। कदा पाणी री भीड़ पड़े तो दूजे पातरे जाणो। पाणी धोवण ल्यावणो। पिण बीजो कांई न ल्यावणो। फूलांजी गुमानांजी कहे जठे गोचरी जांणो। ए जाए जिण बात रो लिगार मातर जणावणो नहीं। 'यां री दाय आवे जठे जाये' यूं कहणो नहीं। अंस मातर इण बात रो केतब करणो नहीं। ओळभो देणो नहीं, यां री दाय आवसी जठै गोचरी जासी। अंसमात्र कुलक भाव आणणां नहीं। अनुक्रमे गोचरी करणी। रोटी रा देवाळ रो घर छोड़णो नहीं। आंखिया अबल हुवां पछै साधां सूं भेळा हुवां पछै साध आज्ञा देवे जद चोपड़ी रोटी नै सूखड़ी रो आगार छै। आगनां दिया विना चोपड़ी रोटी नैं सूंखड़ी वैहरण रा त्याग छै। कदा मेणांजी गोगूंदे वेस रहै तो फूलांजी गुमानांजी रै सूखड़ी रो आगार छै। गोचरी फूलांजी गुमानांजी रै दाय आवै जरे ऊठसी। ग्रहस्थ नै जणावणो नहीं। ग्रहस्थ सांभळतां यूं कहणो नहीं-म्हारे पारणो आंण दो। ग्रहस्थ कहे-आं ने पारणो आंण दो जद मेणांजी नै यू कहणो-थे किण लेखे कहो छो साहमी म्हारी संका पड़े, थे भला होवो तो म्हारा पारणा री थे कदे इ बात कीजो मती। मां साधां री साध जांणा। थे क्यां ने विचे पड़ो छो।
गोगूदा सूं विहार कर नै नाथदुवारे आवणो नही। काकड़ोली राजनगर, केलवे, लाहवे, आमेट, आवणो नही। साधां कनै आवे तो ओर क्षेत्रों में वेह ने आवणो। कदा मणांजी गोगंदे पर रहे तो आया ने किण ही गांम कपडा नै मेलणी नही। महीं मोटो आवे जिसो गोगुंदा मांहे लेणो नै भोगवणो। मेणांजी धनांजी रै रागाधेखो घणो देखो,कलेस कदागरो घणो देखो, माहोमांहि कजिया करता देखो, यां रै साधपणो नीपजतो न देखो, थां रै पिण कर्म बंधता देखो, साधपणो नीपजतो न देखो, फूलांजी नै गुमांना यां दोयां सूं आहारपाणी कीजो मती। थे दोनूं जणी उरी आवजो। चोमासो हुवै तो चोमासो उतस्यां उरी आयजो। पिण यां रा कजिया में थारो साधपणो खोइजो मती। यां में भारी दोष थकां आहारपाणी भेळो कीजो मती। भेळो कियो तो थां ने भारी प्राछित आवसी। पछै थारी थे जांणो। दोष लगावे ते भाया ने जणावजो। जितरी बात हुवै दोष री ते सगळी भाया नै जणायवो कीजो। ज्यूं यां नै पिण न्याइ अन्याइ री खबर पहै। ज्यूं हिवै अंसमात्र बात भायां बायां सूं छांनी राखजो मती। बात तो बिगर चुकी, हिवै क्यांने छांनी राखो। मेणांजी गोगूदे रह्यां घणो फितूरो हुँतो दीसै छै, तिण सूं जिण मांहे दोष थोड़ो ही १. श्रावकों। २. सामग्री। ३. कमी।
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बायां भारत रो तुरत जणाय जो । आगो काढो तो थांरे घणो घणो क जियो दसै छै ।
फूलांजी ! गुमांनांजी ! थे पाधरा न चालीया तो थां रो वसेष फितूरो ह्वे तो दीसै छै। तिण सूं थे घणां सावधान रहीजो। जेठ सुदि १५ पछै फूलांजी नै गुमानांजी रै सुखड़ी रो आगार छै। मेणांजी रे साधां सूं भेळा हुवे जद साध आगन्यां देवे जद आगार छै-चोपड़ी रोटी सुंखड़ी रो । मेणांजी री पड़िलेहण धनांजी गुमांनांजी थे दोनूं जणा वारियां - सारियां करणी, हर कोइ काम वारियां सारियां करणो ओर आय मांदी ताती हुवै तिण नै गोचरी उठावणी नहीं। पछै उण आगां सूं कराय लेणो । पिण मांदी आगां सूं का काम करावणो नहीं । उण रो पिण काम साजी हुवै त्यां कनै रावणो ।
हिवै फूलांजी रै बोल न्यारो - फूलांजी नै गोचरी जाबक उठावणी नहीं । लिगार मात्र काम भळावणो नहीं। फूलांजी री तरफ गाढ़ी साता हुवै तो फूलांजी रै दाय आवे तो करसी। बीजी आर्य्यां ने यूं कहणो नहीं - 'थे करो नही कांम' फूलांजी री सेवा भगति करणी हुवै तो फूलांजी ने राखजो । फूलांजी री सगत हुसी तो मन होसी तो करसी। फूलांजी रा दिन परता छै, तिण सूं ए करार कीधो छै । आसंग हुवै तो राखजो। नहीं तर परी ले जावां । कोइ फूलांजी नै मेणांजी नै यूं कहे - 'म्हे थांने बेठी नै खवारां छां' इसी आमनां पिण जणावे, तिण नै तेलो प्राछित, कै जेती वार तेला । मेणांजी रै सूखड़ी रा त्याग सर्वथा - लापी सीरादिक रा । साधां सूं भेळा हुवै जठा तां धनाजी रै छै ज्यूं । जेठ विद ६ ।
अथ इहां भीखणजी स्वामी मेणांजी आंख्यां रा कारण सूं गोगूंदे रह्यो, त्यां री खांमी मेटवा इसड़ी बंधवस्ती कीधी । तो पिण साधपणो पालवा री दिष्ट तीखी राखी पण मर्यादा लोपी नहीं। अनै दुष्ट आत्मा रो धणी अविनीत अजोग तिण रो स्वार्थ अणपूगां किंचत कष्ट थी टोळा बारे नीकळी भीखणजी स्वामी री मर्यादा लोपी सूंस भांगी अवर्णवाद बोले, निरलज नागड़ो होय जावे, परम परम उपगारी गुर सम्यक्त चारित्र पमायो सूत्र भणाया ते कीधो उपगार ते सर्व भूल नै कृतघन होय जाय, मन म खोटी परूपणा करे, सर्व साधां नै असाध सरधावै, ते ऊपर भीखणजी स्वामी कही ते गाथा - वनीत अवनीत री चौपी मांहिली-
१
१. लय-बूढो
करतो ।
२५८
ते तो गुर सूं पिण नहीं गुदरे, त्यां रा कारज किण विध सुधरे। तिनै करे टोळा सूं न्यारो, तो उ चोर ज्यूं करै बिगाड़ो ||
डिग - डिग
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२ सगळा साधा नै कहे असाध, बले करे घणो विषवाद।
सर्व साधां रो होय जाये वैरी, केइ एहवा छै अवनीत गेरी॥ ३ तिण नै लोक आरै करै नाही, तो उ प्राछित ले आवै मांही।
त्यां न असाध परुप्या मुख सूं, त्यां रा वांदे पग मस्तक सूं। जो उ बले न चाळे सूधो, तो उण नै बलै करदे गुर जुदो। जब अवनीत रै उवाहीज रीत, न्यारो कियां बोले विपरीत॥ लोका नै साधां सूं भिडकावे, आप बुगलध्यानी होय जावै। बले कूड़कपट रो चाळो, आत्मा नै लगावे काळो।। उ तो अवगुण काढ़े अनेक, बुधवंत न माने एक।
एहवा अवनीत छै गुरद्रोही, तिण आत्म पूरी विगोइ।। ७ जो मांने अवनीत री बात, त्यां रा घट मांहे आवे मिथ्यात। एहवा अवनीत अवगुणमारा, त्यां सूं बुद्धिवंत रहसी न्यारा॥
. अथ इहा भीखणजी स्वामी पिण कह्यो
"अवनीत री याहीज रीत, न्यारो हुवां बोले विपरीत।" एहवा अवनीत रा लखण कह्या। ते अविनीत इह लोक म फिट-फिट होवे अनै परभव में नरक निगोद में जाय अनंत काळ दुख भोगवै। भीखणजी स्वामी पिण अवनीत रा फळ कड़वा कह्या छै, अवनीत नै छोड्यां गुण कह्यो छै, ते गाथा१ 'उज्झिया भोगवती नै घर सूंपिया रे,तो करे खजानो खुराब रे। सुगण नर। ज्यूं अवनीत नै गण सूपियां रे लाल, तो जाए टोळा री आब रे। सुगण नर।
भाव सुणो अवनीत रा रे लाल.॥धु पदं ।। जिण टोळा में अवनीत छै, तिण सूं आछो कदे मत जांण। तिण री खप करने ठाम आंणजो, नहीं तो परहरो चतुर सुजाण ॥ ज्यूं अवनीत नै छोड्यां थकां, ज्ञानादिक गुण वधता जांण। मिट जाये कलेस कदागरो, त्यां नै नेड़ी हुसी निरवांण।। ज्यां रै सिखां रो लोभ लालच नहीं, ते तो दूर तजे अवनीत। गरगाचारज सारिषा, गया जमारो जीत। केइ अवनीत नरके गया, केइ जाय पझ्या छै निगोद। आप छांदे उंधी अकल स्यूं, ते गमाय नै समगत' बोध। अवनीत में अवगुण घणां, ते तो पूरा कह्या न जाय । तिण अनुसारे अनेक छै, ते बुद्धिवंत देसी बताय॥
१. लय-धीज करै सीता सती
२. सम्यक्त्व
।
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७ अवनीत रा भाव सांभळी, घणो हरष पामे पर नार।
केइ भारीकर्मा उळटा पड़े, त्यां रे घट माहै घोर अंधार।। अथ अठे पिण अवनीत री संगति तजणी कही। तथा पैंताळीसा रा लिखत में कह्योटोळा माहे कदाच कर्म जोगे टोळा बारे पड़े तो साधु-साधवियां रा अंसमात्र अवगुण बोलण रा त्याग छै। यांरी अंसमात्र संका पडै आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मांसूफारने साथे ले जावा रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावा रा त्याग छै। टोळा मांहे न बारे नीकळ्यां ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमांहि मन फटे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन रूप बात करणी। भागहीण हुवै सो उतरती बात करे। तथा भागहीण सुणे, सुणी आचार्य ने न कहे ते पिण भागहीण। तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो। हरामखोर कहणो। तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥
आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।।
इति 'दशवेकालिक में कह्यो। ते मर्यादा आज्ञा आराध्यां इह भव पर भव सुख कल्याण हुवै।
ए हाजरी रची संवत् १९१० जेठ विद १४ वृहस्पति बगतगढ़े।
१. दसवेआलियं,५/२/४५,४०
२६०
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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पन्द्रहवीं हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणा। ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहिणो। आहार पाणी लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो। सूजतो आहार पिण आगला रा अभिप्राय देख नै लेणो। पूजतां परठवतां सावधानपणे रहणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी। भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देख नै श्रद्धा आचार प्रगट कीधा-विरत धर्म, अविरत अधर्म । आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछे ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग छै। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी। पचासा रा लिखत में कह्यो- किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहिणो, अथवा गुरां नै कहिणो, पिण ओरां ने न कहिणो, घणां दिनां आडा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उ हीज छै।
तथा बावनां रे वर्ष आर्यां रे मर्यादा बांधी तिण में इम कह्यो-किण ही साध आर्थ्यां मांहे दोष देखे तो ततकाल धणी नै कहणो, के गुरां नै कहणो पिण ओरां ने कहणो नहीं। किण ही आल् दोष जाण नै सेव्यो हुवै ते पांना में लिखियां बिनां विगै तरकारी खांणी नहीं। कोइ साध-साधवियां रा ओगुण कादै तो सांभळण रा त्याग छै। तथा घणां दिनां पछै दोष न कहिणा, लिखतां में तथा रास में ठांम-ठांम कह्यो छै। तथा 'साध सीखावणी' ढाळ रा दूहा में घणा दिनां पछै दोष कहे तिण नै, मर्यादा रो लोपणहार कह्यो। कषाय दुष्ट आत्मा रो धणी कह्यो छै। तथा चोतीसा रे वर्स आर्सा रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो-ग्रहस्थ आगे टोळा रा साध आर्यां री निंद्या करे तिण नै घणी अजोग जाणंणी। तिण रे एक मास पांचू विगै रा त्याग छै। जितरी वार करै जित रा मास पांचू विगै रा त्याग। जिण आर्यां साथे मेली तिण आर्थ्यां भेळी रहै अथवा आर्यां माहोमांहि भेळी रहे अथवा चोमासे भेळी रहे त्यां रा दोष हुवै तो साधां सूं भेळा हुयां कहि देणो, न कहे तो उतरो प्राछित उण नै छै।
तथा पैंताळीसा रा लिखत में तथा पचासा रा लिखत में तथा रास में जिला ने घणो निषेध्यो छै तथा पचासा रा लिखत में तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-उसभ उदै टोळा सूं न्यारो पड़े तो किण ही साध साधवियां रा ओगुण बोलण रा नै हुँतो अणहूंतो ख्रचणो काढण रा त्याग छै। रहिसे-रहिसे लोकां रे संका घाल नै आसता उतारण रा त्याग छै। टोळा नै असाध सरध नै फेर नवी दिख्या लेवे तो ही अठीला साध-साधव्यां रा ओगुण बोलण रा त्याग छै। एहवो गुणसठा रा पचासा रा लिखत में कह्यो छै। जे टोळा बारे नीकळी पोता री समदृष्टि राखे, फेर टोळा रा साध-साधव्यां
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रा गुण गावै, ते पिण बिरला छै। भीखणजी स्वामी 'एकल रा चोढाळयां' में कह्यो छै किण सूं आचार पळे नहीं, पिण समकत राखे । गण छोड़ी एकलो हुवै, पिण ओरां में दोष काढ़े नहीं ।
तथा आगे केइ अविनीत थया, त्यां री भीखणजी स्वामी कांण न राखी । बले नंदूजी बनाजी री प्रकृति अजोग जांणी त्यां नै कागद लिख्यो ते लिखिये छै
आय नंदूजी बनांजी रतूजी सू ऋष भीखन रो कहण वांचजो । उपंच थांरी कूक' घणी सुणी छै । भायां बायां वंदना छोड़ी सुणी छै । थे नै बनांजी मिली सुणी छै । रतु ने न्यारी कर राखो छो, मांहो मां कलेस घणो सुण्यो छै । आहार पांणी रो कजियो घणो सुण्यो छै। आचार आश्री खांमी घणी सुणी छै। दोष लगाया घणा ते सुण्या छै । आगन्यां लोप ने सरधा रा खेत्रा में फिरिया छो, खेरवे चोमासो आगन्यां विनां कीधो छै, थां नै आगन्या लोपणी न थी । हिवै थां कनै धनांजी नै मेल्या छै । आचार गोचार पाळियां आछी लागसी । आपरै छंदे चाल्यां आछी लागसी नहीं । आगै दोष लागा रो प्राछित देणो छै । हिवै च्यारों इ आर्य्यां मिल नै चालजो। सरधा रा क्षेत्रां में रहिजो मती | म्हारे पिण वेगो आवण रा भाव छै । रतू ने थांरो निकाळो काढण रा भाव छै । थे तू रो लोकां में घणो फितूरो कीयो छे । घणां गावां रा भाया वंदना छोडी सुणी छै । मेवाड़ में पिण भायां बायां थांरो घणो फितूरो करै छै । साधां नै ओळंभो देवे छै । यां नै
मां क्यूं राखे छै। यूं कहे छै। बनांजी रतु जी सूं बोले छै ते नंदूजी रा भेद में है छै । खेरवा मांहे थांरा फितूरा रो समाचार मां ताई आयो छै । जाबक साधपणां मांहे अन्याय करै छै, यूं कहे छै । रतु ने दुख देवे इम कहे छै। पिछेवड़ी आहारपाणी रो
जो सुयो । भेषधारी मेवाड़ में ते थांरों फितूर म्हां कने लोका में कीधो । टोळा री घणी हळकाइ लगाइ । साध सत्यां रो मन थां सूं भागो छै । हिवै थे चिंता कीजो मती । अबे ही आलोय पड़िकमी ने सुध होय नै चोखो पालजो । लोकां एक आय मेलण रो ओर कह्यो, पण काइ आय आवती जाणी नहीं । धनांजी नै थां कनै मेल्या छै । थे ना को तो थांरा आचार पालण रा परिणांम दीसे नहीं । बनांजी ने फारने आपणी कीधी जसा । ति सूं धनांजी भेळा राखण रो ना कहीजो मती ने सरधा रा खेत्रा में चोमासो करजो मती। थे घणा क्षेत्रां में टोळा रो फितूरो करायो, तिण सूं सरधा रा खेत्र वरज्या छै । हिवै च्यारों इ आर्यां मांहोमांहि घणो हेत राखजो । 'खाटा-खेटों' कीजो मती । लिखतू ऋष भीखन सं. १८५८ जेठ विद १२ । चोपड़ी रोटी वहिरजो मती, चोपड़ी रोटी री संका पड़ी। नंदूजी रे विहार करवा री सक्त न हुवै तो मांडे चोमासो कीजो | बले अनेरे क्षेत्र चोमासो करो तो मारग मांहे सरधा रा क्षेत्र टाळ नै बिहार करजो। मां सू भेळा हुवां पहली प्राछित लियां पेहली विगै खायजो मती । च्यारूं जणी।
१. अपवाद ।
२. खींचता ।
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इहा पिण भीखणजी स्वामी खामी मेटवा अनेक सीखामण दीधी ते भणी सुवनीत हुवै ते समभाव सूं खमे। अने खामी मेटे, विनय बधावे तो ए भव में गुरां री मुरजी वधे। सुजश हुवे। परभव मुक्ति नेड़ी हुवै। तथा विनीत अवनीत री चोपी में भाव विवध बताया ते कहे छै। १ जो अगन में रुड़ी वस्त घाल्यां थकां, तो बळ जळ भस्म होय जाय हो। ज्यूं अविनय रूपणी अगन सूं बळे, अवगुण परगट थाय हो।
श्री वीर कह्यो अवनीत नै अति बुरो ॥ध्रुपदं। कोइ बालक नाग जांणी नै खिजाविया, तो उ पामे उण सूं घात। इण दिष्टंते गुर री हेला नंद्या कियां, पांमे एकेद्रियादिक जात॥ आसीविष सर्प अंतत रूठो थको, जीव घात सूं अधिको न थाय। पिण गुर रा पग अप्रसन्न हुआं थकां, अबोध नै मुक्ति न जाय॥ कोइ अग्नि प्रजळती ने चांपे पग थकी,कोइ सर्प ने क्रोध चढ़ाये जांण। कोइ तालपुट विष खाये जीववा भणी, ज्यूं गुर री असातन जाण।। कदा अग्न न बाले मंत्रादिक जोग सूं, कदा कोप्यो ही सर्प न खाय। कदा तालपुट विष न मारै खाधां थंका,पिण गुर हेलणां सूं मुगत न जाय॥ कोइ पर्वत बांछे सिरसूं फोड़वो, कोइ सूतोइ सींह जगाय ।
कोइ भाला री अणी ने मारे टाकरां, ज्यूं गुर री असातन थाय॥ ७ कदा पर्वत पिण फोड़े कोइ मस्तके, कदा कोप्योइ सींह न खाय।
कदी भालो इ न भेदे टाकरां, पिण गुर हेलणां तूं मुगत न जाय। ८ कोइ क्रोधी कुशिष्य अज्ञानी अहंकार सू, बोले विगर विचारी वांण।
ते मायावियो धूरत तांणीजसी संसार में,काष्ट वूहो जाये पाणी में जांण। अवनीत नै सीख दिये हेत जुगत सुं, तो उ क्रोध करै तिण बार।
तो आवती लिछमी न ठेळे डांडे करी, ते तो पूरो छै मूढ गिंवार॥ १० केइ हाथी घोड़ा छै अवनीत आत्मा, त्यां नै प्रत्यक्ष दीसै दुःख।
अवनीत धर्म आचार्य तेह नो, ते किण विध पांमे सुख ।। ११ वले अवनीत आत्मा दुख पांमे घणो, लोक मांहे नर नार।
ते विकलेन्द्री सरीखा छै सुध-बुध बाहिरा,त्यांरो बिगड्यो दीसै आकार। अवनीत ज्ञान दर्शन चारित्र तणों, उ दिन-दिन पांमे विणांस। उण नै ऊंधो सूझे ऊधो ही अर्थ करै,बलै बुधि नै अकल रो होवे नास॥
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१. लय : पूज्यजी पधारो नगरी सेविया।
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१३ नकटी बूंटी कुलखणी नार नै, तिण नै परहरी निज भरतार।
तिण बिगड़ायल नै जोगी भकड़ादिके आदरै,ते पिण जाये तिण लार।। १४ नकटी नै आप सरीषा आए मिले, घणो हरष धरै मन प्रीत।
ते इधको न बंछै आपणपो खोजियां, तिमहिज जांणो अवनीत।। १५ नकटी जोवे जोगी भकड़ादिके, ज्यूं अवनीत जोये अजोग।
उसभ उदै हुवै अवनीत रै, तो मिल जाये सरीषो संजोग ।। १६ कांदा नै सो वार पाणी सूं धोवियां, तो ही मिटे नहीं तिण री वास।
ज्यूं अवनीत नै गुर उपदेस दिये घj, पिण मूळ न लागे पास। १७ कांदा री तो वास धोयां मुधरी पड़े, पिण निरफळ अवनीत नै उपदेश।
जो छैड़वै तो अवनीत अवळो पडै घणो,उण रे दिन-दिन अधिक कलेस॥ १८ कोइ गुर भगता छै सुवनीत आत्मां, गुर छांदा रो चालणहार।
जो हेत देखे तिण ऊपर गुर तणों, तो अवनीत दे मुंह बिगाड़। १९ वनीत ऊपर हेत होवे घणो गुर तणो, तो अवनीत नै दुख हुवै साख्यात।
जब अवगुण सूजै अणहुंता गुर तणा, बलै बांछे वनीत री घात।। २० अवनीत जाणे विनीत मूआं थकां, पछे मांहरो हीज हुसी आघ।
एहवा परिणामा घात बंछै सुवनीत री, तिण लीधो कुगति नो माग॥ २१ बलै ओषध भेषध आहार पांणी तणी, उ जांणे न पाड़े अंतराय।
दुख नै असाता बंछै सुवनीत री, अविनीत नै ओळखो इण न्याय।। २२ ओरां रै अंतराय असाता दुख चिंतव्यां, तिण रै बंधे महामोहणी कर्म।
सितर कोड़ाकोड सागर त्यां लगे, नहीं पांमे जिण धर्म।। २३ जो पाप उदै हुवै अवनीत रै इण भवे, तो सगळां ने लागे जेहर समान।
बले गमतो न लागै तिण रो बोलियो, आगै खुलसी दुखां री खान।। २४ गुर बारां सूं आयां उठ ऊभो हुवे, पग पूंज नमें सुवनीत।
अवनीत नै इतरो ही करणो दोहिलो, कदा करै तो ही भुंडी रीत।। २५ पग पूंज व्यावच करणी अवनीत नै, ते तो कठिण घणो छै काम।
काम पड्यां अवनीत टाळो दियै, तिण रे प्रबल अविनो नै अभिमान।। २६ गुर भगता उपर धेष अवनीत रो, बलै ईसको ने खेदो अत्यंत।
उण रा छिद्र जोवे उतारण आसता, तिण रा चरित जांणे मतिवंत॥ २७ बलै करै वनीत सूं मूढ़ बरोबरी, पिण विनौ कियो मूळ न जाय।
बलै अवगुण न सूजै अवनीत नै आपरा, तिण सूं दिन-दिन दुखियो थाय॥
१.मंद।
३. जलन। २.ईा । २६४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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इहां अवनीत नै भात-भांत ओळखायो छै। ते भणी अवनीतपणो उत्तम हुवै सो छोड़ो। बारे पडै तो टोळा रा साध-साधव्यां रा अंस मात्र अवर्णवाद बोलणरा त्याग छै। यांरी अंस मात्र संका पडै आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्यांग छै। टोळा सूं फार नै साथे ले जावा रा त्याग छै। उ आवे तो ही ले जावा रा त्याग छै। टोळा मांहे न बारै नीकळ्यां अंस मात्र अवगुण बोलण रा त्याग छै। माहोमां मन फटे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन सूप बात करणी। भागहीण हुवै सो उतरती बात करे, भागहीण सुणे। सुणी गुरां ने न कहै ते पिण भागहीण। तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो हरामखोर कहणो।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥
आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं॥
इति 'दशवैकालिक में कह्यो-ते आज्ञा मर्यादा आराध्यां इह भव पर भवे सुख कल्याण हुवै। ए रची सं १९१० जेठ बिद १४ बगतगढ़
१.दसवेआलियं,५/२/४५,४०
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सोलहवीं हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणां। ईर्ष्या भाषा में सावचेत रहिणो । आहारपाणी लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै लेणो। पूजतां परठवतां सावधान पणे रहणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी। भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देख नै श्रद्धा आचार प्रकट कीधा-विरत धर्म ने, अविरत अधर्म । आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछे ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नौ मार्ग छै। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
तथा संवत् १८५२ वरस आर्यां रे मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाल धणी ने कहणो। तथा गुरां नै कहिणो। पिण और किण ही आगै कहणो नहीं। किण ही आर्त्यां जांण ने दोष सेव्यो हुवै ते पाना में लिख्यां विना विगै तरकारी खांणी नही। कोइ साधु-साधवियां रा ओगुण काढ़े तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहणो–'स्वामी जी नै कहीजो' जिण रा परिणाम टोळा मांहि रहिण रा हुवै ते रहिजो। पिण टोळा बारे हुवां पछै साधु-साधवियां रा अवगुण बोलण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। बलै करली-करली मरजादा बांधे त्यां में पिण ना कहिण-रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै।
. तथा चोतीसा रे वर्स आर्यां रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो-टोळा रा साध आर्सा री निंद्या करै, तिण नै घणी अजोग जाणणी। तिण नै एक मास पांचू विगै रा त्याग छ। जितरी वार करै जितरा मास पांचू विगै रा त्याग छै। जिण आ· साथे मेल्या तिण
आ· भेळी रहे अथवा आर्यां मांहोमां शेषे काळ भेळी रहे अथवा चोमासे भेळी रहे त्यां रा दोष हुवै तो साधां सू भेळा हुवै जद कहि देणो न कहै तो उतरो प्रायछित उण नै छै। टोळां सूं छूट हुवा री बात माने त्यां नै मूरख कहीजे। त्यां नै चोर कहीजे।
तथा पचासा रा लिखत में कह्यो-ग्रहस्थ साधु-साधवियां रो सभाव प्रकृति अथवा दोष कहै बतावै जिण नै यूं कहणो-मो नै क्यांने कहो, के तो धणी नै कहो, के स्वामी जी नै कहो। ज्यूं यां नै प्राछित देने सुध करे, नहीं केसो तो थे पिण दोषीला गुरां रा सेवणहार छै। जो स्वामी जी नै न कहिसो तो थां में पिण बांक छै। थे म्हांने कह्या कांइ हुवै। यूं कहि नै आप न्यारो हुवै, पिण आप बेदा में क्यांने पड़े। पेला रा दोष धार ने भेळा करै ते तो एकंत मिरषावादी अन्याइ.छै।
तथा पचासा रा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-कर्म धको दीधां टोळा सूं टलै तो टोळा रा साध-साधव्यां रा हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा त्याग छ। टोळा नै २६६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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असाध सरध नै नवी दिख्या लेवे तो पिण अठी रा साध-साधव्यां री संका घालण रा त्याग छै। उपगरण टोळा मांहे करे ते, परत पाना लिखे जाचे ते, साथे ले जावण रा त्याग छै। तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-टोळा सूं टळे तो इण सरधा रा बाई भाई हुवै जिण खेत्रां में एक रात उपरंत रहिणो नहीं-एहवो गुणसठा रा लिखत में कह्यो। ते मर्यादा सुद्ध पाळणी।
टोळा बारे नीकळी मर्यादा लोपे अवगुण बोले तिण री बात तो उण लखणो विकळ मांने पिण हळुकर्मी न मांने आगे पिण टोळा बारे नीकळी अवगुण बोल्या त्यां जमारो बिगाड्यो। भीखणजी स्वामी चंदू नै टोळा बारे काढ़ी। तिण अवगुण बोल्या। ते भीखणजी स्वामी लिख लिया ते भिक्षु रा अक्षरां री देखादेख लिखिये छै। चंदू नै टोळा बारे काढ्यां पछै चंदू लोकां आगै आर्यां रै आळ देवे छै, अवगुण बोले छै, तेहनी विगत
आर्यां ढीली हालै तिण सं म्हांनै टोळा मांहे किण विध राखे। २. भीखणजी रै कूड़ घणो, दगो कपट घणो, माहे काळा बारे काळा। ३. पांच रोट्यां हीरांजी खाये, पाव पाव घी खाये, सिरियारी में चोखो
चोखो आहार मिले लोळपणां री घाली क्षेत्र छोड़े नहीं। . ४. भीखणजी कोड़ कसायां विचे भारी, फतू बाई कह्यो।
रूपांजी रे खेतसी जी भाई, नगांजी रे वेणोजी भाई, हीरांजी मानती लाडकी, तिण सूं यां रो आघ आदर घणो, बीजा री गिणत कांइ नहीं,
बीजी बापरियां रोवती रहै छै, म्हारी किसी गिणत। ६. माहोमाहे आर्यां रा थांनक मांहि बायां दोय वरस हुया 'वासीदो देवे छै'।
ग्रहस्थ रा परवा कनै गुमानां जी सारी राति रोया। ८. धनांजी कह्यो-म्हारो जीभ रो स्वाद छोड़ायो। पिण साधपणो तो स्वामी
जी में कोई नहीं। ९. बापरी धनांजी रोवे छै। १०. नंदूजी घणी रोवे छै। ११. रतूजी घणी रोवे छै। १२. कुसालाजी रोवे छै। ए च्यार बोल पाली माहे बायां नै साधा बेठां कह्या। १३. मने पछेवड़ी काइ दीधी नहीं, वटको इ कोइ दीधो नहीं। १४. कनै पांच बासती थी पिण दीधी नहीं। कह्यो मां कनै को नही। १५. म्हारी मांदी री कोइ व्यावच किण ही कीधी नहीं।
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१.बुहारी निकालना।
२.स्थान विशेष।
३. टुकड़ा।
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१६. नगांजी री व्यावच कीधी, उण रे भाइ वेणोजी छै ते मांहे छै तिण सूं । १७. रूपांजीरे भाइ खेतसीजी छै तिण सूं उण री जत्न करै छै ।
१८. लालांजी री वियावच करे छै। सो उण रा बेटा वहिरावै घणो, तिण सं
करै छै ।
१९. पांच जणियां नै अजोग जाण नै त्यां नै मांहे क्यूं राखे ।
२०. टोळा रा भेषधारी ज्यूं ए ही चाले छै । एक थानक रो फेर छै ।
२१. भेषधारयां रै नै यारे एक थानक रो फेर छै बीजूं तो भेषधारयां विचे इ यां रै कपट घणो छै ।
इम अनेक अवगुण बोल्या ज्यांरी भीखणजी स्वामी गिणत राखी नहीं । इमहीज सर्व अवनीत जाणवो। उण री संगत सूं अनेक अवगुण प्रकट हुवै। कुसोभ । घणी हुवै। बलै विनीतअविनीत री चोपी मैं एहवी गाथा कही ते कहै छै
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कोइ अवनीत आगै समजियो ए, जो उ राखै उण री परतीत । ओरां री नहीं आसता है, तो उणरी पिण आहीज रीत के || अवनीत हवा ए ॥ धुप्रदं ॥ अवनीत समझावै तेह नै, जो उ मांने अवनीत री बात । ओरां सूं रहे ओपरो, तिण रे मांहे रह्यो मिथ्यात ।। अविनीत नै अवनीत श्रावक मिले, ते पांमे घणो मन हरष । ज्यू डाकण राजी हुवै, चढवा नै मिलिया जरक ॥ डाकण जरक चढी फिरै, ज्यूं अविनीत अविनीत रै साथ। डाकण मारै मिनख नै, ज्यूं ए करे समकत री घात ॥ डाकण चोर राजा तणी, तिण नै राजा मारे एकवार । अवनीत चोर जिण तणो, ते भव भव में खासी मार || के इ काछ लंपटी कुसीलिया, ते न गिणे जात कुजात । ग्रिधी घणा रूप रा, नीच घरै जाये साख्यात ॥ ते फिट-फिट हुवै सगळी न्यात में, बलै राजा देवे दंड । कुजरवी व ै घणी, हुवै देश विदेशां में भंड || काछ लंपटी नी ओपमा, अवनीत नै इम जांण । ग्रिधी घणो खांण रो, तिण सूं करै अति तांण ॥ समजाया विनीत अवनीत रा, त्यां में फेर कितोयक होय । ज्यूं तावड़ो नै छाहड़ी, इतरो अंतर जोय ॥
दीधी
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१. लय - कंवऱ्यां नै दीयो डायचो ।
२. दुर्दशा ।
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ओळखाविय, इमहीज
साधवी जांण । कीजो पिछांण ||
श्रावक नै श्रावकां तणी, तिमहीज
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११ केइक ग्रहस्थ अजोग छै, श्रावक श्रावका नाम धराय । अवनीत घणां साधां तणा, संके नहीं करता अन्याय ॥ १२ त्यां नै विनो धर्म सूंझे नहीं, प्रबल अविनो ने अभिमान । दगाबाजी करै जिन धर्म में, बलै कूड़ कपट री खांण ।। ते करै साधां री असातना, बलै बोले घणां विपरीत । त्यांरी अवगुणग्राही छै आतमा, ते अति ही घणा अवनीत ॥ एहवा अवनीत में अवगुण घणां कहतां नावै पार । पिण थोड़ा सा परगट करूं, ते सुणजो आंख उघाड़ || अथ अठे भीखणजी स्वामी अवनीत नैं भांत भांत करने ओळखायो बलै आगली ढाळ में पिण अवनीत जन्म कदाग्रही आदि अनेक अवगुण रा धणी नै ओळखायो ते गाथा
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केइ अवनीत श्रावक श्रावका, संके नहीं बांधता कर्म रे । करै धर्म ठिकांणे कदाग्रहो, नहीं ओळख्यो विनै मूलधर्म रे || के' इ अवनीत श्रावक एहवा ॥
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ते साध साधव्यां री निंद्या करै, अवगुण बोले विपरीत। पण सूंसकराय ग्रहस्थ कनै, त्यां री भोळा मांने परतीत ।। ते सूंसा री संक रो घालियो, ते किणविध काढे निकाळ | जो परतीत राखे एहवा अजोग री, तो बंधे असुभ कर्म जाळ || ऊंधा सूंस दिया अवनीत रा, ते सरध्यां हुवै समगत नास । एहवा दुपचखांण दूरा करै, आलोवण करै गुर पास ॥ उण कही ते सगळी कहै गुर कनै, गोपवी नहीं राखे लिगार । नहीं कह्यां तो सल मांहे रहे, ते मतिवंत करै विचार || बात अवनीत री मानिया, उण रे कुणकुण अवगुण थाय । उतर जाए साधां री आसता, सुध वंदना पिण कीधी न जाय ।। दान पिण देणी नावै भाव सूं, असणादिक च्यारूं इ आहार । संका सहित वहरावियां, किम हुवै परत संसार ॥ उलास न आवे साधु देखिया, अनेक गुणां री पड़ै हांण । दग्ध बीज ‘दाधा’-रीगो' हुवै, तिण री संगत रा ए फळ जाण ॥ जो सूंस भांगण डरतो थको, जो उ नहीं काढ़े तिण रो निकाळ | तो उ भ्रमण करै इण संसार में, ज्यू अरठ तणी घड़माळ ॥ १. लय-ममकरो काया माया । २. अर्ध ज्वलित।
१० अवनीत साधु
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सोलहवीं हाजरी : २६९
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१० सूंस दिराय अवगुण कहै, काढण न दे निकाळ | एहवा अविनीत अजोग नै, बुद्धिवंत जांण देसी टाळ || ११ कोइ अवनीत हुवै साधु-साधवी, तिण सूं मिले मूढ़ जाय । उ अहुंता अवगुण है तिके, ते धीर राखे मन मांहि ॥ १२ ते गुरु कनै आय कहै नहीं, अवनीत रो नहीं करै उघाड़ । बलै अवगुण बोलण करणै, तिण कियो छै जन्म खुवार || उसाच मांने अवनीत रो, बलै करै तिण री पखपात । सुध साधां री निंद्या करतो फिरै, तिण रे न मिटयो मूळ मिथ्यात || अवनीत नरमांइ करै उण कने, बलै बोले मीठा-मीठा वेण । करै कुसामदी तेहनीं, रोवे घणो भर-भर नेण ॥
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१५ पछै अवगुण बोले उण कनै गुर तणा, केइ एहवा छै दुष्ट अवनीत। गरीब होय आपो छिपाय दै, तिण री मूर्ख मांने परतीत । १६. जो साच मांनै अवनीत रो, घणां री न मांनै परतीत । पखपात करै अवनीत री, ते चिहुं गति होसी फजीत ॥ ए राग नै धेष नो घालियो, कर रह्यो कूड़ी पखपात । एहवा अजोग श्रावक तणी, कोइ मूर्ख मानसी बात | इम इहां पण अवनीत साध श्रावक नै घणो ओळखायो । निंद्या करै तेह नै मतिहीण ह्यो । ति की संगति सर्वथा न करणी । ते भणी पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो- टोळा माह कदाच कर्म जोगे टोळा बारे पड़े तो टोळा रा साध-साधवियां रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण नां त्याग छै। यांरी अंसमात्र संका पड़ै, आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा सूं फार नै साथे ले जावण रा त्याग छै। टोळा मांहे नै बारे नीकळ्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां न फटे ज्यूं बोलण नां त्याग छै । इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो । ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन सूप बात-करणी । भागहीण हुवै सो उतरती बात करै, तथा भागहीण सुणे तथा सुणी आचार्य नै न है ते पिण भागहीण । तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो हरामखोर कहणो । तीन धिकार देणी । आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥
इति 'दशवैकालिक में कह्यो - ते आज्ञा मर्यादा आराध्यां
इह भव परभवे सुख कल्यांण हुवै।
ए हाजरी रची संवत् १९१० जेठ विद १४ वार वृहस्पति बगतगढ़ मध्यै ।
१. दसवे आलियं, ५/२/४५,४०
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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सत्रहवीं हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणां। ई- भाषा एषणा में सावचेत रहिणो। आहारपाणी लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै लेणो। पूजतां परठवतां सावधानपणे रहणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहणो। तीर्थंकर री आज्ञा अखंड आराधणी। श्री भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देख नै आचार श्रद्धा प्रगट कीधी- विरत धर्म, अविरत अधर्म, आज्ञा मांहे धर्म, नै आज्ञा बारै अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग छै। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
किण ही साघ आर्ध्या में दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहणो, तथा गुरां नै कहणो, पिण औरां नै न कहणो। घणा दिन आड़ा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित धणी रो उ हीज छै।
तथा संवत् १८५२ वरस आर्यां रे मर्यादा बांधी, तिण में एहवो कह्यो-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो दोष रा धणी ने कहिणो तथा गुरां ने कहणो और किण ही आगे कहणो नहीं। आर्यां जाण ने दोष सेव्यो हुवै ते पानां में लिख्यां विना विगै तरकारी खाणी नहीं। कोइ साधु-साधवियां रा अवगुण काढे तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहणो-'स्वामी जी नै कहीजो' जिणरा परिणाम टोळा माहे रहिण रा हुवै ते रहिजो। पिण टोळा बारै हुवा पछै साधु-साधवियां रा ओगुण बोलण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। बलै करली-करली मर्यादा बांधे त्यां में पिण ना कहिण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै।।
तथा चोतीसा रे वरस आर्यां रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो-टोळा री साध आर्थ्यां री निंद्या करै तिण नै घणी अजोग जाणणी। तिण नै एक मास पांचू विगैरा त्याग छै। जित री बार करै जितरा मास पांचू विगै खावा रा त्याग छै। जिण आल् साथे मेल्यां तिण आर्यां भेळी रही अथवा आर्यां माहोमांहि सेषे काळ भेळी रहे अथवा चोमासे भेळी रहे त्यां रा दोष हुवै तो साधा सूं भेळा हुआं कहि देणो न कहै तो उतरो प्राछित उण नै छै। टोळा सूं छूट न्यारो हुआ री बात माने त्यांनै मूर्ख कहीजे।
तथा पचासा रा लिखत में कह्यो-कोइ ग्रहस्थ साधु-साधव्यां रो सभाव प्रकृत अथवा दोष कोइ ग्रहस्थ कही बतावे, तिण नै यूं कहिणो-मोने क्यांने कहो, के तो धणी ने कहो, के स्वामी जी नै कहो, ज्यूं यां नै प्राछित देने सुध करै, नहीं केसो तो थे पिण दोषीला गुरां रा सेवणहार छो। जो स्वामी जी नै नही कहिसो तो थां में पिण बांक छै। म्हां नै कह्यां कांइ हुवै। इम कहि नै आप न्यारो हुवै। पिण आप बेदा मांहे क्यांनै परै।
सत्रहवीं हाजरी : २७१
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पेलां रा दोष धार नै भेळा करै ते तो एकंत मृषावादी अन्याइ छै, एहवो कह्यो ।
तथा पचासा रा तथा गुणसठ रा लिखत में एहवो को -कर्म धको दीधा टोळा सूं तो टोळा रा साध - साधव्यां रा हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलवा रा त्याग छै । टोळा नै असाध सरध नै नवी दिख्या लेवे तो पिण उठी रा साध साधव्यां री संका घालण रा त्याग छै। उपगरण टोळा मांहे करै ते, परत पाना लिखे, जाचे ते, साथे ले जावरा त्याग छै । तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो - टोळा सूं टळै तो इण सरधारा भाई बाई हुवै जिण खेत्रां में एक राति उपरंत रहिणो नहीं । एहवो गुणसठा रा लिखत में कह्यो । ते मर्यादा उत्तम जीव ह्वै ते लोपे नहीं । अवनीत नै निषेध्या गुणग्राही तो राजी अवनीत अजोग ह्वै ते पोता ऊपर खांचे। ऊंधी प्रगमे। आगे पिण अवनीत अजोगां रा एहवाज लखण कह्या । वीरभांण अवनीत हुओ, तिण पिण अवनीत री जोड़ आप ऊपर खांची ।
वीरभाजी नीं वारता भीखणजी स्वामी लिखी ते
गम विठोड़ा मांहे साधां नै विनां रा भाव सुणाय नै सर्व साधां नै पूछी नै सर्व साधां मरजादा बांधी ते मरजादा पानां मांहे । तिण उपर वीरभाण ही दिष्टंत दीधो-हिवै राज तकरार हुई छै । मुसद्दी पाधरा चोलियां ठीक लागसी । तठा पछै वीरभाणजी नै अणदेजी विहार कीधो । जेतावंता रे गूढ़े गया । पछै अणदेजी वीरभाणजी नै विना री ढाळ फेर सुणाइ। ते ढाळां वीरभाण जी सुण नै अणदाजी नै कह्यो-हिवै तो स्वामीजी नै पूरी परतीत उपजावणी | म्हारी तो आगै साधां में अप्रतीत घणी छै । ते परतीत उपजाइ ते अणदाजी नै कह्यो-म्हे चेला करण रा तो जावजीव पचखांण कीधा, स्वामीजी कर दे तो आगार है।
मारी तरफ सूं तो जाव जीव लगै चेला करण रा त्याग छै । बलै परतीत उपजावा नै एक कागद । लिख्यो । तिण में अनेक बोल लिख्या । अणदाजी नै वचाय नै कह्यो-ए लिखत स्वामीजी नै सूंपणो छै। बीजां री तो अप्रतीत अपना स्यूं लिखत कराय - कराय धा छै, अनै हुतो स्वामीजी नै हाथां सूं लिखत कर नै सूंपस्यूं । तिण लिखत प्रमाणे स्वामीजी चलावसी जिण तरै चाल सूं । इत्यादिक अनेक परतीतकारिया वचन कह्या, लिख्या छै । विहार करता गांव रोयट में महा विद १४ रे दिन गया । पना नै गांव सिरियारी आयो । रोटरा भाया नै पनो विनो नरमाइ स्वामीजी आगे घणो करै छै । तिवारै पछै महा सुध ६ अणदाजी आगे कह्यो -पना नै तो स्वामीजी भिष्ट कीधो छै| म्हारे चलो हुतों जाण नै । एक पिछोवड़ी मटुजी आगे एक वरस ताइ अधिकी रही छै, ते साधां रखाइ छै । तिणरो निकालो साच नायो तो म्हारे टोळा मांहि रहिण रा जावजीव त्याग छै । पछै अणदोजी कहै - मोनें फारण रै वासते स्वामीजी सूं मन भांगण रै वास स्वामीजी रा अनेक ओगुण बोल्या तेहनी विगत ।
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हिवै अनेक अवगुण अणदाजी आगै वीरभांणजी बोल्या। ते अणदेजी लिखाया
१. पनां नै भिष्ट कीधो म्हारे चेलो वेतौ जांण नै। २. एक पछेवड़ी आ· कनै इधकी रखाइ। ३. धूरतपणो घणो छै। ४. माया कपटाइ घणी। माया आगै क्रोध मान लोभ री ठीक पहै नहीं।
भरत खेत्र में च्यार जीव भारीकर्मा छै। इण भेष में रुघनाथ, वसी, वखत
मल, देवकरण ज्यूं पांचमा औ पिण भारी कर्मा दीसै छै। ६. कर्मा सूं डरता काइ दीसै नहीं। इह लोक रा अर्थी दीसै छै। ७. विना री ढाळ कीधी ते मो ऊपर कीधी छै, उपसम्यो कळहो उदीरियो छै।
राग द्वेष रे वासते कीधी छै। दोय वरस ताइ न कीधी हुवेत तो हूं हिल मिल
जात, इण जोड़ विना कांइ बीजा भाव थोड़ा था। ८. विनां री जोड ते सगळी आप ऊपर खांची। ९. म्हारे दोष लागा था तिण री आलोवणा हांडोती में कीधी पिण पूरी न कीधी।
टोळा मांहे आत्मा अर्थी जोवण नै रह्यो। १०. यां रो हूं चेलो हुवो ते वंदणा कीधी ते म्हारे कर्म घणां तिण सू चेलो हुवो। ११. म्हे वीठोड़ा मांहे लिखत में मतो घाल्यो ते सरमासरमी घाल्यो छै। १२. पनां रा अनेक गुण कीधा पनां ने घणो सरायो। १३. पनां नै दिख्या देने इणहीज खेत्रा में फेरां,पछै लोका नै पूछा-ओ देखो पनो
किण सूं घटतो आचार पाले छै, इत्यादिक अनेक गुण किया। १४. थां नै विगारिया ज्यूं पना नै सूंस कराय नै भिष्ट कीधो छै। १५. अणदाजी नै थां नै म्हारी आसता हुवै म्हारा ओगुण काढ़जो मती अबै थे
पिण टोळा माहे रहता कोइ दीसो नहीं। १६. पाली रै बारणे कांने कह्यो थे पोथी लेनै जाओ हूं अठा सूइ परो जाऊं। १७. म्हारे साधां नै फटावणा नहीं, तरे अणंदेजी कह्यो–थारा फंटाया कुण फंटे छै।
तरै पाछा कह्यो-डोकरो (सुखरामजी) नै अखेराम। १८. मोनै आर्यां वैरागी कहै, पिण साध मोनै सरावै नही। वेरागी कहे नहीं।
आर्यां माहरा गुणग्राम करै, पिण साध म्हारा गुणग्राम करै नहीं। १९. मोनै साध ढीलो जाणे, तिण सूं म्हारा त्याग सरावै नहीं। २०. मोनै कह्यो थो अबै थारे नचिंत टोळो बांधो।
१.बन्दोवस्त करना।
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२१. आर्यां आगै कोठार मांड्यो छै। ५. २२. म्हारा विगै रा त्याग परूपो मती, ए कहूंछूज सूंस कोय नहीं। २३. विनां री ढाळां में माहरा कानी-कानी घाटा बांध्या छै। २४. पनां नै आमना' जणाय नै मोने वंदणा छोड़ाइ छ। २५. माहरी आगली बातां लोकां आगै कहिता दीसै छै। २६. विनां री ढाळा रै वाचण रो अणदाजी नै तिलोकचन्द कह्यो तै म्हारै
वासते। २७. अणदाजी नै कह्यो थे म्हारे साथ आवो तो कोइ अटके नहीं अखेराम तो
आवै तो ठीक लागै नही। २८. जो देवता आय नै कहै ए मोटा पुरुष छै तो मा। २९. जब अणदेजी कह्यो-जो देवता आय नै कहै ढूंढिया मोटा पुरुष छै, तो
मानो? जब पाछो कह्यो-ढूंढिया नै साचा न जांणू। ३०. इत्यादिक अणदेजी कह्यो। अनेक अवगुण बोल्या। मोने फाड़वा तांइ और
'तो अबारूं मोने याद आवै नहीं। पिण बोल्या घणां। ३१. जब अणदेजी कह्यो- थे यां नै साध सरधो छो के नहीं ? जद वीरभांणजी ____ कह्यो-असाध तो कहणी आवै नहीं। आगै ही साधां रा ढीला टोळा
चालिया छै। ३२. एक खोटो दृष्टांत बली दीधो-पातसाई में च्यार जणा ठागो कर नै
पातसाइचलाइ। च्यांरू जणां ज्यूं ए दीसै छै। ए सर्व बोल अणदाजी रा कह्या स्यूं लिख्या छै। लिखतूं ऋष अणदा रो। ए सर्व अणदेजी लिखाया। भीखणजी स्वामी लिख्या। त्यांरा हाथ रो पांनो छै। त्यांरी देखा देख ए
उतारयाछै। इत्यादिक घणां ओगुण बोल्या। पछै विहार कर नै गाम चेलावास में आया । भेळा हुआ। पाछली रात रा वीरभाण कने आय नै कह्यो-स्वामीजी माहरे तो आहार री संका परी, सो अबे ठीक लागै नही। एक पछेवड़ी आर्या इधकी राखी, वरस तांइ साधां रखाइ। मटु कह्यो छै, जब म्हे कह्यो। इण बातरो इतरा दिन आघो क्यूं न काढ्यो। पिण भळा अबेइ निकाळो काढो। राखण रखावण वाळा ने दंड देस्या। जद वीरभाणजी कह्यो स्वामी जी आगै तो पांच विसवा, अवै वीस विसवा अप्रतीत उपनी, थांरा भेद में रही छै। बले एक पनां नै भिष्ट कीधो छै। जब हरनाथजी बोल्या-पछेवड़ी रो अणहुँतो क्यांने झूठ बोलो। थां रे मन में तो ओर दीसे छ। पनां नै लेवा रा परिणाम दीसै छै। ए अणहुता आळ देतो जांण्यो जब नखेद न दूरो कीयो, तिण सूं बल अवगुण बोल्या
१. गुप्त संकेत।
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तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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म्हारे कर्म घणां तिण सूं थांरो चेलो हुओ।
थारा वचन री परतीत नही ।
ए वीरभाणजी री वारता भीखण जी स्वामी लिख राखी त्यांरा हाथ रा अक्षरां री देखा देख उतारी छै ।
वीरभाणजी नै अवनीत अजोग जांण नै टोळा बारे काढ्या ते बाहिर नीसरयां पछै पिण अनेक अवगुण बोल्या । सरधा पिण फिर गई । विराधक होइ नै मूआ दीसै। अनै दोनूं इ जनम बिगारया। बलि जे कोइ अवनीतपणो आदरेला तिण रा ए हवाल हुवेला । तिण अवनीत राखण घणा खोटा, मूंदे मीठो परपूठे कटमी बात करै, तिण अवनीत नै भीखणजी स्वांमी निषेध्यो वनीत अवनीत री चोपी में तिण रा लखण ओळखाया ते दूहा सहित ढाळ री गाथा -
दूहा
३
ए अवनीत री जोड़ मो ऊपर कीधी, उसम्यो कळह उदेरीयो छै। अबासू वरस दोय तांइ अवनीत री जोड़ करणी नहीं छी ।
म्हारो थांनै भय मिटियो नहीं मोने अजोग जांण्यो तिण सूं जोड़ कीधी । थारे मन मांहि खोट थो तरे मो कनां सुं लिखत करायो छै ।
म्हे तो लिखत माहे मतो घालियो ते सरमासरमी थी घालियो छै। अखेराम जी कनां थी लिखत करायो ते लिखत अखेरामजी री सरधा लिखत पालण री । कोई हूं लिखत कीधो ते पाळू नही ।
हूं तो टोळा मांहे रह्यो ते आत्मा अर्थी जोवा नै, पिण दीठो नही । न नै चला करण रा सूंस कराया तके पाळूं नही । इत्यादिक अगल- डगल बोलवा लागो | जद मैं कह्यो - थे अणहुंता आळ दे नै केइ भोळा आगे अवगुण बोल नै संका घालसो । म्हे पिण थां पाछै यां क्षेत्रां में आवण रा भाव छै, इम कही नैं कमड कीधी | जद वीरभाणजी बोल्यां-थे किम साथै आवो थां रा अवर्णवाद बोलण रा भाव कोइ नही । कठै इ बोलूं नहीं । इम प्रतीत उपजाय नै नीकळया । तो ही सिरीयारी जाय नै दीपांबाई आगे अनेक अवगुण बोल्या । सोजत में पिण अनैक ओगुण बोल्या । तठा पछै तो ग्यांनी जाणै ।
एम ।
टोळा मांहे रहिवा री आसा नहीं, क्रोधी अवनीत जाणे तिण सूं छाने लोकां कनै, बोले
थावरियां होसी पुत्र
अनूप ।
पिण अतत कुरूप ॥
गर्भवती नै कहै डाकोतरो, था रे पाड़ोसण नै कहै होसी डीकरी, ते गुर भगत श्रावक श्रावकां कनै, गुर गुण बोले ताम । आप वस हुवो जाणें तिण कनै, अवगुण बोले तिण ठांम ॥
रा
जेम ॥
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४ थावरिया डाकोत ज्यूं, बोले अनेक विध कूर।
इह लोक तणो अर्थी घणो, बलि माने आपणपो सूर॥ ५ कनै रहे तिण साधू तणो, वैर बुद्धि ज्यूं जाण ।
खीटोर खोराई करै घणी, पग-पग ताणां ताण ।। 'कुह्या कानां री कूतरी, तिण रै झरै कीड़ा राध लोही। सगळे ठांम सूं काढ़े हुड-हुड करी, घर में आवण न दे कोइ।
ध्रिग घ्रिग अवनीत आत्मा ॥धुपदं ।। २ कुती बिगाड़े रमणीक आंगणो, न्हाखे कीड़ा राध लोही।
वास दुरगंध आवै अति बुरी, तिण नै धुर-धुर करै सर्व कोई।। जेहवी कुह्या कानां री कुतरी, तेहवा अवनीत नै अभिमानी।
तिण रो पाड़वो सील नै मुख अरी, तिण सूं सगळा इ दे जाए कांनी॥ ४ अवनीत रा मुख मां सूं नीककै, ते तो कुवचन कीड़ा सम जांणो।
रमणीक आंगणा ज्यूं सुध साध नै, पाप लगावै क्रोध उठांणो॥ थिरकरण माहे राखे तेहनो, छिद्रग्रहे है द्रोही। तिण नै कुह्या कानां री कुतरी ज्यूं, गण बारे कादै सर्व कोइ। कण सहित कुंडो छोड़ नै, भिष्टो भखे भंडसूर। तिण भंडसूरा री ओपमा, अवनीत नै दीधी वीर।। ते अविनो छै भिष्टा सारिखो, तिण नै अवनीत आचर लीधो। विनै धर्म सूं अळगो पड्यो, अनंत संसार आरै कीधो॥ तिण भंडसूरा नै मृग री, ते ओपमा अवनीत नै छाजे। तिण रो बिगड्यो इहलोक नै परलोक, तो ही निरलज मूळ न लाजे॥ अवनीत नै अवनीत मिल्या, अवनीतपणो सीखावे।
पछै बुटकनां नै बळद ज्यूं दोनूं जणा दुःख पावै॥ १० कुशिष रो चेलापणो, जेहवो वेस्या रो घरवास।
खिण - खिण आय विनो करे, खिण-खिण हुवै उदास ।। ११ ते वेस्या मुतळब आप रे, करै सोले सिणगार।
पुरुष रिझावै पारका, ते किण री म जांणो नार।। १२ ज्यूं अवनीत बाह्य विनो करै, ते तो मुतळब रो छै यारो।
जो स्वार्थ देखे असीजतो, तो खिण माहे होय जाये न्यारो॥ १३ वेस्या सूं ग्रहवासो करे, तके धन खूटां पछै पिछतावै।
ज्यूं अवनीत नै कनै राखियां, ते तो काम पड्या सीदावै।। १. लय : सल्य कोइ मत राख जो। २७६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१४ बांध्यो काळ्या री पाखती गोरियो, वर्ण न आवै पिण लखण आवै।
ज्यूं विनीत अवनीत भेळा रहे, तो उ कायक कुबधि सीखावै।। १५ अवनीत दुखदाइ के हवो, जेहवो सोक वरते दुःखदाइ।
ते छ ळछिद्र जोवतो रहै, खुद्र परिणांमा रहै सदाइ ।। १६ ज्यूं सोक रा सोक लोकां कनै, करै चावत नै बंछै घात ।
ज्यूं अवनीत वरते गुर थकी, आहीज रीत विख्यात ।। १७ कोई जात कुजात री ऊपनी, भरतार सू लहै रीसावै।
पछै ताके कुवो के बावड़ी, ओर साथे उठ जावै रे ।। १८ ज्यूं अवनीत गुर सूं रूठो थको, करै संलेखणां मांडे मरणों।
मरणो अवनीत नै दोहिलो, तिण सूं ताके अवरां रो सरणो॥ १९ तिणरो संथारो ज्यूं कुवो बावड़ी, तिण सूं मरै तो ही बाल मरणो।
ओर साथे उठ जाय अस्त्री, ज्यूं ओ अवीनै रो ले सरणो।। २० २सोर ठंडो लागै मुख में घालियां, अगन मांहि घाल्यां हुवै तातो।
ज्यूं अवनीत नै सोर री ओपमा, सोर ज्यूं अळगो पड़ जातो॥ २१ आहारपांणी वस्त्रादिक आपियां, सतो उ स्वांन ज्यूं पूंछ हलावै।
करड़ो कह्यो उठे सोर अग्नि ज्यूं, गण छोड़ एकल उठ जावै॥ २२ सोर आप बळे बाळे अवर नै, पछै राख होय उड़ जावै।
ज्यूं अवनीत आप नै पर तणां, ज्ञानादिक गुण गमावै।। २३ सोर सोरीगर रा घर थकी, लोक बुधवंत रहसी दूरा।
ज्यूं अवनीत सूं अळगा रहे, तिके परमेसर रा पूरा॥ २४ उतराध्येन पेहला अध्येन सूं, अवनीत ओळखायो।
बलै तिण अनुसारे निषेधियो, ते ले ले सूतर नो न्यायो। इम विनीत री चोपी री तीजी ढाळ में भीखणजी स्वामी ओळखायो। तथा पैंताळीसा रा लिखत में एहवो कह्यो टोळा मांहे कदा टोळा बारै पड़े तो टोळा रा साध साधवियां रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंस मात्र संका पडै आसता ऊतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मांसूं फार नै साथै ले जावा रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावा रा त्याग छै। टोळा मांहे न बारै निकळ्यां पिण अवगुण बोलण रा त्याग छै। माहोमांहि मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणात्कीर्तन रूप बात करणी। भागहीण हुवै सो उतरती बात करै। तथा भागहीण सुणे, तथा सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भागहीण। तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी।
३. गर्म
१. पास में। २. कलमी शोरा।
सत्रहवीं हाजरी : २७७
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आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।
इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा आराध्यां इह भव पर भवे सुख कल्याण हुवै। ए हाजरी रची संवत् १९१० जेठ विद ५ वार बुध बगतगढ़ मध्ये।
१. दसवेआलियं, ५/२/४५,४० २७८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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अठाहरवीं हाजरी
.. पांच सुमति तीन गुप्त पंच महाव्रत अखंड आराधणा। ईऱ्या भाषा एषणा में सावचेत रहिणो। आहार पाणी लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै लेणो। पूजतां परठवतां सावधानपणे रहणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहिणो। तीर्थंकर री आज्ञा अखंड आराधणी। भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देख नै श्रद्धा आचार प्रगट कीधा-विरत धर्म ने अविरत अधर्म। आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारै अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे ते धेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
१८५२ रे वर्ष मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो, के गुरां नै कहणो, और किण ही आगे कहणो नहीं। किण ही आ· दोष जाण नै सेव्यो हुवै ते पाना में लिख्या विनां विगै तरकारी खाणी नहीं। कोइ साधु-साधवियां रा ओगुण काढ़े तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहणो–'स्वामी जी नै कहिजो' जिण रा टोळा माहे रहिण रा परिणाम हुवै ते रहिज्यो। पिण टोळा बारे हुवा पछै साधु-साधवियां रा अवगुण काढण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। बले करली-करली मर्यादा बांधे त्यां में पिण ना कहिण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै छै।
तथा चोतीसा रे वरस आर्यां रे मरजादा बांधी तिण में कह्यो-टोळा रा साध आर्यां री निंद्या करे तिण नै घणी अजोग जाणणी। तिण रे एक मास पांचू विगैरा त्याग छै। जितरी वार करै जितरा मास पांचू विगै रा त्याग छै। जितरी वार करै जितरा मास पांचू विगैरा त्याग छै। जिण आर्यां साथ मेळ्यां तिण आ· भेळी रहे अथवा आर्यों मांहोमां सेषे काळ भेळी रहे अथवा चोमासे भेळी रहै त्यां रा दोष हुवै तो साधां सूं भेळा हुवा केह देणो न कहे तो उतरो प्राछित उण नै छै। टोळा सूं छूट हुवा री बात माने त्यांनै मूरख कहीजे। त्यांनै चोर कहीजे।
तथा पचासा रा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-कर्म धको दीधा टोळा सूं टळे तो टोळा रा साध-साधव्यां रा हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। टोळा नै असाध सरध नै नवी दिख्या लेवै तो पिण अठीरा साध-साधवियां री संका पडै ज्यूं संका घालण रा त्याग छै। उपगरण टोळा मांहे करै ते, परत पाना लिखे जाचे ते, साथे ले जावण रा त्याग छै।
तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-इण सरधा रा भाई बाई हुवै जिण खेत्रां में एक रात उपरंत रहिणो नहीं। बाटे वहितां रहै तो एक राति कारण पड़िया रहे तो पांचू विगै ने
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सूंखड़ी खावा रा त्याग छै। अनंता सिद्धां री साख करी नै छै। बलै टोळा मांहे उपगरण करै ते, पड़त पाना लिखे जाचे ते साथे ले जावा रा त्याग छै। एक बोदो चोलपटो, एक बोदी पिछेवड़ी, बोदा रजूहरणां उपरंत साथे ले जावण रा त्याग छै, उपगरण टोळा री नेश्राय साधां रा छै। ए मरजादा पाळे ते पिण लाजवंत कहीजे। कर्म जोगे गण सूं टळे तो ही अवर्णवाद न बोले। गण सूं सनमुख रहे, सासण रा गुण गावे, तो ही कर्मां सूं भारी न हुवै। गण माहे तो गुणवांन पुन्यवांन विवेकवान हुवै सो आग्या प्रमाणे सदा रहे अनै कळा चतुराइ विनयादिक करी सतगुर नै रीझावे। तथा भीखणजी स्वामी पिण विनीत अवनीत री चोपी में अनेक बातां कही। ते ढाळ१ 'पाळे गुर री निरंतर आगन्यां,कनै राख्या हुवै हरष अपार जी। बलै वरते गुर री अंगचेष्टा, तिण सफल कियो अवतार जी।।
श्री वीर वखांण्यो वनीत नै॥धुपदं ।। २ जिण अभितर छोड़ी कषाय नै, नहीं मुख तणो लबाळ।
एहवा गुर समीपे रह्या थकां, छता गुण दीपे रसाळ।। तिण नै करड़े काठे वचनै करी, गुर सीख देवे किण वार। तो उ खिम्या करै धर्म जाण नै, पिण नांणे क्रोध लिगार।। सुकमाळ कठोर वचने करी, गुर दीधी सीखामण मोय। सुवनीत हुवै ते इम चिंतवे, मोने हेत रो कारण होय।। बलै उपधादिक नौ जाचवो, इत्यादिक काम अनेक।
बलै देवो लेवो और साध नै, गुर आज्ञा बिनां न करै एक ६ उपवास बेलादिक तप करै, करै रसादिक परिहार।
ते पिण न करै गुरु आगन्यां विनां, बलै संलेखणा संथार।।
करै व्यावच और साध नी, और पास करावै आप। ___ . ते पिण गुरु आगन्यां विनां, एहवी जिन सासण री थाप॥
अंसमात्र करणो करावणों, ते पिण आगन्यां ले सुवनीत। सर्व कार्य में लेणी आगन्यां, एहवी बांधी छै अरिहंत रीत।। सुवनीत टोळा में रह्यां थकां, ते तो सगळां नै गमतो होय।
ओर साधां साथे मेळ्यां थकां, तिण नै पाछो न ठेले कोय॥ १० आत्मा दम इन्द्रयां वस करै, उपजावे साधां नै परतीत ।
बलै लोक बतावे आंगुली, एहवो न करै काम वनीत ।। ११ विनीत सूं गुर प्रश्न हुवै, आपै ज्ञान अमूल।
तिण सूं सिव-रमणी वेगी वरे, रहै सासता सूख में झूल॥ १. लय : आ तो माठी रे गति छै नार नी। २. अमूल्य २८० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१. वृक्ष
१३
अगनहोत्री ब्राह्मण अगन नै, नमस्कार करै हाथ जोड़ । घृतादिक सींचे मंत्र भणे, तिण नै आराधे मान मोड़ ॥ इण दिष्टते गुर नै आराधतां, केवळी थयो शिष सुवनीत । ते पण सेवा भगत करै गुर तणी, विनो साचवे आगली रीत || राज मांहे हाथी घोड़ा विनीत छै, ते तो सुख पांमे सूड़ी रीत । नर नारी रिद्ध संपति करी, सुखी दीसै छै सुवनीत ॥ १५ बलै सुखी दीसै छै देवी देवता, जयवंत मोटा रिद्ध पाय । जावजीव लगै सुख भोगवै, लोकां में जश कीरत थाय ॥ १६ जिके पाछल भव पुन्य बांधिया, तिके भोगवे उदै आया आप । ते पिण प्रत्यक्ष दीसै छै लोक में, जांणे विनां तणो परताप ॥ १७ ज्यूं कोइ गुर नै रीझावे विनो करी, कारज कर उपजावे संतोष । तिण राग्यांन दर्शण चारित वधै, वेगो पावे अविचल मोख ॥ १८ के इ पेटभराइ कारणे, सीखे सिल्पकला विगनांन । ते तो भणे संसार रा गुर कने, ते पिण विनो करै मूंकी मांन ॥ १९ इहलोक तणा अर्थी थकां भणे राजादिक ना कुमार । गुर करड़ा वचन कहै तेहनै, देवे डंडादिक परिहार || २० ते पिण तिण गुर रा पग पूंज नै, देवे सतगुर बलै घणां संतोषे तेह नै, बलै देवे २१ तो सिद्धांत भणावे तेहनीं, विनेवंत किम कियो अवतार ॥ ते तो गुर वचने लीनो घणो, तिण सफल कियो अवतार ॥ २२ इहलोक नां गुर नो विनो कियां, कदा सीझै इहलोक काज । पण सतगुर रो विनो कियां, पांमे मुगत पुरी नो राज || २३ मूळ नै खंध थी वृष' नीपजे, पछै साखा पड़साखा वखांण । पांन फूल फळ रस नीपजे, ते उत्पति सहु मूळ नी जांण ॥
नै
सनमांन ।
पीतीदांन ॥
दृष्टं जिन धर्म वृष रै, विनय रूपीयो मूल वखांण । समकत रुपीयो थांणो तेह नै, धीरज रूपीयो कंद पिछांण || जस रूपीयो खंध विनो वेदका सील रूपीयो गंध पिछांण । सुद्ध ध्यान रूपी छै कूंपळा, पंच महाव्रत साखा जांण ।। २६ प्रतिसाखा ते पचीस भावना, बहु गुण पंच संवर रूप फळ तेह नै, दया
१२
१४
२४
२५
रूपीयो छै फूल। रूपीयों रस अमूल ॥
अठारहवीं हाजरी : २८१
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२७ मोख रूपीयो बीज तिण फळ मझे, एहवो धर्म छै अखोभ।
ते समदृष्ट रे हिरदे विराजतो, विनै मूळ सूं रह्यो सोभ।। २८ ज्यूं विरख रो मूळ सूकां थकां, सीखादिक सगळा सूक जाय।
ज्यूं विनै रूप मूळ खिस गयां, सगळा गुण खय थाय॥ गुर गुर भाइ नै टोळा तणा, गुण बोले रूड़ी रीत।
लोक पिण गुण ग्रांम करतां थकां, सुण-सुण हरषै सुवनीत । ३० सिख सिखणी मिले ओर साध नै, मिले ओषधादिक अनेक
बलै कंठकला देखी ओर री, विनीत तो हरषे विशेष ।। ३१ किण ही साधां रो नहीं करै ईसको, सर्व साधां नै हुवै हितकार।
एहवा सुवनीत री वासावली, फेले तीनूं लोक मझार।। ३२ गमतो लागै तीर्थ च्यार नै, जिण सासण रो सिणगार।
एहवै सुवनीत रे पासे रह्यां, सीखावे विनै आचार ।। ३३ ज्यांरी जात माता री निरमळी, पिता रो कुळ छै निरदोष।
ते पिण लज्या करै सहीत छै, ते विनो करै लेसी मोष।। ३४ ते पिण मोह कर्म पतळो पड़यां, सुद्ध रीत जाणे बुद्धिवान।
हाड मीजा रंगी जिन - धर्म सूं, तिण नै विनो करणो आसान। ३५ केइ क्रोधी अंहकारी निरलजो, भेष पहरी करै कपटाय।
इहलोक तणां अर्थी घणां, त्यां सूं विनो कियो किम जाय॥ ३६ अवनीत में अवगुण घणां, ते तो जाबक छोड़े विनीत ।
विना रा गुण सगळा आदरै, ते तो गया जमारो जीत।। ३७ उतराध्येन पहलाध्येन में, दसवीकालिक नवमे जांण ।
बलै ओर अनेक सिद्धांत में, किया वनीत रा वखांण। ३८ सतगुर तणां वनीत नै, गुण भाख्या श्री भगवंत ।
कोड़ जिभ्या करे वरणवे, पिण कहतां न आवै अंत ।। इम इत्यादिक वनीत रा गुण वर्णव्या, ते भणी विनयवंत गुणवंत ते सासण में रंगरता रहे। मुरजी प्रमाणे आखी उमर तांइ अनुकूलपणे प्रवर्ते। अवनीत री संगत न करै। तथा पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो-टोळा माहे कदाच कर्म जोगे टोळा बारैपडे तो टोळा रा साध-साधव्यां रा अंस मातर संका पडै ज्यूं अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। संका पडै आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मांहे सूंफार नै साथै जावा रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावा रा त्याग छै। टोळा माहे न बारै नीकल्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन रूप बात करणी। भागहीण हुवै सो उतरती बात करै, भागहीण सुणे तथा सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भाग्यहीण । तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी। २८२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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आयारिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं।।
आयरिए नाराहेइ, समण यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।।
इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा आराध्यां इह भव पर भवे सुख कल्याण हुवै।
ए हाजरी रची संवत् १९१० जेठ विद १४ वार वृहस्पति बगतगढ़ मध्ये।
१. दसवेआलियं, ५।२।४५,४०
अठारहवीं हाजरी : २८३
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उन्नीसवीं हाजरी
पंच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणां । ईर्या भाषा एषणा में सावचेत रहिणो। आहारपाणी लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै लेणो । पूजतां परठवतां सावधान पणे रहणो । मन वचन काय गुप्ति में सावचेत रहिणो । तीर्थंकर री आज्ञा अखंड आराधणी। भीखणजी स्वांमी सूत्र सिद्धान्त देख नै श्रद्धा आचार प्रगट कीधा - विरत धर्म नै अविरत अधर्म | आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म । असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरण बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग छै । तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी। जिलो न गुणसारा लिखत में तथा 'साध सीखामण री ढाळ' में तथा रास में जिला नैं घणो निषेध्यो छै ।
तथा पैंतालीसा रा लिखत में कह्यो - टोळा मांहे पिण साधां रा मन भांगनै आपआप रै जिले करै ते तो महाभारीकर्मों जाणवो। विस्वासघाती जांणवो। इसड़ी घातपावड़ी करै ते तो अनंत संसार री साई छै ।
तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो -कदा कोई असुभ कर्म रे जोग टोळा मां सूं फाड़ा - तोड़ो करै, नै एक दोय तीन आदि नीकळै, घणी धुरताइ करै, बुगलध्यांनी हुवै, त्यां नै साध सरधणां नहीं । च्यार तीर्थ में गिणवा नहीं । त्यां नै चतुरविध तीर्थ रा निंदक जावा । हवा नै वांदे पूजे ते पिण आज्ञा बारै छै । कदा कोइ फेर दिख्या लेवे - ओर साधां नै असाध सरधायवा ने तो पिण उण नै साध सरधणो नहीं, उण नै छेरवियां तो उ आळ दे काढ़े, तिण री एक बात मानणी नहीं ।
तथा संवत् १८३३ से फतूजी आदि ४ भेषधारयां मां सूं आवी । त्यां नै भीखण जी स्वामी पहिला मरजादा बांध नै पक्की खराय नै समजाय नै दिख्या दीधी, ते कहे छै-आर्य्या फतूजी आदि च्यारूं जणियां दिख्या लीधां पहली सीखावण आचार गोचर बतावण री विध लिखिये छै ते चारित्र संघाते त्याग |
२८४
१. ऊभी नै कीड़ी न सूजे, जद संलेखणां करणी मंडणो ।
२. विहार करण री सगत नहीं, जद संलेखणां मंडणो ।
३. आर्य्या रो विजोग पड़यां न कल्पै, जद संलेखणां मडणो ।
8.
साध कहै जठे चोमासो करणो ।
५.
साध कहै जठे सेषाकाळ रहिणो ।
६. चेली करणी ते साधां रा कह्यां सूं करणी । आज्ञा विना करणी नहीं ।
७.
सिषणी कीधा पछै पिण काइ साधपणां लायक न हुवै साधा रे चित नै वैसे तो साधां रा कह्यां सूं दूर करणी ।
तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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८. साधा री इच्छा आवै जुदो विहार करावण री ओर आ· साथे जुदी-जुदी
मेले तो नां कहिणो नहीं। ९. साध-साधवियां रो कोइ खूचणो दोष प्रकतादिक रो ओगुण हुवै तो गुरां नै
कहणो। पिण ग्रहस्थादिक आगै कहणो नहीं। आहारपाणी कपड़ादिक में
साधां नै लोळपणां री संका उपजे तो साधां नै परतीत उपजे ज्यूं करणो। १०. अमल तमाखू आदि रोगादिक रे कारणै पड्यां लेवे पिण विस्न रूप लेणो
नही। लीयाइज सजै ज्यूं करणो नहीं। ११. बले सर्व साध-साधव्यां नै आचार गोचार माहे ढीला पड़ता देखे अथवा
संका पड़ती जांणे जद समचे सर्व साध साधवियां री करली मर्यादा बांधे तो पिण ना कहिणो नही। इत्यादिक सीखावण चारित संघाते अंगीकार कर
लेणी। ते जावजीव पचखांण छै। संवत् १८३३ मिगसर विद २ वार बुध ए लिखत वंचाय अंगीकार कराय नै समायक चारित्र अंगीकार करायो छै। बले फेर छेदोपस्थापनी चारित्र दीधो, जद पिण लिखत वंचाय नै अंगीकार कीधो छै, हरष सूं च्यांस इ आर्सा । अथ अहां फतूजी नै एतलो करार करी नै टोळा मांहे भीखणजी स्वामी लीधी। दीक्षा दीधी। अनै तेतीसा रा वरस में आर्यां रै मरजादा बांधी। तिण में कह्यो
तथा चोतीसा रे वरस आ· सर्व रे लिखत में कह्यो-मांहो मांहि आ--आने तूंकारो दे तिण नै पांचू विगै रा त्याग। जितरा तूंकारा काढ़े जितरा पांच-पांच दिन रा विगै रा त्याग। प्रायछित आयो तिण रो मोसो बोले जितरा पांच-पांच दिन विगै रा त्याग। ग्रहस्थ आगे टोळा रा साध आर्यां री निंद्या करै तिण नै घणी अजोग जाणणी, तिण नै एक मास पांचू विगै रा त्याग, जिती वार करै जितरा मास पांचू विगै रा त्याग, आर्यां री माहि-मांहि री बात कराय नै उणरो परत वचन उण कने कहे उण रो मन भांगे जिसो कहि नै मन भांगे तो १५ दिन पांच विगै रा त्याग, माहोमांहे कहै -तूं सूंसा री भागल छै। एहवो कहै तिण रो १५ दिन विगै रो त्याग छै। जितरी वार करै जितरा १५ दिन रो त्याग छै। आंसू काढ़े जितरी वार १० दिन विगै रा त्याग छै। के १५ दिन में बेलो करणो। इत्यादिक करलो काठो वचन कहै तिण नै जथा जोग प्राछित छै। ए विगै रा त्याग छै ते उणरी इच्छा आवै जद साधां सूं भेळा हुआं पेली टाळणा। जो नहीं टाळे तो बीजी आर्यां यूं कहिण पावै नहीं तूं टाळ हीज। साधां नै कहि देणो। साधां री इच्छा आवै तो द्रव्य क्षेत्र काळ भाव जाण नै ओर डंड देसी। अनै साधां री इच्छा आवसी तो विगै रो त्याग घणो करावसी। बलै आर्सा रे मांहि २ साध-साधवियां नै न कळपे, लोकां ने अणगमती लागे, उण री जातादिक रो लूँचणो काढणो, जिण भाषा रो पिण साधां री इच्छा आवै जिता दिन देवे ते कबूल करणो छै। जिण आर्यों ने ओर साथे मेल्यां ना न कहिणो। साथे जाणो न जाय तो पांच विगै खावा रा त्याग न जाय जितरा दिन। बले ओर प्राछित जठा बारै साधां रा मिलियां बिना आर्यां ओर री ओर आर्यां साथे जाओ तो जितरा दिन रहे जितरा दिन पांचू विगै रा त्याग। बलै ओर
उन्नीसवीं हाजरी : २८५
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भारी प्राछित जिण आर्यां साथे मेली तिण आर्यां भेळी रहे। अथवा सेषेकाळ भेळी रहै अथवा चोमासो भेळी रहे त्यां रा दोष ह्वे तो साधां सूं भेळा हुआ कहि देणो। न कहै तो उतरो प्राछित उण नै छै। पछै घणां दिन आडा घालनै कहै तो साचो कहै तो झूठो कहै तो उवा जाणे, के केवली जाणे, पिण छदमस्थ रा ववहार में तो घणां दिनां री बात उदीरे, राग-धेष रे वस आप रे स्वार्थ उदीरे, स्वार्थ न पूगां उदीरे, तिण री परतीत मानणी नहीं आवै। ग्रहस्थ मांहे आमना जणाय नै माहोमांहि एक-एक री आसता उतारे तिण में अवगुण घणाइ ज छै। बलै फतूजी नै मांहि लीधी तिको लिखत सगली आ· नै कबूल छै। बलै अनेक-अनेक बोलां री करली मरजादा बांधे ते कबूल छै। ना कहिण रा त्याग छै। बलै कर्म जोगे किण ही सूंइ आचार-गोचार न पळे, माहोमा स्वभाव न मिलै, तिण नै साध टोळा बारै काढ़े अथवा क्रोध वस टोळा थी अळगी परै। तिका तो कर्मा रे वस अनेक झूठ बोले। कूड़ा-कूड़ा आळ दे। अथवा भेषधास्यां माहे जाये तिण तो अनंत संसार आरै कीनो ते तो अनेक विवध प्रकार रो झठ बोलेइज। काइक नहीं पिण बोले एहवी भेषभंडारी तो बात भेषधारी भारीकर्मा माने, पिण उत्तम जीव न माने। टोळा सूं छूट न्यारी हुवै री बात माने त्यां नै मूरख कहिजे, त्यां नै चोर कहीजे। ते तो अनेक-अनेक आल दे सूंस करण नै त्यारी हुवै तो ही उत्तम जीव तो न माने इत्यादिक अवगुण घणां छै। टोळा मांहे सूं पिण टळ्यां पछै टोळा रा अवगुण बोलण रा अनंता सिद्धारी साख सं पचखांण छै। ए लिखत सगळी आल् नै वंचाय नै पहिला कहवाय नै मर्यादा बांधी छै। ए लिखत प्रमाणे सगळी आर्यां नै चालणो। अनंता सिद्धां री साख सूं सगला रे पचखांण छै। जिण रा परिणाम चोखा हुवै, लिखत प्रमाणे चाले, ते मतो घालजो। सरमासरमी रो काम छै नहीं, जावजीव रो काम छै । सवंत् १८३४ रा जेठ सुदि ९।
हेठे आर्यां रा अक्षर लिख्योड़ा छै। एहवो चोतीसा रे वर्स आर्यां रे लिखत कियो, तिण में कह्यो-फतजी नै मांहि लीधी तिको लिखत सगळी आल् रे कबल छै। तिण फतजी रा लिखत में कह्यो-साधां री इच्छा आवै जुदो विहार करावण री ओर आ· साथे जुदी-जुदी मेले तो ना कहिणो नहीं। ए आठमो बोल कह्यो छै। तिण लेखे आचार्य श्री इच्छा आवै तो सिंघाड़ो राखे, इच्छा आवै तो जुदी -जुदी मेले, सिंघाड़ो न राखे, तो पिण ना न कहणो, एहवो कह्यो।
तथा साध-साधव्यां रो चणो दोष प्रकृतादिक ओगुण हुवै तो गुरां ने कहिणो, पिण ग्रहस्थां आगै कहणो नहीं। ए नवमा बोल में कह्यो। ए पिण मर्यादा सर्व आर्यां रे जाणवी।
आहारपाणी कपड़ादिक में साधां रे लोळपणां री संका उपजे तो साधां नै परतीत उपजे ज्यूं करणो ए दसमो बोल कह्यो। ए पिण सर्व मर्यादा सर्व आर्यां नै जाणवी। अमळ तमाखू रोगादिक कारण पड़यां लेणो पिण विसन रूप लेणो नहीं। लीया इ सजे ज्यूं करणो नहीं। ए इग्यारमो बोल कह्यो। ए पिण मर्यादा सर्व आर्यां रे जाणवी। कारण विनां तो अमल तमाखू लेणो नहीं। कारण सूं लेवे ते पिण गुरु आज्ञा री बात न्यारी। बलै सर्व साधव्यां नै आचार गोचार माहे ढीळा पड़ता देखे अथवा संका पड़ती जांणे, जद सर्व समचे सर्व साध-साधवियां री करली मर्यादा बांधे तो पिण ना कहिणो नहीं। इत्यादिक सीखावण चारित्र संघाते अंगीकार कर लेणी, ते जावजीव पचखांण छै। ए बारमो बोल पिण मर्यांदा सर्व आर्यां रे जाणवी। ए बारमा बोल रे लेखे आचार्य करड़ी मर्यादा बांधे, तिण री पिण भीखणजी स्वामी आज्ञा दीधी। ते करली मर्यादा सर्व आर्यों ने कबूल करणी, पिण ना कहिणो नहीं। २८६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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तथा बली को आर्य्यां रो विजोग पड्यां न कल्पे जद संलेखणा मंडणो । साध कहै जठे चोमासो करणो । साध कहै जठे सेषे काळ रहणो । ए तीजो चोथो पांचमो बोल । ए पिण मर्यादा सर्व आय रे जांणवी ।
तथा बली कह्यो - ऊभी नै कीड़ी न सूजै जद संलेखणा मंडणो । विहार करण री सगत नहीं जद संलेखणा मंडणो । ए पहलो दूजो बोल- ए मर्यादा सर्व आर्य्यां रे नहीं । ते इम सर्व भीखू लिखत मर्यादा, परम्परा, सूत्र अनुसारे तथा बड़ा री धारणा प्रमाणे जांण लेणो जीत ववहार बडां रो बांध्यो । आचार्य री मर्यादा सर्व अखंड पाळणी ।
तथा पैंताळीसा रा लिखत में एहवो कह्यो - टोळा मांहे कदाच कर्म जोगे टोळा बारे पड़े तो टोळा रा साध साधवियां रां अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै । यां री अंसमात्र संका पड़ै आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा माहै सूं फाड़ नै साथे ले जावा रा त्याग छै । उ आवै जावरा त्याग छै । टोळा माहै न बारै नीकळ्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै । इम पेलां री परती कर नै मांहोमां मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै । इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो । ते भी सासण री गुणोत्कीर्तन रूप बात करणी । भागहीण हुवै सो उतरती करै । तथा भागहीण सुणे, सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भागहीण । तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी ।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ इति 'दशवैकालिक में कह्यो । ते मर्यादा आज्ञा सुध आराध्यां इह भव पर भव में सुख कल्यांण हुवै।
१. दसवे आलियं, ५।२।४५,४०
उन्नीसवीं हाजरी : २८७
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बीसवीं हाजरी
पंच सुमत तीन गुप्त पंच महाव्रत अखंड आराधणां। ईर्त्यां भाषा एषणा में सावचेत रहिणो। आहारपाणी लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै लेणो। पूजतां परिठवतां सावधानपणे रहणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहिणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी। श्री भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देख नै श्रद्धा आचार प्रकट कीधा-विरत धर्म, अविरत अधर्म। आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग छै। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
सवंत् १८३२ लिखत में एहवो कह्यो-सर्व साध-साधवी भारमल जी री आज्ञा मांहे चालणो। शेषे काळ विहार चोमासो करणो ते भारमलजी री आगना सूं करणो। विना आगन्या कठे इ रहिणो नहीं। दिख्या देणी ते पिण भारमलजी रे नामे देणी। दिख्या दे ने आण तूंपणो। चेला री कपड़ा री साताकारिया खेतर री इत्यादिक अनेक बोलां री ममता कर नै अनंता जीव चारित गमाय नै नरक निगोद मांहे गया छै। बलै भेषधास्यां रा एहवा चेह्न देख्या छै। तिण सूं सिखादिक री ममता मिटावण रो नै चारित्र चोखो पाळण रो उपाय कीधो छै। विनै मूल धर्म नै न्याय मारग चालण रो उपाय कीधो छ। भेषधारी विकलां नै भेळा करै, ते शिषां रा भूखा, एक-एक रा अवर्णवाद बोले, फारा-तोरो करै, माहोमां कजिया राड़ झगड़ा करै। एहवा चरित्र देख नैं साधां रे मरजादा बांधी छै। शिख साखा रो संतोष कराय नै सुखे संजम पाळण रो उपाय कीधो छै। साध-साधव्यां पिण इमहीज कह्यो-भारमलजी री आगना माहे चालणो। सिष करणा ते सर्व भारमल जी रे करणा। ओर रे चेला करण रा त्याग छै, जावजीव लगै। भारमलजी पिण चेलो करै ते पिण बुधवंत साध कहै-ओ साधपणा लायक छै, बीजा साधां नै परतीत आवै तेहवो करणो, परतीत नहीं आवै तो नहीं करणो। कीधा पछै कोइ अजोग हुवै तो पिण बुधवंत साधां रां कह्या सूं छोड़ देणो। किण ही धेषी रा कह्या सूं छोड़णो नहीं। नव पदारथ ओळखाय नै दिख्या देणी। आचार पाळा छां तिण रीते चोखो पाळणो। इण आचार मांहे खांमी जांणे तो अबारूं कहि देणो, पण माहोमां ताण करणी नहीं। किण ही नै दोष भ्यास जाय तो बुधवंत साध री परतीत कर लेणी, पिण खांच करणी नही। भारमलजी री इच्छा आवै जद गुर भाइ अथवा चेला नै टोळा रो भार सूंपे जद सर्व साध-साधव्यां उण री आगन्या माहै चालणो, एहवी रीत परंपरा बांधी छै। सर्व साध-साधवी रो मार्ग चाले जठा तांइ। कदा कोइ उसभ कर्म रे जोगे टोळा मां सूं फारा तोरो कर नै एक दोय तीन आदि नीकळे। घणी धुरताइ करै। बुगलध्यानी हुवै। त्यां नै साध सरधणा नहीं। च्यार तीर्थ मांहे गिणवा २८८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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नहीं। यां नै चतुरविध तीर्थ रा निंदक जाणवा। एहवा नै वांदे ते जिण आगन्या बारै छै। कदा कोइ फेर दिख्या ले ओरां साधा नै असाध सरधायवा नै, तो पिण उण नै साध सरधणो नहीं। उण नै छेरवियां तो उ आळ दे काढे, तिण री एक बात मानणी नहीं । उण तो अनंत संसार आरे कीधो दीसै छै। कदा कर्म धको दीधां टोळां सूं टलै तो उण रै टोला रा साध-साधव्यां रा अंस मात्र हूंता अणहूंता अवर्णवाद बोलवा रा अनंता सिद्धां री नै पांचो इ पदां री आण छै। पांचोइ पदां री साख सूं पचखांण छै। किण ही साध-साधव्यां री संका पडै ज्यूं बोलण रा पचखांण छै। कदा उ विटळ होय सूंस भांगे तो हळुकर्मी न्यायवादी तो न मानै। उण सरीषो विटळ कोइ मानै, तो लेखा में नहीं। हिवै किण ही नै छोड़णो मेलणो परै, किण ही चरचा बोल रो काम परै तो बुद्धिवांन साध विचार नै करणो। बलै सरधा रो बोल पिण बुद्धवंत हुवै ते विचार नै संचे बेसाणणो। कोइ बोल न बेसे तो ताणांतांण करणी नहीं। केवळियां में भळावणो। पिण खांच अंस मात्र करणी नहीं। किण ही नै कर्म धक्को देवे ते टोळा मां सूं न्यारी परै। अथवा टोळा बारै अथवा आप ही टोळा सूं न्यारो हुवै तो इण सरधा रा बाई भाई हुवै तिहां रहिणो नहीं। एक भाई बाई हुवै तिहां पिण रहिणो नहीं। वाटे वहितो कारण परियां रहै तो पांचू विगै नै सूंखड़ी खावा रा त्याग छै। अनंत सिद्धां री साख कर नै छै। बलै टोळा मांहे उपगरण करै ते, पाना परत लिखे ते, टोळा मांहे थकां परत पांना पातरादिक सर्व वस्तु जांचे ते साथे ले जावण रा त्याग छै। एक बोदो चोलपटो, मुंहपती, एक बोदी पछेवड़ी खंडिया उपरंत वोदा रजूहरण उपरंत साथे ले जावणो नहीं, उपगरण सर्व टोळा री नेश्राय साधां रा छै। ओर अंसमात्र साथे ले जावण रा पचखांण छै। अनंता सिद्धां री साख करै छै। कोइ पूछ-यां खेतरां में रहिण रा सूंस क्यूं कराया । तिण नै यूं कहिणो-रागाधेषो बधतो जाणं नै कलेस बधतो जांण नै उपगार घटतो जांण नै इत्यादिक अनेक कारण जांण नै कराया है। इसो गुणसठां रा लिखत में कह्यो। ___ तथा संवत् १८५० रे बरस भीखणजी स्वामी मर्यादा बांधी-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो। तथा गुरां नै कहणो, पिण ओरां नै न कहिणो। घणां दिन आड़ा घाल नै दोष बतायै तो प्राछित रो धणी उहीज छै।
तथा संवत् १८५२ रे बरस आर्या रे मर्यादा बांधी। तिण में एहवो कह्यो-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहिणो, तथा गुरां नै कहणौ और किण ही आगे कहिणा नहीं। किण ही आर्या दोष जांण ने सेव्यो हुवै ते पाना में लिख्यां बिनां विगै तरकारी खांणी नहीं। कोई साधु-साधवियां रा ओगुण काढे तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहणो-'स्वामी जी नै कहीजो' जिण रा परिणाम टोळा मांहे रहिण रा हुवै ते रहिजो, पिण टोळा बार हुआ पछै साधु-साधवियां रा ओगुण बोलण रा अनंत सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। बलै करली-करली मर्यादा बांधी त्यां में पिण ना
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कहिण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छ।
तथा चोतीसा रे वर्स आर्यां रे मर्यादा बांधी, तिण में कह्यो-ग्रहस्थ कनै टोळा रा साध आर्यां री निंद्या करै तिण नै घणी अजोग जांणणी। तिण नै एक मास पांचू विगैरा त्याग छै। जितरी बार करै जितरा मास पांचू विगै खावा रा त्याग छ। 'तथा वनीत अवनीत री चोपी' में अवनीत नै घणो निषेध्यो छै। तथा रास में पिण विविध विविध कर नै ओळखायो। घणो निषेध्यो। ते गाथा१ 'थे घणां दोष जाणे था साख्यात, त्यां नै जाणे वांद्या दिन रात।
तो थे पूरा अग्यानी बाल, थे सूलसो कितो एक काळ।। २ एक दोष रो सेवणहार, तिण वांद्या वधै अनंत संसार।
थे घणां दोष जाण्यां त्यां मांय, त्यां रा हिज वांद्या नित पाय॥ भागलां रा वांद्या जाणे पायो, जिण मारग मांहे ठागो चलायो। रह्या कूड़ कपट मांहे झूल, हिवै थारो होसी कुण सूल।। जो थे गुर मांहे दोष बताया, घणा वरस थे राख्या छिपाया।
तिण लेखे पिण थे इज भंडा, ग्यानादिक गुण खोइ बूड़ा। ५ जो थे दोष कह्या यां में कूरा, जब तो थे जाबक बूड़ा पूरा।
थे दिया अणहुंता आळ, हिवै रुळसो किता एक काळ।। थे दोनूं विध बूड़ां इण लेखे, साच झूठ तो केवळी देखे। छद्मस्थ तो यां एहलाणे, थां नै जाबक झूठा जांणे॥
यां कनै पहिला अवगुण कहिवाय, पछै खिसट करै इण न्याय। __यां रा वचन नै सैठा झाले, यां नै पग-पग झूठा घले॥ ८ ए तो अवगुण बोले अनेक, बुधवंत न माने एक।
यां नै जांणे पूरा अवनीत, यां री मूल नांणे परतीत।। अवनीतां रो करै वेसास, तो हुवै बोध बीज रो न्हास।
च्यार तीर्थ सूं पड़िया काने, त्यांरी बात अज्ञानी माने॥ १० अवनीतां रो करै प्रसंग, तो साधां सूं जाए मन भंग।
ए साधां नै असाध सरधावै, झूठा-झूठा अवगुण बतावै।। ११ यां रो जाय सुणे वखांण, तिण लोपी जिनवर आण।
यां री तहत करै कोइ वाणी, आ दुरगति नी एलाणी। १२ किण रे उसभ उदै हुवै आंण, ते करै अवनीत री तांण।
त्यां झूठा नै साचा दे ठहराइ, ज्यां रै अनंत संसार नहीं साइ॥
१.लय : सगळा साध सरीषा नाहि।
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१३ यां नै कहि बतलावे स्वामी, तिण में जांणजो मोटी खामी।
यां नै ऊंचो करै कोइ हाथ, तिण रे निश्चे बंधे कर्म सात॥ १४ यां रो जाय वखांण मंडावे, बलै ओर लोकां ने बोलावे।
इसडी करै कोइ दलाली, ते पिण धर्म सूं होय जाये खाली। यां नै च्यार तीर्थ मांहि जांणे, ते पिण पहले गुणठांणे।
यां री करै कोइ पखपात, तिण नै आय चूको मिथ्यात ।। १६ यां सूं करै अलाप सलाप, तिण रै पिण बंधे चीकणां पाप।
यां नै वंदणा करै जोड़ी हाथ, तिण रै वेगो आवै मिथ्यात। .यां री भाव भगत करै कोइ, वलै आदर सनमान दे सोइ।
तिण रे सरधा न दीसे साची, गुर री पिण परतीत काची॥ १८ यां सूं करै विनो नरमाइ, तिण रे लागी मिथ्यात री साइ।
घणो - घणो जो यां कनै जावै, ते समकत वैगी गमावै ।। १९ ए अवनीत नै भागल पूरा, बलै आळ दे कूड़ा-कूड़ा।
त्यां री मान लेवे कोइ बात, ते तो बूड़ चूका साख्यात॥ २० कोइ भणवा रा लालच रो घाल्यो, त्यां रे कनै जाए कोइ चाल्यो।
ते तो गुर रो न माने हटको, तिण रो हुँतो दीसै छै गटको।। २१ चरचा बोल सीखे त्यां आगै, तिण रे डंक मिथ्यात रा लागे।
यां रो संहंसतो परचो न करणो, यां रो संग जाबक परहरणो॥ २२ समकत रा अतिचार संभाळो, तो अवनीत सूं दे जो टालो।
जोवो आणंद श्रावक री रीत, राखो सूतर री परतीत ।। ए अवगुण बोले चिठाय-चिठाय,किण ही भोळा रे संक पड़ जाय।
जो उ न करै त्यां री पखपात, तिण रो काढणो सोहरो मिथ्यात॥ २४ त्यां री गाढ़ी झाले पख कोइ, ते नही छोड़े झूठा जाणे तो ही।
ते बूड़सी अवनीता रे लारे, त्यां एहली दियो जन्म बिगाड़े।। २५ कोइ लीधी टेक न मेलै, आप रे मन मांनै ज्यूं ठेळे।
जिण धर्म री रीत न जाणे, मूढ मूर्ख थको, यूं ही तांणे।। २६ यां कनै करै पोसो सामाइ, यां कनै करै पचखांण जाइ।
तिण री पिण जांणजो मति काची, जिण मारग में नहीं आछी॥ २७ जे अवनीत रा पखपाती, त्यां री सुण-सुण बळ उठे छाती।
अवनीतां रो करै उघाड़, जब पिण मूंढो देवे बिगाड़॥
१.संस्तव।
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२८ कोइ गण में हुवै अवनीत, तिण सू गाढ़ी बांधे पीत।
ते पिण ओगुण बोलावण रे काम, इसड़ा छै मेला परिणाम। २९ जिण रो धेष छै घण दिन पेळो, दुष्ट परिणाम जीव छै मेलो।
तिण रे उदै हवै कर्म मिथ्यात, ते तुरत मांने त्यां री बात। ३० ते अवनीतां री करै पखपात, तिण रे आय चूको मिथ्यात।
खप करै त्यां री करवा थाप, तिण रे उसभ उदै हुआ पाप॥ ३१ जांणे अभिमानी नै अवनीत, तो ही राखे त्यां री परतीत।
तिण रे परतख पूरो अंधारो, बूड़े छै अवनीत रे लारो॥ ३२ जिण नै गुर रा अवगुण सुहावे, ते अवनीत नै मूंढे लगावे।
त्यां कनै गुर रा अवगुण बोलावे, पछै लोकां में आप फैलावे॥ ३३ करै जिण तिण आगै बात, करै अवनीतां री पखपात।
अवनीतां नै साचा सरधावे, गुर मांहे ओगुण दरसावे॥ ३४ वांदे तो गुर नै सीस नांम, करै अवनीतां रा गुण ग्रांम।
ते होय बेठा अवनीतां री लारी, बलै ओरां नै खपे करवा खुवारी॥ ३५ गुर सूं लोकां रा परिणाम फाड़े, आप बिगड्यो ओरां नै बिगाड़े।
इसड़ो श्रावक विश्वासघाती, ते पिण होय चूको मिथ्याती॥ ३६ गुर री सांची बात दे ठेली, अवनीतां रो होय जाय बेली।
हर कोइ अवनीत छूटे, तिण रो बेली आप होय उठे। ३७ साधां रा अवगुण अवनीत बोले, तिण सूं बात करै दिल खोले।
अवनीत नै मिलिया अवनीत, त्यां री तेहीज करै प्रतीत । ३८ गुर सूं पिण जाबक नहीं तोड़े, अवनीत सूं पिण सटके नही जोड़े।
धर पाधर रह्या छै देख, छळ-छिदर जोवे छै विशेष ।। ३९ जो अवनीत नै लोक न माने, तो आप पिण होय जाए कांने।
अणसरते दबिया रहे मांहि, पिण लखण भदरलीया ताहि।। ४० केइ श्रावक दोपड़पीटा, ते पिण पडिया यां रे संग फीटा।
जो कोइ बंध निकाचित पाड़े, ते पिण अनंत संसार वधारे॥ ४१ केइ श्रावक भागल साख्यात, ते भागलां री करै पखपात।
जांणे चोर सूं मिल गई कुती, झूठी बात करै अणहुंती॥ ४२ ते भागला नै कहै उत्कष्टो, तिण री पिण मत हो भिष्टो।
तिण भागला नै भागल मिलिया, जब पूरीजे मनरलिया।। ४३ असाधां नै सरधे साध, साधां नै सरधे असाध।
दोनूं प्रकारे मूर्ख बूड़े, ते पिण जाय बेससी तूंडे ।। २९२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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४४ एहवा अभिमानी नै अवनीत, होसी चिहुं गति माहै फजीत।
यां नै मूंडा कह्यां लोकां आगै, यारा पखपाती रे दाह लागै। ४५ ए समचे भाव कह्या छै जांण, कोइ आप में म लीजो तांण।
एहवा अवगुण छै तिण मांय, ते छोड्यां विण सुख नही थाय।। ए बिगड़ायल जैन रा पूरा, त्यां नैं कर दिया गण सूं दूरा।
लाज सरम त्यां अळगी मेली, भेषधारी भागल त्यांरा बेली।। ४७ ए साधां में दोष बतावै, ते भेषधारयां रे मन भावे।
यां री ठंडी कीधी यां छाती, ए पिण हुवा त्यां रा पखपाती। ४८ यां तो दुरगति री नींव दीधी, भेष धारयां रे खरची कीधी।
इण खरची सूं होसी खुराब, पड़सी चिहुं गति मांहे आब॥ __ ए तो आगै इ देता था आळ, ते झूठ रो क्यांनै कालै निकाल।
ओ सहजे पड़ियो झूठ पाने, हिवै ए क्यांनै राख्या छांने।। ५० भेषधारयां रा श्रावक आवै, त्यां सूं तो घणा मिल जावै।
त्यांनै मीठा वचना बोलावे, त्यां आगै गुर में दोष बतावै।। ५१ जब ए पिण राजी होय जावै. असणादिक आछी रीत वेहरावे।
बलै ए पिण यां नै पोगां चढावै, वारूवार ओगुण बोलावे।। ५२ बलै माहोमां कळहो दे लगाय, आंमी सांमी भेटी मेले ताय। .
यां रे आगै इ साधां तूं धेष, तिण सूं यां री मांने वशेष।। ५३ बलै यां नै पूछै केइ एम, थांनै गण बारै काढिया केम।
जब ए कहै म्हांनै काढ़े क्यांनै, म्हे तो ढीळा जांणे छोड्या यांनै।। इसड़ा झूठ बोले जाण-जांण, तिणरो कठेइ नहीं परमाण।
यां नै छोड्या एकीका नै ताय, तका तो बात दीधी छिपाय।। ५५ कमलप्रभा आचार्य ने देखो, तिण विचे यां री बिगड़ी विशेषो।
उण वचन फेस्यो एक वार, तो उ रुलीयो अनंत संसार।। ५६ ए तो बके घणां दिन रात, कूड़ कपट सहित करै बात ।
बलै विवधपणे देवे आळ, तो ए रुलसी कितो एक काळ॥ ५७ इसड़ा अनंत हुआ नै होसी, परभव सामो विरला जोसी
बलै आरा अजूणा मांहि, म्हे पिण देख लिया छै ताहि।। ५८ ए भाव कह्या तिण मांहि, कोइ बोल टळे छै ताहि ।
केइ अनुसारे मेल्या छै न्याय, कोइ बोली रो फेर छै मांय॥ ५९ इत्यादिक यां में ओगुण जांण, जब लागा छै जेहर समांण।
यांनै निन्हव जाणे किया दूर, तिण में मूळ म जांणजो कूड़।।
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छै।
६० सेंतीस वरस समत अठार, काती सुध एकम सनीसरवार । निन्हव भागल रो विसतार, कीधो पादू गांम मझार |
इम रास में पिण स्वांमी भीखणजी अवनीत नै टालोकर नै भांत भांत कर नै ओळखायो
तथा पैंतालीसा रा लिखत में एहवो कह्यो छै-टोळा मांहि कदाच कर्म जोगे टोळा बारैं परै तो टोळा रा साध - साधवियां रा अंस मातर अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै । यां री अंसमातर संका परै आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मां सूं फार नै साथे ले जावण रा त्याग छै । उ आवै तो ही ले जावण रा त्याग छै। टोळा मांहै नै बारै नीकल्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै । इम पैंतालीसा रा लिखत में कह्यो । ते भणी सासण री गुणोत्कीर्त्तन रूप बात करणी । भागी हुवै सो उतरती करै, तथा भागहीण सुणे, सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भागहीण, तिण तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी ।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुद्ध आराध्यां इह भव पर भव में सुख कल्यांण हुवै।
ए हाजरी रची संवत् १९१४ रा सावण सुदि ८
१. दसवे आलियं, ५।२।४५,४०
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इकीसवीं हाजरी
पंच सुमति तीन गुप्त महाव्रत अखंड आराधणां । ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहिणो । आहारपाणो लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै णो पूजतां परिठवतां सावधानपणै रहणो । मन वचन काया गु में सावचेत रहिणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी । भीखणजी स्वांमी सूत्र सिद्धान्त देख श्रद्धा आचार प्रगट कीधा - विरत धर्म, अविरत अधर्म | आज्ञा माहै धर्म, आज्ञा बारै अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव रो मार्ग छै । तथा विविध प्रकार री मर्यादा बांधी।
संवत् १८५० रे वरस मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो- सर्व सांधां नै सुद्ध आचार पालणो नै मांहोमां काढ़ो हेत राखणो । तिण ऊपर मर्यादा बांधी - कोइ टोळा रा साधसाधवियां में साधपणो सरधो तिको टोळा मांहे रहिजो, कोइ कपट दगा सूं साधां भेळो मांहि रहै तिण नै अनंता सिद्धां री आण छै, पांच पदां री आंण छै । साध नाम धराय नै असाधां भेळो रह्यां अनंत संसार बधै छै । जिण रा परिणांम चोखा हुवै ते इतरी परी उपजावो। किण ही साध - साधव्यां रा ओगुण बोल नै किण ही नै फार नै मन भांग नै खोटा सरधावण रा त्याग छै । किण सूं इ साधपणो पळतो दीसै नहीं अथवा सभाव किण सूं ही मिलतो दीसै नहीं अथवा कषाइ धेठो जांण नै कोइ कनै न राखे अथवा खेत्र आछो न बतायां अथवा कपड़ादिक रे कारणे अथवा अजोग जांण नै ओर साधु गण सूं दूरो करै अथवा आप नै गण सूं दूर करतो जांण नै इत्यादिक अनेक कारण उपने टोळा सूं न्यारो पड़े तो किणही साध - साधवियां री निंद्या करण रा ओगुण बोलण राहुतो अणहुंतो खूंचणो काढण रा त्याग छै । रहिसे- रहिसे लोकां रे संका घाल नै आसा उतारण रा त्याग छै। कदाच कर्म जोगे अथवा क्रोध रे वसै साध - साधवियां नै असाध सरधे आप में पिण साधपणो सरध नै फेर साधपणो लेवे तो पिण अठीरा साधसाधव्यां री संका घालण रा त्याग छै । खोटा कहिण रा त्याग ज्यूं रा ज्यूं पाळणा छै । पछै यूं कहिण रा पिण त्याग छै-म्हे तो फैर साधपणो लीधो, अबे म्हारे आगला सां रो अटकाव कोइ नही, यूं कहिण रा पिण त्याग छै । किण ही साध - साधव्यां ने साध-साधव्यां री आसता उतरै, साध आर्य्यां री संका पड़ै ज्यूं असाधपणो सरधे ज्यूं बोलण रा त्याग छै । किण ही साध आर्यां में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो, अथवा गुरां नै कहणो, पिण ओरां नै न कहिणो । घणां दिन आडा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उहीज छै, प्राछित रा धणी नै याद आवै तो प्राछित उण नै पिण लेणो । नहीं वे तो उण नै मुसकल छै । ए सर्व संबत् १८५० रा लिखत में कह्यो ।
तथा संवत् १८५२ रे वरस मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो - किण ही साध इकीसवीं हाजरी : २९५
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साधवी में दोष हुवै तो दोष रा धणी नै कहणो, पिण ओर किण ही आगे कहणो नहीं । रहिसे-रहिसे ओर भूंडी जाणे ज्यूं करणो नहीं । किण ही आर्य्यां दोष जांण नै सेव्यो हुवै ते पानां में लिख्या विनां विगै तरकारी खाणी नही । कदाच कारण पड़यां न लिखै तो ओर आय नै कहणो, सायद कर ने पछै वेगो लिखणो, पिण विनां लिख्यो रहिणो नहीं | आय नै गुरां नै मूहदा सूं कहणो नहीं। मांहोमां अजोग भाषा बोलणी नही । जिण रा परिणांम टोळा मांहे रहिण रा हुवै ते रहिजो, पिण टोळा बारै हुआ पछै साधसाधवियां रा अवगुण बोलण रा त्याग छै । अनंता सिद्धां री साख कर नै छै । कोई टोळा
रैनीकळी री बात उण लखणो हुवै ते मांने, भेषधारी भागल जिण धर्म राधेषी होसी ते मानसी । पिण उत्तम जीव तो मांने नही । बलि कोइ याद आवै ते पिण लखणो । बलै करली - करली मर्यादा बांधे त्यां में अनंत सिद्धां री साख करी नै ना कहिण रा त्याग छै । ए मर्यादा पाळण रा परिणांम हुवै तो आरै होइजो । सरमासरमी रो काम छै नहीं ।
तथा जिलो न बांधणो । संवत् १८४५ सा रा लिखत में कह्यो - टोळा मांहे पिण साधां रामन भांग नै आप आप रे जिले करै ते तो महाभारीकर्मो जांणवो विसवासघाती जावो। इसड़ी घात - पावड़ी करै ते तो अनंत संसार नी साई छै । इण मर्यादा प्रमाणे चालणी नावे तिण नै संलेखणा मंडणो सिरे छै । धनै अणगार तो नव मास मांहै आत्मा रो कल्यांण कीधो, ज्यूं इण नै पिण आत्मा रो सुधारो करणो पिण अप्रतीतकारियो काम न करणो । रोगिया विचे तो सभाव रा अजोग नै मांहे राख्यो भूंडो छै । यां बोलां री मरजादा बांधी ते चोखी पाळणी । अनंता सिद्धां रो साख कर नै पचखांण छै । ए पचखांण पाळण रा परिणांम हुवै ते आरै हुयजो । विनै मार्ग चालण रा परिणांम हुवै, गुरु नै रीझावणा हुवै, साधपणो पाळण रा परिणांम हुवै, ते आरै हुयजो ठागा सूं टोळा मां रहो न छै । जिण रा परिणांम चोखा हुवै ते आरै हुयज्यो । आगै साधां रे सम आचाररी मरजादा बांधी ते कबूल छै । बले कोइ आचार्य मरजादा बांधे ते याद आवै ते पिण कबूल छै । एहवो पैंताळीसा रे वर्स को
तथा पचासा रा लिखत में जिला नै निषेध्यो छै । ते भणी जिलो ते तो संजम नै टळो छै। विनीत नै अवनीत री संगत सूं बिगाड़ो हुवै ते भणी कुसंगत उत्तम जीव करै नही कुसंगति सूं अनेक अवगुण ऊपजे ते ऊपर स्वांमी भीखणजी दिष्टंत दियो ते
गाथा
१
'गळियार गधो घोड़ो अवनीत ते, कुट्यां विण आघा न चाले रे । तिण अवनीत नै काम भळावियां, कह्यां नीठ - नीठ पार घाले रे || धिग ध्रिग अवनीत आत्मा ॥
१. लय- शल्य कोई मत राखज्यो ।
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२ गलियार गधो घोड़ो मोलवे, तो खाडेती घणो दुःख पावै।
ज्यूं अवनीत नै दिख्या दियां, पछै पग-पग गुर पिछतावे ।। बुटकने गधेड़े दुराचारी, तिण कीधी घणी खोटाइ। आप छांदे रह्यो उजाड़ में, एक बळद नै कुबद सिखाइ ।। तिण अवनीत बळद नै तुरकियां, मार गाडा मांहि घाल्यो। बुटकना नै आय जोतस्यो, हिवै जाय उतावळो चाल्यो। ज्यूं अवनीत नै अवनीत मिल्यां, अवनीतपणो सीखावे।
पछै बुटकनां नै बळद ज्यूं दोनूं जणा दुःख पावे।। इम इहां पिण कह्यो-अवनीत नै अवनीत री संगति सूं अविनीतपणो वधे, ते माटे अवनीत री संगत घणी खोटी। सूत्र में पिण अवनीत नै ठाम-ठाम ओळखायो छै। अवनीत नै उधो ही सूजे, उंधो ही अर्थ करै। १ 'केइ विनीत अवनीत भण्या दोनू गुर कने, पिण विनय सहित भणियो विनीत हो। भवि० तिण सूं सूधो इ सूजे नै सुधो इ अर्थ करै, भण-भण नै उधो पड़े अवनीत हो॥
श्री वीर कह्यो अविनीत नै अति बुरो॥ २ ते विनीत अवनीत मार्ग में जाता थकां, हथणी रो पग देखी तांम।
अवनीत कहै हाथी गयो इण मारगो, उ बोल्यो निसंग पणे आंम॥ वनीत कहै हथणी पिण कांणी डावी आंख री, ऊपरराजा री रांणी सहित।
बलै पुतर रत्न तिण री कूख में, विवरा सुध बोल्यो वनीत॥ ४ बलै आगै गयां बाई प्रश्न पूछियो, ते उभी सरवर पाळ।
म्हारो पुत्र प्रदेश गयो मिलसी किण दिनै, जब अवनीत कहै कीधो उण काळ।। हूं काटूं रे बाढूं जीभड़ली तांहरी, तूं विरओ बोले केम॥ तूं धसको क्यूं न्हाखै रे पापी एहवो, जब विनीत बोलै छै एम।
वनीत कहै पुत्र ताहरो घर आवियो, आज मिलसी तोसूं निसंक। ___ इण रो वचन 'म' माने झूठ बोले घणो, इण रे जीभ वेरण रो बंक।।
ए दोनूं इ बोलां में अवनीत झूठो पड्यो, साच उतरियो विनीत। जब अवनीत धेष धरयो गुर ऊपरे, कहै मोने न भणायो रुड़ी रीत॥ एहवी उंधी करै विचारणा, आय गुर सूं झगड्यो अविनीत। कहै मो नै न भणायो थे कूड़-कपट करी, बलै बोल्यो घणो विपरीत। अविनीत नै बोल्यो जांण बुरी तरे, तिण सूं गुर पूछ्यो दोयां नै विचार। निरणो करै संका काढ़ी अवनीत री, पिण उण रो तो उहीज आचार॥
mon 9
१. लय-पूजजी पधारो नगरी सेवियां।
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१० इह लोक रा गुर रा अवनीत री, अकल बिगड़ गइ एम।
तो धर्म आचार्य रा अवनीत री, उंधी अकल रो कहवो केम।।
इम वनीत अवनीत रा विचारणा रो फेर कह्यो। ते माटे अवनीतपणो छोड़े, वनीतपणो आदरे।
तथा पैंताळीसा रा लिखत में एहवो कह्यो छै–टोळा मांहि कदाच कर्म जोगे टोळा बारै पड़े तो टोळा रा साध-साधवियां रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंस मात्र संका पडै आसता ऊतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा बारै फाड़ नै साथे ले जावा रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावण रा त्याग छै। टोळा मांहे अनै बारै नीकळ्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन रूप बात करणी। भागहीण हुवै सो उतरती बात करै। तथा भागहीण सुणे तथा सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भाग- हीण। तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी।
आयारिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो।
गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं॥ इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुद्ध आराध्यां इह भव परभवे सुख कल्याण हुवै। ए हाजरी रची संवत् १९१४ रा सावण विद ७
१. दसवेआलियं, ५/२/४५,४०
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पंच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणा । ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहिणो। आहार पाणो लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रौ अभिप्राय देख नै लेणो । पूजतां परिठवतां सावधानपणे रहणो । मन वचन काय गुप्ति में सावचेत रहिणो । तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी । भीखणजी स्वांमी सूत्र सिद्धान्त देख नै आचार सरधा प्रगट कीधी- विरत धर्म नै अविरत अधर्म | आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारै अधर्म । असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग । तथा विविध प्रकार री मर्यादा बांधी - किण ही साध आय में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो । तथा गुरां नै कहणो, पिण ओरां नैन कहणो । घणां दिन आडा घाल नै दोष बतावै तो प्रायछित रो धणी उ हीज छै ।
तथा संवत् १८५२ रे वरस आय रे मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो कि साध आय में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो तथा गुरां नै कहिणो, और किण ही आगे कहणो नहीं । किण ही आर्य्यां जांण नै दोष सेवे तो पाना में लिख्यां विना विगै तरकारी खांणी नही। कोइ साध आर्य्यां रा अवगुण काढै तो सांभळण रा त्याग छै । इतरो कहणो स्वामी जी नै कहिजो । जिण रा परिणाम टोळा मांहे रहण राहुवै हिजो । पिण टोळा बारै हुवा पछै साधु-साधवियां रा ओगुण बोलण रा अनंता सिद्धां साख कर नै त्याग छै । बलै करली - करली मर्यादा बांधे त्यां में ना कहिण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै ।
तथा चोतीसारे वर्स आय रे मर्यादा बांधी तिण में को-टोळा रा साध आर्यां री निंद्या करै तिण नै घणी अजोग जांणणी, तिण नै एक मास पांचू विगै रा त्यागं छै । जितरी वार करै जितरा वार मास पांचू विगै रा त्याग छै । जिण आय्य साथे मेल्यां तिण आय भेळी रहै अथवा आर्य्यां मांहो मांहि सेषे काळ भेळी रहै अथवा चोमासे भेळी रहे त्यां रो दोष साधां सूं भेळा हुवा कहि देणो । नहीं कहै तो उतरो प्राछित उण नै छै । टोळा सूं छूट न्यारी हुवां री बात मांनै त्यां नै मूरख कहिजे, चोर कहीजे, तथा पचासा रा गुणसठा रा लिखत में को-कर्म धको दीधां टोळा सूं टळै तो टोळा रा साध-साधवियां रा हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै । टोळा नै असाध सरण नै नवी दिख्या लेवे तो पिण अठीरा साध - साधव्यां री संका घालण रा त्याग छै । उपगरण टोळा मांहे करै ते, परत पाना लिखे जाचे ते, साथे ले जावण रा त्याग छै ।
तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो किण ही नै कर्म धको देवे तो टोळा सूं न्यारो पड़े अथवा टोळा सूं आप ही न्यारो थयो । इण सरधा रा बाई भाई हुवै तिहां रहिणो नहीं । वाटे वहतो एक रात, कारण पड़िया रहै तो पांचू विगै नै सूखड़ी खावा रा त्याग छै । बाइसवीं हाजरी : २९९
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अनंता सिद्धां री साख कर ने। कोइ टोळा रा साध-साधवियां में साधपणो सरधो, आप मांहे साधपणो सरधो, तिको टोळा में रहिजो। कोइ कपट दगा सूं साधां भेळो रहै, तिण नै अनंता सिद्धां री आंण छै। पांच पदां री आण छै, साध नाम धराय नै असाधा भेळो रह्यां अनंत संसार वधे छै, जिण रा परिणाम हुवै ते इतरी परतीत उपजाओ, किण ही साध-साधव्यां रा ओगुण बोल नै किण ही नै फार नै मन भांग नै खोटो सरधावण रा त्याग छै। किण ही रा परिणाम न्यारा होण रा हुवै जद ग्रहस्थ आगै पेळां री परती करण रा त्याग छै। जिणरो मन रजाबंध हुवै, चोखीतरे साधपणो पळतो जांण नै रहिणो। आप में पेळां में साधपणो जांण नै रहिणो ठागा सूं माहे रहिण रा अनंता सिद्धां री साखं सूं पचखांण छै।
तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-कोइ कर्म जोगे टोळा मांहे सूं फाड़ातोड़ो करी नै एक दोय तीन आदि नीकळे, धणी धुरताइ करै, बुगल ध्यानी हुवै, त्यां नै साधु सरधणां नही। च्यार तीर्थ माहे गिणवा नहीं। त्यां नै चतुरविध तीर्थ रा निंदक जांणवा। एहवा नै वादे पूजे ते जिण आगन्या बारे छै कदाच फेर दिख्या तीर्थ रा निंदक जांणवा। एहवा नै वादे पूजे ते जिण आगन्या बारे छै कदाच फेर दिख्या लेइ ओर साधां नै असाध सरधायवा नै तो पिण उण नै साध सरधणो नही। उण नै छेरवियां तो उ आल दे काढ़े तिण री एक बात मानणी नहीं, उण तो अनंत संसार आरै कीयो दीसै छै। ___इहां पिण टोलोकर नै घणो निषेध्यो छै। केइ कर्म वसै गण छोड़ नै नीकळे, केयक तो एकला ही नीसरे, अनै केयक दोय तीन आदि नीकळ नै पछै एक-एक फिरता रहै। अनेक-अनेक उंधी परूपणां करै। तिण नै भीखणजी स्वामी एकल रा चोढाळ्यां में तथा एकल री चोपी में एहवी गाथा कही
दोहा
१ भला कुळ री बिगड़ी तिका, जोवे विराणां साथ।
ज्यूं साध बिगड्यो आचार थी,ते किण विध आवै हाथ।। २ आज्ञा लोपी सतगुर तणी, तिण में ओपमा छै गळियार।
आप छांदे एकलो भमे, ज्यूं ढोर फिरै रुळियार ॥ ३ बिगड्या धान री पाखती, बेठां दुरगंध आय।
ज्यूं एकल री संगत किया, बुद्धि अकल पत जाय। ४ जो एकल नै आदर दीये, तो वधै घणो मिथ्यात। ___ फूट पडै जिण धर्म में, ते सुणजो विख्यात॥
१. घर-घर भटकने वाला।
२.प्रतिष्ठा ३०० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१ जिण सासण में आज्ञा बड़ी, आ तो बांधी रे भगवंता पाळ। ए तो सज्जन असज्जन भेळा रहे, छांदे चाले रे प्रभु वचन संभाळ।।
बुधवंता एकल संगत न कीजिये।। २ छांदो रूंध्यां विण संजम नीपजै, तो कुण चाले पर नी आग्या मांय।
सहु आप मते हुवै एकला, खिण भेळा खिण बिखर जाय। आप मते एकला हुआ, तो सासण में पर जाए घमडोल।
एहवा अपछंदारी करै थापना. ते पिण भला भेद न पायो रहगी भोल। ४ वेराग घटै उण री पाखती, के उण संगत आवै मूळ मिथ्यात।
के साधा सूं उतर जाए आसता, साची सरध्यां एकल री बात। ५ ते तो भिड़कावै साधां रा समदाय सूं, आपस में बोले विरुवा वैण।
बलै छिदर धरावै एक-एक नै, साधूं दीठा बळे अंतरंग नैण ।। ६ नकटादिक चोर कुसीळिया, वधी चावै आप आपणी न्यात।
ज्यूं भागल नै भागल मिलै, घणूं हरखे करे मनोगत बात ।। ७ चोरी जारी आदि खून अकारज कियां, राजा कपड़े करै छविछेदे खोड़।
बलै देश निकाळो दे काढियां, त्यां नै राखै भील मेणादिक चोर॥ ८ ते बिगाड़ करै तिण देश मे, भील मेणां त्यां नै आंणी-आंणी साथ।
दुःख उपजावै रेत गरीब नै, धन ले जावै कर कर त्यांरी घात। ९ त्यां नै असणादिक आदर दियां, लफरो लागै भांग्या राजा तणी आंण।
कदा राय कोपे तो धन खोस ले, जीवां मारे तिण रा ए फल जाण। १० इण दिष्टंते साधां रा समदाय में, दोषण सेव्यां साधु कालै गण बार।
ते आप छंदे एकला रहै, के भागल आगै पाछै फिरे लार। ११ ए तो साधां रा अवगुण बोलता, मुख मीठो खेले अंतर घात।
ओछी बुद्ध वाला नै विगोवता, कूड़ी कथणी कूड़ी कर-कर बात। १२ त्यां री भाव भगत संगति किया, तिण भांगी भगवंत नी आंण।
ते तो दुःख खमे इण संसार में, उत्कृष्टा अनंत जन्म मरण जाण॥ १३ चोर नै तो आहार आदर दियां, इह लोके धन जीतब नो विणास।
भेषधारी नै भागल एक तणी, संगति कीधा कर्म तणी रास ।। १४ उसनां कु सीलिया नै पासथा, अपछंदा संसतादिक जाण ।
त्यां नै तीर्थ में गिणवा नही, आ कर लीजो जिण वचन प्रमाण।।
१. लय-चोर हंस अनै कुसीलिया। २. प्रजा।
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१५ ए तो हेलवा निंदवा जोग छै, कष्ट करवा तिण री ज्ञाता में साख।
त्यां रो संग परचो करणो नही, सूत्र मांहे भगवंत गया भाख।। १६ यां तो अनंत संसार आरै कियो, इहलोके परलोके हुसी भण्ड।
तिण नै आहारपांणी ओषद दियां, तिण नै आवे चोमासी रो डंड। १७ भेळा वेस सझाय करवी नहीं, नहीं करणो त्यां रे साथे विहार।
यां रो संग परचो करता थंका, ग्यांन दरसण चारित्र रो विगार।। इम एकल नै ओळखायो। तिण की संगति सूं समकत आदि घणां गुणां रो नास हुवै, अवगुण नीपजे। ठांम-ठांम सूत्र में एकला नै रहणो वरज्यो छै। आचारंग ववहार वेद कल्प आदि अनेक साख छै। बलै भीखण जी स्वामी पिण एकला नै सफा वरज्यो छै। ते गाथा१ . 'केकां सूं तो भेळो रहिणी नावै, तिण सूं फिरे एकलो आप।
ते सुध साधां नै असाध परूपै, बलै करै एकलो रहण री थाप रे॥ भवियण जोवो रे हिरदै विचारी, थे तो अंतर आंख उधाड़ी रे।
भवियण एकल छै जिण आगन्यां बारी।। २ ओ किण कारण फिरे छै एकलो, ते तो भोळा नै नहीं ठीक।
तिण रा कूड़ कपट नै दोष सेवण री, कुण करै तहतीक।। ३ तिण एकल मांहे अनेक अवगुण छै, बलै कूड़-कपट रो भंडार।
ते एकल रहै छै सगळां तूं डरतो, रखे करेला म्हारो उघाड़। ४ तिण एकल रा सील आचार री, तिण री भोळा करसी परतीत।
के इ चतुर विचखण डाहा होसी ते, एकल नै जांणे विपरीत ॥ ५ केड कोधी कषाड लोळपी होसी ते तो फिरसी एकेला।
केइ विषे तणे वस फिरे एकला, एहवा एकल कदेय न भला।। ६ ठांम-ठांम सूत्र मांहे श्री वीर नषेध्यो, साधु नै एकलो रहणो नांहि।
केइ एकल नै साध सरधे न वांदे, ते पिण पड़िया मोटा फंद मांही॥ ७ इम सांभळ उत्तम नर नारी, एकल दूर तजीजे।
उत्तम साधु सुद्ध आचारी त्यांनै, हरष सहीत गुर कीजे॥ ८ इण पंचमे आरै फिरै एकला, ते नेमाइ निश्चे भिष्टी।
विवेक विकल जिण आगन्यां बारै, त्यां नै साध न सरधे समदृष्टि। इहां पिण एकल में तो साधपणो बिलकुल नहीं तथा पैंताळीसा रा लिखत में एहवो कह्यो-टोळा माहि कदाच कर्म जोगे टोळा बार पड़े तो टोळा रा साध साधव्यां रा अंश मात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंस मात्र संका पडै आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै।
१. लय-जे जे कारण जिन-आज्ञा मांहे छै। ३०२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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टोळा मां सूं फार नै साथ ले जावण रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावण रा त्याग छ। टोळा माहे अनै बारै नीकळ्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन सूप बात करणी। भाग-हीण हुवै सो उतरती बात करै, तथा भागहीण सुणै, तथा सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भागहीण। तिण नै तीर्थंकर रो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥
आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।।
इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुद्ध आराध्यां इह भव में पर भवे सुख कल्याण हुवै।
ए हाजरी रची संवत् १९१४ रा सावण विद ६ ।
१. दसवेआलियं, ५।२।४५,४०
बाइसवीं हाजरी : ३०३
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तेईसवीं हाजरी
पांच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणां । ईर्ष्या भाषा में सावचेत रहिणो। आहारपाणी लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै लेणो। पूजतां परिठवतां सावधान पणे रहणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहिणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी। भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देख नै श्रद्धा आचार प्रगट कीधा-विरत धर्म नै अविरत अधर्म, आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे ने द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग छै। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी। सर्व साधां नै सुद्ध आचार पाळणो। माहोमां गाढो हेत राखणो। जिण ऊपर मरजादा बाधी- कोइ टोळा रा साध-साधव्यां में साधपणो सरधो, आप माहै साधपणो सरधो, तिको टोळा माहे रहिज्यो। कोइ कपट दगा सूं साधां भेळो रहै, तिण नै अनंता सिद्धां री आंण छै। पांचूं पदां री आण छै। साध नाम धराय नै असांधां भेळा रह्या अनंत संसार वधे छै। जिण रा परिणाम चोखा हुवै ते इतरी परतीत उपजाओ। किण ही साध-साधवियां रा
औगुण बोल नै किण ही नै फार नै मन भांग नै खोटा सरधावण रा त्याग छै। किण ही सूं साधपणो पळतो दीसै नहीं अथवा सभाव किण सूं इ मिलतो दीसै नही अथवा कसायी धेटो जांण नै कोइ कनै न राखे अथवा खेत्र आछो न बतायां अथवा कपड़ादिक कारण अथवा अजोग जांण नै और साध गण सूं दूरो करै अथवा आप नै गण सूं दूरो करतो जांण नै इत्यादिक अनेक कारण उपने टोळा मां सूं न्यारो पड़े तो किण ही साध-साधवियां रा ओगुण बोलण रा, हुतो अणहुँतो खूचणो काढण रा त्याग छै। रहिसे-रहिसे लोकां रे संका घाल नै आसता उतारण रा त्याग छै। कदा कर्म जोगे अथवा क्रोध वस साधां नै साधवियां नै सर्व टोळा नै असाध सरधे, आप में पिण असाधपणो सरध नै फेर साधपणो लेवे तो ही पिण अठीरा साध-साधवियां री संका घालण रा त्याग छै। खोटा कहीण रा त्याग ज्यूं रा ज्यूं पाळणा छै। पछै यूं कहिण रा पिण त्याग छै। म्हे तो फेर साधपणो लीधो, अबे म्हारे आगला सूंसा रो अटकाव को नही, यूं कहिण रा पिण त्याग छै, किण ही साध आल् नै पिण साध आर्त्यां री आसता उतरे साध आर्या री संका पडै ज्यूं असाधपणो सरधे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहिणो, अथवा गुरां नै कहणो, पिण ओरां नै न कहिणो, घणां दिन आडा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उहीज छै। किण ही रा परिणाम न्यारा होण रा हुवै जद ग्रहस्थ आगै पेला री परती करण रा त्याग छै। जिण रो मन रजाबंध हुवै चोखीतरै साधपणो पळतो जाणे तो टोळा मांहे रहिणो। आप में अथवा पेला में साधपणो जांण नै रहिणो। ठागा सूं रहिवा रा ३०४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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अनंता सिद्धां री साख सूं पचखांण छै। टोळा मांहे रहै जठा तांइ उण रा छै टोळा सूं न्यारो हुवै जद पानां टोळा रा साधां रा छै । साथे ले जावण रा त्याग छै । परत पांना जाते पण बड़ा री टोळा री नेश्राय जाचणा, आप री नेश्राय जाचण रा पचखांण छै । जे कोइ अजांणपणे जाचणी आवै तो पिण परत पाना बड़ा रा छै, टोला रा छै, वा नै पण साथ ले जावण रा त्याग छै । पातरो लोट जाचे टोळा मांहे थकां ते पिण बड़ा री श्राय जाणो | बड़ा देवे ते ळेणो, ते पिण टोळा मांहि छै जठा तांइ । टोळा बारै जाय तो साथ ले जावण रा त्याग छै। कपड़ो नवो हुवै ते पिण टोळा बारै ले जावण रा त्याग छै। दिख्या देणी ते पिण बड़ा रे नांमे देणी । आप आप रै चेलो करवा रा त्याग छै । आगे पानो लिखियो छै- तिण में साधां रे मरजादा बांधी छै-तिण प्रमाणे सगळा रे त्याग छै उवा मरजादा पिण उलंघण रा त्याग छै। जो किण ही साध मरयादा रो उलंघवो कीधो अथवा आगन्या मांहै नहीं चलिया अथवा किण ही नै अथिर परिणांमी देख्यो अथवा टोळा माह टिकतो न देख्यो तो ग्रहस्थ नै जणावण रा भाव छै । साध - साधव्यां नै जणावण रा भाव छै । पछै कोइ कहोला म्हारी लोकां मांहै टोळा मांहै आसता उतारी। तिण सूं घणां सावधांन पणे चालज्यो । एक-एक नै चूक परया तुरत कहिज्यो | म्हां ताइ कजियो आणज्यों मती। उठे निवेरज्यो, पूछ्यां अथवा अणपूछ्यां बीती बात कही बाकी उठे ही निवेर लेणी । कोइ टोळा मां सूं टळ नै साध - साधवियां रा दोष बतावै अवर्णवाद बोले ति नै झूठाबोलो जाणणो । साचो हुवै तो ज्ञानी जाणे । पिण छदमस्थ राववहार में तो झूठो जांणणो । एक दोष सूं बीजो दोष भेळो करै ते तो अन्याइ छै।
हुवै ते विचार जोयज्यो । लूखे खेतर तो उपगार हुवै ते छोड़ नै न रहे, आछे खेतर उपगार न हुवै तो ही पर रहै । ते यूं करणो नहीं । चोमासो तो अवसर देखे तो रहणो, पिण सेषे काळ तो रहणो ही । किण री खावा पीवादिक री संका पड़ै तो उण नै साध कहै, बड़ा कहै ज्यूं करणो, दोय जणां तो विचरे नै आछा आछा मोटा साताकारियां क्षेत्र लोळपी थकां जोवता फिरै नै रहै, गुर राखे तठे न रहै, इम करणो नहीं छै । घणां भेळो रहितो दुखी, दोय जणां में सुखी, लोळपी थको यूं करणो नहीं छै । आप किण ही नै परत पांना उपगरण देवे ते तो आघाइज' देणा पिण न्यारो हुवै जद पाछा मांगण रा त्याग छै । जिण री आसंग हुवै ते देज्यो । आर्य्या सूं देवो लेवो लिगार मातर करणो नहीं। बड़ा री आज्ञा विना आगै आर्य्या हुवै जठै जाणो नहीं । जाए तो एक रात रहिणो, पिण अधिको रहिणो नहीं, कारण पड़िया रहै तो गोचरी रा घर बांट लेणां, पिण नित रोनित पूछो नहीं । कने बैठण देणी नहीं उभी रहिण देणी नहीं, चरचा बात करणी नहीं। बड़ा गुरवादिक रा कह्या थी कारण री बात न्यारी छै। सरस आहारादिक मिलै तिहा आग्या विना रहिणो नहीं, बलै काइ करली मरजादा बांधी तिण में ना कहिणो १. सम्पूर्ण रूप से ।
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नहीं। आचार री संका पड़यां थी बांधे, बलै कोइ याद आवै ते लिखां, ते पिण सर्व कबूल छै। ए मर्यादा लोपण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै पचखांण छै। जिण रा परिणाम चोखा हुवै, सूंस पाळण रा परिणाम हुवै, ते आरै होयज्यो। सरमासरमी रो काम छै नहीं। संवत् १८५० रा लिखत में बात कही। इम इत्यादिक मर्यादा अनेकअनेक बंधवस्ती में रहै हरष सहित अंगी करे अनेक-अनेक त्याग सिद्धां री साख पंच पंदा री साख सुं च्यार तीर्थ री साख सूं अन्य मती देख्या पिण ते सर्व सोगन लाज छोड़ नै भांग देवे। पछै आप मते फिरे अनेक-अनेक परूपणां करै घुनराइ करै। तथा लोक देखाउ करणी पिण करै। पिण टाळोकर री सनंध न्ही लेखवणी इसी श्री भीखणजी स्वामी कही ते ढाळ कहै छै१ घर छोड़ी ली गुर कनै दिख्या, केइ दुःखदाइ हुवै चेला।
गुर नै उथापे हुवा छै अग्यांनी, गण सूं पड़िया फिरै अकेला॥ ए टोळा रा अवगुण बोले टालोकर, तिके प्रतक्ष साधां रा धेषी रे। जो किण रा मन मांहे संका हुवै तो, अरूबरू ल्यो देखी॥धुपदं। साधपणो कहै म्हेइज पाळां, ते हिया तणे बल बोले।
कर्मा रे वस क्यूं ही न सूजे, ए मोह मिथ्यात में डोले। ३ सांग साधू रो पिण अकल न काइ, सीख दिया करै कजिया।
रात दिवस करै छै निंद्या पूरी, बलै छोड़ी लोकां री लजिया। ४ अनेक साधां री करै छै निंद्या, पोते होय बेठा बाजे वैरागी।
ते अपछंदा जिण आग्या बारै, ज्यांसूं मुगत पुरी रही आधी॥ ५ जो सीत काळ रहै सदा उघाड़ा, बले लूखी खावै रोटी।
पिण नंद्या न छूटी सुद्ध साधा री, तिके भेष लेइ हुवा खोटी॥ मास-मास करै पारणो कोयक, बलै सहै सूरज रो तापो। तो पिण गरज सरै नही काइ, तिण खोयो नंद्या कर आपो।। छिद्रगवेषी नै दुष्ट परिणामी, तिण वरत किया नव कोटि। झूठ बोलण री पिण संक न राखै, तिण रे भोळप मोटी। क्रोध मांहे सदाइ रहै कळिया, मांन मांहे नहीं मावै। आप री कीरत आप कहै मूरख, पड्या लोकां में पमावै ।। देवाळिया नै देवाळिया सूजे, साहूकारां नै उड़ावै।
ते बिगड़ायल भेष रा भारीकर्मा, सुद्ध साधां रो सुजश गमावै॥ १० आप ने अणहुँतो उतकष्टो थापै, बलै उतमा नै खोला।
साध साधवियां नै निजरा दीठां, त्यांरा बळे आंख्यां रा डोला। १. चतुर विचार करी ने देखो। ३०६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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कदा पांणी छोड़ नै धोवण लेवै, बलै पंच विगै देवै त्यागी । पण साधां री निंद्या करणी न छूटी, तिण सूं विपत रही नित लागी ॥ कदा लकड़ी जिम जे काया सुकावै, पिण नंद्या करणी नही छूटी। बलै साधू ज्यूं पूजावै लोकां में, ज्यां री हिया निलाड़ी री फूटी ॥ १३ अपछंदा केइ पूत कुपात्र, घणी हिया मांहै घातो । दुखदाइ जीव जवा सरीषा, ज्यां रे हुंकारे मूंहगी बातो ॥ १४ गुर निंदक महामोहणी बांधी, पाप समण ते पूरा ।
दोय सूत्रां मांहे पाठ उघाड़ा, निंदक लबाळ ते कूड़ा॥ १५ अळगा थइ नै अवगुण बोले, त्यां री अकल गइ दपटाइ । संपत आवतां कूटी नै कादै, आ विपत नै नेड़ी बुलाइ || १६ मूर्ख मन में नहीं विचारे, मारै कया हुसी किम मूंडो || संघ उथाप नै धर्म राधेषी, बलै मांडे मुगत नै मूंहढो || साधां रा गावै ।
१७ उलट बुद्धि अळखवणा बोले, अवगुण
माठी गति रा पावणा पापी, एलै २ जन्म गमावै ॥ १८ निंदक नीच उघाड़ा कूवा, जिण में पड़े मत अंधा । मूरख मोह अग्यान में खूता, त्यांरा पिण केइ होय बैठा बंदा || लख चोरासी में गोता खासी, भमसी दड़ी जिम दोटो | उतकष्टो काळ अनंतो रुलसी, इण मत झाळ्यो खोटो || २० ज्यांनै नै टाळ दिया टोळा सूं दूरा, त्यां में अविनय रो ओगुण भारी । त्यांरो टोला में टिकणो अति दोरो, गुर रा नहीं आज्ञाकारी ।
२१ सतगुर री परतीत ज राखो, जो तिरिया चावो भव पारो । ज्यूं सुखे-सुखे सिवपुर में जाओ, तिहां वरतसी जे जे कारो ॥
इम इत्यादिक अनेक-अनेक टाळोकर रा अवगुण कह्या ते भणी तेहनी संगत न करणी । तथा पैंतालीसा रा लिखत में एहवो कह्यो-टोळा मांहि कदाच कर्म जोगे टोळा बारै पड़ै तो टोळा रा साध - साधवियां रा अंस मात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै । यां री अंस मात्र संका पड़ै आसता ऊतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै । टोळा मां सू फार नै साथै ले जावण रा त्याग छै । उ
तो ही ले जावरा त्याग छै । टोळा माहै अनै बारै नीकळ्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै । इम पैंताळीसा रा लिखत में को-ते भणी सासण गुणोत्कीर्त्तन रूप बात करणी । भागहीण हुवै सो उतरती बात करै । तथा भागहीण सुणै तथा सुणी आचार्य नैन कहै ते पिण भागहीण तिण नै तीर्थंकर रो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणीं ।
३. गेंद ।
११
१२
१९
१. अफल । २. शिथिल ।
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आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं॥
इति दशवकालिक में कह्यो । ते मर्यादा आज्ञा सुद्ध आराध्यां इह भव पर भवे सुख कल्याण हुवै।
ए हाजरी रची संवत् १९१४ रा भादवा विद ६।
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चोवीसवीं हाजरी
पंच सुमति तीन गुप्त पंच महाव्रत अखंड आराधणां । तीर्थंकर आचार्य री आज्ञा सुद्ध पाळणी। तथा भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धांत देख सरधा आचार प्रगट कीयो-विरत में धर्म, अविरत में अधर्म। आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारै अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछे ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछै ते वीतराग देव नो मार्ग।
तथा संवत् १८५० रे वरस भीखणजी स्वामी मर्यादा बांधी-किण ही साध आ· में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो, तथा गुरां नै कहणो, पिण ओरां नै न कहिणो। घणां दिन आडा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उ हीज छै।
तथा संवत् १८५२ वरस आर्सा रे मर्यादा बांधी तिण में एहवो कहयो-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो दोष रा धणी नै कहिणो, तथा गुरां नै कहिणो, पिण और किण ही आगै कहिणो नही। किण ही आर्यां दोष जांणनै सेव्यो हुवै ते पांना में लिखियां विनां विगै तरकारी खाणी नही। कोइ साधु-साधवियां रा अवगुण काढे तो सांभळवा रा त्याग छै। इतरो कहणो-'स्वामी जी नै कहिजो' जिण रा परिणाम टोळा मांहे रहिण रा हुवै ते रहिजो। पिण टोळा बारै हुवा पछै साधु-साधवियां रा अवगुण बोलण रा अनंत सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। बलै करली-करली मर्यादा बांधे त्यां में पिण रा कहिण राअनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। तथा चोतीसा रा वरस आर्या रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो-टोळा सूं छूट न्यारो हुवा री बात माने त्यां नै मूरख कहीजे त्यां नै चोर कहीजे।
तथा पचासा रा लिखत में तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-कर्म धक्को दीधां टोळा सूं टळे तो टोळा रा साध-साधव्यां रा हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। टोळा नै असाध-सरध नै नवी दिख्यो लेवे तो पिण अठीरा साध-साधवियां री संका घालण रा त्याग छै। उपगरण टोळा मांहि करै ते, परत पाना लिखे जाचे ते, साथे ले जावण रा त्याग छै।
तथा जिलो न बांधणो संवत् १८४५ रा लिखत में कह्यो-टोळा मांहे पिण साधां रा मन भांग नै आप-आप रे जिले करै ते तो महाभारीकर्मों जाणवो, विसवासघाती जांणवो। इसड़ी घात-पावड़ी करै ते तो अनंत संसार नी साइ छै। इण मर्यादा प्रमाणे चालणी नावै। तिण नै संलेखणां मंडणो सिरे छै। धनै अणगार तो नव मास माहे आत्मा रो कल्याण कीधो ज्यूं इण नै पिण आत्मा रो सुधारो करणो। पिण अप्रतीतकारियो काम न करणो, रोगिया विचै तो सभाव रा अजोग नै मांहे राख्यो भूडो छै यां बोला री मर्यादा बांधी ते लिखी छै, ते चोखी पाळणी। अनंता सिद्धां री साख कर नै पचखांण छै। ए पचखांण पाळण रा परिणाम हुवै ते आरै हुयजो। विनै मारग चालण रा परिणाम
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हुवै गुरु नै रीझावणां हुवै साधपणो पाळण रा परिणांम हुवै ते आरै हुयजो। ठागा सूं टोळा मांहि रहिणो न छै । जिण रा परिणाम चोखा हुवै ते आरै हुयजो । आगै साधां रे समूचे आचार री मर्यादा बांधी ते कबूल छै । बलै कोइ आचार्य मर्यादा बांधे ते याद आवै ते पिण कबूल छै। उण नै साधु किम जाणिये जे ऐकलो वेण री सरधा हुवै। इसी सरधा धार नै टोळा मांहे बेठो रहै। माहरी इच्छा आवसी जद एकलो हुंसूं, इसड़ी सरधा सूं टोळा मांहे रहै ते तो निश्चे असाध छै । साधपणो सरधे तो पहिला गुणठाणा रो धणी छै । दगाबाजी ठागा सूं माहै रहे छै, तिण नै माहे राखै जांण नै त्यां नै पिण महादोष छै। तथा बली पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो -बली कोइ करली मर्यादा बांधे तिण में ना कहणो नही, आचार री संका पड़या थी बलै कोइ याद आवै ते लिखां ते पिण सर्व कबूल छै । ए मर्यादा लोपण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै पचखांण है। जिरा परिणामं हुवै ते आरै होयजो । सरमासरमी को काम छै नहीं ।
तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो - टोळा सूं न्यारो हुवै तो इण सरधा रा भाया बाया हुवै तहां रहिणो नही, एक भाई वाई हुवै तिहां पिण रहिणो नही | वाटै वहितो एक रात कारण पड़िया रहै तो पांचू विगै सूखड़ी खावा रा त्याग छै । अनंता सिद्धां री साख कर नै छै । तेभणी अवनीतपणो छोड़ मर्यादा सुद्ध पाळे ते विनीत तथा सूत्र में पिण वनीत नै सरायो ते पाठ
" एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं- तद्दिट्ठीए, तम्मुत्तिए, तप्पुरक्कारे तस्सन्ना तन्निवेसणे, जयं विहारी, चित्तनिवाती, पंथनिझाइ, पलिवाहिरे " - आयारो १।५।५।
अथ इहां वनीत नै ओळखायो आचार्य री दृष्ट प्रमाणे दृष्ट राखणी । आचार्य रा जाणपणां लारै जांणपणो राखणो को । इत्यादिक अनेक कार्य में आचार्य री मुरजी प्रमाणे विचरणो ।
तथा संवत् १८४५ रा लिखत में कह्यो - टोळा मांहे सूं कदा कर्म जोगे टोळा बारै पड़े तो टोळा रा साध - साधवियां रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै । यां री अंस मात्र संका पडै आसता ऊतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै । टोळा सूं फाड़ नै सा जावा रा त्याग छै । उ आवै तो ही ले जावा रा त्याग छै। टोळा मांहै न बारै नीकळ्या पण ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै । पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्त्तन रूप बात करणी, भागहीण हुवै सो उतरती बात करै, तथा सुणे ते भागहीण, सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भागहीण, ति नै तीर्थकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी ।
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आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ इति दशवैकालिक में कह्यो । ते मर्यादा आज्ञा आराध्यां इह भव पर भव में सुख कल्यांण हुवै।
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पच्चीसवीं हाजरी
पंच समिति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणां । ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहिणो । आहार पाणी लेणो ते पक्की पूछा करी नै लेणो । सूजतो आहार पिण आगला रो अभिप्राय देख नै लेणो । पूजतां परिठवतां सावधानपणे रहणो । मन वचन काय गुप्ति में सावधानपणे सचेत रहणो । तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी । श्री भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धान्त देख नै आचार श्रद्धा प्रगट कीधा - विरत धर्म, अविरत अधर्म, आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारे अधर्म । असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछै ते ष, तिरणो बंछै ते वीतराग नौ मार्ग छै । तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी। किण ही साध आय में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो, तथा गुरां नै कहणो । ओ नैन कहि घणां दिन आडा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उहीज छै ।
तथा संवत् १८५२ रे वरस आय रे मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो-किण ही साध आर्य्यां में दोष देखे तो दोष रा धणी नै कहणो, तथा गुरां नै कहिणो, पिण और किण कहो नहीं। आय जाण नै दोष सेव्यो हुवै ते पानां में लिख्या विनां विगै तरकारी खाणी नही। कोइ साधु-साधवियां रा ओगुण काढै तो सांभळण रा त्याग छै । इतरो कहिणो- 'स्वामी जी नै कहिजो' जिण रा परिणाम टोळा माह रहिण रा हुवै ते
हिजो, पिण टोळा बारे हुवां पछै साधु-साधवियां रा ओगुण बोलण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। बलै करली करली मर्यादा बांधे त्यां में पिण ना कहिण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै ।
तथा चोतीसारे वर्स आय रे मर्यादा बांधी, तिण में कह्यो- ग्रहस्थ कनै टोळा साध आय निंद्या करै तिण नै घणी अजोग जांणणी, तिण रे एक मास पांचूं विगै रा त्याग छै । जितरी वार करै जितरा मास पांचूं विगै खावा रा त्याग छै । जिण आय साथे मेल्यां तिण आय्य भेळी रहै अथवा आय मांहो मांहि शेषे काळ भेळी रहै अथवा चोमासे भेळी रहै, त्यां रा दोष हुवै तो साधां सूं भेळा हुवा कहि देणो, न कहै तो उतरो प्रायछित उण नै छै । टोळा सूं छूट हुवां री बात माने त्यां नै तो मूरख कहीजे, त्यां नै चोर कहिजे ।
तथा पचासा रा लिखत में तथा गुणसठा रा लिखत में को-कर्म धक्को दी टोळा सूं टळे तो टोळा रा साध - साधव्यां रा हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै । टोळा नै असाध सरध नै नवी दिख्या लेवे तो पिण अठीरा साध - साधवियां रे संका घालण रा त्याग छै। उपगरण टोळा मांहे करै ते, परंत पाना लिखे जाचे ते, साथे ले जावण रा त्याग छै ।
तथा गुणसठारा लिखत में कह्यो - किण नै कर्म धक्को देवे तो टोळा सूं न्यारो पड़े
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अथवा टोळा सूं आप ही न्यारो थयां इण सरधा रा भाई बाई हुवै त्यां रहणो नही। वाटे वहतो एक रात कारण परिया रहै तो पांचू विगै सूंखड़ी खावा रा त्याग छै। अनंता सिद्धां री साख करै नै छै। कोइ टोळा रा साध-साधवियां में साधपणो सरधो आप मांहे साधपणो सरधो तको टोळा माहै रहिजो। कोइ कपट दगा सूं साधा भेळो रहै तिण नै अनंता सिद्धां री आण छै। पांचू पदां री आंण छै। साध नाम धराय नै असाधां भेळो रह्या अनंत संसार वधै छै। जिण रा चोखा परिणाम हुवै ते इतरी परतीत उपजाओ। किण ही साध-साधव्यां रा ओगुण बोल नै किण ही नै फार नै मन भांग नै खोटा सरधावण रा त्याग छै। किण रा परिणाम न्यारा होण रा हवै जद ग्रहस्थ आगै पेला परती करण रा त्याग छै। जिण रो मन रजाबंध हवै चोखी तरह साधपणो पळतो जाणे तो टोळा माहै रहिणो। आप में अथवा पेला में साधपणो जांण नै रहिण, ठागा तूं मांहि रहिवा रा अनंता सिद्धां री साख सूं पचखांण छै। तथा साध-सिखावणी ढाल में तथा रास में पिण तथा घणां लिखंता में जिला नै निषेध्यो छै। फाड़ा तोड़ो करै, आमी साहमी बातां कर नै साध-साधव्यां रा मन भांग नै मन फड़ावै ते तो महाभारीकर्मों जाणवो। दगाबाजी कपटी जाणवो। विसवासघाती जाणवो। तथा महा मोहणी रा ढाळ, में पिण एहवो कह्यो, ते गाथा- . १९ गुण वधिया गुर ही नेसरा त्यां सूं दगो करै मन मांय रे। छळ छिद्र जोवै चोर नी परै, शिष-शिषणी लेवे फटाय रे॥
इम कर्म बंधे महा मोहणी। २० साध साध्वी श्रावक श्रावका, त्यांनै फारण रो करै उपाय।
गुर सूं मन भांगे ते नो, झूठा-झूठा अवगुण दरसाथ।। २१ करै विसासघात माहै थको, मुख मीठो खोटो मन माहि।
बलै जिलो बांधे और साध सूं, आप रो कर राखे ताहि।। २२ राजा नही तिण नै राजा कियो, राज दीधो मोटे मंडाण।
ते तो उपगारी छै मूळगो, तिणनैइज दुख देवे जाण ॥ २३ सर्पणी इंडा गलै आप रा, अस्त्री मारै निज भरतार।
बलै चाकर मार ठाकुर भणी, गुर नै शिष्य न्हाखे मार।। २४ मारे देश तणा नायक भणी, सेठ नै हणै माठे ध्यान।
कोइ मारै अधिकारी पुरुष नै, कुल में दीवा समान।। २५ कोइ संत ऋषेस्वर मोटको, घणां जीवां रो तारणहार।
द्वीपा समान डूबता जीव नै, त्यां नै हणे कोइ धेषधार॥
१. लय-जीवा ! मोह अणुकंपा न आणिये।
पच्चीसवीं हाजरी : ३१३
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२६ कोइ चारित्र लेवा उठीयो, केइ चारित्र पाळे ताय।
तिण चारितियां नै चारित्र थकी, भिष्ट करवा करै उपाय।। २७ उत्कष्टा ग्यांनी केवळी, त्यां रे संजम तप री समाधि।
ते तो प्रतिबोधे भव्य जीव नै, त्यां रा बोले अवगुणवाद।। २८ न्याय मार्ग छै सुध मुगत रो, तिण सूं तपतो रहै दिन रात।
तिण मार्ग सूं चूकाय दे, खोटी सरधा हिया में घात।। २९ आचार्य उवज्झाया त्यां कनै, साधु हुवो छोड़े मायाजाल।
बले भणियो सिद्धंत त्यां कनै, त्यां नै ही निंदे मूर्ख बाल।। ३० आचार्य उवज्झाया तेह नी, न करै सेवा भगत मन सुध ।
विनो वियावच पण करै नही, अहमेव पणां री बुध ।। ३१ आचार्य उवज्झाया त्यां कनै, ग्यांन दर्शन चारित्र पाय।
त्यां सूं पिण मूढ करै बरोबरी, बलै सनमुख झगड़े आय।। ३२ आचार्य उवज्झाया त्यां कनै, समझे कियो परत संसार ।
बलै संजम रे सनमुख किया, त्यां रा अवगुण बोले वारूवार॥ ३३ आचार्य उवज्झाया गण थकी, अवनीत नै देवै दूर टाळ।
जब अवनीत क्रोध तणे वसै, हेले दे दे झूठा आळ ।। ३४ आचार्य उवज्झाया तेह नी, वंदणा छुड़ावै संका घाल।
उत्तमा री उतारै आसता, दुष्ट अवनीत री ए चाल।। ३५ आचार्य उवज्झाया ऊपरै, कोइ पड़िवजै पूरो मिथ्यात।
तिण अवनीत नै संवलो सूजै नहीं, करै जोम' नै गाढ री बात।। ३६ कोइ बहुश्रुती निश्चै नही, ते कहै हुं छू बहुश्रुती साध।
मो बरोबर सुतर कुण भण्यो, अभिमांनी करै झूठो विवाद।। ३७ कोइ तपसी तो निश्चै नहीं, ते कहै हुँ छू तपसी घोर ।
तिण नै तीन लोक रा चोर सूं, उत्कष्टो कह्यो वीर चोर॥ ३८ बालक तपसी गरढा ग्लान छै, त्यां री न करै वैयावच देख।
ते छती सगत धेठो थको, बलै राखे त्यां ऊपर धेष।। ३९ बलै कपट केलव झूठो कहै, हुं करूं छू वैयावच ताय।
पिण दुष्ट परिणांमा तेह नै, उळटी देवे अंतराय ।। ४० कलह कारणी कथा कहै, बलै घालै मांहि-मांहि खेद ।
आंमी-सामी करै लगावणी, पाडै च्यार तीर्थ में भेद।।
१.अभिमान।
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तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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४१ चेला रो मन भांगे गुर थकी, गुर रो चेला सूं दे मन भांग।
यां नै भेद घाली न्यारा करै, तिण पैर बिगाड्यो सांग। ४२ गुर मोटा उपगारी मुगत रा, त्यां सूं दूर करै भरमाय । - जीवै ज्यां लग भैळा हुवै नहीं, एहवी मोटी देवै अंतराय।। ४३ गण मांहि वसै साध-साधवी, त्यां में पाड़े विषेरो कोय।
चित्त भंग करै यां रो एहवो, कदै फेर मिलाप न होय।। ४४ साधवी गण सूं फाड़ नै, आप रा कर राखै ताहि। गुर सूं छान-छानै बांधे जिलो, मूर्ख चोरी करै गण माहि॥
इम भेद पाहै, जिलो बांधे, तिण नै घणो निषेध्यो छै। तथा पैंताळीसा रा लिखत में कह्या-टोळा मांहि कदाच कर्म जोगे टोळा बारै पड़े तो टोळा रा साध-साधवियां रा अंसमात्र अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंसमात्र संका पडै आसता ऊतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मां सूफार नै साथै ले जावण रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावण रा त्याग छै। टोळा माहै नै बारै नीकळ्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन रूप बात करणी। भागहीण हुवै सो उतरती बात करै, तथा भागहीण सुणे, तथा सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भागहीण। तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था विणं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं।।
इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुद्ध आराध्यां इहभव पर भवे सुख किल्याण हुवै।
ए हाजरी रची संवत् १९१४ रा मृगसर सुध १४
१.दसवेयालियं, ५/२/४५/४०
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छब्बीसवीं हाजरी
पंच सुमति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड पालणां।आहार पाणी लेणो ते पक्की पूछा कर नै ताय तपाय नै निरदोष लेणो। पिण गोळा सूं लेणो नहीं। दातार नै पिण निरदोष देणो।
तथा भीखणजी स्वामी सूत्र देख सरधा आचार प्रगट कीधा-विरत में धर्म, अविरत में अधर्म। आज्ञा माहै धर्म, आज्ञा बारै अधर्म नै पाप। असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछै ते द्वेष, तिरणो बंछै ते वीतराग देव रो मारग।
तथा संवत् १८५० रा लिखत में कह्यो-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो, तथा गुरां नै कहणो, पिण ओरां नै न कहणो। घणां दिन आड़ा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उहीज छै।
तथा संवत् १८५२ वर्स आर्यों ने मर्यादा बांधी, तिण में एहवो कह्यो-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहिणो, तथा गुरां नै कहिणो, पिण और किण ही आगे कहणो नहीं। किण ही आर्यां जांण नै दोष सेव्यो हुवै ते पानां में लिख्यां विना विगै तरकारी खांणी नहीं। कोई साध-साधवियां रा ओगुण काढे तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहिणो-'स्वामी जी नै कहिज्यो' जिण रा परिणाम टोळा मांहि रहिण रा हुवै, रहिज्यो। पिण टोळा बारै हुवा पछै साध-साधवियां रा ओगुण बोलण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। बलै करड़ी मर्यादा बांधे त्यां में पिण ना कहिण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। तथा चोतीसा रे वर्स आ· रे मर्यादा बांधी तिण में कह्यो-टोळा रा साध-साधवियां री निंद्या करै तिण ने घणी अजोग जाणणी, तिण नै एक मास पांचू विगै रा त्याग छै। जितरी वार करै जितरा मास पांचू विगै रा त्याग छै। जिण आ· साथै मेल्या तिण आ· भेळी रहै, अथवा आर्यां माहोमां शेषे काळ भेळी रहै अथवा चोमासे भेळी रहै, त्यां रा दोष देखे तो साधा सूं भेळा हुवां कहि देणा। न कहै तो उतरो प्रायछित उण नै छै। टोळा सूं छूटक न्यारा हुवा री बात माने त्यां ने मूर्ख कहिजे। त्यां नै चोर कहिजे।
तथा पचासा रा तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-धक्को दीधां टोळा सूं टलै टोळा रा साध-साधवियां रा हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। टोळा रा साध साधव्यां नै असाध सरध नै नवी दिख्या लेवै तो पिण अठीरा साध-साधवियां री संका घालवा रा त्याग छै। उपगरण टोळा मांहि करै ते, परत पाना लिखे ते जाचे ते, साथे ले जावण रा त्याग छै।
तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-किण ही नै कर्म धक्को दीधां टोळा सूं न्यारो परै
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अथवा आप ही न्यारो थयां इण सरधा रा बाई भाई हुवै त्यां रहिणो नहीं। बाटै वहैतो एक रात कारण पड़िया रहै तो पांचू विगै नै सूखड़ी खावा रा त्याग छै। अनंता सिद्धां री साख कर नै छै। टोळा रा साध-साधवियां में साधपणो सरधो,आप माहै साधपणो सरधो, तिको टोळा माहै रहज्यो। कोई कपट दगा सूं साधा भेळो रहै, तिण नै अनंता सिद्धां री आण छै। पांचू पदां री आंण छै। साध नाम धराय नै असाधां भेळो रह्या अनंत संसार वधै छै। जिण रा चोखा परिणाम हुवै ते इतरी परतीत उपजाओ। किण ही साध साधवियां रा ओगुण बोल नै किण रो मन भांग नै खोटा सरधावा रा त्याग छै। किण ही रा परिणाम न्यारा हुवण रा हुवै जद ग्रहस्थ आगै पेला री पडती करण रा त्याग छै। जिणरो मन रजाबंध हुवै चोखी रीते साधपणो पळतो जाणो तो टोळा मांहि रहिणो। कोई कपट दगा सूं रहिणो नहीं। आप में अथवा पेला में साधपणो जाण नै रहिणो। ठागा सूं माहै रहिण रा अनंता सिद्धां री साख सूं पचखांण छै। तथा भीखणजी स्वामी चंदू वीरां नै अजोग जाण नै काढी ते ढाळ१ 'टोळा बारे काढी जद रोवती बोली, म्हांने मती काढो आप टोळा बारै। विलविलाट तो कीधा इण विविध प्रकारे,इण बोल्या में साच न जाण्यो लिगार।
टोळा री दाळोकर रो संग न कीजै॥धुपदं॥ २ मर्यादा बांधी ते तो लोप दीधी छै, सूंस कराया ते पिण दिया उड़ाय।
अनंता सिद्धां री आंण पिण भांगी छै पापण,तिण नै कुण राखसी टोळा रे माय। ३ गुर-वैन ने फाड़ नै चैली कीधी छाने, ओ पण मोटो दोष चोरी लागो॥
बलै दोष अनेक चोड़े-धाड़े सेव्या, तो ही टोळां माहै रहिवा रो मन आघो॥ ४ कूड़ा-कूड़ा आळ साधवियां नै दीधा, गुर-बैन ने चैली करवा रे तांइ।
तिण रो मन भांग्यो साधु-साधव्यां थकी, तिण नै कुण राखसी टोळा रे मांहि ॥ ५ साध साधव्यां ने असाध ठहराया, आप तो पोते साधवी ठैरी।
विकलां आगै वणी छै कूकड़धम ज्यू, एहवी जैन री बिगड़ायल गैरी॥ ६ हिवै साध आय काढ़ी सगळां री संका, आळ दिया त्यांरो काढ्यो निकाळो।
जब लोकां पिण झूठी जाणे लीधी तिण नै।इण पापण रो मूंढो कर दियो काळो॥ ७ फिट-फिट हुइ छै च्यारूं तीर्थ में, च्यारूं तीर्थ में जांणी खोटी विशेष।
कह्यो निरलजी नागड़ी लज्जा रहीत छै, या तो पैहर बिगाड्यो साधु रो भेष॥ ८ थोड़ी घणी जो यां में लाज शर्म हुवै तो, सैंहदा लोकां में मूढो नहीं दिखावे।
पिण लाज न सर्म जाबक छोड़ बैठी, बलै साधपणा रो नाम धरावै ॥ ९ ए साधपणो तो खोय बैठी छै, बलै समकत पिण दीसै छै खोइ।
ए लौकिक रो पिण डर नही राखै, यां नै हटकण वालो न दीसै कोइ ।।
१. लय-आ अणुकंपा जिण आगन्या में
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१० ए गामां नगरां रुलियाळ ज्यूं फिरती, साध साधवियां रा अवगुण गावै।
झूठा-झूठा आळ साधां ने दैइ, काचा नै साधां सेती भिड़कावै ।। ११ जे हीण-पुनिया हीण-बुद्धि जीव छै, ते जाय बैससी भागळां रे पास।
बलै अशुभ कर्म उदै आया छै, ते करसी भागळां रो विसवास ।। १२ ए झूठा-झूठा आळ देवे साधां रे, त्यां भागळां री कोइ मानसी बात।
तिण रे पिण असुभ कर्म उदै आया है, यां री संगत किया सूं आवै मिथ्यात॥ १३ त्यां विकळां कनै करै सामाइ, त्यां विकळां कनै जाय सुणै वखांण।
बलै हाव भाव करै त्यां विकळां सूं, त्यारै पका बूड़ण रा ए हीज एहलाण॥ १४ समदृष्टि नै यां रो संग न करणो, बलै न करणी यां तूं पीत ।
ए अनंत सिद्धां री आण करै तो ही, यां री तो मूळ न करणी प्रतीत॥ १५ अनंत सिद्धां री आंण तो घणी वार भांगी, त्यां विकलां री कुण राखसी प्रतीत।
यां रा सूंस तणी परतीत राखै तो, ते पिण होसी घणां फजीत ।। १६ यां नै सैंदी जाण यां सूं भेळप राखै, यां सूं मिल नै करै कोइ बात।
त्यां रे समकम रा पजवा पड़े हीणा, आवतो आवतो आवै मिथ्यात॥ १७ ज्यां रे साधां रा अवगुण बोलावणा होसी, ते तो विकळां ने जाय बतलावै।
सेणा समदिष्टी श्रावक हुसी ते, त्यां विकळां कनै क्यां रे ताइ जावै।। १८ ए तो भागळ तूटळ भिष्ट होय बैठी, त्यां विकळां ने मूढे विकळ लगावै। ____ 'यां रा माजना' रा' या सूं प्रीत बांध नै, साध साधव्यां रा अवगुण बोलावे।। १९ बलै आछो-आछो आहार खावण रे कारण,भेषधारयां रा श्रावकां सूं मिल जावै।
साधां सूं लड़ण आवै बाजार रे मांहि, भेषधास्यां रा श्रावकां नै साथे ल्यावै।। • २० जांणे साधां रा ओगुण बाजार में काढूं, तो राजी होय नै म्हांनै आछो वहरावे।
पिण दोनूं बाजार में पड़ गया फीटा, जब मूंढो बिगाड़ नै पाछा जावै।। २१ जो या सरधा यांरा घट माहै हुवै तो, सरधा पमाइ छै त्यां रा गुण गावै।
समकत रो माहै सींचो हुवै तो, त्यां रा अवगुण बोलणी किणविध आवै॥ २२ सुध साधां री वैरण होय बैठी, बलै भेषधास्यां सूं प्रीत बणावै।
भेषधास्यां पिण यां नै जांण लीधी छ, तिण सूं ए पिण यां नै मूंढे न लगावै॥ २३ कहि कहि नै कितरोयक कहुं, यां रा चाळा नै चरित्र विविध प्रकार।
पिण ए साधपणा लायक नही दीसै, तिण सूं काढ़ दीधी छै टोळा रे बार। २४ यां बिगड़ायला नै ओळखावण काजे, जोड़ कीधी खेरवा सेहर मझार।
संवत् अठारे नै वर्श चोपने, सावण सुध सातम नै रविवार ।।
१. उन जैसे ही।
२. अंश।
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तथा पैंतालीसा रा लिखत में कह्यो-टोळा मांहि कदाच कर्म जोगे टोळा बारै पड़ै तो साध साधवियां रा अंस मात्र ओगुणवाद बोलण रा त्याग छै । टोळा सूं फाड़ नै साथे ले जावण रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावण रा त्याग छै। टोळा मांहै न बारै नीकळे तो पिण अवगुणवाद बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै । इम पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो। ते भणी सासण री गुण कीर्त्तन रूप बात करणी । भागहीण हुवै सो उतरती बात करै, सु ते पिण भागहीण, सुणी आचार्य नै न कहै, ते पिण भागहीण । तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी ।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंती, जेण जाणंति तारिसं ॥ आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुध आराध्यां इहभव में परभव में कल्यांण सुख हुवै।
ए हाजरी रची द्वितीय जेठ विद ७ वार शुक्र सैहर बीदासर मध्ये |
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सताईसवीं हाजरी
- पंच समिति तीन गुप्त पंच महाव्रत अखंड आराधणां। ईर्ष्या भाषा एषणा में सावचेत रहिणो। आहार पाणी लेणो ते पक्की पूछा करी लेणो। सूजतो आहार पिण आगला.रो अभिप्राय देख नै लेणो। पूजतां परिठवतां सावधांन पणे रहिणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहिणो। तीर्थंकर री आज्ञा अखंड आराधणी। भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धांत देख नै श्रद्धा आचार प्रगट कीधा-विरत धर्म नै अविरत अधर्म। आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारै अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी।
किण ही साध आर्या में दोष देखे तो ततकाळ धणी ने कहणो, तथा गुरां नै कहणो, पिण ओरां नै न कहिणो। घणां दिन आडा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उ हीज छै।
तथा संवत् १८५२ रे वरस आर्यां रे मर्यादा बांधी तिण में एहवो कह्यो-किण ही साध आर्या में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो, पिण और किण ही आगै कहणो नही, ओर किण ही आर्या दोष जांण नै सेव्यो हुवै तो पाना में लिख्यां विना विगै तरकारी खांणी नही। कोइ साध-साधवियां रा अवगुण कादै तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहिणो-'स्वामी जी नै कहिजो' जिण रा परिणाम टोळा माहै रहिण रा हुवै ते रहिजो। पिण टोळा बारै हुवा पछै साध-साधवियां रा ओगुण बोलण रा अनंत सिद्धां री साख करनै त्याग छै। बलै करली-करली मरजादा बांधां त्यां में पिण ना कहिण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। तथा चोतीसा रे वर्स आर्सा रे मरजादा बांधी तिण में कह्यो-ग्रहस्थ कनै टोळा रा साध आर्यां री नंद्या करै, तिण नै घणी अजोग जाणणी। तिण नै एकमास पांचू विगै रा त्याग छै। जितरी वार करै तिण नै जितरा मास पांच विगै खावा रा त्याग छै। जिण आर्यां साथे मेल्या तिण आर्यां भेळी रहै अथवा आर्या मांहोमांहि सेषेकाळ भेळी रहै। अथवा चोमासे भेळी रहै। त्यां रा दोष हुवै तो साधा सूं भेळा हुवा कह देणो। न कहै तो उतरो प्रायछित उण नै छै। टोळा सूं न्यारी हुवा री बात माने तिण नै चोर कहिजे, मूर्ख कहीजे।
तथा पचासा रा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-कर्म धक्को दीधां टोळा सूं टळे तो टोळा रा साध-साधवियां रा हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा त्याग छ। टोळा नै असाध सरधनै नवी दिख्या लेवै तो पिण अठीरा साध-साधव्यां री संका घालण रा त्याग छै। उपगरण टोळा माहै करै ते, परत पाना लिखे जाचै ते, साथे ले जावण रा त्याग छै। तथा गुणसठा रा लिखत में कह्यो-किण ही नै कर्म थक्को देवै तो टे. 7 सूं न्यारो पड़े। अथवा
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टोळा सूं आप न्यारो थया, इन सरधा रा बाई भाई हुवै त्यां रहणो नही। एक बाई भाई हुवै तिहां रहिणो नही | वाटै वहतो एक रात कारण पडिया रहै तो पांचू विगै ने सूंखड़ी खावा रा त्याग छै । अनंता सिद्धां री साख कर नै त्याग छै ।
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तथा संवत् १८५० रे वर्स कह्यो - कोइ टोळा रा साध-साधव्यां में साधपणो सरधो, आप मांहि साधपणो सरधो, तिको टोळा में रहिज्यो । कोइ कपट दगा सूं साधां भेळो रहै तिण नै अनंता सिद्धां री आंण छै। पांचू पदां री आण छै । साध नाम धराय नै, असाधा भेळ ह्यां अनंत संसार वधै छै । जिण रा चोखा परिणांम हुवै ते इतरी परतीत उपजाओ । किण ही साध - साधव्यां रा ओगुण बोल नै किण ही नै फार नै मन भांग नै खोटा सरधावण त्याग छै । कि हीरा परिणांम न्यारा होण रा हुवै जद ग्रहस्थ आगै पेळा री परती करण त्याग छै । जिण रो मन रजाबंध हुवै चोखी तरे साधपणो पळतो जांणे तो टोळा मांहे रहिणो, आप में अथवा पेला में साधपणो जांण नै रहिणो ठागा सूं मांहि रहिवा रा अनंता सिद्धां री साख सूं पचखाण छै । इम पचासा रा लिखत में कह्यो । ते भणी पेली तो गण में र जरे अनेक विनय भक्त करे, गणरी रीत सर्व साचवे, मर्यादा पाळे अनै सासण नै दिढावे। पछै स्वार्थ अणपूगां गण सूं टळै ने अनेक अवगुण आळ पंपाळ फरमी भाषा, झूठी भाषा आदि अनेक झूठी भाषा आदि अनेक झूठ बोले तो तिण री बात एक लेखां में नी । आगे पण वीरभांण जी तेरा माहिलो नीकळ नै अनेक अवर्ण फिरमा वचन बोल्यो, तिण उपर भीखणजी स्वामी जोड़ी ढाल उण री कहण री बाता घाली उण रा चिरत पिण ओळखाया ते गाथा
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'अनंता सिद्धां री साख करै नै, चेलो करण रा किया पचखांण । ते पण सूंस भांगै चेला कीधा, तिण अनंत सिद्धां री भागी है आंण । तिण नै साधु किणविध सरधीजे ॥ ध्रुपदं ॥
स भांगे नै चेला करतो नही सकै, तेतो होयग्यो निश्चे इ भागळ भिष्टी । ते तो पड़ गयो च्यार तीर्थ नै बारै, तिण नै किण विध साध सरधे सम दिष्टी ॥ सगळा साध भेळा होय मरजाद बांधी, तिण मर्याद में सूंस किया छै अनेक । ते पिण सूंस सगळा इ भांग्या, झूठ बोले मूढ विना विवेक ॥ सगळा साध मिल नै मरजादा बांधी, ते सूंस लिख्या छै पाना रे मांय । तिण लिखत हेठे सगळा आखर कीधा, अनंत सिद्धां री साख ठहराय ॥ ए सूंस मर्यादा भांगे तिण नै, गिणवो नहीं च्यार तीर्थ रे मांही ।
५
तिनै नंदक जाणवो च्यार तीर्थनो, तिण नै वादे त्यां नै पिण आगन्या नाहीं ॥ इसड़ा सूंस कर नै पाना में लिखिया, अनंता सिद्धां री साख कर नै ताय । ते पिण सूंस सगळा इ भांग्या, बलै जांणी - जांणी बोले मूसावाय ॥
२
३
४
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१. लय : मेघ कुंवर हाथी रा भव में।
सताईसवीं हाजरी : ३२१
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७ कदै कहै म्है लिखत में नाहि, कदै कहै म्हे लिखत आरै न कीधो।
कदै कहै म्हे लिखत में आखर न कीधा, कदै कहै म्हे एक ससो कर दीधो।। ८ कदै तो कहै म्हे लिखियो सरमासरमी, लिखत हेठे अखर कर दीया ताय।
कदहि कहै मोने कहि नै कराया, कदै कहै म्हे तो लिखियो सांकड़े आय॥ ९ कदै कहै मो सूं कपटाइ दगो करै नै, लिखत हेठे आखर कराया।
कदै कहै एकलो हो तो जाणी नै, म्हे डरते थके आखर कीया छै ताय।। १० कदै कहै यां रा टोळा में रहतूं, तठा ताइ म्हारे छै पचखांण।
कदै कहै लिखत म्हारे तांई कीधो, ए सगला इ मो उपर कीधा मंडाण॥ ११ कदै कहै अविना री ढाळां जोड़ी, ते सगली ढाळां मो उपर कीनी छै ताहि।
चेला नै कह्यो ठाम-ठांम कहो थे, हिवै किण विध रह सूं टोळा रे मांहि॥ १२ इत्यादिक झूठ बोले छै अनेक प्रकारे, परभव रो डर मूल नआणे लिगार। .
जांणी झूठ बोले अग्यानी, खोय दियो तिण संजम भार ।। १३ अनंता सिद्धां री साख करै सूस कीधा, ते सगळा सूंस भांगे नै हुवो एकलो।
ते होय गयो अपछंदो अवनीत, तिण नै साध सरध्यां किम होसी भलो। १४ सुद्ध साधां नै ढीला कहि-कहि अग्यांनी, आप भागळ थको उत्कृष्टो बाजे।
तिण नै च्यारूं इ तीर्थ साध न जाणे, तो पिण निरलज मूळ न लाजै॥ १५ ज्यां नै ढीला जाणे त्यां रा टोळा रा भागळ, त्यां भागळां माहे मन जावण रोकीधो।
त्यां सूं नरमाइ करै कह्यो मो नै ल्यो थे, त्यां पिण तिण नै माहै नहीं लीधो॥ १६ थे कहो तो दूर करूं म्हारा चेला, थे कहो तो थानै परतीत उपजाउं।
थे मोनै चलावो जिण रीते चालू, थे मो नै माहै ल्यो हुं थां माहै आऊं ॥ १७ दोय वार गयो त्यां में जावा नै काजै, जातां अनेक कोस रो पेंडो कीधो।
त्यां नै अनेक बार कह्यो थे मो नै माहै ल्यो, तो पिण तिण नैं त्यां माहै न लीधो। १८ ज्यां नै ढीला जाणे त्यां रा टोळा रा भागळ, उत्कृष्टो प्राछित छै त्यां रे मांय।
त्यां भागळां पिण तिण नै माहै न लीधो, तिण भागळ री भोळा नै खबर न काय॥ १९ इसड़ा मोटा-मोटा दोष जांणी नै सेवै, तिण भिष्टी री भोळा करसी परतीत। . तिण नै साध सरधे तिक्खुत्तो कर वादे, ते पिण चिहुंगति माहै होसी घणां फजीत॥ २० सुध साधा नै मूर्ख ढीला परूपे, पोते भारी दोष सेवण लागो। . बलै कूड़ा-कूड़ा आळ देता नही संके, ते तो विरत बिहुणो होय गयो नागो॥ २१ तिण भागळ नै ओळखावण काजै, जोड़ कीधी नेणवा सैहर मझार |
समत अठारे नै वरस अड़ताले, महा विद अमावस नै सोमवार ।। इम अनेक भांत फिरमा वचन बोले, ए जिन मार्ग रीत छै नही। ते माटे संवत् १८५० रा । लिखत में कह्यो-जिण रो मन रजाबंध हुवै चोखी तरै साधपणो पळतो जांणो तो टोळा में रहिजो
३२२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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आप में अथवा पेला में साधपणो जांण नै रहिणो। ठागा सूं माहै रहिवा रा अनंता सिद्धां री साख सूं पचखांण छै।
तथा पैंतालीसा रा लिखत में कह्यो-उण ने साधु किम जाणिये। जो एकलो होण री सरधा हुवै इसड़ी सरधा धार नै टोळा माहै बेठो रहै म्हारी इच्छा आवसी तो मांहि रहिसूं, माहरी इच्छा आवसी जद एकलो होसं. इसडी सरधा धार नै टोळा माहै बेठो रहै ते तो निश्चे इ असाध छै, साधपणो सरधे तो पेहला गुणठाांणा रो धणी छै। दगाबाजी ठागा सूं माहे रहै तिण नै माहै राखै जाण नै त्यां नै पिण महादोष छै। कदाच टोळा माहै-दोष जांणे तो टोळा माहै रहिणो नहीं। एकलो होय नै संलेखणा करणी। वैगो आत्मा रो सुधारो करणो। आ सरधा हुवै तो टोळा माहै राखणो, गाळा गोळो कर नै रहै तो उण नै न राखणो उत्तर देणो,बारै काढ़ देणो, पछै इ आळ दे नीकळे तो किसा काम रो। तथा पैंतालीसा रा लिखत में कह्यो छै-टोळा माहै पिण साधां रा मन भांग नै आप रे जिले करै ते तो भारीकर्मो जाणवो विसासघाती जाणवो। इसड़ी घात पावड़ी करै ते तो अनंत संसार री साइ छै। इण मरजादा प्रमाणे चालणी नावै तिण नै संलेखणा मंडणो सिरै छै। धनै अणगार तो नव मास माहै आतमा नो किल्याण कीधो। ज्यूं इण नै पिण आत्मा रो सुधारो करणो। पिण अप्रतीतकारियो काम करणो। रोगिया विचै तो सभाव रा अजोग नै माहै राख्यो भूडो छै। ते भणी पैंतालीसा रा लिखत में कह्यो टोळा माहै कदाचित टोळा बारै पड़े तो टोळा रा साध-साधवियां रा अंस मातर अवगुणवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंस मातर संका पड़े आसता उतरै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मां सुंफार नै साथै ले जावण रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावण रा त्याग छै। टोळा माहै न बारै नीकळ्यां पिण अवगुण बोलण रा त्याग छै। माहोमांहि मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो।
ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन रूप बात करणी, भागहीण हुवै सो उतरती बात करै तथा भागहीण सुणै, तथा सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भागहीण, तिण न तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो. तीन धिकार देणी।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंती, जेण जाणंति तारिसं।। आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं॥
इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा सुध आराध्यां इहभव में परभव में सुख कल्याण हुवै।
ए हाजरी रची संवत् १९ से १४ रा वर्से द्वितीय जेठ सुध ३ नखत्र पुष्प वार सोम।
१. दसवेआलियं, ५/२/४५,४०
सताईसवीं हाजरी : ३२३
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अठाईसवीं हाजरी
पांच समिति तीन गुप्ति पंच महाव्रत अखंड आराधणां। ईऱ्या भाषा एषणा में सावचेत रहिणो। आहारपाणी लेणो ते पक्की पूछा करी लेणो। सूजतो आहारपाणी पिण आगला रो अभिप्राय देख लेणो। पूजतां परिठवतां सावधानपणे रहिणो। मन वचन काया गुप्ति में सावचेत रहिणो। तीर्थंकर नी आज्ञा अखंड आराधणी। भीखणजी स्वामी सूत्र सिद्धांत देख नै श्रद्धा आचार प्रगट कीधा-विरत धर्म नै अविरत अधर्म। आज्ञा मांहे धर्म, आज्ञा बारै अधर्म। असंजती रो जीवणो बंछै ते राग, मरणो बंछे ते द्वेष, तिरणो बंछे ते वीतराग देव नो मार्ग। तथा विविध प्रकार नी मर्यादा बांधी। - संवत् १८५० रे वरस मर्यादा बांधी सर्व साधां रे, तिण में कह्यो-किण ही साध आर्यों में दोष देखे तो ततकाळ धणी नै कहणो, अथवा गुरां ने कहणो, पिण ओरां नै न कहणो। घणां दिनां पछै आडा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उ हीज छै। किण नै ही कर्म धक्को देवै ते टोळा सूं न्यारो पड़े तो इण सरधा रा भाई बाई हुवै तिहां रहिणो नही। एक बाई भाई हुवै तिहां पिण रहिणो नही वाटै वहितो रहै तो एक रात, कारण पड़यां रहै तो पांचू विगै सूंखड़ी खावा रा त्याग छै।
तथा पैंतालीसा रा लिखत में कह्यो-साधां रा मन भांग नै आप आप रे जिले करै ते तो महामारीकर्मो जाणवो। विसवासघाती जाणवो।
तथा पचासा रा लिखत में तथा रास में पिण जिला नै घणो निषेध्यो। तथा पैंतालीसा रा लिखत में कह्यो-उण नै साधु किम जांणिये जो एकलो हुण री सरधा हुवै, इसड़ी सरधा धार नै टोळा माहै बेठो रहै, म्हारी इच्छा आवसी तो माहै रहसूं, म्हारी इच्छा आवसी जद एकलो हुसूं। इसड़ी सरधा सरधा सूं टोळा माहै ते तो निश्चेइ असाध छै। साधपणो सरधे तो पेला गणठाणा रोधणी छै। दगाबाजी ठागा संमोहै रहै तिण नै माहै राखै जांण नै त्यां नै पिण महादोष छै। कदाच टोळा माहै दोष जांणे तो टोळा माहै रहिणो नही। एकलो होय संलेखणा करणी वैगो आत्मा रो सुधारो करणो। आ सरधा हुवै तो माहै राखणो। गाळा गोळो कर नै रहै तो राखणो नहीं, उत्तर देणो, बारै काढ देणो, पछै इ आळ दे नीकळे तो किसा काम रो। इम इत्यादिक अवनीत वेमुख नै ओळखायो छै अनै दुष्ट आतमा रो धणी अवनीत अजोग तिण रा स्वार्थ अणपूंगा किचत कष्ट थी पिण टोळा बारै नीकळी भीखणजी स्वामी री मर्यादा लोपी सूंस भांगी अवर्णवाद बोले। निरलज नागड़ो होय जावै। परम उपगारी गुर समकित चारित्र पमायो, सूत्र भणायो, ते कीधो उपगार सर्व भूल ने कृतघन होय जगत में फिट-फिट होवै।
तथा सूयगडांग भगवती आदि सूत्रे ठांम-ठांम कह्यो-जे कोइ समण माहण कनै धर्म रूप एक वचन पिण हीया में धारे ते पिण गुर नो उपगार जांणी नै वांदै, नमस्कार करै ३२४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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सतकार सनमांन देवै। कल्याणीक मंगलीक धर्मदेव चित अहलादकारी जांणी नै त्यां गुर री सेवा करै, त्यां रो उपगार कदै इ भूलै नही, जिण उपर एक द्रव्ये दिष्टंत
जिम कोइ एक मानवी सूळी हेठे आंण उभो राख्यो। सळी चढावा लागा इतले एक साहूकार आव्यो। जब चोर बोल्यो-सेठजी मो नै जीवां बचाओ आप राखो, आपका हुकम में रहितूं, आपरी चाकरी करतूं,आपरो गुण कदे इ भूलूं नही, इत्यादिक घणी नरमाइ कीधी। जब सेठ नै अनुकंपा आइ जद कळा चतुराइ सीखाइ। एकदा प्रस्तावे खामी पड्यां सेठ करला वचन कह्या। जब ते लूणहरामी रीस मेंआय सेठ कनांसू निकळ्यो। चोरपली में आय रह्यो। चोरां सूं जाय मिल्यो। चोरां सूं मिल नै चोरां ने साथ लेने सेठ घरे सातो देवा चोरी करवा आयो। पहिला सेठ ने खबर पड़ गइ हुंती ते लूणहरांमी चोरां सूं जाय मिल्यो है। सो कदा बिगाड़ कर उभो रहै तिण कारण सेठ पहिला हवेली रे कनै चोकी पहरायत सावधान पणे राख्या। ते चोरा सहित लूणहरांमी नै कपड़ लीयो। राजा नै सूप्यो। राजादिक सर्व लोक फिट-फिट करवा लागा। देखो ! सेठ तो इण नै सूली कनांथी जीवां बचायो, ते सर्व उपगार भूल नै ज्यां रो हीज बिगाड़ करवा लागो। सेठ तो इण सूं क्यूंइ अवगुण कियो नही। देखो लूण-हरांमी कृतघनी हरामखोर नी चाल। ज्यां जीवां बचायो ज्यां सूं हीज उपराठो हुवो,इम सर्व कहवा लागा। पछै राजा हुकम कियो-इण कृतघ्न नै काळो मूढो करी, गधै चढाय नगर में उद्घोषणा करो-कृतघ्नपणो कियो जिण रा ए फळ भोगवै। पछै राजा हुकम थी काळो मूंढो करी गधै चढाय नगर में फेर उदघोषणा करी मुंडे हवाले मारयो। जे लूणहरांमी रे साथै चोर आया त्यां नै पिण मुंडे हवाले मास्या।
इण दृष्टंते कोइ मिथ्यादृष्टी हुँतो तिण नै सतगुर मिल्या। त्यां समजाय समकित श्रावकपणो पमाय नै साधु कीधो। नरक निगोद रा अनत दुःख मेट्या एहवो उपगार सतगुर कियो। बले तिण नै कला सिखाई ते सिष में खांमी पड्यां गुरां निषेध्यो तथा तिण रो स्वार्थ अणपूंगा धैष में आयो। छांनै -छांने साधां कनै अवगुण बोल फटावा रो उपाय करवा लागो। तिण सरीषा इ अविनीत तिण नै साथै लेइ टोळा बारे नीकळे,अवर्णवाद बोले, देखो अवनीत री रीत। गुरां समकित चारित्र पमाय, सिद्धांत भणाय, अनंता नरक निगोद रा दुःख मेट्या ते सर्व उपगार विसारे घाल, त्यां रो विनो भगत करणो तो ज्या ही रह्यो अपठो किंचत स्वार्थ रे वास्ते अवगण बोले। तिण संगुर कांइ अवगुण कियो, गुरां तो असंजती रो संजती कीयो, अनंत काळ नरक निगोद में रुळता अनंत भूख तिरखा सीत तप्त विवध प्रकार नी मार इत्यादिक दखनो नास नोकरणहार अमोलक चारित्र तिण नै पमायो। जावजीव तांइ त्यां रे मूहढे आगे हाथ जोड़ सेवा करै तो त्यां सूं उरण नही हुवै। गुरां तो इण सूं इसो उपगार कीयो। त्यां रा हीज अवगुण बोलवा लागो। देखो! लूणहरामी कृतघनी री नीत। टोळा माहै छतां तो पंच पदा में नाम घाले तिखुत्ते सूं वंदणा करै। लोकां नै वंदना सीखावे। तिण में गुर को नाम घलावै गुरां के गुणांरी जोड़ कर नै सुणावे अनै टोळा बारै निकळ्यां अवगुण गावै। फेर पोते दंड लेइ पाछो गण में आय नै गुर रा गुण
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गावै। कदा फेर अजोगाइ देख्या बारै काढ़े, कदा कर्म वसै आफै ही नीकळे, उलंठपणो करै अवगुणवाद बोले, पेली सूंस कीया ते सर्व भांजे, इहलोक परलोक री सर्व लाज मूंकी विटळ हुवै। तिण री बात मानणी नहीं, संगत बिलकुल करणी नी, भीखणजी स्वामी रास में वरज्यो ते गाथा१ ए तो अवगुण बोलै अनेक, बुधवंत न माने एक।
यां नै जाणे पूरा अवनीत, यां री मूळ नाणे परतीत ।। २ जो अवनीत रो करे विसवास, तो हुवै बोध बीज रो नास।
च्यार तीर्थ सूं पड़िया काने, त्यां री बात अज्ञानी माने। ३ अवनीत रो करै परसंग, तो साधां तूं जाये मन भंग।
ए साधां नै असाध सरधावै, झूठा-झूठा अवगुण बतावै।। ४ यां रो जाय नै सुणे वखांण, तिण लोपी जिनवर आण।
यां री तहत कहै कोइ वांणी, आ दुरगति नी एलांणी।। ५ किण रे उसभ उदै हुवै आंण, ते करै अवनीत री तांण ।
त्यां झूठा नै साचा दे ठेहराइ, त्यां रे अनंत संसार री साई। ६ यां नै कहि बतलावे स्वामी, तिण में जाणजो मोटी खांमी।
यां नै उंचो करै कोइ हाथ, तिण रे निश्चे बंधे कर्म सात। ७ यां रो जाय वखांण मंडावै, बलै और लोकां नै बोलावे।
इसड़ी कोइ करै दलाली, ते पिण धर्म सूं होय जाए खाली। ८ यां नै च्यार तीर्थ में जांणे, तो पिण पहिले गुणठाणे।
यां री करे कोइ पखपात, तिण रे आय चूको मिथ्यात॥ ९ यां सूं करै अलाप-संलाप, तिणरे बंधे चीकणा पाप।
यां नै वंदणा करै जोड़ी हाथ, तिण रे वेगो आवै मिथ्यात।। १० यांरी भाव भगत करे कोइ. बलै आदर सनमांन दे सोइ।
तिण रे सरधा नही दीसे साची, गुर री पिण परतीत काची।। ११ यां सूं करै विनो नरमाइ, तिणरे लागी मिथ्यात री साइ। ___ घणो-घणो जो यां कनै जावै, तो समकत वैगी गमावै ।। १२ ए तो अवनीत भागळ पूरा, बलै आळ दे कूड़ा-कूड़ा।
त्यां री मान लेवे कोइ बात, ते तो बूड़ चूका साख्यात॥ १३ कोई भणवा रा लालच रो घाल्यो, त्यां रे कनै जाय कोइ चाल्यो।
ते तो गुर रो न माने हठको, तिण रो हुँतो दीसै छै गटको।
१. लय : मारी सासू रो नाम छै फूली ३२६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१४ चरचा बोल सीखे त्यां आगै, तिण रे डंक मिथ्यात रा लागै । यां रो संसतो परचो न कहणो, यां रो संग जाबक परहरणों ॥ १५ समगत रा अतिचार संभाळो, तो अवनीत सूं देजो टाळो । जोवो आणंद श्रावक नी रीत, राखो सुतर नी परतीत ॥ १६ ए अवगुण बोले चिठाय चिठाय, किण ही भोळा रे संका पड़ जाय । जो उ न करै त्यां री पखपात, तिणरो काढणो सोहरो मिथ्यात ॥ १७ त्यां री गाढी झाले पख कोइ, ते नही छोड़े रूढ झूठा जांणे तोइ । ते बूड़सी अवनीता रे लारे, त्यां ऐहलै दियो जन्म बिगाड़े || १८ केइ लीधी टेक न मेले, आप रे मन माने ज्यूं ठेले । जिण धर्म री रीत न जाणे, मूढ मूरख थको यूं ही तांणे ॥ १९ यां कनै करै को सामाइ, यां कनै करे पचखांण जाइ ।
तिण री पण मत जांणजो काची, जिण मारग में नही आछी ॥ २० जे अविनीतां रा छै पखपाती, त्यां री सुण-सुण बळ उठे छाती । अवनीतां रो करै उघाड़, जब पिण मूंढो देवे बिगाड़ || २१ कोइ गण में हुवै, अवनीत, तिण सूं गाढी बांधे प्रीत । ते पिण अवगुण बोलावण रे कांम, इसड़ा छै मेला परिणांम ॥ २२ ते अवनीत री करै पखपात, तिण रे आय चूको मिथ्यात । पख करै त्यांरी करवा थाप, तिण रे उसभ उदै हुवा पाप || २३ जांणे अभिमानी नै अवनीत, तो ही राखै त्यां री परतीत । तिण रे परतख पूरो, अंधारो, बूड़े छै अवनीतां री लारो || २४ जिण ने गुर रा ओगुण सुहावै, ते अवनीत नै मूंढ़े लगावै । त्यां कनै गुर रा अवगुण बोलावै, पछै लोकां में आप फैलावै ॥
इत्यादिक भीखणजी स्वामी रास में कही बलै और पिण समास घणो है। ते रास में जोय लेवो। इम जांण उत्तम जीव हुवै ते अवनीत री टाळोकर री निंदक री बेमुख री बेपता री कळहगारा री संगत न कर्या समकत चोखी रहै । बलै पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो - टोळा मांही कदाच कर्म जोगे टोळा बारे पड़े तो साध - साधवियां रा अंस मात्र अवगुणवाद बोलण रा त्याग छै। यां री अंस मात्र संका पड़ै आसता ऊतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै । टोळा सूं फार नै साथै ले जावा रा त्याग छै । उ आवै तो ही ले जावण रा त्याग छै। टोळा माहै न बारै नीकळ्यां पण ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै । इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो । तेभणी सासण री गुणोत्कीर्तन रूप बात करणी । भागहीण हुवै सो उतरती बात करै, तथा भागहीण सुणे, सुणी आचार्य नै न कहै ते भागहीण । तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी ।
अठाईसवीं हाजरी : ३२७
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आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं।। आयरिए नाराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं गरहंति, जेण जाणंति तारिसं॥
इति 'दशवैकालिक में कह्यो ते मर्यादा आज्ञा अखंड आराध्या इहभव परभव में सुख कल्याण हुवै।
१. दसवेआलियं, ५/२/४५,४०
३२८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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परंपरा नी जोड़
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५
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७
८
९
१०
११
परंपरा नां बोल दोष नहिं छै
बुद्धिवंत न्याय
कोइ बोल बैसे
केवळियां
नें
जोय ।
होय ॥
सूत्र
ववहार ।
बहु, गणि बुद्धिवंतरी थाप । तेहमें, जीत ववहार मिलाप ॥ आगम, श्रुत, आणा धारणा, जीत, पंचमो ए पंच ववहारे वर्त्ततां, श्रमण आराधक ठाणांग ठाणें पांच में, तथा भगवती अष्टम शतक में, अष्टमुद्देशे तिण सूं जीत ववहार में, दोष नहिं छै कोय । नीतिवान गणपति तणों, बांध्यो जीत सुध जोय ॥ सुध आलोची मुनि करे, असम्यक् पिण सम्यक् कहिवाय । आचारंग अध्ययनपंचमें, पंचम उद्देशे
सार ॥
वाय ॥
भामाल
गुणसठे
वास ।
भाख्यो
एम
विमास ॥
युवराज पद, बत्तीसै भिक्षु पिण तं लिखत में, बोल सरधा चरचा तणों, काम पड़े किणवार । विचार नें, संचे बेसाणणो सार ॥
रंच ।
नहीं, त न करणी भोळावणो, अंश न करणी
ढाळ १
तथा तिण मा
१. ठाणं ५ ।१२४,
२. ववहार, १० ६,
३. भगवई सतं ८ । ३०१
४. आयारो ५।९६
दूहा
तथा
पैंतालीसा रा लिखत में कह्यो, कोइ श्रद्धा आचार रो बोल ताय । सूत्र रो अथवा कल्प रा, बोल तणीं मन मांय ॥ कदाच समझ पड़े नहीं, गुरू तथा भणणहार वाय । कतिको मानणौ कह्यो, नहि तो केवळियां नें देणो भळाय ॥ जोड़ किवाड़या तणीं, चौपनैं कीधी स्वाम पिण थापियो, जीत ववहार सुधाम ॥
५. कभी
६. बुद्धिमान
खंच ॥
पंरपरा नीं जोड़ : ढा० १: ३३१
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"भवियण जोवो रे हृदय विचारी, म करो तांण हियारी रे भ०।
तांण कीधा सूं घणी खुबारी ॥ध्रुपदं॥ कोइ कहै किवाड़ियो कितोएक मोटो, तिण रो सूतर' में नहिं उनमान। इणरो उनमान तो जीत ववहार सेती, थाप करसी बुद्धिवान रे॥ हाथ सवा रे आसरै लांबो ने पेहलो', एहवो बांध्यो उनमान। इण बातरो निश्चो केवळी जाणे, उनमान सूं जाणे बुधवान। ज्यूं साध साधवी रे पछोवरी६ रो, पेहली तीन हाथ उनमान । पिण लांबी रो निकाळ' तो नही सूतर में, पांच हाथ थापी बुधवान।। ज्यूं किवाड़िया लांबा ने पेहला री, आ पिण थाप करी छै ताम। ते निश्चो तो केवळज्ञानी जाणै, तिण री खांच तणों नहीं काम।। (आचार्य भिक्षु कृत किवाड़िया री ढाळ) (गा. २१ से २४) तथासूतर मांही तो मूळ न बरज्यो, पंरपरा में पिण बरज्यो नाही। तिण सूं जीत ववहार निर्दोष थाप्यां री, संका म करो मन मांहि॥ जो कवाड़िया री संका पड़े तो, संका छै ठांम-ठांम। ते कहि कहि ने कितराएक केहूं, संका रा ठिकाणा तांम ।। साधुतो हिंसा रा ठिकाणा टाळे, छद्मस्थ तणे ववहार। सुध ववहार चालतां जीव मर जाये तो, विराधक नहीं छै लिगार ॥ जिण-जिण बोलां रो निकाळो नहीं छै, ते केवळियां ने भळावो। कवाड़ियां री ताण करे ने, मत कोइ झूठ लगावो।। मोनै तो कवाड़िया रो दोष न भासे, जाणे ने सुध ववहार। जो निशंक दोष कवाड़िया में जाणो, तो मत वहरजो लिगार।। किवाड़िया रो दोष कहै तिण ऊपर, जोड कीधी पादू मझार। संवत अठारह ने वर्ष चोपने, बैसाख विद दसम मंगलवार॥
(गा. ४७ से ५२) इहां भीखणजी स्वामी आपणा ववहार में जीत ववहार थापे तिण में दोष न कह्यो। सुध ववहारे चालतां जीव मर जावै तो पिण विराधक नहीं, तिम सुध ववहार जाण ने थाप्यो तिण में
१. लय-रे भवियण सेवो रे साधु सयाणा २. सूत्र-आगम ६. चद्दर ३. परिमाण ७. निर्णय ४. स्थापना ८. स्थान ५. चौड़ा ९. निर्णय
३३२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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पिण दोष नहीं। अनै ते जीत ववहार में पाछला ने दोष भ्यासै तो छोड़ देणो। आगे निर्दोष जाण ने सेव्यो त्यां ने दोष न कहिणो। तथा रामचरित्र रे छेहड़े दूहा स्वामीजी जोठ्या तिहां एहवो कह्यो
दूहा "बले परंपरा नी बात ने, मिलतो देखी न्यायो। सुध जाणो तो मानजो, झूठ दीजो छिटकाय ।।"
अथ इहां पिण जीत ववहार में परंपरा नी बात सुध जाणो तो मानणी कही। असुद्ध जाण्या पछै छोड़ देणी कही। तथा सुयगडायंग श्रुतस्कंध दूजो अध्ययन पांचमा में एहवी गाथा कही
अहाकम्माणि भुंजंति, 'अण्णमण्णस्स कम्मुणा'। उवलित्ते त्ति जाणिज्जा, अणुवलित्ते,त्ति वा पुणो।। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारी ण विज्जई। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं विजाणए।
(सुयगडो २ अ० ५ गाथा ८,९) अथ इहां पिण कह्यो-'आधाकर्मी पिण सुध ववहार में निर्दोष जाणी ने भोगवै तो पाप कर्मे करि न लिपावै। तिम आचार्य बुद्धिवंत साधु आपणा ववहार में निर्दोष जाणी ने जीत व्यवहार थापे तिण में पिण दोष न कहिणो। तथा भगवती, ठाणांग, ववहार सूत्र में पांच ववहार कह्या ते पाठ
कतिविहे णं भंते! ववहारे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा आगमे, सुतं, आणा, धारणा. जीए।
जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। णो य से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा।
णो य से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्ठवेज्जा।
णो य से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्ठवेज्जा।
णो य से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थ जीए सिया, जीएणं ववहारं पट्ठवेज्जा।
इच्चेएहिं पंचहिं ववहारं पट्ठवेज्जा, तं जहा
१. साधु के निमित्त बनाया हुआ।
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आगमेणं, सुएणं, जहा जहा धारणा जीता-ता ववहारं पट्ठवेज्जा ।
सुए
आणाए, धारणाए, से आगमे
जीएणं ।
आणा
महु भंते! आगमबलिया समणा
निग्गंथा ?
इच्चेतं पंचविहं ववहारं जदा जदा जहिं जहिं 'तदा तदा तहिं तहिं अणिस्सि
ओस्सितं सम्मं ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाए आराहए भवइ ॥
( — भगवई — सतं ८ । ३०१, ववहारं उ० १०, ठाणं ५ | १२४)
इहां पांच ववहार में धारणा ववहार अनै जीत ववहार पिण कह्यो । सुध सरधा आचारवंत साधु नो बांध्यो जीत ववहार में दोष नहीं। ने जीत ववहार ना केतला एक बोल कहै छै
दूहा
१२ जीत ववहार ना बोल नो, आखूं छू अधिकार । दृढ़ समदृष्टि निपुण ते, नाणे संक लिगार ॥ १३ नित्य पिंड सुखे न बहिरणो, दूजी वार बलि देख | उण घर जाये गोचरी, तिण में इतो विशेष ॥ १४ जीत ववहार बड़ा तणों, सांभळजो भिक्षु स्वाम तणीं भली, मर्यादा सुखकार ॥
नर नार ।
१. लय : एतो जिन मारग रा ।
२. पात्र ।
३. छाछ को गर्म करने के बाद उसके ऊपर नितर कर आया हुआ पानी ।
३३४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
जोय ।
छै
ए तो स्वाम बड़ा सुखकारी रे, भिक्षु नी बुद्धि भारी बांधी दृढ मर्याद उदारी रे, सूत्र न्याय अनुसारी ॥ ध्रुपदं ॥ १५ ठाम मांहि मावे नहीं रे, धोवण पाणी पाछो जाय नें ल्यावणो, दोष नहीं १६ जे किवाड मांहि हुवै तो, पाछो जाय आछ ३ छाछ रे वासते, दूजी बार पिण १७ माथादिक ने कारणे रे, पाछे कध
नें
पाणी ।
बचियो हुवै
धोवतां
ते, पाछे ल्यावै जाणी ॥
कोय ॥
ल्यावे ।
जावै ॥
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१८ धोवण दालादि तणों रे, कंदोइ नो तिणवार।
रांगणादिक' ने कारखाना रो, ल्यावे वारूंवार ।। १९ मुंजादिक नो बचियो हुवै, 'कोरी सलादिक' जाणो।
गार गोबर नो पछै नीपनो, बार-बार जइ ल्याणो।। २० बले गांवड़िया गांव में, आथण निपजतो जाणै।
गाढा-गाढ' कारण तिरखा रो, दूजी बार जइ आणै।। २१ कारण पड़ियां रोगिया, नितपिंड लेवै आहारो।
जीतववहार वीर वच देखी, अंतर भर्म निवारो।। २२ विषम जायगां उलंघता, नितपिंड समय सुजाणो ।
पिण नहि छै ए सहज विहार में, गाढा-गाढ पिछाणो॥ "आधाकर्मी ने मोल रो लीधो, नहीं वहरणो 'करड़े काम। निरदोषण में नितपिंड आहार, कारण परया लेणो कह्यो ताम॥ आधाकर्मी ने मोल रो लीधो, ओ तो निश्चे उघाडो असुध।
नितपिंड ढीला परता जांणी बरज्या, आ तीथंकरांनी बुध"॥ २३ सहजे और कारण गयो, गृहस्थ रे घर सोय।
गृहस्थ अणचिंत्यो धामें तो, ते पिण लेणो जोय।। २४ साधु गयां पहिली नीपनों, ते पिण पछै लेवाय।
दाल खाखरा आदि मांग ले, नहीं लोळपणों मन मांय ।। २५ मुनि गृहस्थ रे घर गयो, बहिरावता ते भूलो।
पाछो आवता ते गृहस्थ बोलावै, ते पिण लेणौ सूलो॥ २६ वस्त्रादिक धोवण भणी, दिशा काज कुण चेहरे।
दंत-मसूदादि कारण उदक, तमाखू पिण नति वेहरे॥ २७ सुखे समाधे एक धणी नों, अन्यक्षेत्रे नित्य आहारो।
जुदो क्षेत्र चूला नो अथवा, कहिए मोड़ा२ बारो॥ २८ इत्यादिक अनेक बोल सुध, जाणी आचार्य थापै।
जीत ववहार तास जिन आणा, बुद्धिवंत नाहिं उथापै॥
१. रंग आदि के कारखाने। २. आटियों को धोने के लिए बनाया हुआ। ३. छोटे गांव ४. सायंकाल ५. विशेष रोगादि की स्थिति ६. तृषा
७. कठिन परिस्थिति में ८. प्रत्यक्ष ९. शिथिल १०. अच्छी तरह ११.रोके १२. दरवाजा।
पंरपरा नी जोड़ : ढा० १: ३३५
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२९ आगम श्रुत ने आणा धारणा, जीत पंचमो साधक।
पंच ववहार पणे प्रवां , आज्ञा तणों आराधक।। ३० ए ठाणांग भगवती ववहारसूत्रे, आख्यो एम जिणंदा।
तो जीत ववहार उथापै ते तो, प्रगट जैन रा जिंदा॥ ३१ भिक्षु स्वाम तणीं ए बांधी, उत्तम वर मर्यादो।
विमल चित आराधे सुगणां, मेटी भर्म उपाधो।। ३२ उगणीसे चवदे विद नवमी, मास बैसाख मझारो।
जयजश गणपति संपति जोड़ी, लाडणूं महा सुखकारी ३३ समण छतीस आर्जिका बाणु, च्यार तीर्थ रंगरेळा।।
भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रतापे, गणपति संपति मेळा।। ३४ प्रथम ढाल ए बोल परंपरा, प्रगट सरस गुण गाथा।
जयजश जोड़ करी सुध जाणी, गणपति सम्पति साता।
३३६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ २
"
दूहा
१
सूत्र तणी रहिस केयक
अपेक्षाय बहु, बोल परम्परा मांय। नी समय में, केयक बोल अपेक्षाय॥
mo. no 9 v
भवियण जोवो रे हृदय विचारी, पांच ववहार छै सुखकारी।
शंक म राखो लिगारी रे भवियण जोवो॥धूपदं।। २ नदी नावा री आगन्या दीधी, सूत्र में जिनराय।
तिण री अपेक्षाय पृथ्वी आदि पिण, जिन आगन्या कहिवाय रे।। ३ प्राण बीज हरी पाणी ने माटी, छते रस्ते न जाणो ते पंथ।
दूजे आचारांग तीजे अध्ययने, प्रथम उद्देशे तंत। खाड विषमभूमि कादा ने मारग, छते रस्ते जाणो नाहि । दसवैकालिक पंचमे अध्ययने, पहिला उद्देशा माहि ।। विषम कादा ने मारग साध्वी पड़ती ने, साधु राखे हाथ संभाय।
वृहत्कल्प रे छठे उद्देशे, रस्तो नहीं तो विषम मारग जाय। ६ वृहत्कल्प रे पहिले उद्देशे, रात्रि सज्झाय दिशा अर्थे जाणो।
दिन रा मेह में दिशा जावा री आज्ञा, रात्रि नी अपेक्षाय पिछाणो। ___ साधु तीन हाथ चोड़ी पछेवड़ी राखै, साध्वी री अपेक्षाय।
साधु रे चोड़ी पछेवडी रो निर्णय, सूत्र में दीसै नाय ।। दसवैकालिक रे तीजे अध्ययने". मर्दन कियां अणाचार ।
अंजन वमन स्नान मूंह धोयां, गळा हेठला केश विदार॥ ९ वृहत्कल्प रे पंचमे उद्देशै, कह्यो कारणे मर्दन करणो।
__ अंजन वमन स्नानादिक नो, न कह्यो कारण रो निरणो।। १० तिण मर्दन री अपेक्षाय अंजन घाल्यां, कारणे नहीं दोष लिगारो।
बलि वमन करै जहर गोळी गिलियां, कारण पड़ियां मूंह धोवै सारो॥
१. रहस्य २. लय-रे भवियण जिन आगन्या सुखकारी ३. आयार चूळा ३।६,७ ७. दसवेंआलियं ५।१४
५. कप्पसुत्तं ६७,८ ६. कप्पसुत्तं १।४५ ७. दसवेआलियं ३९ ८. कप्पसुत्तं ५।३८ ३९
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११ तिण गर्दन री अपेक्षाय स्नान पिण, कारण पड़यां करै साध । गळा हेठला केश पिण कापे, थयां गुंबडादिक नी व्याध ॥ १२ कारण पडियां सुगंध पिण सूंघे, बलि आरिसा में मुख देखे । कांबळादिक नो छत्र पिण राखै, कारण पड़ियां विशेखै ॥ १३ तिण कारण वाळा अंतरघर' में वेसै, कह्यो दशवैकालिक मांय । कारण पडियां रेच पिण लेवै, कारणे दंत मसी लगाय ॥ १४ बासी राख्यां अणाचार को छै, ते पिण मेहादिक कारणे राखै । कह्यो नशीथ रे इग्यारमें उद्देशे, पिण मुख मांहे मूळ न चाखै ॥ १५. विशेष कारण नित्यपिंड आहार बहिरे, सहज रे कारण औषध नित्यपिंड ।
पहिला पोहर रो छेहला पोहर तणीं, तथा मर्दन अपेक्षाय सुमंड ॥ १६ कह्यो आचारंग दूजे श्रुतखंधे, पंचमें उद्देशे मांय ।
उचारादिक चालतां लागे, लूहे तृणादिक थी मुनिराय ॥ १७ तृण कांकरा थी लूहणो चाल्यो, पिण पांणी सूं धोवणो न दाख्यो । पाणी सूं धोवै ते अपेक्षा वचन थी, शुचि लेणो नशीथ में भाख्यो । १८ शुचि नी अपेक्षाय और जागा पिण, उचारादिक टाळ पाणी लगाय । ए पिण अपेक्षा वचन थी मानो, तिम नितपिंडादिक कहिवाय । १९ छत्र राख्यां अणाचार कह्यो छै, ते पिण कारणे राखणो भाख्यो । ववहार" सूत्र रे आठमें उद्देशे, साठ वर्ष ना स्थविर ने दाख्यो । २० विहार करतां माथे ओढै तो, साधु ने दंड मासीक । नशीथ' सूत्र रे तीजे उद्देशे, इकोतरमो बोल तहतीक ॥ २१ छत्र नी अपेक्षाय कारण पड़िया, माथे ओढ्यां नही डंड । तिम पहिला पोहर रो चोथे पोहर चाल्यो, तिणरी अपेक्षाय नित्यपिंड ॥
२२ साठ वर्ष नां स्थविर में कल्पे, सूतां
पिण गुणवी नशीत । बार गुणे धर पीत ॥
ववहार" सूत्र रे पंचमुद्देशे, बे तीन
२३ ते नशीथ री अपेक्षा और सूत्र गुणे तो, स्थविर ने दोष न दीस । थिवर री अपेक्षाय अशक्तिवंत साधु, संतां सूत्र गुणे सुजगीस ॥
१. शयनागार आदि
२. दसवे आलियं ३।५,९
३. निसीहज्झयणं १९/७९
४. आचार चूला १।५१
५. ववहार सुत्तं ८।५।
३३८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
६. निसीहज्झयणं ३।६९
७. ववहार सुत्तं ५।१८
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२४ बलि गाज बीज री असझाइ कही छै, ठाणांग' दशमें ठाण।
पिण आद्रा नक्षत्र थी चित्रा तांइ, न गिणे जीत ववहार थी जाण।। २५ नव रुपियां रा दाम रो लेणो, नवमें ठाणे अर्थ मझार।
हाथ रा पना स्यूं पनरे हाथ री, पछेवड़ी नी ए जीत ववहार।। २६ मास चोमास रह्या एक क्षेत्रे, बड़ां लारे बलि रहिणो।
ए पिण जीत ववहार भिक्षु नो, तिण में दोष किम कहिणो॥ २७ बीजी ढाळ मांहि बोल कह्या बहु, जाणी नै सुध ववहार।
उगणीसे पनरे मृगसर विद आठम, जयजश हर्ष अपार ।।
२.ठाणं ९।३० १. ठाणं १०।२०
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ढाळ ३
सं० १८५० में रूपचंद अखैरामजी ने भीखणजी स्वामी में १५९ दोष निकाले। उनको स्वामीजी ने लिपिबद्ध कर लिया। उन दोषों से कतिपय दोषों का जयाचार्य ने निम्नोक्त गीतिका में निराकरण किया है। दोष संख्यानुसार गाथाओं के पहले लिखे गये हैं। उनकी समग्र तालिका परिशिष्ट) में देखें।
दूहा रूपचंद अखैरामजी, अठारे पचासे पेख। गण सूं टळी भिक्षु मझै, काढ्या दोष अनेक ।। के यक बोल अछता कह्या, के यक बोल निर्दोष ।
जाणी भिक्षु थापिया, त्यां में कह्या अणहुंता दोष ।। ३ सूत्र थी तथा जीत थी, सुध ववहार सुजाण।
केयक बोल त्यां माहिला,. आखू उद्यम आण।। (१. रजूहरण सूं माखी उडावणी नहीं) ।
सुध' ववहार सुणो भवजीवा ॥धुपदं ।। ४ रजोहरण ने पूंजणी सेती, काम पड्यां साधु माखी उडावै।
ते पिण पक्की वायु री जेणा थी, तिण मांहि दोषण किणविध थावै।। ( २. सूर्य उगां विण पडिलेहण करणी नहीं) ५ चक्र दीठे छतै करै पडिलेहण, जद कीडियादिक प्रगट दृष्टि में आवै॥
तिण बेला आहार ओषध नहि लेणो, रवि प्रगट ववहार जाणी बहिर ल्यावै॥ (४. गोचरी नीकळ्यां पछै ठिकाणे आयां पेहिलां कठेइ वैसणो नही) ६ गोचरी गयां ठिकाणे आयां पहली, अंतर घर विण बेठां दोषण नांहि।
दशवकालिक पंचमारे पहिले उद्देशै, साधु ने आहार करणो कह्यो गोचरी मांहि। (५. बायां ने थानक में बेसण देणी नहीं। ६. बायां सूं चरचा बात करणी नहीं। ७. बायां साह्यो जोवणो नही। ८. बायां ने वैसाणे ते आछो खावा रे अर्थे)
१. लय-आ अनुकंपा जिन आगन्या में। २. दसवेआलियं ५।२।८२,८३
३४० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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७ बायां ने सीखायां दोष नहिं छै, सेवा करायां पिण दोष नहीं है।
नवमे शतक भगवती एकतीसमें उद्देशै, सेवा करवा वाली ने उपासका कही है। ( ९ आयर्या ने थानक में बेसाणणी नहीं। १० आयाँ सूं चरचा करणी नहीं। ११ आयाँ नें सूतर री वाचणी देणी नहीं। १२ आर्या साह्मो जोवणो नहीं। १३ कारण विना आर्या ने आहार देणो नही। १४ वैतकल्प में जाबक आयाँ नें साधां रे थानक वरज्या छै. १७ बोल।
इम साधु ने पिण १७ बोल आया रे थानक वरज्या) । असझाइ में आया ने साधु, सूत्र बंचावै कह्यो ववहार। आहार भोगवणो ने बेसणो चाल्यो, सातमे उद्देशै बहु विस्तार।। वृहत्कल्प में सतरे बोल वा, 'ते विकट' बेळा' अर्थ मांहि पिछाणो।
ववहार पाठ में आगन्या दीधी, तिण सूं विकट वेळा रो अर्थ सुध जाणो। १० सतरे बोलां में ऊभी रहिणी पिण वर्जी, ते विकट वेळा संध्या पक्ष्यां कहाय।
तिण वेला सझाय आहार न कळ्पे, संलग्न सतरे बोल कह्या जिनराय। ११ ऊभो रहिवो बेसवो सूयवो', निद्रा विशेष निद्रा' चिहुं आहार।
बड़ी लघु नीत बलखो१२ सेडो१३, सझाय४ काउसग्गपडिमा विचार॥ १२ विकट बेळा सतरे बोल न करणा, विकट बेला विण दोषण नांय ।
केयक बोलां री आज्ञा पाठ में, केयक बोल त्यांरी अपेक्षाय॥ १३ साधु रे स्थानक साध्वी आहार भोगवै, ए पिण ववहार सातमा उद्देशा माय।
ते ऊभी रह्यां विण आहार करे किम, विकट वेळा रो अर्थ साचो इण न्याय॥ १४ दशाश्रुतस्कंध दसमें अध्ययने, श्री वीर तणा समोसरण मझार ।
साध साधवियां नियाणा कीधा, त्यांने श्री जिन सुध किया तिणवार।। १५ आा ने आहार देणो पिण चाल्यो, चोथे ठाणे दूजा उद्देशा मांय।
ऊभो रह्यां विण आहार दीयै किम. विकट वेळा रो अर्थ साचो इण न्याय॥ १६ साधु ने संभोगी' कह्या छै, सातमे उद्देशै सूत्र ववहार।
आहार मांहोमां देवै लेवे ते संभोगी, ऊभो रह्यां विण किम लियै-दियै आहार।।
१. भगवई३१९ २. ववहार सुत्तं ७।१९ ३. ववहार सुत्तं ७।३ ४. कप्पसुत्तं
५. सूर्यास्त के बाद ६. ववहार सुत्तं ७।३ ७. दसासुयक्खंधो १०।२२,३४ ८. ठाणं २।२७४ ९. ववहार सुत्तं ७।३
पंरपरा नी जोड़ : ढा०३ : ३४१
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१७ आर्यां में दीक्षा देणी पिण चाली, प्रायश्चित देइ में सुध पिण करणी।
ववहार सूत्र रे सातमें उद्देशै, ऊभो न रहणो तो दंड दीक्षा किम वरणी।। पेहला छेहला पोहर विण ओर काळ में, सूत्र कालिक री न करणी सझाय।
साधु री नेश्राय आर्यां ने कल्पै, सातमों उद्देशो ववहार मांय।। __ आर्यां रे स्थानक साधु जाये तो, खंखारादिक किया विण नही जांणो।
सूत्र नशीथरे उद्देशे चोथे तिण सूं, विकट वेळा रो अर्थ सुध पिछाणो।। असझाइ साधु रे तथा साध्वी रे, ववहारे कह्यो वांचणी देणी माहोमांय। ऊभो रह्यां विण वाचणी किम देवै, विकट बेला रो अर्थ मिलतो इण न्याय।। साधु रे स्थानके साध्वी ने बेसणो, ए पिण ववहार सातमा उद्देशा मांय। ते उभो रह्या बिन किम दिने बेसणो, विकट बेला रो अर्थ साचो इण न्याय।। उदक तीर साधु साध्वियां ने, ए सतरे बोल वरज्या जिनराय।
वृहत्कल्प रे पहिले उद्देशै, ए तीर पाणी स्यूं निकट कहिवाय।। २३ उदक तीर ऊभो रहणो कह्यो छ, आचांरंग' तीजे अध्ययन रे दूजे उद्देश।
ए तीर पाणी सू दूर जाणवो, दूजे आचारंग पाठ में रेस ।। २४ तिम सतरह बोल साधु रे स्थानक समणी ने, वा ते विकट वेला आसरी जाण।
सझाय बेसण ने आहार नी आज्ञा, अविकट वेला रो पाठ पिछाण ।।
(१५. रात री आर्या ने नेरी उतारे) । २५ आर्यां साधां सूं नेडी उतरे, तिण मांहे दोष कहे छै अजाण ।
ते किण ही सूत्र मांही वौँ नही छै, पिण ऊधमती करे उळटी ताण।। २६ एकण जायगां कारण विण रात्रि न रहणो, पिण नेडी अलगी रो न दाख्यो वैणो।
पांच कारण सूं रात्रि पिण भेळो रहणो, पांचमे ठाणे दूजे उद्देशै जोय लेणो।। २७ दिन रा साधु रे स्थानक आयाँ नें, सुखे आहार बेसण री आज्ञा दीधी।
तिण मांहि दोष परुप्यो अज्ञानी, तिण प्रत्यक्ष खांच गळा में लीधी ।। २८ ए सूत्र ना वचन उथापै अज्ञानी, पाठ रो न्याय न जाणे अंधा।
त्यांने सूत्र शस्त्रपणे प्रणम्या, बिगडायल जैन तणां जे जिंदा।। २९ कहै आर्या रो संग परचो कीधा, स्नेह भाव कर्म बंधन रो टाणो।
तिणरे लेखै आहार विगय भोगवै साध, इहां पिण लोळपणां री लहर रो ठिकाणो।
१. ववहार सुत्तं ७।१६ ५. आयारचूला३।३७ २. निसीहज्झयणं ४२२ ६. ठाणं ४।१०७ ३. ववहार सुत्तं ७।१९ ७. अवसर। ४. कप्पसुत्तं १।१९ ३४२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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३० बले महिं बहुमोला कळपता वस्त्र, भोगवियां ममता रो ठिकाणो।
तिणरे लेखे वस्त्र पिण न भोगवणां, भोगवे तो पोता री भाषा रा अजाणो।। ३१ राग भाव ममत लोळपणां री, लहर आवे तिण री नहीं थाप।
ते तो छै सर्व आलोवण खाते,पिण ते कार्य री आज्ञा दीधी जिन आप।।
(१६. रातरी बायां ने थानक में बैसारे (नाथ दुवारे)) ३२ रात्रि समय बायां थानक माहि, दूजे ,खंड रही सुणै वखाण।
तिण मांहि दोष साधु ने न लागे, एक खंड रह्या पहिली बाड़ री हाण॥
(१७. गृहस्थ साथे विहार करै) ३३ गृहस्थ साधु ने पहुंचावण आवे, अथवा दाम दियां बिनअन्य पठावै।
तिण रो साधु में दोष न लागे, सावद्य आमना२ नाहि जणावे। __ फलाणे गाम जाणो छै म्हारे, कोई जातो हवै तो साथ बतावो।
जद गृही पोते आवै तथा मेलै दूजा नें,निज कुशल बंछै पिण सावज रा न भावो॥ आदमी में थे दरसण करावो, इम न बोलै सावज वायो । तिण रो सावज चालणों तो नहीं बंछै, निज कुशल बंछै भाखा सुमति जणायो॥ ___ भाषा सुमति स्यूं वीर प्रभू पिण, न्यातीला ने सीख दीधी विख्यात।
आचारंग दूजै श्रुतखंधे, पनरमाध्येन मांहे कहि बात ।। ३७ काळ कियां भासा सुमति स्यूं साधु, स्वजनादि गृहस्थ भणी जणाय।
'छठै ठाणै' कह्यो-आज्ञा न उलंघे, और भाषा समिति पिण तेहनी अपेक्षाय॥ ३८ गृही में सर्प खाधां कोई झाड़ो देवै छै, मुनि पिण जाय राखै तिहां काय।
ववहार सूत्र रे पांचमें उद्देशे, निज कुशल बांछै पिण झाड़ो बंछै नाय॥ (२२. गृहस्थ साथे गोचरी जाए। २३. गृहस्थ जागां जोवै।) २४. गृहस्थ आय ने जागां बतावै।
२५. गृहस्थ आय ने कहै अमकडियै घर अनादिक छै) । ३९ गोचरी रा घर पूछ्यां गृहस्थ में, साथे आय गृहस्थ घर बतावै।
उतरवा री जायगां देख आय उतारे, तिण मांहि दोष साधु ने न थावे॥ ४० गृहस्थ घरां मांहि देख आवी कहै, अमकडिया घर असणादिक पाणी।
साधु बहिरे सुध भिक्षा बंछी, सावद्य गमन न बंछै जांणी।।
५.ठाणं ६।३ ६. ववहार सुत्तं ५।२१
१. बहनें। २. आज्ञा। ३. अमुक। ४. आयार चूला १५।३४
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(२६. रोगीया ने नितपंड न लेणो। २७. खेतसीजी रे आथण रा तीन च्यार दिस दाल ने जाता। २८. रोगी रै वासते आण्यो ते वधै तो बीजां ने खाणों नही।
२९. छते पाणी रोगीया रे खातर नितपिंड ल्यावै) ४१ रोगी अर्थे नितपिंड पिण लेणो, दालादि अथै बहु दिशि जावै ।
कांइ चरकी फीकी कठै मिलै ते कारण,पिण बीजां अर्थं जाणी अधिक न ल्यावै॥ ४२ रोगी अर्थे नितपिंड आण्यो, बधे तो बीजां ने करणो आहार।
तिण मांहे दोष कोइ मत जाणो, बीजां अर्थे तो जाणी न ल्यावे लिगार। (३१. पातरा रंगणा नहीं। ३२. रोगन लगावणो नही। ३३. सुगंध रो दुगंध करणो नहीं। ३४. सुवर्ण रो दुवर्ण करणो नही।
३५. हींगलू धोवणो नहीं) ४३ तीन घुसली' उपरंत तेलादिक, अथवा वर्ण इम जाणो विशेष ।
पात्रा रे लगायां डंड चोमासी, नशीथ सूत्र रे चउदमें उद्देश ।। ४४ वर्ण रे कहिवे रंग पिण आयो, रोगान परंपरा थी जाणों ।
ते पात्रा रे लगावै नै वासी राखै, तिण मांहि दोष कोई मत माणो।। ४५ ममता सू लेप लगावणों नाहि, फाटवादि कारण थी रंग लगावै।
ते तीन पुसली उपरंत वा छै, नशीथ चवदमें उद्देश कहावे ।।
(३६, आर्या ने मेली पछेवरी देणी नही) ४६ साधु आर्या ने देवै ओढी पछेवड़ी, ते धोया विन भोगवणीं नाहि।
साधु मांहोमांहि देव ने लेवै, ते पछेवड़ी धोवणी नहि कांइ।
(३८. पडला रे बदले कपड़ो राखे) ४७ पडला रे बदले कपड़ो राखै, ते कारण बिन ओढणों नाहि ।
कल्प घट्यां तंतु दुर्लभ जाणै तो, ओढ्यां पहिरयां दोष न दीसै कांइ।
(३९. स्याही उघाड़ी सुकावै) ४८ स्याही उघाड़ी सुकावै तावडे, इमहिज हिंगलू ने पिण जाणों।
माछरादिक नी जो जाणै अजयणा, जब तो न मेलै उघाड़ी पिछाणों॥ (४०. सुधिया पडिलेहण करै)
३. बिछौने के ऊपर बिछाया जाने वाला वस्त्र
१. चुलू २. निसीहज्झयणं १४।१४,१५,१८,१९ ३४४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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४९ चोथो पोहर लाग्यां करणों पडिलेहण, चक्र सूझे जठा तांइ ववहार।
अछाया पिण लागती नही दीसै, रवि अदृष्ट पिण तप्त पुद्गल तिण वार।।
(४१. सुधिया पडिकमणो करै) ५० रवि अर्ध बिंब में पाणी नही पीणो, तठा पछै तुरत मांडै पडिकमणो।
तिण मांहि पिण दोष मूळ न दीसै, मुहूर्त रात्रि गयां तांइ करणो॥ ५१ दिवस रात्रि में विचाले पडिकमj, करणो उत्कृष्टपणों कहिवाय।
अनुयोगद्वार' में पाठ उघाड़ो, तिण रो बुद्धिवंत जाणै न्याय॥ ___ अर्धबिंब पडिकमणो मांडे, ए उत्कृष्ट भांगे छै ताय।
इमहिज सूर्य उर्ग जठा तांइ, पडिकमणो कीधां दोषण नाय॥ ५३ एक मुहूर्त रात्रि पाछली हुवै जद, पडिकमणो मांड्यां दोषण नाय।
शीघ्र कियां रात्रि रहै थाकती, तिण में पिण दोष नहि जणाय॥ ५४ इमहिज रात्रि पाव घड़ी गयां तूं, पड़िकमणो मांड्या दोष न कोय ।
मुहुर्त रात्रि तांई करै संपूरण, तिण मांहे दोष किसी पर होय॥ पहिलो मुहुर्त ने छेहलो मुहुर्त रात्रि नो, ए तो छै काळ पडिकमणां रो ताय।
तिण बेलां पडिकमणों कियां दोष नहीं छै, ओर सूतर नहीं न करणी सज्झाय॥ ५६ प्रथम चरम पोहर रो पगां सूं छायां, मापो कह्यो छै उत्तराध्ययन मांय। विचला दोय पोहर रो काळ होवै जितरो, पहिला छेहला पोहर रो पिण
इतरो कहिवाय॥ ५७ ज्यां लग सूर्य दृष्टि आवै काळ जितरो, पहिलो छेहलो पोहर जो ओछो जाणो।
सूर्य अदृष्ट इतरो काळ दिवस छै, तिणस्यूं दिन रात्रि मध्य पडिकमणो ठाणो॥ ५८ रवि कोर दबी जाणी पाणी न पीणो, ए पिण जाणज्यो सुध ववहार।
पिण अपकाय री अजयणां न दीसे, पडिकमणो पिण मांड्या नही दोष लिगार।। (४२ पडिलेहण करे जठा तांइ जाबक बोलणो नहीं।
४३ गोचरी सूं आयां पछै सझाय करणी) ५९ उपधि पडिलेहता बोलणो नही छै, थंभी बोल्यां नहि दोष लिगार।
गोचरी स्यूं आवी जघन्य सझाय करने, सुखे समाधे करणों आहार।
(पोहर पोहर री च्यार काळ री सझाय करणी) ६० पहिले छेहले पोहर दिवस रात्रि में, जघन्य सझाय पांच गाथा' नी ताय।
उपयोग सहित करणी सुखे समाधे, राई पडिकमणो चउवीसत्थो सझाय॥
१. अणुओगदाराइं सूत्र २८ गा.२ २. अवशिष्ट ३. उत्तरज्झयणाणि २६.१३।१४
४. कम से कम ५. बत्तीस अक्षरों का एक गाथा होता है
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(४५. पोहर सूं इधिकी नींद लेणी नहीं इघिकी लेवे तो अठारै पाप रो
सेवणहार छै। माठा माठा सुपना आवै पांच वैरी जागै छै) ६१ आहार किया पहिला दिन रा सूइ ने, सुखे निद्रा लियां दोष नही छै ।
जीमी सुखे सूइ निद्रा न लेणी, बाल वृद्ध रोगी री बात न्यारी कही है। इमहिज पोहर रात्रि तांइ जाणो आचारंग तीजा अध्ययन पहिले उद्देशे। टीका में कह्यो आचार्य री आज्ञा सूं, दूजा पोहर सूं नींद लेणी ए रेस। (४८.खंडिया धोवण ने नित पाणी ल्यावै।)
४९. स्याही रै खातर पाणी ल्यावै वधै ते पीयै ते नित (नितपिंड) ६३ खंडीया धोवण पाणी नित्य ल्यावे, स्याही आदि निमित्ते नित्य ल्यावे।
'लेई' करवा निमित रोटी पिण ल्याव, तिण मांही दोष कहो किम थावै॥ ६४ सेज्यातरपिंड ग्रह्यां डंड भाख्यो, सेज्यातरपिंड भोगवियां पिण दंड।
नशीथ' सूत्र रे उद्देशे बीजे, प्रगट बे पाठ कह्या छै अखंड ।। राजपिंड ग्रह्यां प्रायश्चित कह्यो छै, राजपिंड भोगवियां पिण दंड। नशीथरे सूत्र रे उद्देशे नवमें, इणरा पिण बे पाठ कह्या छै अखंड। नितपिंड भोगवियां प्रायश्चित कह्यो छै, नितपिंड ग्रह्यां दंड न दाख्यो।
नशीथ सूत्र रे उद्देशे दूजै, पाठ एक श्री जिनवर भाख्यो। ६७ सेज्यातर रा दोय पाठ कह्या छै, राजा पिंड ना पिण पाठ छै दोय।
नितपिंड रो एक पाठ कह्यो छै,तिण सूं धोवादिक कारणे ग्रहणों सोय ।।
(५४ पातरो कपड़ो कारण पडियां पिण दोढ मास सुं इघिको राखणो नहीं) ६८ साधु जी वस्त्र आप रे निमत्ते, दोड मास यूं अधिको न राखे ।
नशीथे सूत्र रे पहिले उद्देशे, और साधु काज राख्यां दोष कुण दाखे। प्रमाण थी अधिक पात्र अळगी दूर थी, आणणों आचार्यादिक रे काज। तिण मांहे आहार भोगवणो चाल्यो छै, ववहार आठमें उद्देशे समाज ।। तीन तीन पात्रा पोता रा कल्प में, कोइ फूटो तथा रंग लगायो। कल्प में घटे जितरे पात्र भोगवणों, तिण सूं भोगवणों कह्यो दिसे जिनरायो॥
(५५ कोइ नवो दिख्या ले तिणरै वास्ते पिण न राखणो) ७१ नवो दीक्षा कोइ लेणहार छै, तिण रे अर्थे पिण दोड मास उपरंत।
वस्त्र पात्र जो अधिको राखे, तिण में पिण दोष न कहे मतिवंत।
१. निसीहज्झयणं २।४५,४६ २. निसीहज्झयण ९।१,२ ३. निसीहज्झयणं २।३१-३५
४. निसीहज्झयणं १।५४ ५. ववहार-सुत्तं ८।१६, पाठान्तर
३४६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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७२
आचार्यादिक अर्थे वस्त्र पात्र आणे, गणी पिण साधु साध्वियां काज। ___ दर्शन करवा आवै त्यारे अर्थे, दोड मास सूं अधिक राखे सुख काज।।
(५९ दिख्या ले तिणरे रोगांन हींगलू बधै तो लेणो नहीं, इघिको लेवै छै) ७३ दीक्षा ले तिण रे काजे मोळ लेवै, वस्त्र पात्र रंग रोगान।
बीजा साधु अर्थे मोळ लेवे तो, ते नहीं बहिरे संत सुजान।। ७४ दीक्षा वाला अर्थे वस्त्र पात्रादिक, दीक्षा लियां पछे जे मोळ लीधा।
ते पिण कल्पे नही मुनिवर ने, पहिला मोळ लिया कल्पे छै सीधा।
(६० जिणमें जाणपणों थोडो तिण ने दिख्या दै) ७५ जाणपणों सिखाय ने दीक्षा देणी, संक्षेपरुचि सम्यक्त कही सार।
अठावीसमें उत्तराध्ययन' में आख्यो, तिण मांहे दोष म जाणो लिगार। ७६ स्वाम भिक्षु विस्ताररुचि नी, सम्यक्त सोल कळा जोड़ कीधी।
द्रव्य क्षेत्र काळ भाव निक्षेपा, जाण्यां विस्ताररुचि प्रसिद्धी ।। (५८ केलू री जायगां में चोमासो करै। ६५ थान आखौ राखै
६६ विना फारयां राखै) ७७ केलू री जायगां चोमासो कीधां, तिण में पिण दोष कोइ मत जाणो।
देश बाड फाड्यां आखो थान नांहि, ए पिण न्याय हिया में पिछाणो।।
(६७ चिलमिलि राखै) ७८ बे तीन साधां में एक चिरमली, च्यार पांचा में चिरमली दोय।
छ सात साधां में तीन चिरमली, इम अनुक्रमे राखणी अवलोय।। ७९ तीन च्यार पांच साध्वियां में, एक चिरमली ने उडघो एक ।
छ सात आठां में दोय राखणा इम अनुक्रमें जाणो सुविशेख ।। चिरमली रे बदले तंतु राखे, ते गणि विण पहिरणो ओढ़णो नाय।
गणी आणा कारण री बात न्यारी, तथा कल्प घट्यां दुलभ जांणी में ताय॥ ८१ चिरमली रा कल्प रो तंतु न पहिरणो, सूत्र में इम चाल्यो नाय ।
तिण स्यूं गणी गणपति नी आज्ञा स्यूं, भोगव्यां दोष न दीसे कांय ।। चिरमली रा कल्प में तंतु राख्यो, ते भोगवे गणी तथा गणी नी आण। एक चोलपटो तीन पछे वडी उपरंत, एक साथै नहीं भोगवै जाण ।। (६८ पाणी ठारे)
१. उत्तराज्झयणणि २८।२६
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८३ ठारणीयां सूं पाणी ठारे जयणां सूं, ए पिण भिक्षु नो जीत ववहार।
तिण मांहे दोष कोइ मत जाणो, रस्तानादिक रा कल्प में ठारणीयो सार।।
(६९ ऊंची जायगा रहै) ८४ पगथ्यां री नाल ऊंची जायगां रहिणो, निसरणी वाली अंतलिख न रहिणो। तिण जायगां तो रहिणो वौँ आचारंग में, बली अंतलिख जायगां रो आहार न
लेणो॥ (७० सेज्यातर भोगवै) ८५ जो साधु जेहनी जायगा रात्रि सूवे छै,तिण घर रो ते साधु ने नहीं लेणो आहार।
बीजी जायगा सूवे तो साधु वेहरी लेवे, तिण में दोष नहीं छै लिगार। दोय हाटां जोडे' दोय धणी री, आमा-सामा साधु सूवे नित्य जोय।
तो बेहुं घर टालण रो काम नहीं है, जायगां छोड्यां सेज्यातर नहीं छै कोय। ८७ नित प्रते सूवे ते सेज्यातर रो, अजाणे बहिस्यां भोगव्यां दंड आवै ।
जायगां छोडण रो काम नहीं छै, बहिस्यां पछै जाणे तो एकंत परठावै।। बारह प्रकार रो परठणो चाल्यो, सेज्यातरपिंड कह्यो तिण माह्यो। अजाणे बहिस्यां पछै खबर पड़े तो, आहार परठे पिण जायगां छोडे किण न्यायो॥ अजाणे आहार सेज्यातर रो बहिस्यो, जायगां छोडवा री धारी भोगवै आहार। तो पिण अजाण रो प्रायश्चित आवै, जायगां न छोडे तो परठणो सुविचार।।
(७८ आयाँ बेठां मात्रो करै) ९० पंचमी सुमति तणों जे कार्य, साधु करे आर्यां रे ठिकाणे।
आर्यां करे साधु रे स्थानक, तीजी सुमति ज्यूं पंचमी जाणे।। ९१ गवेषणा' ग्रहेषणा भोगेषणा, ए तीन भेद तीजी सुमति रा ताय।
साधु रे स्थान समणी आहार भोगवे, तिम हिज पंचमी सुमति जणाय॥
(८० माथो ढांक ने चालै) ९२ दिशा गोचरी ने विहार करंता, कारण बिन माथो ओढ़ी नहीं चाले।
व्यावच कीधां करायां निर्जरा, दशाश्रुतस्कंध संपदा सुगुण निहाले॥ (८७ कवाड़ी रो आहार लै)
१. जल को ठंडा करने के लिए पात्र पर लगाया जाने वाला वस्त्र २. जल पात्र को ढंकने का वस्त्र ७. प्रारम्भिक खोज। ३. पेड़ियां।
८. भोजन आदि ग्रहण करते समय जांच। ४. आयारचूला १८७,८८
९. भोजन आदि के उपभोग में उपयोग। ५. पास-पास।
१०. दसासुयक्खंधो ४।२३ ६. जिसके मकान में रात्रिवास हो, शय्यातर कहा जाता है। ३४८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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९३ सुध ववहार किवाड्या के रो, खोलाय ने बहिरयां दोषण नांहि ।
पवन ओषधि अर्थे खोले जयणां सूं,पोळ री बारी पिण खोले दिन निशि मांहि।।
(९२ मेह बरस रयां तुरत उठे) ९४ मेह बरसे छेहडे धीमो पड़े छै, कांयक बूंद पड़े पछै थंभे।
तिण सूं मेह वर्ष रह्यां तुरत उठै छै, सुध ववहार जाणी अवलंबे।।
(९३ फुहारा (परठ)) ९५ फुहारा' एकंत जयणां तूं परतै, प्रथम उद्देशे आचारंग मांय ।
प्रत्यक्ष दृष्टि आवे पाणी में, त्रस निजरां देखी न लीये मुनिराय ।। (९४ गुठली आंबा री आंबली री परछै) गुठली आंबा री में आंवली केरी, बहु आहार सहित बहिरयां दोष नाहि। घणो न्हाखणो पडे थोड़ो खाणो पड़े तो, ते आहार वौँ आचारंग मांहि।
(९६आमना जणावै सामाचार री) ९७ सावध आमना नाहि जणावै, पूछ्यां रो जाब सुध निरवद देवे।
अमकडिया पासे थे दीक्षा लेवो, 'आसोच्चा केवली' पिण इम कहेवे ।।
(१०० घणां साध साधवी भेळा रहै) ९८ घणां साधु साध्वी रहे भेळा तिण में, दोष कहै ते मूर्ख बालो।
पूछी निसंक जाणी सुध लेणो, दशवैकालिक पंचमें अध्ययन संभाळो।। ९९ घणां संत भेळा रह्यां दोष बतावे, ते कर रहया मूर्ख कूड़ी रूढ़ो।
अणहुंतो दोष परुपै अज्ञानी, बूडो रे बूडो निकेवल बूडो॥ १०० घणां साधु साध्वी रहे गुरु पासे, ते तो अधिक वैरागी अमूळो।
तिण मांहे दोष कहै कोई मूर्ख, ते भूळो रे भूळो निकेवल भूळो ।। १०१ घणां साधु-साध्वी रहै गुरु पासे, त्यां अधिक जीभ्या बस कीधी अपूठी।
उत्कृष्ट गुण ने अवगुण थापे, त्यांरी फूटी रे फूटी अभ्यंतर फूटी॥ १०२ दोय कोस तांइ करे गोचरी, शीत उष्ण कष्ट सहे अपूठो।
तिण निर्जरा धर्म में अधर्म थापे, ते झूठो रे झूठो निकेवल झूठो।। १०३ आधाकर्मी आदि रो नाम लेइ ने, दोष कहे मूढ़ बिना विचारो।
पूछी निसंकपणे लियां मुनि ने, दोष न लागे मूळ लिगारो।
१. पानी में पैदा होने वाले सूक्ष्म द्वीन्द्रिय जीव। २. आयारचूला १।१।३ ३. आयारचूला १५१३३,१३४।
४. किसी से धर्म श्रवण किए विना ही सहज
रूप से केवल ज्ञान प्राप्त करनेवाले। ५. दसवेआलियं ५.१११६
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१०४ घणां भेळा रयां में दोष बतावै, विवेक रो विकळ धर्म रो धेखी।
लोळपी के कष्ट खमणो दुर्लभ है, तसु प्रकृति रोग के उलंठ विशेखी। १०५ गुरु छंदे रयां शीख सुमति वृद्धि हुवै, निर्मळ चरण नी धारणा होवे।
प्रकृति वश हुवे नित्य गुरु वच सुण, प्रत्यक्ष गुण ने तो मूढ़न जोवे ।। १०६ बाणी सुणी ने केइ सल्य काढ़े, दोष निर्दोष बहु बोल धारे।
संपति गणि नी वलि सारण बारण, इत्यादिक गुण ते मूढ़ क्यूं न विचारे। १०७ द्रव्य क्षेत्र काळ भाव जाणे, आचारज अवसर देख घणां भेळा राखे ।
अवसर देखे तो अल्प ठाणे रहे, पिण मूर्ख बिच में पड़ी कांइ चाखे॥ (१०१ चिणा रा होळा नै सेक्या मकीया रा कण ले। १०२ गोबूंदा में ओषद री लकरी वासी राखी।
१०६ पाछली रात रा पग मात्रा सूं छांदै, चोपडै) १०८ चणा रा होळा मकिया रा कण लेणा, शरीर रे राख मसळे निशि मांहि।
रात्रि लघु नीत स्यूं कर धोवे, तप्त मिटावा ने तन रे पिण लगाहि ।।
(१०७ डावडो पड़ेला आमना जणाइ खेतसीजी) १०९ ऊंची जायगां साधु उतरिया, डावडा२ ने कहै या नहीं रहणो।
ते पिण हेला निंदा टाळवा काजै, तिणरो जीवणो बंछी न बोलणो बेणो॥
(११० लिखत करावणौ नहीं) ११० लिखत करावै ते दृढ़ मर्यादा, तिण माहे दोष कहै ते अयाण ।
आचार्य नी आणां धारणा वर्तवो, प्रथम उद्देशे पंचमें ठाण ॥ १११ आचार्य ने दृष्टि चित्त केडे वर्तवू, सर्व कार्य में आगल तसु करणा।
प्रथम आचारंग पंचमध्ययनें, चोथा उद्देशा मांहि ए निरणा।। (११३ कपड़ो विना पडिलेह्यां न वैहरणो।
११६ आयाँ रे कपड़ो कह्यो ज्यूं पनों राखणो इत्यादिक घणा कहया) ११२ कपड़ो जाचे ते उपर स्यूं पडिलेहणो, आर्यां रे पछेवड़ी च्यार।
तीन हाथ रा पना री च्यारूं, राख्या में दोष न दीसे लिगार ।।
(१२० आहार किसी वार री मरजादा नहीं) ११३ आहार किसी बार करणो साधु ने, वृहतकल्प रे पंचमें उद्देशे न्याय।
सूर्य उग्यां थी वृत्ति आहार री, आथम्यां सुधी कही जिनराय ।। (१२१ आहार में घी सूं चूरे तो सवाद आवै। १२२ कोरी रोटी न भावे तो तरकारी ल्यावै।
५. कप्पसुत्तं ५।६
१. उदंड २. छोटा बच्चा।
३. ठाणं ५।१६७ ४. आयारो ५४६८
३५० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१२३ दूध सूं रोटी मसळणी नहीं)
११४ रोटी घी स्यूं चूरे तथा दूध में मसळे, सहजे खांड आयां घाले खीर रे मांय । कारण बिना विगय तरकारी, मांगी नें नहीं ल्यावे ऋषिराय ॥
(१२४ किवाड़ जडे जठै रहै)
११५ किंवाड जडे तठे साधु रहे तो, लघु बड़ी नीत री जायगां मांहि होय । तो साधु नै दोष कोइ मत जाणो, मुनि किंवाड जडै उघाडे नहीं (१२८ दोय साधां नें न रहिणो चौमासा मांहै।
कोय ॥
१२९ तीन आय नें १३४ नसीत वाच्यां
न रहिणो चोमासा मांहै। विना चौमासो करै)
११६ दोय साधु तीन आर्यां ने, सेखे
चोमासे कल्पे
ताम ।
नशीथ वांच्या बिन संत सत्यां नें, दोय रात्रि उपरंत नहीं रहणो एकण गाम ॥ (१३० आर्या ने आडो न जड़णो कवाड़)
११७ ताळो किवाड़ जयणां सूं खोलायां,
आर्यां उतरे अवलोय | पोते पण खोले तो दोष नहीं छै, कूंची असूजती न मंगावणी कोय ।। ११८ साधु पिण साधवियां रे काजे, ताळो खोले तो दोष न कहणो ।
शीळ राखण श्रमणी किवाड़ जड़ै छै, कवाड़ न हुवै तो पछेवड़ी बांधी ने रहणो ॥ (१३८ गाम में धोवण पाणी वहिर नें विहार कीधो पाछो आवै तो त्यांरी वेहरणो नहीं) ११९ धोवण पाणी बहिरी विहार कीधो छै, पूठो आवे तो ते घर रो आहार । पछे नीपनो ते पिण लेवे, दूजे दिन आयां तो नहीं लेणो लिगार ॥ १२० विहार करंता आहार पाणी लेवे छै, असूझतो घर हुवै तिणवार । पाछो आवे तो ते घर रो न लेणो, बुद्धिवंत न्याय सूं लीज्यो विचार ॥ १२१ रात्रि साधु सती जे ग्राम रह्या छै, आहार बहिरयां तथा अणबहिरया सोय । पर गाम गोचरी जइ पाछा आवे तो, पाछे रह्यां री रीत ज्यूं यांरी पिण होय ॥ (१३९ ईर्या जोवतो वहरावण आयो पाछो जातो अजैणा करे तो वहिरणो नहीं) १२२ ईर्ष्या जोवतां बहिरावण आयो, पाछो जावतां जो करे अजयणां । तिण ने असूझतो हुवो किम कहिजे, बहिरावतां अजयणा करे तो नहीं लेणा ॥ १२३ रूपचंदजी ने अखेरामजी, स्वामी भीखणजी में काढ्या दोष । त्यां माहिला बहु बोलां रो उत्तर, सांभळ धारज्यो आण संतोष ॥ १२४ स्वाम भिक्षु दोयां ने समझावी, प्रायश्चित देइ लिया गण मांय । यां मांहिला कोई दोष बतावे, ते विवेक रा विकळ कहीजे १२५ सुध ववहार नी दाळ तीजी ए, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय उगणीसे परे तीज सुद मगसर, जयजश गणपति संपति
ताय ॥
प्रसाद ।
लाध ॥
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११ (५)
१२ (६)
ढाळ ४ दोहा
बोल गोचरी ना हिवे, आखूं छू छद्मस्थ ना ववहार में, सुध जाण किया सुध जाणो तो सेवज्यो, ए गणपति आणा ताय । असुध जाणे कोई बोल ने, तो दीज्यो छिटकाय ॥ महामुनिराया रे ।
अधिकार ।
अंगीकार ॥
मुनिवर ने सुखकार । म० । कांइ कह्या पंच ववहार । म० । कई सूत्र भगवती मझार । म० । कांई शतक आठमें सार । म० । कई अष्टमुद्देश मझार | महा० ॥ ध्रुपदं ॥
१. लय- आज आनंदा रे
1
३५२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
पृथ्वी हरी लगाय ने मुनिराया रे, न जाणो गाम पर गाम । महामुनिराया रे । भाग जागां हुवै मु०, तो दोष नहीं छै तांम |म० ॥ जाणे सचित रज लागती, तो रात्रि रहिनें प्रात । आहार पाणी जाची करी, आणे इण विध बात || करी गोगुंदा थी गोचरी, आया रावलिया रावलिया संत आगे हूंता, ते आहार भोगवे रावलियां संत आगे हूंता, ते दूजे जावे गोगुंदे गोचरी, दोष नहि तिण तथा रावलिया थी गोचरी, त्यां मेल्यां गोगुंदे पूठे संत आया नवा, कांई गाम रावलिया नवां संत आया छै तेहनें, कांई दूजै दिन मेले गोगूंदे गोचरी, तो पिण दोष नहीं छै तथा गाम न्हानों जाणी करी, कांई बहु संतां गोगुंदे राखे सही, कांइ घर फरसावण नित्य-नित्य गोगुंदा थकी, कांइ इक इक मुनिवर आय। तेहनो बहिरयो सहु भणीं, कळ रावलिया मांय || तथा गोचरी बिन कियां, निशि एकेक नित्य बोलावियां, तसु फर्थ्यो रावलिया संत आगे हुंता, तिहां गोगुंदा तिण बेळा नांदेसमा थकी, कांइ बलि आया
पिण
गाम ।
ताम ||
ताय ।
मांय ॥
ताय ।
मांय ॥
आम ।
ताम ॥
ने ताम ।
काम ॥
राखे पुर बार। कळ्पै आहार ||
थी आय । मुनिराय ॥
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जे गोगुंदा थी आविया, त्यां पासे घर फरसाय। दूजे दिन विहार कराय दे, पाछला ने कळपे ताय। तथा गोगुंदा थी आविया, ते दिन फर्श करे विहार। पूठे मुनि रह्या त्यां भणी, दूजे दिन कळपे आहार।। तथा गोगूदे थी आविया, कांइ ते दिन बहरी आहार। विहार करे विण भोगव्या, ते दिन कळपे सार। तथा गोगुंदा थी आविया, ते दिन ग्रही भोगव विहार। नहीं कळपे ते दिन ते घरे, दूजे दिन कळपे सार। गोगुंदा थी आविया, दूजे दिन बहरी विहार।
त्यां बेहुं दिन फा तिके, पाछला ने कळपे सार।। (१०) गोगुंदा थी आविया, कांइ दूजे दिन भोगवी विहार।
त्यां बेहुं दिन फर्ध्या तिके, पाछला ने न कळ्पे सार। (११) तथा गोगुंदा थी आविया, कांई घर फर्ध्या ते टाण।
संत रावलियां जे हुंता, त्यां मांड्यो पात्र अजाण ॥ गोगुंदा थी आविया, दूजे दिन करै विहार।
तो पिण त्यां सहु मुनि भणी, ते घर रो नहि कळपे आहार।। २१ (१२) रावलियां संत आगे हुंता, कांई गोगुंदा थी च्यार।
बे मुनि पहिला आय ने, बहिरे रावलियां आहार॥ पूठे जे बे मुनि हुंता, ते फर्शी बिचलो गाम। तिण दिन आव्या रावल्यां, घर नहि फर्ध्या ताम॥ प्रथम मुनि बे आविया, ते दूजे दिन कियो विहार।
पछे आया ते तिहां रह्या, तो पिण कळपे सार॥ २४ (१३) तथा रावलियां संत आगे हुँता, बलि गोगुंदा थी आय।
बेहुं संता घर फर्शिया, गाम रावलियां मांय।। विहार कियो दूजे दिने, मुनि आगला ताय। दोनूं ना घर फर्शिया, पाछला ने कळपे नाय।। रावलियां गोगुंदा तणों, कांइ ओळखायो ले नाम। इण अनुसारे जाणवा, कांइ अपर नगर पुर गाम।। इमहिज गाम माहे मुनि, केइ रहे पुर बार। गोगुंदा रावलियां नों कह्यो, तिमहिज जाणो सार।। विहार करी चोमासे नो, पुर बाहिर कळपे मास।
तिण कारण पर गांम ज्यूं, पुर बाहिर न्याय विमास। १. अवसर।
पंरपरा नीं जोड़ : ढा०४: ३५३
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प्रथम
विहार
मास-मास कळपे अछै, पुर बाहिर ने उद्देशे पेखळ्यो, वृहत्कल्प' में गोगुंदा थी करी, 'सेमटाल' रे करी गोचरी आविया, 'रावलियां' में कदाच जो दूजे दिने, 'सेमटाल' पहिले दिन घर फर्शिया, तसु कळपे अपर संत साथे हुवै,
फर्शे घर
कळपै मुनि दत्त
पाछा
तसु बहि अन्य मुनि भणी, संत मुनि किण गाम थी, घर फर्शी विहार कियो विन भोगव्या, अथवा भोगव शकुनादिक ना जोग स्यूं, कदाच घर पाछे नीपनों, पण कळ् पहिला घर हुवो असूझतो, विहार करी फिरी घर तसु कळ्पे नहि, घर असूझता रे पहिले दिन घर फर्शिया, दूजे दिन करी फिर आयां कल्पे नहि, नित्यपिंड विहार तणीं मन धार नें, घर फरस्या कदाच विहार हुवे नहि, नहि कळपे पछे विहार तणी मन धार नें, घर फरस्या केइक विहार कियो सही, केइक रह्या विहार कियो पुर बार थी, फिर आया किण पछे नीपनो घरें, कळपे तास ४० (१७) संत बहु किण गाम में, कांइ सहज कारणीक सोय ।
अणगार ।
तिवार ||
जोग ।
प्रयोग । |
कळपे उष्ण आथण तसु, नित्यपिंड न कळपे कोय ॥ प्रथम दिवस घर फरसिया, नहीं कळपे दूजे दीह । संत आया पर गाम सूं, तसु कळपे सुध लीह ॥ त्यां नित्यपिंड प्रभाते फरसिया, सुखे आथण कळपे नाय । कारणीक त्यांमें वे
अर्थे कळ्पाय ॥
सहज कारणीक जेह ।
२९
३० (१४)
३१
३२
३३ (१५)
३४
३५
३६
३७ (१६)
३८
३९
४१ (१८)
४२
४३
४४ (१९)
मांय ।
न्याय ॥
१. कप्पसुतं १ / ७ ३५४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
मांय ।
ताय ॥
ते आय ।
ते नाय ॥
जेह |
एह ॥
तिणवार ।
विहार ॥
आय ।
ताय ॥
आय ।
न्याय ॥
विहार ।
दोषण धार ॥
ते मुन्न।
निपन्न ॥
आगे मुनि मांहे हुता, तसु अर्थे नित्यपिंड घर तणों, नवा संत आणेह ॥ अधिक कारण हुवै केहनै, तो नित्यपिंड अन्नपाण नवा आगला मुनि बिहुं, कांइ बहरी आपे आण ।। २. सायंकाल
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४५ (२०) सहज कारण में भोगवे, नित्यपिंड औषध सार।
गोळी चूरण लवंग ने, हरडे झूठ उदार। अचित काली मिरच ने आंवला, कांई जीरो मेथी जाण। अजमो में आसाळियो, धाणा-लूण पिछाण।। नेत्र रक्षा रे कारण लिये, घृत ने मिरच बिदाम। आद देइ बहु जाणवा, गणि आणा सुं ताम।। वाय मेटवा ने लिये, कांई मेथी लकार' आदि। गरमी मेटण कारणे, माखण चरण-समाधि ।। अधिक कारण पच नित्य लियै, करवाली रंध आदि।
जीत ववहार भिक्षु तणों, तिण में नाहि उपाधि ।। (२१) किण ग्रामेबहु मुनि रहे, केइ राख्या पुर बार।
उत्कृष्ट बे कोस लगे सही, तास गोचरी न्यार।। इक-इक नित्य बोलाय ले, घर फरसावण काज। तो पिण दोष दीसे नहि, कळप जू जूओ साज। मास कळप बारै रहे, मास रहे पुर मांय।
कळप एह पर गाम ज्यूं, तिण सूं दोषण नाय।। ५३ (२२) किण गामे बहु मुनि रहे, केइ राख्या पुर बार।
पुर रहे ते घर फरसता, थयो असूझतो तिण वार ।। पुर बाहिर थी बोलाय ले, तथा अपर गाम थी सोय।
तो पिण दोष दीसे नहीं, जुदी गोचरी जोय। (२३) बिहार करी बहु मुनिवरू, केइ आया पुर माय।
बहिरता त्यांरे हुवो, असूझतो घर ताय।। पूठे मुनि पर गाम नी, अथवा ते पुर बार।
करी गोचरी आविया, तसु ते घर कळपे सार। (२४) त्यां बीच गोचरी नां करी, घर असूझतो जेह।
पुर आया कळपे नहि, साथ विहार करेह।। ५८ (२५) साथ विहार धुर सूं कियो, केइ मुनि रयाज लार।
केइक पुर बाहिर रह्या, नहि करी गोचरी सार।। केइक पहिलां गाम में, करी गोचरी आय। पछे नीपनो आहार ते, पछला ने कळपे नाय।।
३. दलिया आदि।
१. लड्डू २. रोटी
पंरपरा नी जोड़ : ढा०४ : ३५५
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६० (२६)
६१
६२ (२७)
६३ (२८)
६४ (२९)
६५
६६ (३०)
६७
६८ (३१)
६९
७०
७१ (३२)
७२ (३३)
७३
७४
७५
मुहुंता, थयो असूझतो बहिरन्न ।
दिन्न ||
भाळ ॥
ए तीनूं कल्पे सही, नवा आया ने निहाळ । तसु बहिरयो बीजा भणी, कळपे मुनि दत्त विहार करे दूजे दिनें, विण भोगव्यां नवा त्यां पहिले दिन फरसिया, कल्पे आगला ने जगी || विहार कियो दूजे दिने, केइक
मुनीश ।
नवा पिछाण ।
किण ही गामें अथवा पाछे नीपनो, तथा पर्थ्यो पहिले
घर नो आहार ॥
नवा अणगार । आहार ॥
आय ।
इक नवा तिहां रह्या, नहि कळपे किण ग्रामे बहु मुनि हुंता, त्यां करी तठा पछे मुनि आविया, त्यां नहि पण तसु दीधूं भोगव्युं, दूजे दिन कळपे त्यां मुनिवर भणीं, त्यां फरस्या किण गामे बहु मुनि हुंता, बलि आया पछे करी आगला गोचरी, नवा न बहिर्य पिण तसु दीधो भोगव्यो, दूजे दिन आगला विहार । कळ त्यां मुनिवर भणी, त्यां फरस्या घर नो आहार ॥ किण गामे मुनिवर हुंता, नवा संत बलि चोविहार तप तेहनें, पिण ग्रहवा रो कल्प संत आगला रे तिके, नितपिंडादि त्रिहुं नवा संत आणे दियो, तसु दोष न दीसे भोगवण रा तसु त्याग छै, पिण ग्रहिवा रा नहि तिण सूं अन्य मुनि कारणे, बहिरे ते साध्वियां पर गांम थी, आहार उदक आ सिर खंध धर करी, ईर्या तथा साध ने साधवी, विहार गोचरी मांय । असणादि बिहुं कर ग्रहे, तो पिण दोषण नाय ।। पाछे बोल कह्या तिके, भिक्खु भारीमाल ऋषिराय । तसु बारे पिण रीत थी, तिण सूं दोष नहीं तिण मांय ॥ उगणीसै पनरे समे, विद फागण जयजश गणपति लाडणूं, कांइ जोड़ी सरस सुजाण ॥ दाल चतुर्थी नें विषे, कह्यो जीत ववहार सुजास । भिक्षु भारीमाल ऋषिरायथी, जयजश हर्ष विलास ॥
सहीत सुखदाय ॥
तीज पिछाण ।
३५६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
सहु ने जाण ॥
गोचरी सार । आहार ॥
बहिरयो
आगला विहार ।
जणाय ॥
जोय ।
कोय ॥
त्याग ।
महाभाग ॥
वत्थ ताय ।
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ढाळ ५
दोहा ना बलि, आखू छठा तणों, पंचमी
१
बोल , जीत
गोचरी ववहार
छू अधिकार। ढाळ उदार ॥
२
'अखिल आचार हिये धरणा रे, सुध आचार हिये धरणा। जीत ववहार तणी जिन आणा, तास अंगीकरणा ॥ध्रुपदं॥ नाज संघटे गृहस्थ बेठो रे, वंदन अर्थे ऊठ मुनि पद प्रणमत चित सेठो। हिवे बहिरावण मन हींसे रे, तास हाथ स्यूं लीधा मुनि ने दोष नहीं दीसे। प्रथम बहिरावण रे काजे रे, सचित्तसंघटा थी तो नहीं उठ्यो पूछयां भ्रम भाजे। निसंक करने मुनि वर बहिरे रे, सुध ववहार प्रवर्ते तिण ने उत्तम कुण चेहरे।।
बली गणपति कहे ज्यूं करणारें ॥जीत०॥ पृथ्वी पाणी रा संघट थी, वंदन ने उठ्यो तो पिण नहीं लेणो तसु कर थी। सूक्ष्म रज जाणी ने टाले, अपर बोल आणा गणपति नी तन मन सुध पाळे॥ बलि मुनि आवंता देखी, रोटी फेर तथा लकड़ी चूळा में दे पेखी। तथाबलि अपर सचित जाणी, निज पोता रे निमत्त अलग मेल्या ते पहिछाणी॥
तास कर सूं पिण परहरणा॥
४
मुनि गोचरी गयां पहली, असूझती जे वस्तु हुवै ते संत निमित्त वहली। सूजती करे को अयाणा, किण हि खेत्र में ते वस्तु तिण दिन नहि ले स्याणा।। तेहिज क्षेत्रे पिण तसु कर स्यूं, अन्य चीज पिण नहि लेणी ते असूजती धुर स्यूं। अन्य क्षेत्रे तेहनें हाथे, वस्तु अनेरी लीधां दोष दीसे विधि बाते॥
असूझतो घर नहि उच्चरणा॥ किण हि क्षेत्रे मुनि बहिरंता, असूझती जे वस्तु हुई ते नहि ले गुणवंता। अन्य क्षेत्रे पिण ते ढालें, अन्य चीज अन्य क्षेत्रे तास कर लिये आण पाळ। जास घर असूझतो थायो, तिण क्षेत्रे हर कोई वस्तु नहि ले मुनिरायो। अन्य क्षेत्रे वस्तु बीजी, तेहज घणी नी चीज लिया दोषण मुनि ने नहीं जी॥
जूवा क्षेत्रां नां कर निरणा॥ हवेली मांहे इक जाणी, मोड़ा बाहिर चोको प्रमुख जुदो ते पहिछाणी। हाट घर जुदो प्रत्यक्ष दीसे, नोहरा नो निकाल जुदो ते पिण न्यारो कहीसे। धणी बे इक घर बेहचाणो, ते पिण खेतर जुदो-जुदो छै न्याय हिये आणो।
६
१. लय-अमरापुर को पंथ सदा श्री जैन धर्म..."|
पंरपरा नी जोड़ : ढा० ५: ३५७
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बली मेड़ी ओरो भाडै, ते पिण खेतर जुदो जाणवो गणि आणा सारै।।
हिवे चूलां' ना उच्चारणा।। हवेली एक मांहि जांणो, दोय चूला पिण सगळां रो जीमण भेळो माणी। बिहूं चूलां रो इक खेतं, हिवे चूला तो जुदो क्षेत्र सांभळज्यो समचेतं ।। हवेली एक बंधव च्यारो, इक कोठी नो धान खावे चिहुं चुला तसु न्यारो। प्रथम दिन ले इक बंधव नो, बीजे दिन बीजे चूले ले तास तथा पर नो।।
असूजता में इमहीज वरणा। गृहस्थ घर दोय तणां ज्यांही, करत रसोइ इक चूले जळ लूण भेळो त्यांही। एक दिन इक घर मुनि फरसे, दूजे दिवस लिये बीजा नो दोषण ना दरसे॥ एक घर असूजतो होयो, तिण कर तिण चूले बीजा नी वस्तु ले जोयो। एक नी जायगां उत्तरीयां, सेज्यातर में बेहुं टाळणा लवण पाणी भिलिया।
निमळ ववहार हिये धरणा। सेठ ने दोय त्रिया जाणी रे, एक हवेली जुदी-जुदी रहे जुदो क्षेत्र माणी। सेठ जीमे बारे-बारे, इक दिन ल्होड़ी रे बीजे दिवस बड़ी तारे॥ एक रे असूजतो हुवो रे, तो बीजी रे वहिरे मुनिवर क्षेत्र जाण जूवो। सेठ सेज्यातर जो होयो रे, तो दोनूं रो आहार न लेणो धणी एक जोयो।
बहु विध हैएहना निरणा। भरत श्रेणिक प्रमुख रायो रे, बहु अंतेउर जुदा-जुदा रहिवास तास थायो। मुनि बहिरंता अन पाणी रे, असूजता में नितपिंड नी इक रीत क्षेत्र माणी।। बारह व्रत धारक बह राणी रे, व्रत बारमो निपजावा मन अधिक हर्ष जाणी। इत्यादिक न्याय बहु पेखी रे, क्षेत्र जुदा नो जीत परम्परा जाणो सुविशेखी।
ढाळ पंचमी अदल निरणा।
१०
१. चूल्हा ।
३५८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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ढाळ ६ दोहा
(२)
(३)
असूझतो घर किम हुवै, तसु विवरो कहिवाय।
असूझतो घर ना हुवै, ढाळ छठी में न्याय॥ गयो गोचरीये मुनिराज, गृही घर असणादिक काज। सचित्त स्यूं कर खरड्या के नाय, इसडी साधू रे मन-माय।। साधु वयोँ नहि ते प्रस्ताव, तुज कर सूं लेवा रा न भाव। थोड़ा घणो हलावी हाथ, गृहस्थ दिखावे मुनि ने विख्यात॥ साधु हाथ देख्यो अवलोय, सचित्त रत खरड्यो कर जोय। हुवो असूझतो घर तेथ, तिण दिन बहिरणो नहि ते खेत॥ आहार पाणी आदि वस्तु वरणी, बाजोटादिक राख कतरणी। तिणरी वस्तु ते क्षेत्र मझार, तिणहिज दिवस न लेणी लिगार॥ हुवो असूझतो ते खेत, तिहां दूजा री वस्तु सचेत । तिणहिज दिन मुनिवर लेवे, तिण मांय दोष कुण केढे ॥ सचित स्यूं खरड्यो के नाय, मुनि कहे तूं हाथ मति हलाय। वा पछे गृह हाथ हलाय, साधु ने बतावे ताय। साधु सचित्त स्यूं खरड्यो कर जाण, तिणरा कर स्यूंन लेवे पिछाण। तेहिज असूझतो हुवो सोय, घर असूझतो नहि कोय ।। मुनि गृही ने असूझतो देख, हां नां न कह्यो सुविशेख। तिणरा कर स्यूं लेवा रा न भाव, 'आरे कियो नहीं' ते प्रस्ताव॥ बहिरावा में उठ्यो धर मन्न, तेहिज असूझतो तिण दिन्न । घर असूझतो मत जाणो, आरे न कियो ते न्याय पिछाणो॥ किणरे मनुष्य घणां घर मांय, एकण ने आरे कीधो ताय। बीजा ने तो आरे नहीं कीधा, सहु उठ्या बहिरावण सीधा।। ज्यारे सचित्त रो संघटो होय, तेहिज असूझतो अवलोय । तिण दिन त्यांरा हाथ सूं न लेणो, पिण घर असूझतो नहि कहणो।। गृही घर गयो बहिरण मुनिराज, गृहस्थ उठ्यो बहिरावण काज। साधु हां नां कह्यो नहिं चाव, सूझतो छै तो लेवा रा भाव।।
(४)
१३ (५)
१. लय-विना रा भाव सुण सुण गूंजै।
२. स्वीकृति नहीं दे।
पंरपरा नी जोड़ : ढा०६ : ३५९
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१८ (७)
साधु जायगां पडिलेही विमास, हेठे सचित्त निकळ्यो तास।
घर असूझतो थयो ताय, कांइक आरे कीधो इण न्याय ।। १५ (६) गयो गृही घर बहिरण मुनिंद, तिण ने पहिला वरज्यो तज धंध।
तूं ऊठे मत कदाचित सोय, थारे हेठे सचित्त जो होय।। तिण सूं चोफेर जायगां पडिलेहूं, तथा और कने आहार लेऊं। इम बरज्यो तिण ने ऋषिराज, गृही उठ्यो बहिरावण काज।। हेठे सचित निकल्यो पिछाण, तेहिज असूझतो थयो जाण । घर असूझतो थयो, नाय आरे कीधो नहीं मन-मांय॥ घर बाहिर मुनि ने देख, गृहस्थ उठ्यो बहिरावण विशेख।
हेठे सचित्त देखी मुनिराय, तेहिज असूझतो थयो ताय ।। (८) घर बाहिर मुनि ने देख, अजयणा करी वस्तु विशेख।
आधी पाछी करे कोइ गृहस्थ, अशुद्ध थया दातार ने ते वस्त। (९) घर में आया देखी मुनिराज, असंयति गृही साधु रे काज।
साध नां नां करता जोरी दावे, सचित्त संघटा स्यूं वस्तु उठावे॥ थयो असूझतो ते दातार, बले वस्तु असूझती धार।
घर असूझतो नहि कहीज, किण ही क्षेत्र न लेणी ते चीज। (१०) मुनि ने खबर नहीं ते टाणे, साधु ने बहिरावण वस्तु आणे।
आवता सचित्त संघटीजे, ते दातार वस्तु असूझती कहिजे॥ (११) साधु आरे कीधो तिण वार, बहिरावण उठ्यो दातार।
सचित्त रहित पुरुष रो जोय, चालतां संघटो हुवो सोय।। २४ सचित्त रो संघटो हुओ नाहि, किलामना न उपनी कांई।
तिण ने असूझतो नही कहेणो, सुध ववहार जाणी ने लेणो॥ (१२) साधु दातार ने कियो आरे, सचित्त सहित पुरुष नो तिंवारे।
संघटो थया हुई जीव घात, इम असूझतो घर थात ।। किण ने कियो मुनि आर, बहिरावा ने चाल्यो दातार।
इतले किण ही मूळा री दीधी, तथा और सचित्त री प्रसिद्धी॥ २७ (१३) तथा बहिरावण जाता सागी, मेहादि जळ नी छांटा लागी।
घर असूझतो थयो तेथ, तिण दिन लेणो नहीं ते खेत ।। २८ (१४) कछोटी रे संघटै बैठी बाई, तिण रे सरीर लागे छै ताहि।
जळ लोट्यो लूण रो ठाम, कछोटी रे संघटे पड्यो ताम।। १. कठोती ३. बर्तन २. लोटा
३६० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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तिण रे हाथ सूं आहार न लेणा, कछोटी हाल्या होय अजेणा।
कछोटी रे संघटे तन जाण, कछोटी हालवा रो ठिकाण।। (१५) तथा कछोटी रे पलो लागे, सचित्त कछोटी री संघटे छै सागे।
देतां अजयणा' न जाणे लिगार, लेवे देखी शुद्ध ववहार ।। लूण पाणी रा ठाम छै सागे, संघटे बेठो तथा पलो लागे।
तिण रा हाथ स्यूं न लेणो आहार, लूण पाणी सूक्ष्म विचार॥ (१७) साधु गोचरी गयो तिवारे, दातार ने कीधो आरे।
बहिरावत हाथ सवा हाथ, ऊंचा स्यू पड़ी वस्तु विख्यात॥ ते वस्तु न्हानी-फोरी जाणे, अजयणा न भ्यासे तिण टाणै। तिणरा कर स्यूं आहार पाणी बेहरे, जाण ववहार ना नहीं चेहरे।। नान्ही फोरी वस्तु किण ने कहिये, आचार्य कहै ते सरधहिये।
ते पिण बुद्धिवंत स्यूं मिल थापे, तिण ने उत्तम नहीं उथापे। (१८) सवा हाथ थकी उपरंत, एक चावळ ऊंचा थी पडत।
जद असूझतो घर थायो, इमहिज रांध्या मूंग मोठ तायो॥ ३६ (१९)
ओडो, छाबल्यो धान भर्यो पेख, ऊपर वस्त्र स्यूं ढांक्यो विशेख। वस्त्र रे पलो लागो बहिरातं, इम असूजतो घर थांत ।। धान भर्यो ओडा ऊपर पेख, मोटी वस्त्र री गांठ छै एक।
बहिरावता गांठ पलो लागंत, अजयणा न जाण्या लिये संत॥ (२१) बलि ओडो धान समेत, तथा ऊपर वस्त्र गांठ तेथ।
बहिरावता तन फरसावे, तो असूझतो घर थावे।। (२२) असंयति गृहस्थ तिण वार, बहिरावा काज खोल्यो किवाड।
ते रस्ते गोचरी न जाणो, बीजे रस्ते निर्दोष पिछाणो॥ (२३) घर मांहि ओरा रो किवाड़, कांइक बहिरावी खोल्यो तिवार।
जब तो असूझतो घर थायो, पहिला आरे कीधो इण न्यायो। कांइक बहिरी बलि बहिरावंत, मुनि वर्जत किवाड़ खोलंत।
वस्तु किवाड़ मांहली लीह, दातार असूझतो ते दीह ।। ४२ (२४) एक पोळ में घर दोय च्यार, तिण माहिले एक खोल्यो द्वार।
मुनि बहिरावा भाव आणो, तिण रस्ते पिण घर नहीं जाणो।। लोग आया गया तिण पंथ, एक मुहूर्त पाछे संत। पोळ में दूजा रे घर तिहां जायो, दूजा तो किवाड़ नहीं खोलायो॥
(२०)
३. दिन।
१. अयत्ना २. हल्की
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निराज।
४४ (२५) एक पोळ में घर दोय च्यार, सगळाइ खोलायो किवाड़।
तिण रस्ते सगळां रे न जाणो, बीजे रस्ते निर्दोष पिछाणो॥ ४५ (२६) साधु अर्थे खोल्यो है किवाड़, किवाड़ बारली वस्तु ले सार।
रस्तो असूजतो सद्दहिये, घर असूझतो नहि कहिये ।। ४६ (२७) धणी रा कयां विना किवाड़, दूजे खोल्यो मुनि अर्थे धार।
तिण रस्ते इक मुहूरत तांई, बहिरावा काजे जाणों नाहि ।। लोक आया गया निज काज, एक मुहूर्त पछे मुनिराय। जावे तिण घर बहिरण तांइ, घर रो धणी खोलावा में नाहि। धर्म द्वेषी दूजा रो किवाड़, खोल्यो कलुष भाव मन धार। जो ए इण घर बहिरण जाय, तो हूं निंदसू लोकां मांय ।। तेहनी पिण पूर्व रीत, लोक आयां गया सुवदीत।
एक मुहुर्त पाछे पिछाण, जाए गोचरी तिण मग जाण ।। (२८) शेषे काळ चोमासे ताम, गोचरी कळ्पे पर गाम।
दोय कोस तांइ मुनिराज, जाए आहार पाणी रे काज। (२९) गुरुआदिक रा दर्शन
सुखे दोय कोस उपरंत, तो तिणहिज दिन पाछो आवंत। (३०) बले गाम तथा पर-गाम गोचरी करता गुण धाम।
सचित्त लगाय ने नहीं जाणो, हिवै तिणरो न्याय पिछाणो॥ उभा पग देवे तितरी है जाग' तो दोष नहीं तिण माग।
उभा पग देतां जो लग जाय, ते उपयोग री खामी जणाय॥ ५४ (३१) इमहिज चौमासे दर्शन काज, सचित्त टाळी जावे मुनिराज।
सेखे काळ जइ रहै रात, तिण री तो जुदी छै बात ॥ (३१) बाजरी माल ने समलाइ, सांमो चीणो मलेचो कहाइ।
इत्यादिक यां स्यूं मिलता पेख, न्हाना धान कया सुविशेख॥ एहवा नान्हा धान रो जाण, आटो छाण्यो अछाण्यो पिछाण।
तिण रे संघटे न लेणो आहार, तिणरो बुधवंत न्याय विचार॥ (३३) ए न्हाना धान तणों आटो ताय, पड़ियो है कछोटी रे माय।
ओसणियो तथा अणओसणियो, कछोटी माटा मांहि धरियो। तिण रे पलो लागो बहिरात, लीधां दोषण नहीं जणात । जो संघटो सरीर नो लागै, नहि लेणों असणादिक रागे॥
१. जगह। २,३,४,५ एक प्रकार के सूक्ष्म दाणे वाले धान्य विशेष।
३६२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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५९ (३४) गेहूं जव मक्की चणा जवार, इत्यादिक मोटा धान विचार।
यांरो छाण्यो आटो बहिरंत,अछाण्यो नही लिये संत॥ ६० (३५) आहार थोड़ो जाणे तो सुचंग, मोटा धान रा आटो ले मंग।
ओसणियो तथा अणओसणियो, राग द्वेष रहित अनुसरियो। तिण में नीसरे धान रो दाणो, तो घर असूझतो हुवो जाणो। सुध ववहार जाणी ते लेवे, तिण में बुद्धिवंत दोष न केहवे॥ घृत तेल दूध दही मांहि, धान रो दाणो नीसरे ताहि ।
तो घर असूझतो नहीं थाय, तिण रा फर्श स्यूं अचित्त जणाय।। (३७) मुनि कीधो दातार ने आरे, छींक उवासी आइ तिण वारे ।
नाकस्यूं सूं सूं कियो ने खांसी, घर असूझतो नहीं थासी।। ६४ (३८) आरे किया पछेदातार, अजयणा स्यूं थूके तिणवार।
घर असूझतो जद कहणो, जेणा स्यूं थूक्यां तसु कर सूं लेणो॥ (३९) आरे कियां पछे मन रंगे, अजयणा सूं तमाखू सूंघे।
तो असूझतो घर केहणो, जयणा सूं सूंघ्यां तसु कर लेणो।। ६६ (४०) दातार रे मंढा में जाण. छोल्या सांठा रोगहो पिछाण।
दातार तिणरा कर स्यूं लियां दोषण नांय छोल्यो गट्टो अचित कहिवाय॥ साधां ने बहिरावता सोय, सांठा नो गट्टो छूहो जोय। तिण ऊपर जो पग लागे, तिणरा कर सूं बहरी लिये सागे।
आंधो पांगुलो छै कोइ भाई, अथवा पूरे मासेछै बाई इत्यादिक एहवा कारण वाळो, सूझतो बेठो तिण काळो।। कोइ सूझतो लेइ आहार, ज्यांरा मूंदे आगे म्हेले सार। तिण हाथ सूं ले मुनिराय तिणमें दोषण कहीजे नांय ।। सूजती पूर मासे बाई, साधु ने बहिरावा तांई दूजो सूझतो आहार लेवा ने, गयो तसु कर स्यूं बहिरावा ने॥ पूरे मासे बाई बेठी जेहने, सहजे सचित्त आवी लागे तेहने।
घर असूझतो न कहाय, बहिरावा रो कार्य जद नाय॥ (४३) तिण रा मुख आगल मेलवा ने, कोई गयो वस्तु लेवा ने।
सचित्त लागां असूजतो थायो, पहिला आरे कीधो मुनिरायो।। (४४) साधु वर्जतां पिण दातार, बहिरावण उठ्यो तिण वार।
सचित्त ऊपर लागो पाय, तेहिज असूझतो कहिवाय॥ तिण उपाइयो धोवण रो ठाम, साधु ने बहिरावण काम। सूझती रोटी आदि उपाड़, साधु ने देवा री मन धारी।
109)
७४
पंरपरा नी जोड़ : म०६ : ३६३
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जोवो
त्रिण च्यार दातार ।
आरे किया अणगार ॥ संघटो हुवो तिण रे ।
पिण तिण पगलो न भरियो तिवार, तिण रा कर स्यूं न लेणो लिगार । अनेरा नां हाथ सूं ते चीज, लीधां दोष किसी पर कहीज || वस्तु उठाय ने पग भरियो, साधु नें देवा संचरीयो । तो ते वस्तु अनेरा' ने हाथ, बहिरे नही मुनि विख्यात | ७७ (४६) साधु वरजतां पिण दातार, बहिरावा उठ्यो तिण वार । सचित्त वस्तु छै तिणरे पाहि, तेहिज असूझतो कहिवाहि || तिण उपाड्यो धोवण रो ठाम, तथा ढाकणी अळगी करी ताम । तथा रोटी कर सूं संघटाय, अन्य कर स्यूं पिण ते लीये नांय || तिण ने आरे न कीधो सोय, घर असूझतो नहि होय । आरे किया असूझतो थाय, विचार मन मांय || ८० (४७) साधु गोचरी गयो तिवार, बोल्या बे सहु देस्यां थोड़ो-थोड़ो आहार, सहु ने सहु बाहिरावतां एकण रे, सचित्त घर असूझतो इम थाय, आरे कीधा तिण न्याय || साधु गोचरी गयो तिवार, बोल्या बे त्रिण च्यार दातार । म्हारा सहु रा बहिरावण रा भाव, साधु बोल्या ते प्रस्ताव || अमकडीया रा कर स्यूं सोय, मुज बहिरवा रा भाव होय । ओरां ने तो आरे नही कीधा, सहु उठ्या बहिरावण सीधा ॥ आरे न कियां सचित्त संघटाय, घर असूझतो नहि थाय । सचित्त लागो आरे कियो जिण रे, घर असूझतो हुवो तिण रे || जळ लोट्या रे संघटे बेठी बाई, दूजी बहिरावण वाळी आई बहिरावण वाळी कनै बाल, संघटे वाली ने सूंपे ते काळ ।। तो पण तिरा कर स्यूं न लेणो, आरे कीधां असूझतो केहणो । पहिलां बरज देवे मुनिराय, तो तेहिज असूझतो थाय ॥ छठी दाल बहु न्याय समागम, उगणीसे सोलह महाविद आठम । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, सुख संपति ज़यजश पाय ॥
७५
७६ (४५)
७८
७९
८१
८२ (४८)
८३
८४
८५ (४९)
८६
८७
१. अन्य
३. अमुक
३६४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
२. पास
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१
दोहा
कुण-कुण वस्तु हाथ सूं, लेवे महा मुनिराय । ढाळ सातमी ने विषै, जीत परंपर मांय ॥ 'धोवण उष्णोदक, कर स्यूं ले मुनिराय । जल इकबीस जात नूं, बलि तसु मिलतो ताय ॥ आचारंग दूजे, प्रथमध्ययन पिछाण । सप्तम अष्टम उद्देशे, वारू श्री जिण बाण ॥ कर स्यूं ले आछण, इकबीसा में ताम | वर अर्थे अनूपम, आछण एहवो नाम ॥ उन्ही छाछ उपरली, मुनि निज कर स्यूं उतारी । आछण ले तेह में, दोष न सुध ववहारी ॥ बलि मांड चावळ नों, ते पिण
कर स्यूं लेवे । विवेकी
इक बीस जात में, न्याय
वैवै ॥
कर स्यूं लेवे
ताम ।
बलि ओषध - भेषज, दान चवदे
तेहना
कितायक
नाम ।
हिवे विगत ओषधी, हुँ अचित्त मीरच नें जीरो, एलायची नें बिदाम ॥
अभिलाख ॥
बलि उचित सिंघाड़ा, नोजा, पीस्ता, दाख | खारक, सोपारी, इसबगुल, १० अजमो आसाळ्यो, मेथी ने बलि अनारदाणा, अचित्त किया
११ बलि लवण, जायफळ, पबोड़ी, करस्यूं ले बिराली, अचित्त कियां १२ लवंग, सूंठ, गूंद, बलि, कस्तूरी बलि अचित्त नींवझर, गोली
२
३
४
५
६
19
८
९
ढाळ ७
१. लय-नमूं अनंत चोबीसी
२. आयार चूला १ । १०१
प्रकार में, न्यारा
३. अरेठा के बीज
४. इमली के बीज
नाम ॥
खुरमाणी ।
ले जाणी ॥
कूंगा" पेख ।
सुविशेख ॥
नें कपूर ।
भूर ॥
चूरण
पंरपरा नीं जोड़ : ढा० ७ :
३६५
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१३ बलि अचित्त पीपळ ले, हळद, लोद, ले हाथ । बलि कुटक चीरायतो, नींबू अचित्त विख्यात ॥ १४ बलि दाळचीनी ले, जावंत्री ने खटाई ।
लकड़ी ताई ||
कायफळ ने फिटकड़ी, मेदा १५ दाडिम नों छोडो', अमल,
तमाखू जाण ।
मुरबा रा आंवला, गुळकंद, सेत पिछाण || १६ हरडे, बेहडा, आंवला, सोनामुखी, नसोत । खेरसार एलियो, ओषध अर्थ सुहोत ।। १७ इत्यादिक वस्तु, ओषध अर्थे जाण । कर स्यूं ले मुनिवर, बलि मांगी ले पिछाण || १८ ए सगली वस्तु, ओषध विन मुनिराय । कर स्यूं नहीं लेवे, बली मांगी ले नांय ॥ १९ नित संघण खावण, लिये तमाखू आद । अंजन कर स्यूं ले, बलि तनु-लेप संवाद ।। २० ए सगळी वस्तु, पाडियारी मुनिराय । जो पाछी देवे, तो पिण दोषण २१ लूंग सूंठ आद जे, गृहस्थ
धामे
कारण सूंठ आद जे, २२ लवंग, सूंठ आद जे, हिवै कुणकुण वस्तु, ओषध
कर स्यूंन
२३ गुल, खांड, पतासी, दूध दही पकवान ।
२५ माखण
घृत, ओषध अर्थे पिण, कर स्यूं न लिये जाण ॥ २४ लाडू मेथी ना, खाजा, सांकुली आद। ओषध अर्थे पिण, कर स्यूं न लिये साध ॥ बूरो, के पाक तरकारी । ओषध अर्थे पिण, कर स्यूं न लिये लिगारी ॥ २६ कपड़ा रे लगावा, तेलादि पहिछाण । कर स्यूं नहीं लेवे, गणि आणा अगवाण ।। २७ तन मरदन काजे, कर स्यूं लेवे तेल । पिण घृत नहीं लेवे, ए सुगुरु आण शिष्य झेल ॥
१. छिलका
२. शहद
३६६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
ओषध निज ओषध निज
नांय ॥
जोय ।
लेवो ।
कर
कर लेवो ।
ग्रहेवो ॥
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२८ वस्त्र तन रे लगावा, मेण, गुगळ कर आण।
ओघादि धोवण, गूंद आणे निज पाण। २९ गृहस्थ री आज्ञा स्यूं, ऍबड़ादिक तन काज।
आटो ले कर थी, बलि मलम चरण सुख काज।। ३० पात्रा रे लगावा, तेल अनें रोगान।
कर स्यूं नहीं लेणो, जीत ववहारे जाण॥ ३१ लखारादिक अन्यमति, तेह तणी ए रीत।
जो हरख धरि कहै, ल्यो थे कर सूं नचीत।। ३२ दृढ़ श्रावक बले रागी, तेहनां कर सूं ल्यावै।
चावै सो लेइ,ते दिन पाछो ठावे ।। ३३ पाडियारो कही ल्यायो, पिण ते दाय' न आयो।
निशि राख्यां विण सूंपै, तो पिण दोषण नायो।। ३४ कपड़ो निज कर स्यूं, पाडियारो मुनि ल्यावे।
पछे गृही ना कर स्यूं, बेहरी ने वरतावै।। ३५ गृही ने कर जाची, पाडियारो जो ल्यावे।
पछे धारी फाड़ दे, तो पिण दोष न थावे॥ ३६ गृही कर थी तंतु, आधो कदाचित ल्यावे ।
पछे धारी न देणी, न कल्प्यां परठावे।। ३७ स्याही में हींगळू, गोळी संपेतो जंगाल। __इत्यादिक रंग बहु, कर स्यूं ले मुनि माल ।। ३८ पात्रा रे लगावा, साजी गोबर छार।
बलि और कारण ए, कर स्यूं ले सुविचार।। ३९ डोरा सूत में डांडी, पाटी पूठा पेख।
कर स्यूं ए लेणा, जीत ववहार सुलेख॥ ४० राब छाछ में रोटी, अपर बलि अन्य जात।
कर स्यूं नहि लेणा, ए परंपर बात ।। ४१ मकिया रा कण पिण, कर स्यूं खेर न लेणा।
रस ने बलि होळा', इत्यादिक इम कहणा।। ४२ ए वस्तु कही छै, तेह तणे अनुसार।
केइ कर स्यूं लेणी, केइ न लेणी लिगार।
१. पसंद २. एक प्रकार का रंगविशेष।
३. राख। ४. कच्चे भुने हुए चने।
पंरपरा नी जोड़ : ढा०७: ३६७
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४३ कहि कहि कहुं कितरो, वस्तु बहु जग जाण।
गणि आणा आपे, तेहिज करज्यो प्रमाण।। ४४ कारण विन मुनिवर, विगय व्यंजन तरकारी।
मांगी ने न लिये, बलि मिरचादि विचारी॥ ४५ कारण स्यूं मुनिवर, विगय व्यंजन तरकारी।
मांगी ने लीधां, दोष नहीं छै लिगारी।। ४६ पाणी छाछ आछ ने, आटो रोटी आदि।
क्षुधा मेटण ने, मांगे भाव समाधि ।। ४७ बलि क्षुधा मेटण ने, राब मांगी ने ल्याय।
कांठा री कोर नी, राब व्यंजन में जणाय।। ४८ छाछ राब तणी परे, मांगी इखु रस ल्यावे।
पिण लोळपणां नी, चित नी लहर मिटावै।। ४९ भिक्षु भारीमाल, ऋषिराय सुपसाय ।
जयजश सुख संपति,गण वृद्धि हरख सवाय।। ५० चालीस निनाणु, संत सत्यारा मेळा।
वर शहर लाडणूं, गणि संपति रंग रेळा।।
३६८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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लघु रास
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दोहा
३
१ क्रोधी मांनी लोळपी, वलि अविनय कपट अथाय।
(तिण री) वणी खुराबी अति घणी, ते सुणज्यौ चित्त लाय॥ चौपाई'षट अवनीत' तणों अधिकार, ते सांभळज्यो बह विस्तार। मूळगा नाम अछै तसुं ताही, ते तौ इहां नहीं कहिवाई।। अधिक अवनीत दूजो तीजो ताम, चौथो पांचमो छठो ए नाम। एहिज नाम संज्ञा थी जांणी, ते ओळख लीज्यो पहिछांणी॥
हिवै अधिक अवनीत वर्णन अपछंदा' अविनीत, टाळोकर होसी घणा फजीत ॥ध्रुपदं॥ गण मांहि एक अधिक अवनीत, तिण दुष्टी री खोटी रीत।
स्वार्थ पूगतो जाण्यो तिवार, जद गण में अधिक हुँसीयार। ५ स्वार्थ काजै गुरु नै अधिक रीझावै, गण गणपति रा गुण गावै।
जाणै आचार्य-पदवी म्हारै घरे आसी, ओ तौ पुद्गल सुख नों प्यासी॥ तिण सूं गण में रहै घणुं फळियो नै फूळ्यो, ओतो आपरै स्वार्थ भूल्यो।
बले साधां नै डरावी कहै इम ताम, थारै पड़सी म्हांसूइज काम॥ ७ परम भक्ता गुरु रो अति पूरो, निज स्वारथ काज सनूरो।
सासण नै ओ तो अधिक दिढावै, गुरु रा गुण पिण अति गावै॥ ८ मुझ बंधव नै पदवी आसी, तो म्हारो कुडव-काण बध जासी।
मुझ घर पदवी आसी अमोल, तिण सूं म्हारौ पिण रहिसी तोल।। बंधव रै तो संजम नी नीत, इण रै स्वारथ री छै प्रीत ।
पछै स्वार्थ पूगतो जाण्यो नांही, जब कलुष भाव मन मांहि ।। १० जिम-जिम स्वारथ देख्यौ हीन, तिम-तिम होय गयो दीन।
जिम-जिम स्वारथ घटतो दीठो, तिम-तिम क्रोध अंगीठो॥ ११ जिम-जिम स्वारथ घटतो देखी, तिम-तिम क्रोध विशेषी।
जिम-जिम स्वारथ दीठो अधूरो, तिम-तिम बिगड्यो नूरो॥ १२ जिम-जिम स्वारथ अणसीझंतो, तिम-तिम मन खीजंतो।
ओ स्वार्थ अर्थे बाह्य सुविनीत, इण रै गणिका वाली प्रीत । १. छोगजी चतुर्भुज जी आदि । विस्तृत जानकारी के लिए
देखें-'शासन समुद्र' भाग ६ (मुनि नवरत्नमलजी लिखित) २. लय-पुन्यवंतो जीव पाछिल"
।
लघु रास : ३७१
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१३ मन माहै हुंती मोटकी आस, ते तौ जाबक हुआ निरास।
मन रौ मनोरथ इण रौ न फळियौ, जब अधिक द्वेष परजळियो। १४ गणपति ऊपर पूरो द्वेष, इणरै कर्म तणी काळी रेख।
छांनै-छांनै गण गणपति केरा, ओ तौ अवगुण बोलै घणेरा॥ १५ छांनै-छांनै गृहस्थ आगै विसेख, गुरु रा अवगुणबोलै अनेक।
हाजरी में नित्य त्याग करंतो, छांनै-छांनै अवगुण बोलंतो।। १६ गृहस्थ कहै-थांनै बोलणो नांही, जद कहै म्हे तो ओळखाई।
ग्राम परग्राम रा भाई आवै, त्यांरै आगै पिण अवगुण गावै ।। १७ साधां आगै पिणकहै छान-छांनै, जिण रै असुभ उदे ते मांनैं।
खबर पड़ी गणपति नै तिवार, जब निखेद्यो परषद मझार।। १८ अविनीत पणांरो अवगुण देखी, गुरु चोडै निखेधै विसेखी।
यां तो सर्व साधां रै मांही, म्हारी आब न राखी कांई। १९ बले आसता इण विधि चोडै उतारै, तो हूं क्यानैं रहूं यारै सारै।
यांनैं छोडी नैं हूं हुय जाउं न्यारो, यारै पिण करूं बहुत बिगाडो। २० दोष परूषू यांमें भारी, जब खबर पडै यांनै म्हारी।
बलि परिचादिक री मरजादा कीधी, ते अविनीत खांच गलै लीधी॥ २१ गुरु सांकडी विविध मरजादज करता, किण ही सूं मूळ न डरता।
बले अगवाण नहीं विचरावै, संकडाइ में रहणी किम आवै।। २२ एहवो विचार अधिक अवनीत, महा कपटी खोटी नीत ।
एकला री आसंग नहीं आवै, जद बीजानैं बेली उठावै ।। २३ ओ तो आगै गण थी टळियो न हुँतो, पिण इण रासा में ओ धुर जूतो। और फटावण में ओ अगवाण, तिण सूं अधिक अवनीत पिछांण।
इति अधिक अवनीत वर्णन २४ गण मांहै केइ आगै निकळिया, दण्ड लेइ पाछा वळिया।
पिण अवर्णवाद स्वभाव छै ज्यांरो, अविनय रोग मिट्यो नहीं त्यांरो। २५ ते पिण प्रतिकूल गणपति केरा, मन वेदै कष्ट घणेरा।
परचादिक रो रोग ज्यारै भारी, बले लोळपी क्रोधी अहंकारी।। २६ एहवा अवनीतां सूं मिलियौ जाय, त्यां सूं बांधी प्रीत सवाय।
यारै पिण गुरु सूं अंतरंग धेख, अधिक अविनीत मिलियां विसेख॥ २७ चोर सूं जांणै मिल गइ कुत्ती, झूठी बातां करै अणहुंती।
तिण अधिक अवनीत भणी अगवाण, कीधो त्यां अविनीतां जांण।।
१. कठिन।
३७२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२८. शिकारी स्वान नै करै अगाडी, तिण इण नै कीधो अविचारी । द्वेष त वस अवळी सूझै, ते दिन-दिन अधिक अळूझै । २९ परचो निखेध्यां अधिक दुख पावै, विरुद्ध बोलतां लाज न आवै । मांहोमांहि हुआ अवनीत भेळा, एक स्थान बैसी करै हेला || ३० छांनै छांनै गुरु में अवगुण बतावै, मन मांनै ज्यूं झूठ चलावै । तिण चोरपली कोइ जाय अजाण, तिण नै पिण न्हांखै फंद में ताण ॥ अवनीत- अवनीत मिल बांधै जिलो, तिण नै कर्मां दीधो टिलो । सुगुरु कहै तिण नै वच सूधो, तो पड़ जाये मूरख ऊंधो || ३२ इण सूं बीजा अवनीत मिल्या त्यांरी बात, सांभळजो अवदात | दूजो अवनीत ते दशकै वास, तीनां साथ निकळियो तास ॥ ३३ राजनगर थी लक्ष्मीचंद ध्यायो, ग्रांम मजेरै जइ समझायौ । दोय तौ पाछा नाया गण मांय, दूजा अविनीत नै समझाय ॥ ३४ लेइ आयौ ऋषि माणक पाहि, दंड ओढ़ आयौ गण मांहि । स्वामीजी दंड देसी लेसूं, रूडी रीत हिवै रहेसूं ॥ ३५ गुरु पै समाचार कहिवाया तास, भळायो मोती ऋषि पै चउमास । ए दूजो अविनीत आवी गण माय, चउमासो करि गुरु पै आय ।। ३६ जनवंद मांहि मोटै शब्द रोयो, कहै मोनैं कर्मां
डुबोयो । हाथां में हथकड़ी पगा में बेडी, बलि घालै गल तोख घणेरी ॥ ३७ हूंतो एहवो छू मोटो अपराधी, गण नो अवर्णवादी । म्हे अवगुण आपरा बोल्या अनेक, पूरा कहिणी न आवै विशेष ॥ ३८ एम कहीनै लिखत करायो, विविध त्याग तिण मांयो । जावजीव गण थी टळवा रा जाण, पंचपद नीं साखे पचखांण ॥ ३९ और नै साथ ले जावा रा त्याग, अनंत सिद्धां री साखे ए माग । टोळा बारै टळ अवर्णवाद, हुंता अणहुंता विराध ॥
तीर्थंकर गणधर केवळी जाण, त्यांरी साख थकी पचखांण । किंचित लै'र में बोले जोय, तो भव भव में रक्तपीती होय ॥ त्याग जिलो बांधण रा कीधा, घणै हरष सहीत प्रसीधा । क्षेत्र में एक रात्रि उपरंत, त्याग कीधा धर खंत ॥ ४२ बतीसै पैतालीसै मर्यांद, बांधी पचासै
सर्व मर्याद लोपण रा
पचखांण,
अनंत
३१
४०
४१
१. कुशिष्याः कुग्रहाश्चैव, मिलिता यत् परस्परम्
अनर्थायैव जायंते, गुरुर्यदि न पश्यति ॥
गुणसठै वाध । सिद्धां री आण ॥
लघु रास : ३७३
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४३ लिखत हेठै अक्षर कर दीधा, घर्ण हरष अंगीकार कीधा । गणपति साधा नै पूछी वाय, एहनैं प्राछित कितरो आय ।। ४४ तीजो' अविनीत बोल्यो वाय, इण नैं प्राछित दसमो आय ।
तीजै अवनीत पांने लिख्यौ एम, ते सांभळ जो धर प्रेम || ४५ लिखिया बीजा अवनीत तणां कर्म ताय, ते सांभळ जो चित्त ल्याय । फाड़ा-तोड़ा री बातां अनेक, घणां साधां सूं कीधी विशेष ॥ ४६ गुरु सूं वेमुख हैवा री बात, घणां साधां सूं कीधी साख्यात । गण बारै लेजावण घणां साधानैं, घणां दोष बताया त्यानैं । साधा नैं सूंस दराइ विशेष, अवगुण बोल्या अनेक | स्वामीजी नै बात कही तौ जाण, थांनै अनंत सिद्धां री आण ।। ४८ स्वामीजी नै शासण नै सरधावा असाध, 'इणविध बोल्यौ विराध । दोय पाट सुद्ध चाल्या लूंका रै, हिवै गाळा गोळो घणो यांरै ।। ४९ औ तो राग द्वेष सू भरिया सोय, यांमें साधपणो किम होय । फलांणोजी त्यांर फलांणो छै त्यारी, घणां साधां नै कह्यो तिवारी | ५० बले कह्यो म्हे तो धार बैठा कदेई, बले अमकडियो मो साथेई । कोरा असाधु ए तो छै सोय, दलदरयां नै परा छोड़ो जोय ॥ ए ढीला चालै छै छोड देवो यानैं, इह विधे आख्यो साधांनै । कही भेद पाडण बातां विविध प्रकारी, पिण साधां तो यांरी न धारी ॥ ५२ बले मोनें पदवी रो लोभ बतायो, पिण म्हे तो न मांनी वायो । थे किम नहीं मांनो छो ताय, जद हूं बोल्यो ५३ स्वामीजी रा साधु लेइ जाउं लारो, तो लोक कहै पाड्यो इण तो इसड़ो काम न करूं मलीन, जब काया होय निकळिया तीन || ५४ खोटी - खोटी बातां कीधी अनेक, इण रै आचारज सूं द्वेष । तिण सूं सिद्धांत रा वचना रै लेख, इण रा कर्म देखतां विशेष ॥ एहवा मोटा दगादार नै ताय, प्राछित दशमो आय । पछै तो गुरु नै भ्यासै ते खरी छै, इम पानां में लिखि उच्चरी छै ॥ ५६ दूजा अवनीत री बात प्रसिधी, तीजै अवनीत इम लिख दीधी । पछै तीनूं टळ्यां में दोय नाया तत्थ, कही दूजा अवनीत री बत्त ॥ इति द्वितीय अवनीत वर्णन
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इमवाय ॥
धाड़ो ।
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५७ उवे नीकळ्या जद तीजै अवनीत, पोता री उपज्ञावण प्रतीत । गुरु नै क गण थी नीकळवा रा जाण, म्हारै जावजीव पचखांण ॥
१. कपूरजी ।
२. खिन्न
३७४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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५८ एहिज संत एहिज अज्जा सार, एहिज मारग
उदार ।
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इण हिज मारग में मर पूरा देऊ, पिण गण थी जुदो नहीं ह्वेऊं ॥ ५९ और नै साथै ले जावा रा त्याग, इम पचख्या हरष अथाग । और भेळ पिण जावा रा त्याग, बोल्यो विधि धर अतिराग ॥ ६० आप लिखत करो म्हारी राखो प्रतीत, इत्यादिक घणों कयो सुरीत । इम कही करायो लिखत अनूप, ते सांभळजो धर चूंप ॥ ६१ जावजीव रहिणो गणपति आण, संथारो करि करणो कल्याण । पंच पदां री साख थी जांण, गण थी टळवा तणां पचखांण । ६२ अनंत सिद्धां री साख थी जाण, साथै ले जावण रा पचखांण । अनंत सिद्धां री साख थी एम, और साथ जावा रा नेम ॥ ६३ गणबारै बे भेळा रहिवा रा जाण, पंच पद नी साखे पचखांण । ऊ आवै तो ही राखण रा एम, अनंता री साखे नेम || ६४ गणथी टळ हुंता अणहुंता जाण, अवगुण बोलण रा पचखांण । गणधर तीर्थंकर केवळ नाणी, त्यांरी साख थी ए त्याग जाणी ।। गण थी नीकल किंचित लै' हर में बोले, तो भव भव में रक्त पीती झोले । रुळे नरक निगोद में अनंत संसार, एह बीज छै अधिक उदार ॥ तिण सूं किंचित मात्र पिण जाण, अवगुण बोलण रा पचखांण । गण में असाधु सरधी नवी दिक्षा लै जाण, तो पिण अवगुण बोलण रापचखांण ॥ ६७ हिवै नवो म्हे चरण लीयो धर भाव, हिवै सूंसां रो नहीं अटकाव । इमपि कहिण तणां पचखांण, त्याग ज्यूं रा ज्यूं पाळणां जाण ॥ ६८ नीकल नैं पूछ्यां अणपूछ्यां जाण, लै' र में पिण बोलण रा पचखांण । इक निशि उपरांत क्षेत्रां रै मांहि, रहिंवा रा त्याग छै ताहि ॥ गण थी नीकल पोथी पाना पिछांण, लेइ जावा तणां पचखांण । टोळा मांहै तथा टळ नै तेम, किण रै संक घालण रा नेम ॥ जिलो बांधण रा पिण छै नेम, मन भागण रा पिण एम । खोटा सरधावण रा पचखांण, पंच पद नीं साख सूं जाण ॥ बलि अनंत सिद्धां री साख सूं माग, खोटा सरधावण रा त्याग । इणपंचमा काल रै मांहिअबार, भारीकर्मा जीव बहु धार ॥ ७२ निज स्वभाव आत्म बस नांही, दोहरो परच्छंद रहिणो त्यांहि । जद दूजां रा अवगुण सूझे अपार असाधु सरध हुवै न्यार । बोले बहुविध आळ जंजाळ अयाण, इम करिवा रा पचखांण ॥ पंच परमेश्वर सिद्ध भगवान, त्यांरी साख सूं ए
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पचखांण ।
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७४ जावजीव सिद्धां री साख सूं जाण, ए त्याग भांगण रा पचखांण । अनंत सिद्धां री साख सूंजाण, ए त्याग भांगण रा पचखांण । ७५ मर खपणो सूंस भांगणा नाही, ए तो त्याग जावजीव तांई । मन तीखो हुवै तो आरे होय जो ताम, नहीं सरमासरमी रो काम || ७६ मूंहढै और नै और मन मांहि, इम तो साधां नै करणो नाही । पछै और रो और बोलणो नाहिं, और बोल्यां घणो दुख थाहि । गण बारै निकळ अवगुण बोलै सोय, तो भव भव में रक्तपीती होय । भूडै हवाल मरै दुख पावै, बले नरक निगोद में जावै ॥ ७८ तिण सूं भिक्षु नीं रजा सुमाग, जावजीव लोपण रा त्याग । बतीसै पैताळीसै पचासै सांधी, बले गुणसठै मर्याद बांधी || ७९ ते रजा लोपण रा जाण, पंच पद नीं साखे पचखांण । बले अनंत सिद्धां री साख सूं जाण, मर्याद लोपण रा पचखांण ॥ बलि गणपति करली मर्याद, बांधै धर अहलाद । ते पिण नटवा रा पचखांण, अनंत सिद्धां री आण ।। गण थी टळीने किंचित् पिण जांण, लै' र में बोलण रा पचखांण । अरिहंत सिद्ध गणधर भगवान, पंच पदनीं साखे पचखांण ॥ ८२ उगणीसै दशै नै फागुण मास, सुदि नवमी ए लिखत प्रकास । तीजै अविनीत ए लिखत करायो, हेठै अक्षर लिख दीया तायो ॥ ८३ ए लिखत वाची नै दशकत कीधा, इम लिख दिया अक्षर सीधा । सुध परिणाम दीसै तिण वेर, वर्ष कितै लियो मोह घेर ॥ ८४ इण रै पिण परचा रो रोग विख्यात, तिण सूं इण री पिण बिगड़ी बात ।
गणपति परचो करवा दै नाय, जब अवगुण सूझै अथाय || ८५ जिभ्या रो लोळपी अधिकाय, संकडाइ में रहिणी न आय । अविनय रोग अधिक प्रगटियो, बल चरण पाळण थी घटियो || ८६ ज्यां साथै मेल्या त्यां उत्तर दीधो, जब नीकळवा मन कीधो । बालपणां रो अविनय न्हालो, स्वामी हेम कयो गोसाळो ॥ वचन त्यांरो खाली किण विध जाय, ओ तो सांप्रति मिलिया आय । पोतै दशमो प्राश्चित लिख्यो थो पांनै, तिण नै लेइ नीकळीयो छानै ॥ ८८ तेरा' रै वर्ष बिहुं मिल भेळा, कळ अवगुण बोल्या अनेक प्रकार, तुरत
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१. सं० १९९३ ।
३७६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
करी गुरु नी हेला । कहितां न आवै पार ||
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८९ आसरै तीन मास न्यारा रया ताय, तिण में कीधी घणी बकवाय।
श्रावक आरै करता दीसै नहि, जब प्राछित ओढ आया मांहि ।। ९० आलोवण करणी थापी ताय, प्राछित देशी ते लैणो ठहराय।
तिण रा साखी गृहस्थ ठहराय, तथा पछे लीया गण मांय॥ ९१ टोळा रा साध-साधवी मांहि, किण रै प्राछित ठहरायो नाहि।
किण ही प्राछित मूळ न लीधो, मिच्छामि दुक्कड़ नहीं दीधो॥ ९२ किण ही में नहीं काढ्यो बंक, सहुनै कर दीधा निसंक।
प्राछित विण दीयां आया मांहि, सगळा नै सुध जाणी ताहि । ९३ यांरी तरफ सू चोखा जाण, गुरु रै पगां पड़ीया आण॥
जो जै दोष जाणै किण मांहि, तो जै आघो काढै जिसा नाहि। ९४ दोषण ज्यां में कया था मुख सूं, त्यांरा वांदीया पग मस्तक सूं।
त्यांनै तो प्राछित मूळ न दीधो, उळटो आप दंड ओढ़ लीधो।। ९५ ज्यांरा महाव्रत कया था भागा, त्यांरैइज पगां आय लागा।
ज्यांने कया था लोकां में खोटा, त्यांनैज लेखव लीया मोटा। ९६ ज्यांमै काढ्या था दोष अनेक, ते तो छोड़ दीधी सर्व टेक।
उळटो आपरै दंड ठहराय, इण विधि आया गण मांय॥ ९७ ज्यांनै ढीला कहिता ताण-ताण, त्यांराइज पग वांद्या आण।
ज्यांसूं लोका नैं देता भिड़काय, त्यांराइज पग वांदीया आय॥ ९८ ज्यांनै अणाचारी मुख सुं आख्यात, तिका पाछी न पूछी बात।
ज्यां में दोषण कहिता . आप, ते तो जाबक दीया उथाप॥ ९९ उळटो आपरै दंड कराय, गण मांहि बैठा छै आय।
ज्यां में कहिता कपट नै झूठ, हेळा निंद्या करता पर पूठ॥ १०० उत्तम पुरुष त्यांनै ठहराय, प्राछित ओढ आया त्यां माय।
ज्यांनै खोटा सरधावण ताय, कीधा था अनेक उपाय। १०१ त्यानैं तिरण तारण ठहराय, प्राछित ओढ आया त्यां मांय।
यांने जाणता था केइ साचा, ते तो 'प्राछित ले' हुआ काचा।। १०२ बले जो तांणै यारी दूजी वार, तो मै पूरा मूढ गिंवार।
न्यारा थका हूंता घणा गैरी, गण रा हुआ था पूरा वैरी।। १०३ सर्व साधा नैं खोटा सरधाया, त्यांमेइज दंड ओढ आया। __ यां तो च्यार तीर्थ रै मांय, कीधो थो घणो अन्याय।
१. प्रायश्चित्त लेने पर।
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टोळा में प्रतीत
अणाई | निसंक, यांमेईज जाणीयो बंक | तो झूठी कीधी बकवाय । दोषण कहिता ताहि ॥
१०४ प्राछित लेइ आया गण मांही, श्रावकां आगे कहया ते हुआ १०५ यांतो दोष बताया मांय, आ टोळा रा साधु-साधवी मांहि, १०६ इण बात सूं तो भंडा घणा दीठा, पड़िया च्यार तीर्थ में फीटा। औ तो प्राछित ले गण मांहै आया, सगळा साधां नै सुध ठहराया ॥ १०७ गणपति रा गुण नीं बहु जोड़, औ तो करवा लागा धर कोड | ऊभा होय परषद में आत्म निंदै, गया काळ रो पाप निकंदै । १०८ कहै कर्म जोगै म्हे बारै नीकळीया, पिण भाग्य जोगे पाछा मिलीया । बलि निज अवगुण जोडां करि ताहि, औ तो कहै परखद रै मांहि ॥ १०९ बलि जोड में गणि गुण गावै अथागै, आप स्वाम सीमंधर सागै । तिण हिज टांगै एक बलि टळियो, विहार में विण पूछयां नीकळियो । ११० तीजा अवनीत रो ए बहिनोइ, तिण नै कर्मा दीयो विगोइ । आसरै दोय मास रहि सीधो, इण पिण मांहि आवी दंडलीधो ॥ १११ ओ पिण ऊभो रहि परषद मांहि, निज आतम निंदै ताहि । गण सूं नीकल नै पाछा आया मांय, केइ वर्ष कर्म उदै आय || इति तृतीय अविनीत वर्णन
११२ अविनय रोग वध्यो अधिकाय, बले लोळपी अधिक अथाय । दूजा तीजा अविनीत रै सोग, इणरै परचा रो पिण अति रोग || ११३ परचो निषेध्यां घणो दुख पावै, मन में अति सीदावै । टाळोकर नै निषैधै सोय, तो वेदल विलखा होय ।। ११४ संकडाइ में रहिणी न आय, यांरै पुद्गल सुख नीं चाय । आगवाण पिण नहीं विचरावै, ते पिण ११५ बलि स्वार्थ नहीं पूगै जिणां रा, जद अवगुण
दुख बहु पावै ॥
बोलै
गुरां रा ।
अविनय रोग वध्यो अधिकाय, संग अविनीतां रो सुहाय ॥ इति चतुर्थ अविनीत वर्णन
११६ एक' बले अविनीत थो ताहि, तिण री प्रकृति कठोर अथाय । ज्यां साथै मेलै त्यांनै दुखदाइ, ते पिण सूंपै गुरु नै आई || इति पंचम अविनीत वर्णन
११७ अधिक अविनीत पहिलो कयौ ताहि, गण में अधिकाई री मन मांहि । तिण री आसा बांछा पूगी नहीं काय, जद मिलियो च्यारां सूं जाय ॥
१. पांचवां लघु छोगजी ।
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११८ यारै पिण हुँतो अविनय रो रोग, आय मिल्यो सरीखो संजोग।
पांचूंइ मिलनै बांध्यो जिल्लो, यांनै कर्मी दीधो टिल्लो॥ ११९ विनयवान भाई गुणवान सूं तोड़ी , मूढ अविनीतां तूं प्रीत जोड़ी।
अधिक अविनीत रे कपट अपार, परपंच तणों नहीं पार ।। १२० एकदा निशि बहु साधां रै मांय, तीजो अविनीत बोल्यो वाय।
म्हानैं दीक्षा लियां नै थया घणां वास, छोटा लारै विचरूं तास। १२१ कुडब-कायदो म्हारो नहीं कोय, ते हूं मन में जाणूं छू सोय।।
रखे संसार घणो वध जाय, नहीं तो कर देखाउं ताय। १२२ गुरु कहै थारै याही मन मांय, तो हुँ साधां नै लेउं बोलाय।
थे करतां थकां देखाळोळा कबही, हूं कर देखा » अबही। १२३ इम सुण डरनैं बोल्यो इम वाण, हूं तो छू कीड़ी समाण।
हूं कहितो और नींकळ गयो और, इह विधि बोल्यो तिण ठोर।। १२४ घणां साधु कहै आ थे सूं कहि वाय, इम बोल्या बहु मुनिराय।
तठा पछै आसरै मास तांइ, जै पांचूं रह्या गण मांही। १२५ गुरु नै वादै तिक्खुता रो पाठ गुण नै, गुण कीर्ति अधिक थुणी नै।
आप तीर्थकर देव समान, बेहुं टक तज मान। १२६ मुख ऊपरै तो करै गुण ग्राम, छांनै-छांनै जिलो बांधै ताम।
गणपति रै मुख तो गुण गावै, छान-छांनै अवगुण दरसावै॥ १२७ मुख ऊपर तो बोलै राजी-राजी, छांनै-छांनै करै दगाबाजी।
गणपति नै बादै जोड़ी . हाथो, पगां में देवै नित्य-नित्य माथो॥ .१२८ वंदन करत करै गुण ग्राम, सारा पहिली लै गुरु रो नाम।
पंच पदां री वंदणा में कहेवै, तिण में गुरु रो नाम नित्य लेवै।। १२९ लोकां आगैइ करै गुण ग्राम, पिण मन रा मैळा परिणाम।
___ हाजरी नित्य प्रति लिखनै बतावै, ऊभा परषद माहै सुणावै।। १३० ते हाजरी तणीं कहूं छू बात, सांभळजो विख्यात ।
हाथ जोड़ी नै आप सूं ताम, अरज करूं छू स्वाम।। १३१ भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, बलि जय आचार्य ताय ।
यांरी बांधी मर्याद अमूल्य, म्हारै छै सर्व कबूल। १३२ खोळी में सास रहै जठा तांइ, ज्यां लग जीव रहै तिण माहि।
अनंत सिद्धां री साख थी जाण, म्हारै लोपण रा पचखांण।।
१. बडा छोगजी (छोटा भाई)। २. कपूरजी।
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१३३ आप छो महा दयाल कृपाळ,
बलि परम पूज्य छो गोवाळ । प्रभु गणपति रा गुण कह्या छतीस, त्यां गुणां सहित छो जगीस ॥ १३४ पंच महाव्रत ना छो पालक, च्यार कषाय ना टालक । पंच आचार पंच समिति वंत, वर तीन गुप्ति धर तंत ।। १३५ पंचेन्द्रिय जीपक महा गुणधारी, नववाड़ सहित ब्रह्मचारी । तारण तिरण एहवा गुण धाम, हूं आप जाणूं छू स्वाम ।। १३६ साधु साधवी तुम गण मांहि, पाळै आपरी
आज्ञा ताहि ।
१३८ तास अढाइ
वीर थकां चवदै सहंस छतीस, हूं जाणूं छू तास सरीस ॥ १३७ साधुपण सुध सरधूं सारां में, बलि संजम सरधू म्हां । आप तणी आज्ञा जे सोय, लोपी टाळोकर होय ॥ द्वीपना चोर, तेहथी अधिको जाणूं घोर । बोलण हारो, महा मोटको पापी विकारो ॥ बांधण वाळो, भाग़ल भृष्ट अन्याइ न्हालो । तेह संसार अनंत बधारै, अनंत जन्म मरण विस्तारै || १४० नरक निगोद जो जावण वाळो, एहवो जाणूं छू दुःख आळो झूठाबोलो जाणूं छू घोर ॥
अवर्णवाद रो १३९ महा मोहणी नों
चोर,
करवा रा
तास बात मांनै तसुं १४१ म्हारै एहवो कांम और नै साथै ले जावा रा १४२ बलि टाळोकर भेळो तेम,
त्याग, जावजीव तांइ ए माग । जाण, जावजीव पचखांण ॥ आहार करवा रो नेम । पुस्तक नै बलि पाना अनेक, ले जावण रा त्याग विशेष ॥ १४३ इक निशि उपरंत श्रद्धा रा खेत्र, तिहां रहिवा रा त्याग छै तेथ । समात अवगुण बोलण रा पचखांण, बले अनंत सिद्धां री आंण ।। १४४ पंच पदां री साख सूं जाण, अवगुण बोलण ना पचखांण । घणै मन तीखै राजीपा सूं जाणी, लिख्यो घणो हर्ष दिल आणी || १४५ सरमासरमी थी लिख्यो नहीं छै, हेठै निज अक्षर संवत् सही छै ।
निज निज कर तें लिखी नै संत, ऊभा नित्य प्रति सहु वाचंत || १४६ उगणीसै चवदा रा वर्स थी साधी, जय गणि मर्यादा ए बांधी।
नित्य प्रति मिति लिखि निज नाम, परषद में मुनि वांचै तमाम || १४७ उगणीस वीसै माघ सुदि जाणी, आ तो वारस तिथि पिछाणी । परषद में सहु मुनिवर भेळा, ऊभा पांचूं वांची तिण वेळा || १४८ इण विधि नित्य प्रति त्याग करंता, घणां हरष सूं लिखियो कहंता । तेरस गणपति कियो विहार, बहुं संतां तर्णं परिवार ||
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१४९ अधिक अविनीत विण च्यारू' टळिया, छानें विण पूछ्यां निकळिया । साधां जाण्यो रह्या छैला मार्ग गाम, दूजै दिन पिण नाया ताम || १५० अधिक अवनीत कपट करि सोय, पहिला छांनै पांना सूंप्या जोय । ओ तो लारै रह्यो निज मतलब जान, पाछिलो देखवा वर्त्तमान ॥ १५१ अधिक अविनीत कहै हूं जाउं, उणा कनै म्हांरा पांना ल्याउं । समझै तिण नै ल्याउं समझाय, इम कही गुरां नैं वाय ॥ १५२ किण ही कह यो चरण रा नहीं परिणांम, टळियो सैहजेइ कचरो ताम । जद कहै एक तिरै तो ही आछो, हुं समझाय ल्याउं पाछो ॥ १५३ पछै तीसरे दिवस पटमोहच्छब मांय, निज जोड़ गणि गुण गाय । पद युवराज तणा धर कोड़, गुण गाया गाथा जोड ॥ १५४ पछै दोय जणा नै सुगुरु पठाया, घणा कोस च्यारूं पै आया । दूजै संत तो निषेद्या सीधा, अधिक अविनीत तो डेरा दीधा ॥ १५५ समझावतां पाचूइ बोलै, अवगुणां रो पिटारो
खोलै । बोलां रा जाब देई समझाया, दूजै दिन पांचूं ठाय आया । १५६ क्षेत्र भळावो कहिजो गुरु नै सोय, मृगसिर मांहि दर्शन करां दोय । कौ पांच पद में घालसां नांम, बले आया पोहचावा ताम ॥ १५७ कह्यौ छ रात्रि बारै रह्या तसुं दंड, गुरु देसी ते लेस्यां अखंड । गण में दोष कह्या ते अनेक, छोड़ दीधी बोलां री टेक ॥ १५८ ते बोल छोड़णा ठहराया नाहि, गण में दंड ठहरायो न कांइ । उळटो दंड पोतै ओढनैं आया, टळ आबरू अधिक गमाया ॥ १५९ समझाय साधु आयो गुरु पास, समाचार सुणाया तास । नागोर नो चोखलो गुरां भळायो, जद त्यां पाछो कहिवायो ॥ १६० मन मान्या क्षेत्रां मांहि विचरस्यां स्वामीजी रै नामै शिष्य करस्यां । दिख्या देइ नै सूंपां नहीं ताय, जद गुरु नहीं मानी वाय ॥ १६१ गण में आय नव दिन घाल्यो नाम, पछै बारै नीकळिया ताम । इण विधि इण में आवा हूवा त्यारी, जब दोष न रह्या लिगारी ॥ १६२ गणपति नहीं किया अंगीकारी, जब चाल्या मूंह बिगाडी । अपछन्दा अविनीत, टाळोकर होसी घणा फजीत ॥
१. कसूम्बी से निकले - जीवोजी, कपूरजी, संतोजी, छोगजी (लघु) । २. चतुर्भुजजी और हंसराज जी को ।
३. मुनि हंसराज ।
४. नव दिन तक पंच पदवंदना में गुरु का नाम बोला ।
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ऋषि हंसराज कृत
१ टाळोकर च्यारूं हुआ गण बारो, अधिक अवनीत बोल्यो तिवारो। - इण रा जावण रा परिणाम, जब कुकली बोल्यो तिण ठांम।। ___ गुरु सूं बोल्यो जोडी हाथ, म्हारी अरज सुणो स्वामीनाथ।
__ म्हारा पांना हुंता ते सार, ले गया गण सूं बार।। ३ आपरी आणा हूं चाहूं, म्हारा पांना लेइ नै आवू ।
कोइ समझ जाय सारो, तिण नै पिण ले आउं लारो॥
ओ तो घणो मीठो बोलै सोई, म्हारै साधु साथै मेळो कोइ।
किण रो भळो होय जावै, तो लाभ आप नै थावै॥ ५ ओ तो केलवै कपट नै कूर, गण सूं दैवा दूर।
___ गुरु नै खबर नहीं छै ताम, इण रा दुष्ट घणां परिणाम ।। ६ जब गुरु बोल्या तिण वार, म्हारै चावना नहीं लिगार।
तूं अर्ज करै बारंवार, ऋषि हंस मेळां थारी लार।। ७ मन में तो कपट छै भारी, इसा परिणामां सूं हुवै खुवारी।
ऋषि हंस नै खबर न काय, ओ तो इसड़ो करै छै अन्याय ।। मजल करि नै गया त्यां चलाय, ऋषिहंस तो आगै जाय। भागल बैठा छै सोय देखी नै उदासी होय।। म्हे थांरो ल्याया नाय, म्हारे लारै आया छो कांय ।
दूजो कुण छै थांरी लार, नाम सुणनै हरष्या तिवार ।। १० इतरै अधिक अविनीत आय, सगळा भागल ऊभा थाय।
मन में तो सगळा हरषाय, दूजा री सरम सूं बोलणी आवै नाय॥ ११ ऋषि हंस कहै सुविशालो, थे काय लगावो आतमा नै काळो।
थे गुर आज्ञा सूं हुवा बारो, खोय दियो संजम भारो॥ १२ जब मै कहै म्हारै संका पड़ी सोय, इतरा बोल कह्या ते जोय।
अगळ डगळ बोल्या तिण वार, त्यां में सुद्ध नहीं है लिगार।। १३ जब म्हे कयो क्यांनै करो सोरो, थे तो हुआ गुरां रो चोरो।
थे तो बुढापै जमारो खोयो, धोलां में धूल नखोयो। १४ हाजरी में ऊभा राखै महाराज, म्हांनै आवै घणेरी लाज।
म्हे कह्यो सुविनीत ऊभा रहै आय, थांनै लाज क्यूं आय।।
३. हो हल्ला ।
१. लय : विनय रा भाव सुण-सुण गूंजै २. धूर्त।
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१५ किण रा बाप ऊपर बीजळी पड़ी हुवै सोय, बेटो पिण डर राखै जोय।
ज्यूं म्हे हुआ गण बारो, म्हे म्हां ऊपर धारां सारो॥ १६ स्वामीजी परचो उडावै, म्हांनै दुख घणेरो थावै।
ऋषिराय तणों वरतारो, म्हेतो याद करां बारंवारो॥ १७ ऋषि हंस कहै परचो खोटो, तिण सूं पड़ जाय जाबक तोटो।
स्वामीजी कहै सो न्याय, थे दुख वेदो थारै रोग घट मांय ।। १८ दूजो तीजो बोल्यो तिण वारो, म्हारै बोल रो करो निरधारो।
म्हारै हीयै देवो वैसायो, मांन लेसां थारी वायो। १९ पिण म्हारै रहिवा रो ठिकांणो नाहि, दुख आहार पाणी रै तांहि।
घणा भेळो रह्यो नहीं जाय, तिण सूं गण बारै म्हे थाय॥ २० म्हे यांनै निषेद्या भांत-भांत, ते तो जाण रह्या जगनाथ।
अधिक अविनीत बोल्यो नाहि, निषेद्यो तो पिण गमै नाहि॥ २१ बोलां रा दीया जाब, ते तो मान लिया सताब।
मन री तो खबर नहीं कोय, व्यवहार देख लियो सोय॥ २२ सर्प नै दूधज पाय, तो तुरत जहर हुय जाय।
थांनै स्वामीजी दीधी साता, थे तो होय गया ताता। २३ अधिक अविनीत नै पूछ्यो तिवारो, थारा परिणाम कांइ धारो।
जब बोल्यो पांचमां सूं प्यारो, हूंतो नहीं रहूं यांसूं न्यारो।। लिखत कर दियो सोय, हाथ काट दिया छै जोय।
एक मास पछै च्यारूं आहारो, भोगवणा नहीं लिगारो।। २५ हंस कहै त्याग करता अनेक थे तो मानो नहीं छो एक ।
खोटा त्याग थे पाळो, साचा इतरा क्यूंनी संभाळो॥ २६ इम कह्यां रो जाब न आयो, न झाळ रह्यो मन मांह्यो।
विविध वैराग विविध सुबातो, कही घणी विख्यातो॥ २७ अधिक अविनीत कहै बातां कही सांची, पिण म्हारी मति होय गइ काची।
माठी गति रो आउखो बंध्यो म्हारो, किण रो टाळ्यो न टळे लिगारो॥ म्हे कह्यो थारै साता री चावना पूरी, तो गुरु री आज्ञा पाळो रूडी।
थे शासण सन्मुख थाय, कदा नागोर री पटी देवै भलाय।। २९ इम सुण नै सगळा जिवारो, नेवरा खावै वारंवारो।
इण विधि निभजासां सोय, जो गुरु नी आज्ञा होय ।। ३० म्है छ दिन रह्या गण वारो, तिण रो प्राछित देसी सारो।
हरष धरी आदरसां, गुरु नै पाए पड़सां।
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३१ म्हे विचारयो तिवारो, यारो सुधर जाय जमारो।
कपट री खबर नहीं मोय, व्यवहार देख लियो सोय। ३२ हाथ जोड़ी नै ऊभा ह्येवो, पूर्व सांहमो मूंहढो कर देवो।
मिच्छामि दुक्कडं थारै सोय, स्वामीजी प्राछित देसी जोय।। ३३ म्हे कहां छा मान मोड़, वंदना गुरां नै कर जोड।
वंदणा में घालसां नाम, म्हारा जांण जो दृढ परिणाम ।। ३४ ए तो बोल्या सगळा सीधा, घणा लोकां नै सायद कीधा।
म्हे विहार कीधो जिवारो, पहुंचावण आया लारो॥ ३५ गुरां नै आय कही सर्व बात, जब आज्ञा दीधी साख्यात।
नागोर री पटी में रहीजो, चौमासो ऊतरयां दोय दर्शन कीजो।। ३६ यांरो निभाव करण सोइ, ए आज्ञा दीधी जोइ।
त्यांनै कह्यो बे गृहस्थ जाय, कर्म उदा सूं मान्यो नांय॥ ३७ बले निकळीया गणवारो, ओ तो हार दियो जमारो।
ओरां रो नाम लेवण लागा, हुआ व्रत विहूणा नागा ।। ३८ कोइ आपरो टापरो देवै लगाय, ओरां री चिंता किम थाय ।
यां लगायो आतमां नै काळो, यारै झूठ रौ नहीं छै टाळो ।। ३९ डाकण नै नीला कांटा में बाळे जिवारो, जब वा करै सोर अपारो।
मोटा कुळ री रो नाम बतावै, कुलवंत सैणा' रै दाय न आवै ।। ४० ज्यूं भृष्ट भागळ हुआ छै तेह, ते अवरां रो नाम लेह।
समझू तो देसी जाब, पाड़सी घणा लोकां में आब।। ४१ इम मांहो मांहि हुइ बात, संक्षेप कही विख्यात। ऋषि हंस उगणीसै इकवीसै सारो, जोड्यो भागल नो अधिकारी।।
ढाळ मूळ १६३ टाळोकर पांचूं टळ्या गण वार, उदै आया असुभ अपार।
मन चाहा देश तणी दीसै हाम, पिण पड़सी विपत्ति अपूठो ताम।। १६४ रसतै ठाकुर नै मिल्यो एक डूंब, गुण दूहो कह्यो पग लूंब ।
जोड़ो पगरखी रो ठाकुर दियो, आगै जाय डूंब चिंतवियो॥ १६५ विण मांग्यो ए दीधो जोड़ो, मांग्यो है तो दे घालतो घोडो।
लारै जाय कहै पुन्यवंत छो आप, मोनै घोड़ो देवो मां बाप॥ १६६ ठाकुर कोरडा री दीधी बे च्यार, जब चाल्यो मूंह बिगाड़।
तिम जाण्यो दीसै पहिला क्षेत्र भळाया, अबकै देसी मन चाह्या ।।
१. मन्त्रवादी।
२. लय : पुन्यवन्तो जीव पाछल भव।
३८४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१६७ आपद पडसी अपूठी आय, तिका बात सुणो चित्त ल्याय।
नवी दीक्षा आवै जिसा वाया यां बीज, तिका आगल बात कहीज। १६८ त्यां थी पांचूं जणा चाल्या आघा, हुआ व्रत विहूणा नागा।
दोय सौ इकवीस ठाणा सूं तोडी, निकळिया गण छोडी।। १६९ तीर्थ च्यार थकी पिण तूटी, दुख वेदनी लीधी आकूटी।
विपत रूप कर लीधी कुहाडी, चरण रूप संपदा उखाड़ी। १७० चरण रूप लक्ष्मी नै भगाइ, लीधी आपद नैज बुलाइ।
चरण चिन्तामणि निज कर आयो, एतो जैहलै साटै गमायो।। १७१ गणपति ना अति अवगुण गावै, मन मानै ज्यूं गोळा चलावै ।
गुरु उपगार कियो थो भारी, यां तो घाल्यो सर्व विसारी।। १७२ कृतघ्न कीधो उपगार न जाणै, यांनै मोह कर्म अति ताणै।
गुरु उपगार कियो अधिकाय, त्यांरी यारै न दीसै तमाय ।। १७३ आचार्य उवज्झाया ना वैरी, मैं तो अंतरंग माहै गैरी।
लोकां नै भर्म मांहि ए पाड़े, ए तो आसता चोडै उतारै।। १७४ गणपति पै भणै अवगुण गावै, महा मोहणी कर्म बंधावै।
कह्यो समवायंग दशाश्रुतखंध, ते पिण जाण्यो नहीं मोह अंध।। १७५ समक्त्व चारित्र ना दातार, त्यांनै किम घालीजै विसार ३ ।
एक वचन सीखै समण महाण पास, त्यांनै वांदै पूंजै सुविमास ।। १७६ पंचमै ठांणै आचार्य सोध, त्यांरां अवगुण बोल्यां दुरबोध।
___ अपछंदा पड़िया गण सूं जूआ, च्यार तीर्थ में फिट-फिट हुआ। १७७ पश्चिमी थली में आया चलाय, तिहां अवगुण बोल्या अथाय।
- हर कोइ मनुष्य यां पासै आवै, जब गुरु मांहि दोष बतावै।। १७८ निंद्या तिकोइज योरै ज्ञान, योरै निंद्या तिकोइज ध्यान।
श्रावक हुंता ते चतुर सुजांण, यांनै वंदणा छोड़ी खोटा जाण। १७९ किण ही पूछ्यो गण में सरधो कांई, बोल्यो चरण सरधां गण मांही।
छठो गुणठाणो तो कहिता जावै, बले अवगुण पिण दरसावै॥ १८० बारोटिया जिम देश उजाडै, जांणै म्हांनै ठिकाणै बैसाडै।
तिण विधि यारै दीसै मन मांय, मन मान्यो दै देश भलाय॥ १८१ अथवा सिंघाडो कर देवै म्हारो, मन एहवो दीसै छै यारो।
गुलहजारी को लेवै नाम, त्यांनै देश भलायो ताम॥ १. जाणबूझ कर। ३. विस्मृत। २. निष्फल।
४. छापामार (घरभेदी)
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१८२ तिण तूं एहवा दीसै परिणाम, निश्चै तो ग्यानी जाणै ताम।
बिगड़ायल जै जैन रा पूरा, पड़िया च्यार तीर्थ सूं दूरा॥ १८३ लाज सर्म त्यां अलगी मेळी, भेखधारी भागल त्यांरा बेली।
साधां में जै बहु दोष बतावै, भेखधास्यां रै मन भावै॥ १८४ ठंढी कीधी भेखधास्यां री छाती, औ पिण हुआ त्यांरा पखपाती।
नींव असाता वेदना री दीधी, भेखधारयां रै खरची कीधी।। १८५ पिण इण खरची सूं होसी खुराब, जासी भव-भव मांहै आब ।
भेखधारी तो आगैइ देता था आळ, ते झूठ रो क्यानै कालै निकाळ॥ १८६ ओ तो सहजेइ पड़यो झूठ पार्ने, हिवै जै क्यांनै राखै छानै ।
भेखधास्यां रा श्रावक आवै, त्यांसूं तो घणां मिल जावै ।। १८७ मीठे वचन करि त्यांनै बोलावै, गुरु माहै दोष बतावै।
औ पिण यां सूं राजी होय जावै, असणादिक आछी रीत बहिरावै॥ १८८ बले # पिण यांनै पोगां चढावै, वारंवार अवगुण बोलावै।
किण नै कहै म्हांमै आसी उदार, किण नै कहै आसी मुनि च्यार॥ १८९ किण नै कहै आसी संत तेर, किण नै कहै. आसी तीन फेर।
किण नै कहै आर्या रो सिंघाडो एक, म्हारो थको छै विशेष॥ १९० बहु विध एक करै बकरोल, मोह कर्म थी किलोल।
लोकां साधां नै कह्या आय, जै तो बोले इण विध वाय ।। १९१ ऋषि हरखचंद नै आसाढ मंझार, मिल्यो अधिक अविनीत तिवार॥
हरख कहै थे आ कांइ कीधी, जद यां कह्यो होणहार सीधीं। १९२ वीर छद्मस्थ गोसाळा नै सीस, कीधो तो म्हारो कांइ जगीस।
म्हे तो या जांणी नहीं थी कांइ, गण बाहिर रहिसां ताहि ।। १९३ छोगजी लारा सूं आय ले जासी, ते पिण ना या विमासी।
स्वामीजी पिण मुनि मेल्या न कोइ, घणी वाट नागोर में जोइ॥ १९४ पछै तो घणी खंच मै जाणी, बात पड़ी पहिछाणी।
हरख कह्यो अबैइ ताय, पड़ो स्वामीजी रै पाय॥ १९५ जद को बोल पंच चिहुं तथा दोय, छोड्यां गण में आवणो होय।
जब हरख कह्यो बोल एक पिण ज्यांही, छूटतौ दीसै नांही॥ १९६ कह्यो बोल छूटां विण गण मांहि, सर्वथा आवां नाहीं।
देश-देश लोकां में बात, प्रसिद्ध हुई विख्यात।।
१. साथी।
३८६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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जन
१९७ लोक कहै बहु दोष बताया, बोल छोडायां विण आया।
तिण सूं बोल छोड्यां विणआवां सोय, आछी न लागै कोय।। १९८ रूप ऋषि कह्यो-इसड़ो मान, न करणो साधु नै जान।
अधिक अवनीत बोल्यो जद वाणो, दाय आवै ज्यूं जाणो।। १९९ हरख कह्यो-इसड़ो मान करीनै, क्यूं हूवो खुराब टलीनै।
इण रै अशुभकर्म उदै हुआ आण, मुख सूं पिण नीसरै खोटी वाण। २०० वेमुख हुवै जो एक बलाइ, ते पिण करै बिगाडो जाइ।
___ म्हे तो पंच छां इण विध आखी, मूंढामूंढी साधां नै भाखी॥ २०१ दूजै अवनीत संतां नै एम, सुद्ध बात कही धर प्रेम।
गण में संत अज्जा तपसी छै, ते म्हारै शिर ऊपर सही छै ।। २०२ थानै असाधु कहै कोइ ताय, तिण सूं चरचा करां म्हे जाय।
पिण करां कांइ गळा तांइ भरिया, तिण कारण म्हे नीसरिया।। २०३ संत कहे-मुख गणपति अज्जा, त्यांसू थारै छै द्वेष अकज्जा।
जद कहै-थे तो जांणो छो जी, पाछो मुनि नै एम कह्यो जी।। २०४ म्हे तो घणोइ कह्यो दलद्रीयां नै, पश्चिम थली कांनी जावो क्यांनै।
उठी रह्या हुंता तो इति हुंती क्यांनै, कोइ जाणै न जाणतो म्हांनै॥ २०५ पहिला म्हे बारै नीकळ्या था ताहि, किणहि जाण्यो किणहि नांहि।
इह विध दीनपणै भाखंत, बारै टळियां रा फळ चाखंत ।। २०६ गुरु यारी तिथ न कीधी काय, यांनै जाबक दिया छिटकाय।
देश-देश रा श्रावक जांण, यांनै जाण्या जै'र समाण ।। २०७ चतुर विचक्षण श्रावक सोइ, यारी अद्दन राखै कोई।
हंती मन मांन्या क्षेत्र विचरवा री आस, ते पिण हुआ निरास॥ २०८ जांण्यो अधिक मास हुआ दीक्षा आय, इम तीनां विचारयो ताय।
जिम-जिम दिवस नैडा अति आवै, तिम तिम अधिक सीदावै ।। २०९ पांचूं अविनीत चौमासे ताम, तीन संत हुंता तिण गाम॥
___ गाउ ऊपर इक सैहर उदार, तिहां चउमासै संत च्यार॥ २१० जोधांणै गणपति पास तिवार, आया कागद में समाचार।
स्वामीजी म्हारो करै सिंघाड, दंड देसी ते लेसां धार ।। २११ पूछा नों उत्तर गणपति दीधो, लिखी नै सिखायोज सीधो।
करार सिंघाड़ा रो करिनै जाण, माहै लेवां रा पचखांण॥ १.खोज खबर।
४. कोष। २. इज्जत।
५. मुनि हरषचंद जी आदि। ३. तेजपाल जी आदि जसौल में।
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२१२ इम लेवा री आज्ञा नाहि, बले बोल न छोड़णो काइ।
बोल छोडी नै संतां नै ताहि, लेवा री आज्ञा नाहि। २१३ आत्म रो यारै करणो कल्याण, तो गण माहै लैणा जाण॥
आत्म कल्याण जो करणो नाहि तो औ जासी यांरी कमाई।। २१४ किण रै गरज है इम लिखि पाने, गुरु सीखाया दिया श्रावकां नै।
ए कागद सुण नै ढीला पड़िया, मरम टळ्यां रा गळिया। २१५ जद एक विनीत श्रावक नै ताहि, यां घाल्यो विष्टाळा' मांहि ।
ते श्रावक कहै साधां पे आय, मोनै टाळोकर कही वाय।। २१६ बोल-चाल री तो म्हारै न कांइ, दोय कहै म्हांनै लेवो मांही।
नवी खेचल म्हांनै नहीं देवै, खातरी रा अक्षर लिखीया जिवार। २१७ सिंघाडा री नै बोल री न कोय, नवी खेचल नही दै मोय।
जब सुद्ध परिणाम जाण्या तिणवार, साघां अक्षर लिखण कहिवै।। २१८ लिखंता बले बोल्यो करी नरमाय, इम म्हारी आछी लागै ताय ।
अरज स्वामीजी सूं करनै ताय, बोल-चाल री देसी मिटाय ।। २१९ घणी नरमाइ करिनै एहवा, अक्षर लिखीया तैहवा।
खेचल आश्री बोल ए ताम, साधां तो लिख्यो इण परिणाम।। २२० बोल छोड़ लेवा री आज्ञा नाहि, समाचार गुरां रा पहिलाइ।
त्यां बोलां री मांनै किम संत, तिण सूं खेचल रा बोल मानंत। २२१ स्वामीजी जिको देसी तिको दंड, अंगीगार म्हे करसां अखंड ।
इण विध दंड धारी नै सोय, आयो पहिलो पंचमो दोय॥ २२२ दूजी वार निकळीयां नै हुआ छमास, जद गण मांहि आया तास।
भाद्रवा विद तेरस तिथि ताहि, आया दोनूं जणा गण मांहि ।। २२३ टोळा रा साधु साधवी सुवंस, त्यारै दंड ठहरायो न अंस।
उळटो आपरै दंड ठहराय, इण विध आया गण मांय॥ २२४ ढीला ज्यांनै कह्या गण मांही, त्यारै दंड ठहरायो न कांइ।
गण मांहि दोष कहिता था अथायो, तिण रो दंड किंचित् न छैहरायो॥ २२५ दोष कहिता गुरु प्रमुख मांही, तिण रो दंड ठैहरायो नाहि।
दोष कहीनै निकळीया बार, कियो दंड पोते अंगीकार।। २२६ बलि जो दोष कहै बीजी बार, तो मै पूरा मूढ गिंवार।
ज्यां माहै दोष कह्या था थूल, तिण रो दंड न ठहरायो मूळ।।
१. प्रपंच
३. तकलीफ। २. चतुर्भुज जी छोगजी (लघु) ४.बड़े-बड़े। ३८८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२२७ ज्यां मांहि दोष कह्या था अनेक, त्यारै दंड न ठहरायो एक । ज्यां मांहि दोष कह्या भारी, त्यारै न ठै हरायो दंड लिगारी ॥ २२८ अवगुण ज्यांमै कहिता दिन रात, त्यांरै दंड री न कीधी बात । दोय रात्रि रहीं पंचमो अवनीत, साधां ने बोल्यो इण रीत || २२९ म्हारै जूं न्हांखवा री श्रद्धा सोय, इम कही निकळियो जोय । जावा लागा दूजा चौथा मांहि, त्यां तिण लीधो नाहि ॥ २३० पछै बे कोश गाम जइ पाछो आयो, पांणी लीला री अजयणा अथायो । पछै जूं न्हाखवा रो दोष कही नै, गण में आयो एक रात्रि रहीनै ॥ २३१ हिवै तीजा अवनीत री बात, सांभळजो नीकळिया
अवदात ।
सवा छ मास
वार, जद मन
में कियो विचार ॥
नवो चरण उदार ।
२३२ अधिक दिवस थयां सुं अवधार, देवैला वंदणा में नाम घाल करूं साखी, ज्यूं रहै इसी विधनाकी ॥ २३३ तेजसी नै साखी करि कहै आम, हूं घालूं वंदना में नाम । आचार्य चौमासो तिण दिशि लीनी, तिक्खुतो गुण वंदना कीनी ॥ २३४ पंचम पद में घालेसुं नाम, ते पिण थांरी साख छै ताम । इण विध प्रतीत पूरी उपजाइ, ते छानी न राखी काइ ॥ आगै सुणो अवदात ।
२३५ संवत्सरी ना दिन नीं ए बात, हिवै
गाउ सैहर तिहां चौमासै संत, एक गृहस्थ आवी भाखंत || २३६ तीजा अविनीत तणा समाचार, ते सांभळजो विस्तार | त्यां को पांच बोल करो अंगीकार, तो हूं गण में आवूं इण वार ॥ २३७ १. मोनै तप देवै पिण छेद न देवै, २. म्हांरा पोथी पांना नहीं लेवै । २. स्वामीजी भेळो बहु साधां मांहि, बे निशि थी अधिक राखै नाहि ॥ २३८ ४. आगै बगसीस ज्यूं री ज्यूं राखै, कांम बोज प्रमुख री न आखै । ५. मांहि लेइ नै न छोड़ै , तो हूं गण में आवूं सोय ॥ २३९ तिण गृहस्थ नै साधां कही बात, छेद तप तो स्वामीजी रै हाथ | दोय रात्रि उपरंत री ताणै, ते पिण स्वामीजी जाणै ॥ २४० दोष विना तोनै छोडै नांय, बोल बीजां री अरज कराय । इण विधि गण में आवा री धारी, दोष री नहीं रही लिगारी ॥ २४१ अधिक अवनीत पंचमोर जाण, हिवै तास वृतांत पिछांण । छमास बारै रही गण मांहि आया, त्यांरा घट मांहि अधिकी माया ।। १. गव्यूति - दो कोश | २. छोगाजी (लघु)
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२४२ गण में बे मास रही नै ताम, बले करै उदंगळ आम । जैगाम जइ इक साधु फटाय, चौमासा में ले आयो ताय ॥ मझारो ।
बाजार
२४३ इण विध चौड़े पाड्यो तिण धाड़ो, ते पिण पण धाड़ो चौमासा मांह्यो, बीजा गाम थकी ले आयो ॥ २४४ साधां जाण्यो ऐ दगादार पूरा, जद कर दिया गण थी दूरा । बहुविध कपट कियो गण मांहि, घणां लोकां जाणै लिया ताहि ॥ २४५ बीजो, तीजो चौथो तीनूं भेळा था दूठो', आहार पाणी तीजा सूं तूटो । धुर पंचम छठो यां तीनां सूं ताय, तीजो अविनीत मिलियो आय ॥ २४६ छठो गुणठांणो फिरियो सरधीयो, तिणसूं आहार पाणी किम कीयो । ए पिण विकळां रै नहीं छै विचार, कियो आंख मींचने अंधार ॥ २४७ छठो गुणठाणों तो फिर गयो पहिला, दीक्षा विण कियो संभोग वहिला । रखे अधिक दिवस थयां छठो फिर जाय, तिण भय सूं पोतै आया मांय || २४८ दोनूं तीजा अविनीत सूं संभोग कीधो, पिण नवो चारित्र नहीं दीधो । दीक्षा दियां विण कियो संभोग, तिण सूं लागो जोग नै रोग || २४९ तो ए छठो फिरियो तिण सूं संभोग करता, मन मांहै मूळ न डरता । गण में आया पछै दोनूं नै आम, कोइ पूछां करै तिण ठांम ॥ २५० थया तीनां नै साढा छ मास उपरंत, यांमै चरण पावै कै न हुंत । जद तो कहै छठो नहीं पाय, तो टळियां पछै किम थाय || २५१ गण में थकां रो श्रध्यो छठो फिरियो, तठा पछै नवो न उच्चरियो । त्यांनै गृहस्थ सरीखा जाण्या भेषधार, तिण सूं दीक्षा विण किम कियो
आहार ॥
२५२, गण में थकां री श्रद्धा जाणै साची, जद तो भेळा थया मत काची । कै असाधु श्रध्या ते श्रद्धा जाणो, झूठी, तो थांनै दीक्षा आवै अपूठी || २५३ रह्या साढा छमास थकी अधिक बार, तिण में चरण सरधो इह वार । तो बे मास तांइ न सरध्यो चरित्त, इण लेखै थारै आयो मिच्छत्त ॥ २५४ थारै लेखै साधु न सरध्यो असाध, थांरै लेखै सम्यक्त्व विराध । कुदेव नै देव सरधै बे मास, नवो चरण आवै तास ॥ २५५ सरधै अजीव नै जीव बे मास, नवो चरण आवै सरधै अधर्म नै धर्म बे मास, नवो चरण आ
तास ।
तास ॥
१. कस्तूरी को हरषचंद जी स्वामी के पास लाया गया। २. दुष्ट
३. कपूरजी से ।
३९० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२५६ थारै लेखै साधु नै असाध बे मास, सरध्यां नवो चरण आवै तास।
गण नी श्रद्धा नै खोटी कह्यां ताय, थांनै नवो चरण इम आय॥ २५७ जो गण में छतां री श्रद्धा सुद्ध कैहणी, तो नवी दिख्या त्यांनै देणी।
रह्या साढा छ मास उपरंत, त्यां नै नवी दिख्या आवंत ।। २५८ ए सुध श्रद्धा जाणो सूत्र न्याय, तो नवी दिख्या यांनै आय।
ए श्रद्धा सुद्ध तो संभोग न करणो, असुद्ध जांणो तो थांनै उचरणो॥ २५९ थे नवी दिख्या यांनै नहीं दीधी, तथा पोते पिण नवीं न लीधी।
थे बहुविध न्याय निरणो नवी धास्यो,संभोग कियो अविचारयो।। २६० यां सूं नवी दिख्या विण संभोग कीधो, जग माहै अपजश लीधो।
- छठो अविनीत रही दिन दोय, जिहां हुँतो तिहां आयो सोय।। २६१ दंड ओढ आयो गण माहि, त्यांरा समाचार कह्या ताहि ।
जूं न्हांखवा री श्रद्धा छै यारै, घणो ढीलापणो छै तीनां रै।। २६२ पछै हूं गयो बीजा' चोथा रै ठिकाण, त्यां मुझनै कही इम वांण।
थे कांइ कीधो ए भागल भृष्टी, महा कपटी अन्याइ दुष्टी।। २६३ ऊतो शसण मोटो छै तसु छोडी, क्यूं आयो भागला में दोड़ी।
जू न्हाखवा री श्रद्धा छै यां रै, महा दगादार कपट्यां रै॥ २६४ जूंआं न्हांखै जिण नै म्हे कह्यां ताय, मांस गाय नो खाय।
इण विध यांसूं कहिणी आवै नांहि, तिण सूं क्यूं रहै तूं यां मांहि ।। २६५ यां तो चउरासी बोल पशूप्या दोष, पाछा सेळभेळ किया फोक।
त्यां मांहिला बोल घणां सेवै एह, त्यां में दोष पिण नहीं सरधेह ।। २६६ कै तो रहिणो उण शासण मांय, कै म्हारै सैमल होय जाय ।
कच्छ गुजरात में एकांत जाय, सारां आत्म कारज ताय।। २६७ इत्यादिक कही बहु विध वाय, जिण सूं पाछो आयो गण माय ।
हिवै अधिक अविनीत तीजो पंचम जांण, जै तीनूंइ भेळा पिछाण।। २६८ दूजो अविनीत नै चोथो बे भेळा, जुओ-जुओ संभोग न मेला।
तीजो अविनीत हरष ऋषि पास, काती सुदि चोथ कह्यो तास।। २६९ पंचपदां में घाल्यो नाम, दिवस घणै अभिराम।
घालतूं नाम बले हूं सदाई, प्रतीत हरष नै उपाई।। २७० बोल-चाल रो तो रह्यो नहीं कोय, थारै ज्यूं म्हारैइ होय।
ऋषि ज्ञान भणी कहै गुरु छै थारै, ते पिण गुरु छै म्हारै।।
३. संतोजी।
१. कस्तूर जी वापस गण में आ गए। २. जीवोजी।
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२७१ मृगसिर विद नवमी' तेजसी नै कही छै, सर्व साबत बात सही छै।
चौमासो उतस्यां मुनि राया, गुरु रा दर्शन करिवा आया। २७२ छठो अविनीत कहै गुरु आगै, सांभळजो अनुरागै।
हुं बे दिन त्यां रही गण मांहि आयो, घणी ढीलाइ देखी त्यां मांह्यो। २७३ विविध बेरीत जाण्यो त्यांरो ठागो, तिण सूं पाछो पगां आय लागो।
काती सुदि ग्यारस नदी रै मांह्यो, तिहां नाम चर्चा रै ते आयो।। २७४ मोनै कह्यो थे मांनो म्हारी बात, नहीं तो मरतूं करी अपघात।
नांगळो लेइ नै पासो लीधो, मुझ देखतां प्रगट प्रसीधो॥ २७५ नांगळो लेइ नै तिरछो नडीयो, पछै दाढ देइ अडवडीयो।
जद दया आइ म्हारै मन माह्यो, वचन दियो जावा रो ताह्यो।। २७६ छठै कही ए अधिक अविनीत री बात, ओछी अधिकी जाणै जगनाथ।
म्हारै पिण बैहम पड्यो मन मांय, तिण सूं चित्त विभ्रम अथाय॥ २७७ पिण तीनूं में जावा रा पचखांण, दूजा चौथा में जासू जाण ।
कदा ए फेर दीक्षा लेवै जाण, तो पिण यांमै जावा रा पचखांण। २७८ बले क्षेत्र में रहिवा तणा नेम, उतरती पिण करवा रा एम।
आचार्य रै मूंहढे ए जाण, किया जावजीव पचखांण। २७९ गुरु कह्यो त्यांग भांगै ए सोय, तो भव-भव रक्तपीती होय।
पछै गुरु नै वांदी नै गण सूं निकळियो, विचै अधिक अविनीतज मिलियो। २८० तिण लेवा रा किया अनेक उपाय, दिन इक निशि खप करी ताय।
तिण रै तो सैमल हुओ नाय, मिलियो दूजो चोथा सुं जाय।। २८१ अधिक अविनीत पूठा थी ध्यायो, ते तीनां कनै चल आयो।
त्यां भेळो थावा रो उपायज कीधो, पिण त्यां तिण नै मांहि न लीधो। २८२ दूजो चोथो छठो विहार करीनै, गया कोश अनेक चली नैं।
'धुर तीजो पंचम' तिण वेलो, आहार पाणी तीनां रै भेळो ।। २८३ तीनूंह गुरु दिश कियो विहार, गण में आवा री धार।
इह अवसर गणपति रै पायो, ओ तो 'बाव' थकी चल आयो ।। २८४ मूलजी कछी कुलंबी जांण, मुनि वेस श्रावक पहिछाण।
गुरु रो दर्शण करि बोल्यो ताम, आयो आपरा दर्शण काम।। २८५ बिच मांहि मिलिया तीन अविनीत, म्हांसूं बांधी अधिक प्रीत ।
मोनै दिख्या देवा उपदेश दीधो, कहै कार्य हिव तुम सीधो।।
१. कार्तिक विद नवमी होनी चाहिए।
२. चतुर्भुजजी, कपूरजी छोगजी,(लघु)।
३९२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२८६ आपरा अवगुण बोल्या अनेक, पूरा कहिणी न आवै विशेष।
पोल घणी जाणै निज मांय, तिण सूं हाजरी नित्य लिखाय।। २८७ साधा नै ऊभा राखै मुख आगै, इम लोकां में आछी न लागै।
साध-साधवी घणां रहै भेळा, निज कीर्त्ति काज स मेळा।। २८८ म्हांनै न्यारा विचरावै नांहि, बहु दोष अछै गण मांहि ।
तिण कारण गण सूं निकळिया, विहार में विण पूछ्यां टळीया।। २८९ जद म्हे कह्यो दोष जाणो इण मांहि, तो चरचा करवी स्वामीजी सूं त्यांहि।
पिण छांना मांना भागवो नहीं भोर, छानै भागतां थेईज चोर।। २९० जिनमत में भागवो नहीं छांनै, चोड़े पूछवा. बोल गुरां नै।
जद कहै बोल म्हे पूछां जिवारै, म्हांनै बोलवा न दै तिवारै।। २९१ गळो ग्रहै हाजरी रै मांहै, म्हांनै ऊभा करदै ताहै।
करै फजीत लोकां रै मांहि, तिण सूं डरता पूछी सकां नाहि। २९२ पूर्व भव में स्वामीजी आप, कोइ तापस था महा ताप।
साधां ऊपर तो दया नहीं आले, ऊभा कर देवै तड़कै उन्हाळै। २९६ अज्जा नै तो खमा-खमा कहै छै, त्यांरा कैहणा में आप रहै छ।
बले कह्यो स्वामीजी तो परमांधामी छै, सांधा ऊपर दया नहीं छै॥ २९४ तीजै अवनीत कह्यो बले एम, ऋषिराय वरतारै खेम।
जुदा-जुदा लेइ नै सिंघाड, विचरता हुंता अणगार।। २९५ पचपदरा जिसा क्षेत्रां में तास, करता दोय ठाणां चउमास ।
तिहां बैठा सीखावां म्हे बायां भाया नै, ए बात म्हारै मन मानै। २९६ बले मन मान्य विचरता खेत्त, बाई भाई सेवा करता तेथ।
आगै अम्हे एहवी असां करता, अब तो रहां छां डरता ।। २९७ साधां रा तो भांग न्हाख्या सिंघाडा, किम विचरै हूंस कर न्यारा।
इत्यादिक अवगुण बोळ्या अनेक, जद म्हे कह्यो आण विवेक।। २९८ दशा रै साल हूं आयो मेवाड़, जद थे अवगुण बोळ्या अपार। ___म्हारै पिण कर्म बंधाव्या अपारी, ते हूं याद करूं वारूंवारी॥ २९९ तें दिन थी तुम्हनै हूं सोय, साधू न सरवू कोय।
स्वामीजी नै सुद्ध साधू जाणूं, थांरी प्रतीत न आणू।। ३०० पछै कमर बांध हूं आवण लागो, मोनै लेग्यो दुकान में आघो।
अधिक अविनीत कह्यो मुख आगै, तुम्हे जावो सो आछी न लागै॥
१. चतुर्भुज जी, कपूर जी, छोगजी,(लघु)।
लघु रास : ३९३
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३०१ तुम्हे आधारभूत छो अम्ह नै, कह्यो करी सजल लोचन नै।
कह्या नरम रूप वच सरागकारी, पिण म्हे तो न मान्या लिगारी।। ३०२ गण मांहि आवा तणी हूंस राखै, बले अवगुण इण विध आखै।
त्यांनै विवेक रा विकळ कहीजै, त्यांरा कार्य किण विध सीझै।। ३०३ गुरु रा दर्शण करवा श्रावक एक, आय कह्या सुगुरु नै विशेष।
हूं आवतो दर्शन करिवा काम, तीजै अविनीत मुझ कह्यो ताम ।। ३०४ बोल चाल री तो म्हारै न कांय, म्हे पिण पगां पडां छां जाय।
गण माहै दोष जाणै ए ताय, तो इम कहि किम मांहि आय ।। ३०५ जद दिख्या दियां विण लेवा रा त्याग, जय गणि कीधा सुद्ध माग।
तीनूंइ गणपति ना समाचारो, सांभळिया तिण वारो।। ३०६ दिख्या दियां विण पांचां नै जांण, मांहि लेवा रा पचखांण ।
छठा नै काळ थोड़ो थयो जास, तिण सूं मिलियां पड़े ठीक तास॥ ३०७ ए त्याग सुणी थया अधिक उदास, त्यांरा मन री न पूगी आस।
तिण सैहर थकीं इक बाई आई, तिण गणपति नै बात सुणाई ।। ३०८ कह्यो तीजा अविनीत तणो अवदात, मोनै मिलियां कही तिण बात।
आप त्याग किया ते सांभळ कान, मोनै इण विध बोल्या बान ।। ३०९ देखो अमकडिया री माजी स्वामीजी, दीक्षा दियां विण आखडी' लीजी।
___ म्हे तो गण में आवा री धारी, देखो स्वामीजी काय विचारी।। ३१० इतला दिन रह्या इण गाम, गण में आवा रै काम।
देखो अमकडिया री माजी प्रसीधो, म्हे तो बालपणे चरण लीधो।। ३११ वर्ष इता चरण पाळ्यो ताह्यो, म्हांसूं नवो लियो किम जायो।
एक घडी तांइ ऊभा विख्यात, बाई कह्यो म्हांसू करी बात।। ३१२ पचपदरै पोस विद मांय, तीनूंइ तिहां आया चलाय ।
जय गणपति रै पास जिवार, आयो तीजो अविनीत तिवार ।। ३१३ सन्मुख वंदना कीधी जोड़ी हाथ, घणां देखतां प्रगट विख्यात।
. म्हे तो वंदना रो संभोग कीधो, घणा दिवस तांइ नाम लीधो।। ३१४ सुणियो दिख्या विण नहीं लै मांहि, तठा पछै वंदना छोडी ताहि ।
म्हांनै नवी दिख्या आवै किण न्याय, हिवै जय गणपति कहै वाय॥ ३१५ गृहस्थ पिण वंदना में घाले छै नाम, कारण वनणा रो नहीं ताम।
चउमासा मांहि मुनि था त्यांसू, संभोग न कीधो ज्यांतूं।
१.प्रतिज्ञा।
३९४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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३१६ साढा छ मासे नाया गण मांय, नवी दीक्षा आवै इण न्याय ।
बोल्यो-आपनै भ्यासै तिको करो सोय, न करूं आप सूं चरचा कोय॥ ३१७ बले कहै हूंतो छू कीड़ी समान, आप हाथी समान सुजान।
जय कहै-सम्यक्त्व राखजो सोइ, बोल्यो सम्यक्त्व चारित्र दोइ ।। ३१८ जय कहै-चरण सरधै आप मांहि, तो सम्यक्त्व पिण रहै नांहि।
जद कहै-कदै मार्ग रहै नांहि, नीकळ्यां चरण किम न कहाइ ।। ३१९ जय कहै-नीकळ्यां में चरण कहीजै, तो पाछलां नै स्यूं सरधीजै।
इम कह्यां पाछो जाब न आयो, पछै आयो जिण दिशि जायो।। ३२० पहलै दिन सिरदारांजी पूछयो ताहि, म्हांनै साधु सरधो कै नांहि।
दिख्या विण न ल्यां म्हारै ए मर्याद, जद कहै हूं तो सरयूं साध ।। ३२१ किण ही नै कही दीसै छै बात, तिण आय पूछी साख्यात।
यां वंदणा माहै नाम घाल्यो हुलासी, ते वंदणा यांरी यूं ही जासी॥ ३२२ जय गणि क है-यूंही किम जाय, तिण री हुई निर्जरा ताय ।
अधिक अविनीत सिरदाराजी पाय, बोल्यो इह विध वाय।। ३२३ इतरा दिवस रह्या उण ग्राम, ते मांहि आवण रै काम ।
गणपति नांहि किया अंगीकार, जद कर गया तीनूं विहार ।। ३२४ हिवै बार' अधिक अविनीत, बेहुं नै मेल गयो अनीत ।
त्यां तीनां कनै जावा भणी प्रसीधो, अनेक कोसां रो पैंडो कीधो।। ३२५ त्यां तो तिण नै आदरिया नांय, जद छठा नै लेग्यो फटाय।
धुर अविनीत गयो तिहां थी आघो, घणा लोकां जांण लियो ठागो। ३२६ हिवै तीजो पांचमो बलि गणि पै आय, मांहि आवा करी नरमाय।
महा विद बारस तिथि वदीत, गुरु नै मिलियो तीजो अविनीत ।। ३२७ लोकां सुणतां-कहै ए गुरु म्हारा, म्हे चेलां छा यांरा।
__ जय कहै-गुरु तो कहै छै साख्यात, तो क्यूं न करै ऊंचो हाथ ।। ३२८ बोल्यो आहार पांणी रो संभोग न कांइ, तिण सूं वंदणा करां म्हे नांहि।
जो करै आहार नो संभोग उदार, तो म्हे वंदणा करां इह वार ।। ३२९ जय कहै-पहिला वंदणा कीधी जोग, जद पिण न हुँतो संभोग।
वंदणा तिहां कीधी धर प्रेम, तो इहां करै नहीं केम।। ३३० कोइ कहै-म्हारी माता बांझ तेम, गुरु कही न वादै ते एम।
लोक कहै ए तो ओळंभो साचो, खराखरी ए जाचो।।
३. छोगजी (लघु)
१. अलग। २. कपूरजी।
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३३१ पंचम' अविनीत गुरु पै आय, गण में आवा रा किया उपाय ।
गुरु कहै दिख्या दीया विण सोय, म्हे तो माहै न ल्यां कोय ।। ३३२ कहै आप दिख्या विण त्यागज लीधा, पिण सरूपचंदजी न कीधा।
जय क है-सर्व साधां रै नेम, दिख्या विण लै के म ।। ३३३ महा सुदि नवमी तांइ सुविशेष, इम बातां हुइ अनेक ।
इण विध गण में आवण आघा, बले दोष बतावण लागा ।। ३३४ साढा इग्यारै मास लग ताहि, चारित्र सरध्यो गण मांहि ।
तठा पछै तो जाणे सर्व ज्ञानी, पिण ए तो प्रत्यक्ष पिछांनी॥ ३३५ अधिक अविनीत रै संभोग यां सूं, तिण सूं श्रद्धा जूदी की त्यां सूं।
गणपति हाजरी लिखत सुणाया, ज्यांरा हाथ रा अक्षर दिखाया।। ३३६ घणां गांमा में वंदणा रा त्याग कराया, ते सुण नै द्वेष भराया।
लोक पूछयां बोलै आळ पंपाळ, झूठा देवै बहु विधि आल॥ ३३७ साधां में दोष कहे अविवेक, त्यारै कर्म तणी काळी रेख।
साधां में दोष बतावै मूढ, ते कर रह्या कूडी रूढ॥ ३३८ साधां में अणहंता दोष बतावै. ते तो गाळां रा गोळा चलावै।
किण नै कहै अक्षर कीधा, ते डरता थका लिख दीधा।। ३३९ कोरडां नी मार मतो घाळे तेम, म्हे पिण अक्षर किया छै एम।
किण नै कहै भिक्षु स्वाम निकळीया, तिम म्हे पिण यांसूं टळिया।। ३४० किण नै कहै ए ढीळा चाळे, दोष सेवतां नै कुण पालै।
किण नै कहै सेलक नै ढीळो जाणी नै, चेला गया छोडी नै॥ ३४१ किण ही पूछ्यो छांनै क्यूं नीसरीया, पूछी नै नहीं टळिया।
जाब करवा री आसंग न कांय, तिण सूं छांनै नीसरिया ताय।। ३४२ किण नै कहै चेला री प्रतीत न गुरु नै, ज्यूं गुरु री प्रतीत न शिख नै।
किण नै कहै मोटा भांडा छोत न लागै, इम दृष्टान्त दै लोकां आगै॥ ३४३ किण नै कहै प. किण वेळा कोपरियो', कदे राय पड़े कदे सडीयो।
- इम पड़तां-पड़तां पड़ जाय बघारा, इम जाण नै हुय गया न्यारा॥ ३४४ तिण नै बुद्धिवंत वै ते पाछो कहै एम, दोष जाण्या पछै रह्या केम।
एक दोष सूं बीजो भेळो करै ताही, लिखत पचासै कह्यो अन्याई।। ३४५ किणनै कहै दोष जाणै रह्या क्यांनै, दोष जाण्यां पछै छोड्या यांनै।
इण विधि झूठ बोलै जाण-जाण, तिण रो नहीं कठैई प्रमाण।।
१. छोगजी (लघु)
३. तरेड़। २. पत्थर का टुकड़ा। ३९६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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३४६ दंड लेई मांहि दंड लेई मांहि
३४७ दंड लेई मांहि आवा दंड लेई मांहि आवा
कहै
३४८ दंड लेई मांहि आवण पूरा,
बले. दोष कहै
कूडा ।
बतावै झूठा ॥
दोष
कहै छै अनाणी ।
गण में आवी लेवै ॥
बहु
विधि ताम |
पिण
नहीं छांनै ॥
तणो लेवै नाम ।
कहै छै बात ॥
ओ पिण झूठ ३५२ दोष जाणै तो
बात
दंड ई महि आवत तूठा, बले दोष जाणी, बलि जो देवै, जब तो परिणाम, तिण सूं बोलै कीया' सहु जांनै, ते प्रगट पड़णो काठो कांम, तिण सूं दोष बोलै साख्यात, घणां वर्सा री वंदना में नाम, क्यूं घाल्यो घणां दिन तांम । वंदना तणो म्हे कीधो संभोग, संवच्छरी सुभ जोग ॥ ३५३ पछै दोष री र क्यूंही, झूठा दोष बतावै यूंही। किण ही पूछ्यो थे दोष कहो गण मांहि, थे पिण सेव्यो घणा वर्स तांई॥ ३५४ घणा वर्स रह्या असाधां मांय, तिण सूं नवी दीक्षा त्यां नै आय । जद कहै नवी दीक्षा नावै म्हांनै, दोष जाण्या पछै यांनै ॥ ३५५ दोष न जाण्या म्हांरो न यांरो, न गयो साधुपणो सगळां इता वर्स तांइ, दोष न जाण्या साधुपणो थापो, यांरो थे कांय हिवड़ा जाणै नांय, तो यांरो संजम किम जाय ॥ चरण इम थांरो, तो इमहिज चरण इणां रो । संजम गयो नांहि, निर्दोष जाण सेव्या ताहि ॥ तेहिज छै तेम, यांरो चारित्र जावै केम | हिवडां तेहीज, तो चारित्र किम न कही ॥
रो ।
त्यांनै कहिणो थो
कांइ ॥
थे
उथापो ।
३५७ घणा वस रो
इतरा वर्षां रो ३५८ हिवडां पिण बोल
बोल आ ३५९ न्याय दृष्टि करि मन में
विचारो, म करो आंख मीच नै अंधारो । घणा व रो चरण पोता में सरधै, कहै प्रगट पिण नहीं पडदै ॥ ३६० इतरा वर्सा रो चरण गण में पिण थापै, तो हिवडां कांय उथापै । इतरा वस रो चारित्र यांरो न थांरो, दोष सेव्यां तो न गयो किणां रो ॥
३४९ दंड लेई मांहि आवै
दीक्षा विण और दंड
३५० दीक्षा लेवा रा नहीं
'दीक्षा विण त्याग ३५१ 'लहुडा' रै' पगै
३५६ तिण सूं थारो ए पिण दोष
आवण साजै,
आवण
री
१. छोटों के ।
बलि दोष बैठा, बलि दोष
हाम, हिवै दोष
नै त्यारी, बलि दोष
कहिता नहीं लाजै ।
बतावै
धेटा ॥
किण काम |
छै गिंवारी ॥
छै
कहै
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३६१ थे गण में थकां निर्दोष जानंता, जद टाळोकर दोष कहता।.
पिण थे निर्दोष जाणी सेव्या जब ही, तिणसूं तिको संजम सरधो अबही। ३६२ ज्यूं हिवडा संत दोष न जाणै, थां सरीखा टाळोकर ताणै ।
पिण संत निर्दोष जाणी नै सेवै, तिणसूं त्यां में दोष कुण कहेवै।। ३६३ तेह टाळोकर दोष कह्यां थी, थांरो संजम न गयो सेव्यां थी।
ज्यूं हिवडां टाळोकर दोष बतावै, तो म्हारो संजम किम जावै ।। ३६४ गया काळ रा टाळोकर जेह, वर्तमान रा छंह।
दोनूं टाळोकर सरध्यां में तत्थ, थारो सरधो गया काळ रो चारित्त॥ ३६५ तिमहिज हिवडां वर्तमान काळ, म्हे सेवां निर्दोषण न्हाल।
थे दोनूं टाळोकर दोष बतायो, तो म्हारो चारित्र किम जायो॥ ३६६ बोल थाप गण में गयै काळ, त्यांरो चारित्र सरधो विशाल ।
हिवडयं ते ही बोल थाप पिण तेह, तेहिज संत गुणगेह ।। ३६७ बोल थाप हिवडां पिण थाय, हिवडा नहीं सरध्यां पहिलाइ।
चरण पहिला तिको हिवडां पिण थाय, हिवडा नहीं सरध्यां पहिलाइ नाय॥ ३६८ निर्जरा हेतै छोड़े जे बोल, पिण जाणै निर्दोष अमोळ।
दोष न जाण्या बोल छै तेहवो, छोड्यो पिण नहीं छोङ्या या जेहवो॥ ३६९ स्वाम भिक्खु पिण इम कही बात, लिखत -पैंताळीसै अवदात ।
सरधा आचार कल्प रो बोल, तथा सूत्र नो बोल अमोल ।। ३७० गुरु तथा भणणहार कहै जाण, करवो तिमज साधु नै प्रमाण।
नहीं वैसे तो केवळियां नै भळायो, पैताळीसै भिक्षु फुरमायो। ३७१ ए वचन धारयां सम्यक्त्व नै नहीं जोखो, ज्यूं पांमै अविचल मोक्षो।
ए भिक्षु वच अंगीकार करीजै, मन नी ले'र मेटीजै ।। ३७२ पंच ववहार भगवती मझार, बले ठाणांग नै ववहार।
जीत ववहार पंचमो दाख्यो, तिण सूं वीर आराधक भाख्यो॥ ३७३ आख्यो आचारंग मांहि जिनेश, पंचमध्येन रै पंचमुदेश।
- सम्यक सुद्ध जाणी मुनि सैवै, जिन असम पिण सम कहिवै ।। ३७४ तेरै अंतर कह्या भगवती माय, संका राख्यां मिथ्यात वेदाय ।
श्री जिन भाखै ते सत्य निसंक, इम धारी तजै मन बंक॥ ३७५ तास आज्ञा नो आराधक कहीजै, ए वचन अंगीकृत कीजै।
तथा बले आचारंग कह्यो जिनेस, पंचमध्येन रै चउथै उद्देश ।। ३७६ तद्दिट्ठीए-आचार्य नी दृष्टि देखी, प्रवत् सुविनीत विशेखी।
तम्मुत्तिए-आचार्य नै अभिप्राय, तन्मय पणै रहै ताय ।।
३९८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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३७७ तस्सन्नी-गणपति जाणे ते ज्ञान, तिमहि जाणै सुजान।
तप्पुरक्कारे-गणप्रति नै जाण, करै सहु कार्य में अगवाण॥ ३७८ इहां कह्यो जाण पणो गुरु नो होय, तिम पोते जाणवू सोय।
कार्य सर्व मांहि अगवाण, करै आचार्य नै सुजाण॥ ३७९ ए वचन देखतां जिनेश्वर आप, करी आचार्य नी थाप ।
बुद्धिवंत विनयवंत मिलि जेह, गुरु थापै ते अंगीकरेह ।। ३८० गण मांहि सेव्या सतरा वर्स बोल, थारो न गयो चरण अमोळ।
ज्यं म्हे पिण हिवडां निर्दोषजानंता, म्हांमै दोष क्यूं ताणंता॥ ३८१ जब कहै म्हे दोष जाणा तिण लेखै, थांमै दोष सरधां सुविशेखै।.
थे निर्दोष जाणी सोय, पिण म्हारै लेखै दोष होय।। ३८२ तिण नै कहिणो थे सेव्यो इता वर्स तांइ, थारै लेखै दोष थां माही।
थांने इतरा वर्सा रो दोष न लागै, निर्दोष जाण सेव्या सागै॥ ३८३ म्हे पिण निर्दोष जांण ए बोल, तो म्हारो चरण अमोल।
थारो गयो काळ म्हारो वर्त्तमान, ए दोनूं सरीखा पिछान।। ३८४ गया काल रो साधुपणो थारो, ज्यूं वर्तमान रो म्हारो।
ज्यूं थे पिण महोच्छवादिक करंता, तिण में टाळोकर दोष कहता।। ३८५ पिण थे दोष जाण न सेव्यो कोय, तिण सूं दोष न सरधो सोय ॥
ज्यूं थे पिण हिवडां दोष कहे, पिण म्हांनै दोष न भ्यासेह।। ३८६ थारै गया काळ रा टालोकर तेह, ज्यूं हिवड़ा टाळोकर थेह।
ते पिण कहिता छोड्या म्हे ढीळां नै, ज्यूं थे पिण कहो छोड्या थांनै॥ ३८७ ते पिण कहिता आगी नो चिमतकार, ज्यूं थे पिण कहो इणवार।
ते पिण कहिता साधां में दोष, ज्यूं थे पिण कहो छो फोक ।। ३८८ ते पिण गण नी निंदा अति करता, थे पिण इम पिंड भरता।
क्षेत्रे रहिता तेपिण नाणंता संक, थांमै पिण योहिज वंक॥ ३८९ त्यां पिण लिखत सूंस दीया भांग, थारो पिण ओहिज सांग।
उणां री थांरी सरीखी बात, ते प्रगट दीसै विख्यात॥ ३९० ते बिखर गया मूआ भंडी रीत, ज्यूं थे पिण होसो फजीत।
एक भाई साधां नै कह्यो एम, म्हे समझाया धर प्रेम। ३९१ दांत सोभै छै मूंहढा रै मांय, पिण बारै पड्या न सोभाय।
जद कहै ओर भारी दंड दीजै, पिण नवी दीक्षा किम लीजै॥ ३९२ किणनै कहै अवरां नै तो जै धेरै, तिण चेला नै क्यूं न अवेरै।
एक श्रावक कह्यो साधां नै आय, तीजा अविनीत री वाय।।
लघु रास : ३९९
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विराजत
पांण ।
राखणो नांहि ||
३९४ पोथी पांना संत नै संत सत्यां कन्है राखण ३९५ हाकम नी परै तो गुरु कहै जठै ३९६ चौमासो उतरियां
ना छै सकज्जा । भाव न बंधाई || संत सती इम जेर । शेष काळ सुविमास ॥ पछै तेह, वैगा दर्शण करै जेह |
सकज्जा ।।
३९७ ए तो माल छै सहु
किण रो | आसो ॥ तेम ।
तिण कारण पोथी पांना मुनि अज्जा ले लीया सर्व गणपति रो, और नहीं छै मुरजी आवै तो म्हेलै चउमासो, मुरजी विण न फळै मांहि ३९८ भरती पडिया रहे एम, जोर न लागै Mast बहु भणियो- गुणियो होय, तिण नै छोटा लारै म्हेलै सोय ॥ ३९९ ते पिण मुरजी हुवै तो म्हेलीजै, मुरजी विण कार्य न सीझै । कदा सिंघाड करी विचरावै, तो बंधवस्ती बोलण री करावै ॥ पाछी हाजरी याद इती किम रहेवै । इम बंधवस्ती सूं गण मांही, रह्या बारै वर्ष तांइ ॥ ४०१ घणा दोहरा दिन काढ्या तांही, कोइ संढावालो' मिलियो नांही । एकलो टळवा रो नहीं देख्यो टांण, तिण सूं इम दिन काढ्या जाण ॥ ४०२ बीजूं इती बंधवस्ती मांय, कवण रहै दुख पाय ।
लेवे,
४०० बोलै तो
श्रावक
कह्या समाचार ॥
न आवै ताहि । कहै क्यूं अळीयारे ॥
तीजा अविनीत तणा ए धार, एक ४०३ इण विधि संकडाई रै मांहि, रहिणी तिण कारण न्यारा निकळिया, तो दोष ४०४ दूजो अविनीत काती में ताय, साधा कनै कही इम वाय । छमास उपरंत हुआ इण नै, तिण सूं दीक्षा विण न लेणो तिण नै । ४०५ दीक्षा विण मांहि लेसो अन्यावो, थे पिण ठागा सूं काम चलावो । बलि गणपति पास जोधाणै आय, एक गृहस्थ बोल्यो इम वाय ॥ ४०६ दूजा अविनीत तणों ले नाम, मो पासै कहिवाया तां । थे जोधाणै जावो स्वामीजी नै कहिजो, दीक्षा विण यांनै मांहि म लीजो | ४०७ छमास थी अधिक थया है इण नै, तिण सूं दीक्षा विण न लेणो तिण नै । त्यांरै जूं न्हाखवा री श्रद्धा छै तांम, तिण सूं सम्यक्त्व रो काठो कांम ॥
विधि
पाट
मोनै कह्यो त्यां जाण, दोनूं भायां चिंतव्यो मन मांहि भोमियापणो
अज्जा, सहु गणपति नांही, तिण सूं ममत राखण हेर, रहै करै चउमास, बले
३९३ इण
१. साथी ।
२. अवसर ।
४०० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
३. झूठा
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रहै कांय ।
न्याय ॥
मान्या ए
अपराध ।
४०८ थया छमास थी अधिक विशेषो, दीक्षा विण गण में किम लेसो । इण ने दीक्षा विण मांहि न लेसै, तो बाप दादा रो घर गिणैसै ॥ ४०९ जो दीक्षा विण लेसो इणवार, तो जांणसां भरत में थयो अंधार । म्हारो गण में आवा रो मन होय, तो दीक्षा ले आसां जोय ॥ ४१० म्हे तो कपूत सपूत उणांरा, पिण नहीं अवर किणां रा । उतावळो बोली नै बात आखी, इम गृही गणि पै दाखी ॥ ४११ इण लेखै नव मास गण में रही आयो, दीक्षा विण किम लै मांह्यो । यां नीकळ्यां पछै छठो अवनीत, गण में रह्यो नव मास सुरीत ॥ ४१२ तिण नै दीक्षा विण यां मांहि लीधो, बले आहार पांणी भेळो कीधो । जो साधुपणो जाणे गण मांहि, तो पोता में चारित्र नांही ॥ ४१३ जो गण में कहै छठो गुणठांणो, तो न्यारा रह्यां दोष जाणो । गण में असाधु सरधै जो ताहि, तो छठा अविनीत नै लेणो नांहि ॥ ४१४ साधु पणो सरधै गण मांय, तो पोतै जुदा दोनूं प्रकारे बंध में आय, साप ग्रही छछंदरी ४१५ जो साढा छमास तणीं मर्याद, न कितो काळ रहै असाधां मांहि, तथा आज्ञा बारै रह्यां तांहि ॥ ४१६ तो साधुपणों तिण नै देणो सुवैद, किता काळ पछै तप छेद । रहै इतरो काळ असाधां मांय, तठा तांइ छेद तप आय ॥ ४१७ तेहथी अधिक चारित्र आपो, थारै किसी छै थापो । पहिछांण, चरण छेद तप जाण ॥ म्हारै, कहो कवण थाप है थारे । आवै, तब पग-पग झूठा थावै ॥ सोय, ज्यारै इण विधि दोघट होय । नहीं छै संघ, त्यांरी बोली में नहीं बंध | ४२० जिलो करी पांचूं नीकळ्या साथ, पछै जू जूआ हूआ साख्यात । फूट-फजीती इण विधि होय, फळ प्रत्यक्ष देखो सोय ॥ ४२१ परभव नरक निगोद निवास, इण भव इम जाणी शासण रै बार, कोई म होज्यो लिगार || ४२२ औ जू जूआ हूआ ते प्रश्न पूछीजै, प्रभु तीर्थ कि मांहि कहीजै । थां यांमै कै म्हांमै उदार, इण रो उत्तर देवो विचार || ४२३ प्रवचन सूत्र पिण तीर्थ सार, को रैसी इकवीस हजार । तिण री तो पूछा करी नहीं कोय, पूछा चरण तीर्थ री जोय ॥
इम हिज जुदा रह्यां ११८ साढा छमास नीं थाप है
इम कह्यां सुद्ध जाब नहीं ४१९ इम शासन बारै नीकळै बात-बात महि
आपद पास।
लघु रास : ४०१
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साढा
४२४ कदा कहै म्हां टळियां साढा षटमास, तठा तांइ तीर्थ गण में तास । छमास पछै गण मांहि, चरण तीर्थ कहै नांहि || ४२५ तिण नै कहिणो थे अविनीत हुय गया जूआ, गण में असाधु किहां थी हुआ । थे टळियां पछै साढा छमास तांई, जो चरण तीर्थ गण मांहि ॥ ४२६ तो तठा पछै पिण चारित्र तेही, थाप बोल मुनि जेही । थे टळियां ते पिण हुआ जू जूआ ताहि, हिवै चरण तीर्थ किण मांहि || ४२७ कदा आप-आप में कहि दीयै मूढ, निज मत री राखण रूढ । पण समदृष्टी मांनै नहीं कोय, यांनै झूठा बोला जांणां सोय ॥ ४२८ कदे चरण तीर्थ उण मांहि जाय, कदा दूजां में पाय । इम उडतो फिरै थांरो तीर्थ असार, तिण में कदे नहीं भळी वार ॥ ४२९ भेळा होय बले होय जावै न्यार, यांरै ए पिण नहीं छै विचार । विविध प्रकारे त्याग दिया भांग, बले टळिया पछै हूआ सांग || ४३० आज्ञा लोप हुआ अपछंदा, बिगडायल जैन रा जिंदा । स्वाम भिक्षु नीं बांधी मर्यादा, ते पण लोपी अगाध ॥ ४३१ नित्य-नित्य त्याग करता था अनेक, ते पिण भांग्या विशेष । संकडाई में रहिणी न आयो, तिण सूं ओ ठागो बणाओ ।। ४३२ ते पिण ठागो जाणै लियो सोय, फिट-फिट करै बहु लोय । एहवा झूठ बोला रै मांय, चरण तीर्थ किम थाय ॥ ४३३ चरण तीर्थ गण पड़िया तीर्थ गुणखांन ॥
दूरो ।
शासण नंदन वन
किसो जानो ।
शासण रूडो, तिण सूं तो उपमांन, तिण में च्यार ४३४ हिवै किसो गण शासण मांनो, प्रभु पंथ ए गण चिन्तामणि कल्पवृक्ष, अवगुण बोलवै छोडी पक्ष ॥ ४३५ हिवै शासण गण किसो गिणेसो, सरण किस हिव रहेसो । शासण सकल कल्याण निकेत, तिण सूं थे थया अचेत ॥ ४३६ हिव थारै कवण मंदर सुख स्थान, थारै ए पिण नहीं छै शासण गण में थे 'भणिया' गुणिया, ' टलनै अवगुण थुनिया ॥ ४३७ थांनै भणावा रो ओही प्रताप, प्रगट दिखायो आप । आछा थोक, त्यांसूइज द्वेष ४३८ इतरा वर्स पाल्यो संजम भार, गण गुरु नै आधार । ताण, सुण उत्तम स्यूं जाणै ॥
पिछांण ।
गण में था थारै
नो फोक ॥
हिवै नीसर नै
अवगुण
१. पढ लिखकर तैयार हुए।
४०२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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४३९ जिण तरु छाया बैठो सुख पावै, ऊठी उखारवो चावै।
गुरू भणी कहिता सीमंधर सागै, आप भिक्षु जिम आगै।। ४४० तिण हिज जीभ सूं अवगुण बोलै, इम द्वेष तणै वस झोलै।
गुरू नै कहिता तीर्थंकर जेम, बिहु टक में धर प्रेम॥ ४४१ त्यांरा पिण लोकां में अवगुण गावै, थांनै ए पिण लाज न आवै।
छतीस गुणां सहित कहंता, त्यांरा अवर्णवाद वदंता।। ४४२ दिवस पहिलै कह्या सुद्ध आचारी, हिवै कहिवा लागा अणाचारी।
पहिलै दिवस तो जाण्या पुरस मोटा, पछै किसै दोष थया खोटा। ४४३ टाळोकर नै कहिता नित्य खोटा, हिवै किण विध जाण्या मोटा।
अवगुण रा नित्य त्याग करंता, हिवै तेहिज त्याग भागंता ।। ४४४ क्षेत्रां में एक रात्रि उपरंत, नित्य रहिवा रा त्याग करंत।
अंस अवगुण बोलण रा त्याग, जै तो नित्य करता धर राग॥ ४४५ पांना ले जावण रा पचखांण, ते पिण भांग्या जाण ।
सहु अनंत सिद्धां री साखे पचखांण, बले पंचपदां री आण॥ ४४६ घणा हरष सूं लिख्यो म्हे जाणी, वदता इम नित्य वाणी।
सरमा सरमी थी लिख्यो नहीं कांइ, इम नित्य लिखता त्यांही।। ४४७ ए सहु त्याग किया चकचूर, ते गया वहती रै पूर।
__ एक ही त्याग भांगै दिल व्यापी, तिण नै कह्यो महा पापी।। ४४८ तो नित्य-नित्य त्याग भांगो बहुवार, थारो किम होसी निस्तार।
एहवा सूंसां रा भागला' मांय, चरण तीर्थं किम थाय॥ ४४९ ओस बिंदु जिम नर भव जांणो, ओ तो तिरवा रो दुर्लभ टांणो।
किंचित् कष्ट वेदी विप्रतारयो, मानव भव काय हारयो ।। ४५० नरक निगोद ना दुख अगाद, क्यूं नवी कीधा झै याद ।
जनम मरण रा दुख वीसरिया, ते तो उळटै मारग पडिया। ४५१ सम्यक्त्व चरण अमोलक पायो, ते तो जैहलै साटे गमायो।
तुज मति ए किम ऊपनी माट्ठी, थारी छाती हुई किम काट्ठी।। ४५२ सतगुरु नै तो अनुकंपा आवै, जै कर्मां सूं भारी क्यूं थावै।
शासण सूं तो जगत तिरै छै, ए पाप पिंड क्यूं भरै छै । .४५३ स्वाम भिक्षु संत अधिक सनूरा, ए बापड़ा क्यूं पड्या दूरा।
शिव सुख हेतु सुखदाई, यांनै - कुमति ईसी क्यूं आई। ४५४ शासण वन मुनि फूल्यो नै फळिया, जै जवासिया कांय टळिया।
काल अनंत भ्रमत मग पायो, यां सैंहज में कांइ गमायो॥
लघु रास : ४०३
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चरण देश-व्रत कहिता
आथ, औ तीनूं छै आपरै हाथ । बहुवारी, ते पिण घाल्यो वीसारी ॥ आयो, यां चारित्र केम
अचर्य
गमायो ।
नहीं
दोहरी ॥
रुळजो ।
ए पिण जिण तिण नै सोहरी, थारै ए पिण दीसै ४५७ सतगुरु सीख सहु सांभळजो, यां जिम कोइ म संत सत्यांरा गुण उच्चरजो, अवर्णवाद म करजो॥ ४५८ ए तो बात न छै कोइ सारै, कर्म जमाइ जमाळी, कर्म करी नो शीस गोसाळो, थयो कर्म प्रतापो, कियो गोसाळा कुंण रंक,
४५५ सम्यक्त्व
इह विधि गुरु नै
४५६ इण बात रो म्हांनै
२
थी
यांनै कर्मां लगाया
संवळी वेवै ॥
सिराड़ै
वीर प्रभु नो ४५९ वीर छद्मस्थ दिशाचरा' षट कर्म ४६० तो ए तो बापड़ा छै कर्म कटक झाली समसेर, यांनै चिहुं दिशि लीधा घेर ॥ ४६१ तिण कारण यांनै सवळी न सूझै, दिन-दिन अधिक अळूझै । कदाचित् कर्म विवर जो देवै, फिर पाछी ४६२ गुरु पै दीक्षा लई सल्य काढै, निज कांम हिवड़ां तो कर्म तणै वश डोलै, चढिया मोटे ४६३ विविध प्रकार ना अवगुण बोलै, विविध प्रकार ना दोष बतावै, यांनै ४६४ अवर दंड लेइ नै टोळा मझारी, औ जद दोष री बात न रही ४६५ दीक्षा दियां विण न लियां आगै टाळोकर हुआ अनेक, त्यां पिण ४६६ भिक्षु स्वाम त्यांनै रास मझार,
मोह
कर्म
सरम नहीं
आवै ॥
तो
हुंता आवा नै
त्यारी । सोय, यांनै ए पिण समझ न कोय | मांय, तिण सूं करै अवगुण बोल्या विशेष || ओळखाया सुविचार |
बकवाय ।
ए रास नीं गाथा कहूं छू कोई, सांभळजो चित देइ ॥
भिक्षु कृत रास नी गाथा
'१
३
बलवंत
मति
वसै
पछाडै ।
काळी ।।
मतवाळो ।
लाज
१. भगवई शतं १५ ।
२. पथ ।
४०४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
मिलापो ॥
कळंक ।
चाढै ।
चखडोलै ॥
झकझोलै ।
अवगुण सुण-सुण ने
धर्म सूं भृष्टी ।
यांरो बोल्यां री प्रतीत न
समदृष्टि, यांनै जाणै आणै, झूठ में झूठ बोलता जाणै ॥ सरीखा नांहि, अकल जुदी-जुदी समदृष्टि साची हुवै दिष्ट, तो यांनै करै थोड़ा में खिष्ट ॥
घट मांहि ।
सगळा श्रावक
तो यांनै न्याय सूं देवै जाब, पारै न आंणै संक, यांनै
घणा लोका देखाळ दै
मांहै आब । यांरो बंक ||
यांरी मूळ
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४ थे घणा दोष कहो गुरु मांहि, घणा वर्सा रा जांणो छो ताहि ।
तो थे पिण साधु किम थाय, जाण-जाण भेळा रह्या मांय ।। ५ जो यांमै दोष घणा छै अनेक, कदा दोष नहीं छै एक। .ते तो केवळ ज्ञानी रह्या, देख, पिण थे तो बूडा ले भेष।।
जो यांमै दोष कह्या थे साचा, तोही थे तो निश्चै नही आछा। जो झूठा कह्या तो विशेष भंडा, थे तो दोनूं प्रकारे बूडा॥ थे दोषीला नै वांद्यां कहो पाप, भेळा पिण रह्यां कहो संताप।
दोषीला नै देवै आहार पाणी, बले उपधादिक देवै आंणी।। ८ हर कोई वस्तु देवै आण, करै विनय वियावच जाण।
दोषीलां सूं कोइ करै संभोग, तिण रा जाणो छो माठा जोग। इत्यादिक दोषीलां सूं करंत, तिण में पाप-कहो छो एकंत।
औ थे जाणे सारा किया काम, ते पिण घणां वसा लग ताम ।। १० घणा वर्स किया एहवा कर्म, तिण सूं बूड गयो थारो धर्म।
दोष निरंतर सेवण लागा, हुआ विरत विहूंणा नागा ।। ११ ओ थे कीधो अकार्य मोटो, छांनै-छांनै चलायो खोटो।
बांध्या थे तो बहु कर्म रा जाळो, आतमा नै लगायो काळो।। थे गुरु नै निश्चै आण्या असाध, त्यांनै वांद्यां जांणी असमाध।
त्यांराइज वांद्या नित्य-नित्य पाय, मस्तक दोनूं पग रै लगाय ।। १३ यांसू कीधा थे बारै संभोग, ते पिण जाण्या सावध जोग।
सावद्य सेव्यो निरंतर जाण, थे पूरा मूढ अयांण।। १४ थे भण-भण नै पानां पोथा, चारित्र विण रहि गया थोथा।
थे कहो अर्थ करां म्हे गूढा, तो थे भण-भण नै कांय बूडा।। १५ विहार करता थे गांम गांम, शिष्य शिष्यणी वधारण काम।
किण नै देता बंधो कराय, किण नै देता घर छोडाय।। ११६ बले कर-कर गुरु रा गुण ग्रांम, चढावता लोकां रा परिणाम।
जब गुरु नै खोटा थे जाणंता ताहि, ओरा नै क्यूं न्हांखता यां मांहि। १७ पोतै पडिया जांणो खाड मांय, तो औरां नै डबोवण रो उपाय।
(जाण-२ करता था ताय) पांच पद री वंदणा सीखावता ताह्यो, तिण में गुरु रो नाम घलायो॥ १८ तिण गुरु नै वांद्यां जांणता पाप, तो औरां नै कांय डबोया आप।
ज्यूं नकटो कोइ नकटा हुआ चाहै, असुभ उदै माठी मति आवै॥ १९ ज्यूं थे डूबता दोषीलां मांहि, तिम औरां नै डबोवता ताहि। औरां तूं करता एहवो उपगार, थारे भणियां रो योहिज सार ।।
लघु रास : ४०५
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२० इसड़ो कूड कपट चलायो, थारो छूटको किणविधि थायो।
जिण मारग में हुआ थे ठगो, थे तो दीयो घणा नै दगो।। २१ ठग-ठग खाधा लोकां रा माल, थारो होसी कवण हवाल।
आछी वस्तु हुँती घर मांहि, आहार पाणी कपड़ादिक ताहि ।। २२ थांनै गुरु जांणे हरष सूं देता, सो मैं थारा नींकळ गया पैंता।
म्हे थांनै वांदता वारंवार, जद म्हांनै हूंतो हरष अपार ।। २३ थांनै जांणता सुद्ध आचारी, थे छांनै रह्या अणाचारी।
म्हे तो थांनै जाणता पुरुष मोटा, पिण थे तो होय नीवड़िया खोटा॥ २४ म्हे थांनै जांणता उत्तम साध, थे तो होय नीवडीया असाघ ।
जांण रह्या दोषीळां मांह्यो, थे ठागा सूं काम चलायो ।। २५ थे तो जीतब जनम बिगाड्यो, नर नो भव निरथक हास्यो।
घणा दिनां रा कहो थे दोष, थारी बात दीसै छै फोक। २६ साच झूठ केवळी जाणै, छद्मस्थ प्रतीत न आणै।
थे हेत मांहै तो दोषण ढंक्या, हेत तूटै कहिता नहीं संक्या ।। २७ किम आवै थांरी परतीत, थांनै जांण लिया विपरीत।
दोषीलां सूं थे कीधो आहार, जद पिण नहीं डरिया लिगार। २८ तो हिवै आळ देता किम डरसी, थारी प्रतीत मूर्ख करसी।
औ थे दोष क्यांनै किया भेळा, औ थे क्यूं न कह्या तिण वेळा ।। २९ जो थांमै साध तणी रीत द्वैतो, जिण दिन रों जिण दिन कहीतो।
दोषीलां सूं कियो संभोग, थारा वरत्या माठा . जोग। ३० थारी परतीत न आवै म्हांनै, यांरा दोष राख्या थे छांनै।
थे तो कियो अकार्य मोटो, छांनै-छांनै चलायो . खोटो। ३१ भृष्ट हुइ थांरी मति सुद्ध बुद्ध, हिव प्राछित ले हुय सुद्ध।
उणां री तो थांरा कह्या सूं संक, पिण थे दोषीला निसंक ।। ३२ इम कहि उणनै घालणो कूडो, घणा बैठां देणी मुख धूडो।
ज्यूं कोई बले न दूजी वार, किणराई दोष न ढांकै लिगार।। ३३ दोष ढांक्या हुवे धणी खुवारी, टांको झलै तो अनंत संसारी।
संका सहित नै राखै मांय, तो और साधु दोषीला न थाय।। ३४ थाप रा दोषीला नै जाणी राखै मांय, तो सगळा असाधु थाय।
इम कह्या यांनै जाब न आवै, जब झूठी-झूठी बात बणावै।। ३५ यारा दोष न कह्या म्हे डरतै, गुरु सूं पिण लाजां मरते।
रखे करदै मोनै टोळा बारे, मुदै तो ओहिज डर रह्यो म्हारै।।
४०६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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३६ म्हे दोष सेव्यां यांरै कदै जाण, यां सेव्यां री न कर ताण ।
कदे देतो हुं दोष बताय, जब म्हारी देता बात उडाय।। ३७ मो एकळा री आसंग नहीं कांय, तिण सूं रह्यो दोखीला माहि।
जब यांनै पाछो कहिणो एम, थारो साधुपणो रह्यो केम।। ३८ थे तो डरता अकारज कीधो, तिण रो प्राछित पिण नहीं लीधो।
कदाचित गुरु कांचा पाणी मंगावत, थे डरता थका भर ल्यावत ।। ३९ करावत पाप हर कोई, थे तो डरता करता सोई।
कदा गुरु भारी पाप करता, तोही थे तो भेळा रहिता डरता ।। भागलां मांहै रहिता खूता, पिण थे एकळा कदेयन हूता।
ईसडी थांरी गीदडाई, थेज थारा मुख सूं बताई।। ४१ इसडो प्राक्रम थां माहै पावै, थारी आगा सूं परतीत नावै।
साधां नै डरतो मूळ नहीं रहिणो, दोष देख्यां सताब सूं कहिणो॥ ४२ डरतां न कह्या तो थे गीदड़ पूरा, हिवै किण विध होसो थे सूरा।
एकळा होयवा सूं थे डरतै, दोष न कह्या लाजां मरते॥ ४३ तो हिवै ढांकोला दोष अनेक, जाणे होय जावां एक-एक।
थारै तो मांहोमा दोष देख, हिवै तो ढांकसो थे विशेष। ४४ एकला होयवा रो डर थांनै, मांहोमां दोष राखसो छांनै।
जो हिवै कहो म्हे न राखा छांनै, तो हिवै बात थांरी कुण मांनै ।। ४५ थे तो बैठा प्रतीत गमाय, थारी मूरख मानै वाय।
जिम किण ही चोर रो हुआ उघाडो, फिट-फिट हुओ सैहर मझारो।। ४६ घणां लोकां जांणे लीयो तास, पछै कुण करै तिण रो विश्वास।
ज्यूं थांरो पिण हूओ उघाड़ो, दोषीलां भेळो काढ्यो जमारो॥ ४७ प्रगट न किया त्यांरा दोख, थे जनम गमायो फोक ।
थाप रो एक दोष सेवै नित्य साध, तिण संजम दियो विराध ।। ४८ तिण नै गुरु जांण नै वांदै कोय, तो उ अनंत संसारी होय।
तो थाप रा बहु दोष जांणो थे साख्यात, त्यांनै जांणे वांद्या दिन रात॥ ४९ तो थे पूरा अज्ञानी बाल, थे रुळसो कितो एक काळ।
थाप रा एक दोष रो सेवणहार, तिण वांद्यां वंधै अनंत संसार।। ५० थे घणा दोष जाण्यां त्यां मांय, त्यांराइज वांद्या नित्य-नित्य पाय।
भागलां वांद्या जांणे पायो, जिण मारग में ठागो चलायो।। ५१ रह्या थे कूड कपट माहै झूल, हिवै थारो होसी कुण सूल।
जो थे गुर मांहि दोष बताया, घणा वर्स थे राख्या छिपाया।।
लघु रास : ४०७
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५२ तिण लेखे पिण थे इज भंडा, ज्ञानादिक गुण खोइ बूडा।
जो थे दोष कह्या यांमै कूडा, जब तो थे जाबक पूरा बूडा।। ५३ थे गुरां रै दिया अणहुंता आळ, हिवै रुळसो कितोएक काळ।
थे दोनूं विधि बूडा इण लेखै, साच झूठ तो केवळी देखै ।। ५४ छमस्थ ते तो यां अहिलाण, थानै जाबक झूठा जाणै ।
यां कनै पहिला अवगुण कहिवाय, पछै कष्ट करै इण न्याय ।। ५५ यारा वचन नै सैंठा झालै, यानै पग-पग झूठा घालै।" मूल :४६७ भिक्षु स्वाम इम रस रै मांय, अवनीतां नै इम ओळखाय ।
बले बुद्धिवंत 8 ते कहै, इम वाय दंड ओढ जाता गण मांय॥ ४६८ तीजै अविनीत पंचपदरै मांहि, नाम घाल्यो घणां दिन ताहि।
गणपति रै मुख वंदणा कीधी, मांहि आवा री इम धार लीधी। ४६९ अधिक अविनीत रै तिण सूं संभोग, गण में इण पिण धारोपरयोग।
. पंचम अवनीत पिण गण मांय, आवा नै त्यारी अथाय ।। ४७० कह्यो आप तो दीक्षा विण त्यागज लीधा, पिण स्वरूपचंदजी न कीधा।
इण विधि गण में आवा री धारी, जद दोष न रह्या लिगारी।। ४७१ पिण दीक्षा विण थांनै मांहि न लीधा, तिण सूं अवगुण अछता कीधा।
छठो गुणठांणो कहिता धर प्रेम, बले अवगुण बोले केम॥ ४७२ इण विधि थे तो प्रत्यक्ष अन्याई, थारी बोली में संधि न काई।
बुद्धिवंत हुवै तिके इण रीत, यांनै कष्ट करै धरी प्रीत॥ ४७३ स्वाम भिक्षु बले रास रै मांहि, त्यारो संग परचो वरज्यो ताहि ।
ते रास नी गाथा कहूं तूं सोय, ते सांभळजो . सहु कोय॥ भिक्षुकृत रास :५६ "अवनीत अवगुण बोलै अनेक, बुद्धिवंत न मांनै एक।
यांनै जांणै पूरा अवनीत, यारी मूल न आणे प्रतीत। ५७ अवनीतां रो करे विश्वास, तो हुवै बोध बीज रो नास।
च्यार तीर्थ सूं पड़िया कानै, त्यांरी बात अज्ञानी मानै। ५८ अवनीतां रो करै परसंग, तो साधां सूं जायै मन भंग।
औ साधां नै असाधु सरधावै, झूठा-झूठा अवगुण बतावै॥ ५९ अवनीतां रो जाय सुणै वखांण, तिण लोपी जिनवर आण।
अवनीतां री तहत करै कोई वाणी, आ दुरगति नी अहलांणी।। ६० किण रै अशुभ उदै हुवे आण, ते करै अवनीतां री तांण।
त्यां झूठा नै साचा दे ठेहराई, त्यारै अनंत संसार री साई॥ ४०८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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६१ अवनीतां नै कहि बतलावै, स्वामी, तिण में पिण जाणो मोटी खामी।
अवनीतां नै ऊंचो करै कोइ हाथ, तिणरै निश्चै बंधै कर्म सात ।। ६२ अवनीतां रो जाय वखांण मंडावै, बले और लोकां नै बोलावै।
जे कोइ इसडी करै दलाली, ते पिण धर्म सूं होय जायै खाली।। ६३ अवनीतां नै च्यार तीर्थ मांहै जाणे, ते पिण पहिले गुणठांणै।
अवनीतां री कोइ करै पखपात, तिण रै आय चूको मिथ्यात ।। अवनीतां तूं करै आलाप संलाप, तिण रै पिण बंधै चीकणा पाप।
अवनीतां नै वंदणा करै जोड़ी हाथ, तिण रै वेगो आवै मिथ्यात ।। ६५ अवनीतां री भाव भक्ति करै कोई, बले आदर सनमान दै सोई।
तिण रै सरधा न दीसै साची, गुरु री पिण प्रतीत काची।। ६६ अवनीतां तूं करै विनय नरमाई, तिण रै लागी मिथ्यात री साई।
घणो - घणो जो यां कनै जावै, तो सम्यक्त्व वैगी गमावै ।। ६७ अवनीत नै भागल पूरा, बले आळ दे कूडा-कूडा।
अवनीतां री मांनै कोइ बात, ते तो बूड चूका साख्यात ।। ६८ कोइ भणवा रा लालच रो घाल्यो, त्यारै कने जायै कोई चाल्यो।
ते तो गुरु रौ न मांनै हटको, तिण रो तो हूंतो दीसै छे गटको।। चरचा बोल सीखै त्यां आगै, तिण रै डंग मिथ्यात रो लागै। अवनीतां रो संसतो परचो न करणो, यांरो संग जाबक परहरणो।। सम्यक्त रा अतिचार संभाळो, तो अवनीतां नै दीजौ टाळो।
जोवो आणंद श्रावक री रीत, राखै सूत्र री परतीत ।। ७१ औ अवगुण बोलै चिठाय-चिठाय, किण ही भोळा रै संक प. जाय।
जो उ न करै त्यांरी पखपात, तिण रो काटणो सोहरो मिथ्यात।। ૭ર अवनीतां री गाढी झाळे पख कोई, ते नहीं छोडै झूठा जाणै तोही।
ते बूडसी अवनीतां रै लारै, त्यां जैहलै दीयो जनम बिगाडै ॥ ७३ कोई लीधी टेक न म्हेलै, आपरै मन मांनै ज्यूं ठेळे।
श्री जिन धर्म री रीत न जांण, मूढ मूर्ख थको यूंही तांणे॥ ७४ यां कनै करै पोसो समाई, यां कनै करै पचखांण जाई।
तिणरी पिण जाणजो मति काची, जिन मारग में न कीधी आछी।। ७५ जे अवनीतां रा पखपाती, त्यांरी सुण-सुण बळ ऊठै छाती।
अवनीतां रो करै उघाड़, जब पिण मूंहढो देवै बिगाड।।
१. संस्तव - परिचय।
लघु रास : ४०९
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७६ जे कोइ गण में हुवै अवनीत, तिण सूं गाढी बांधै प्रीत ।
ते पिण अवगुण बोलावण रै काम, इसडा छै मैळा परिणाम ।। ७७ जिण रै द्वेष छै घणा दिन पेलो, दुष्ट परिणामी जीव छै मेळो।
तिण रै उदै हुवै कर्म मिथ्यात, ते तुरत मांनै त्यांरी बात ।। ते अवनीतां री करे पखपात, तिण रै आय चूको मिथ्यात ।
खप' करै त्यांरी करीवा थाप, तिण रै असुभ उदै हुआ पाप ।। ७९ जाणै अभिमानी अनै अवनीत, तोही राखै त्यांरी परतीत।
प्रत्यक्ष तिण रै पूरो अंधारो, बूडै छै अवनीतां रै लारो।। अवगुण जिण नै गुरां रा सुहावै, ते अवनीतां नै मूंहढे लगावै । अवगुण गुरु रा त्यां पास बोलावै, पछै लोकां में आप फैलावै॥ जिण तिण आगै करे जे बात, करै अवनीतां री पखपात। अवनीतां नै साचा सरधावै, गुरु में अवगुण दरसावै।। वंदणा करै गुरु नैं शीस नाम, करै अवरां रा गुण ग्रांम।
ते होय बैठा अवनीतां री लारी, औरां नै खपै करि खुवारी।। ८३ गुरु सूं लोकां रा परिणाम फारै, आप बिगड्यो ओरां नै बिगाडै।
श्रावक एहवो विश्वासघाती, ते पिण होय चूको मिथ्याती।। गुरु री साची बात दै ठेली, अवनीतां रो होय जाय बेली॥ हर कोइ अवनीत छूट, तिण रो बेली होय ऊठे।। सांधां रा अवगुण बोले, तिण सूं बात करै दिल खोले। अवनीतां नै मिलैं अविनीत, त्यांरी तेहिज करै प्रतीत ।। गुरु सू पिण जाबक नहीं तोड़े, अवनीतां सूं सठ नहीं जोड़ें।
धरपाधर रह्या छै देख, छल छिद्र जोवै . छै शेष॥ ८७ जो अविनीतां नै लोक न मांनै, तो आप पिण होय जाय कांनै।
अणसरतै दबीया रहै मांहि, पिण लक्षण जाणे लीया ताहि ।। ८८ केइक श्रावक दोपड़पीटा, ते पिण पड़ीयां यारै संग फीटा । . जो कोइ बंध निकाचित पारे, ते पिण अनंत संसार बधारै।। ८९ श्रावक केइ भागल साख्यात, करै भागलां री पखपात।
जाणै चोर सूं मिल गइ कुत्ती, झूठी बातां करै अणहुंती॥ ९० ते भागला नै कहै उत्कृष्टो, तिण री पिण मति होय गई भृष्टो।
तिण भागल नै भागल मिलियां, किम पूरीजै मन रंग रलियां।
१. विशेष प्रयत्न।
४१० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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९१ असाधु टालोकर नै सरधै साध, साधां नै सरधै असाध।
दोनूं प्रकारै मूरख बूडै, ते पिण जाय बैसती तूंडै।। ९२ एहवा अभिमानी नै अविनीत, होसी चिहुं गति मांहि फजीत।
यांनै मूंडा कह्यां लोकां आगै, यां रा पखपाती रै दाह लागै। ९६ ए अवनीतां रा कह्या अहलाण, कोई आप म लीजो तांण।
__ अवगुण एहवा छै जिण मांय, ते छोड्यां विण सुख नहीं थाय। ९४ अविनीत तो बके घणा दिन रात, कूड कपट सहित करै बात।
विविध पणै देवै छै आळ, कर रह्या झूठी झंखाल॥ ९५ रास माहै टाळोकर नै ताम, इम ओळखाया भिक्खु स्वाम।" मूल :४७४ अधिक अविनीत प्रमुख चिहुं ताहि, बीजा चोथा सूं करि निरमाइ।
पोतै प्राछित ले संभोग रो नाम, कीधो प्रपंच रै काम।। ४७५ तीजो चउथो अविनीत तिवार, कर दियो तुरत विहार। ___इण विधि करै जुदा कदे भेळा, जांणै नाचै कुबुद्धि खेला।। ४७६ ए कपट अर्थे कीयो नाम संभोग, पोतै दंड लेई घाल्या सोग।
ते पिण ठागो बिखर जासी ताम, घणी फूट फजीती पांम।। ४७७ चोथो अविनीत जसोल थी धार, आयो गणि पै 'वीठोजै' वे वार।
बे कर जोड़ खमावै सोय, कहै आपरो सरणो मोय ।। ४७८ काळवादी प्रमुख नीकळ्या ताय, गया थोड़ा मांहि विललाय।
ओहिज शासन छै सुविसाल, रहितो दीसै बहु काळ ।। ४७९ आपरा अवगुण बोलूं न कांई, बले पर नै बोलण देऊं नाही।
शासण सन्मुख हूं तो छू सार, भलो बांळू शासण रो उदार। ४८० आप तो मौनै साता उपजाई, काम काज असणादिक ताही।
मघराजजी रा पुन्य अति भारी, यांनै अडचल न हुवै लिगारी।। ४८१ पोथी पांनां हूं उपाडूं जेह, मघराजजी रा छै एह।
म्हां दोयां सूं निरमाइ बहु करी तांम, तिण सूं संभोग रो कीयो नाम। ४८२ ते पिण बीजा ने दंड दिराय, कियो संभोग रो नाम ताय।
जय कहै-थे निकळिया सोय, नव मास पछै अवलोय। ४८३ छठो अवनीत निकळियो ताय, थारै लेखै नवी दीक्षा आय।
दोय मांहि आया एक वंदणा में नाम, त्यांनै दंड दिरायो ताम।।
३. सन्तोजी।
१. नम्रता। २. कपूरजी
लघु रास : ४११
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४८४ सो इम नांम संभोग रो करी तिवार, तुरत कीयो बिहुं जणा विहार । नव मास पछै निकळियो बार, तिण नै दीक्षा न दीधी लिगार ।। ४८५ ओ पिण थारै पूरो अंधारो, थारै लेखै थां में न विचारो । उण नै भेळो राखै ज्यांसूं किम कीजै आहार, मन मांहै करो विचार || ४८६ इम कह्यां सुद्ध जाब नहीं आयो, कहै आफेइ हुय जासी ताह्यो । म्हांमें पूज पदवी रो नाम न कांइ, वंदणा में नाम घालणो नांही ॥ ४८७ इच्छा आवै ज्यूं विचरां ताही, इण में आज्ञा से कारण नांही । सोय, गुरु न करावणा कोय ॥ सार, ते गुरु
प्रणामै
किण रै ईनाम ४८८ पंच महाव्रत पाळ
कहिणा
उदार ।
री बात न कैहणी ।।
सोय ।
किण रै नांमै दीक्षा नहीं देणी, बले चेला ४८९ सगळां रै सीर मांहै अवलोय, दीक्षा दैणी एक कागद में लिखी बातां अनेक, ते शासन ४९० न्यातीलां नै दर्शण देवा टोळा बारै नकळवा रां होणहार टळै नहीं
मेलंता, तो गण तांम, यांरा कोय,
४९१ पिण
कोई रै म्यातीलां री हुवै रै
४९२ कोई
विचरवारी कोई रै आहार रो ४९३ इण बात सूं आडदो इण तें आप तणों स्यूं जावै । इत्यादिक बात कही घणी ताय, पछै आयो जिण दिशि जाय ॥ ४९४ बीजै' अवनीत सरलपणै बहु बात, कीधी तेजसी आगै विख्यात । ते पिण गण सन्मुख सुखदाई, बात सुणीयांइ अचर्य थाइ ॥ ४९५ बलि कहै यां दलदरयां नै सोय, कहै चोड़ै निषेधो जोय । वंदना करवा रा पिण त्याग करावो, निसंकपणै चित चावो ॥ ४९६ स्वामीजी सूं मिलवा रा भाव है ताय, पिण ठच्चो सो किम रहूं जाय । स्वामीजी मोनै पूछै कदा त्यांही, यांनै श्रद्धो छो ४९७ हूं कहिसूं आप श्रद्धो जिण रीत, हूं पिण श्रद्धं
कांई ॥
बले पूछैला म्हानै श्रद्धो थे कांई, तिण रो तो जाब देवूं
लेउं धर भाव, पड़तो दीसै न
तिण रो म्हारै कोय, हूं जाण
४९८ नवी दीक्षा यां सूं पूरो
सन्मुख पेख ॥
बारै क्यांनै टलता |
१. जीवोजी ।
४१२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
रती नहीं परिणांम ॥
जोय ।
कर्म तणी
गति
दीजै
दिराय ॥
ताय, तो दर्शण मन मांय, तो दो दीजै विचराय । कष्ट देखीजै, तो विहार कराई दीजै ॥ न आवै,
नहीं
रह्यो
वदीत ।
नांही ॥
अटकाव ।
छू सोय ॥
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४९९ ऋषि बींजराज पिण निषेद्यो विशेष, तो पिण न धर यो धेष।
श्रद्धा रा क्षेत्रां मांहि नहीं रहिणो, वचन उत्तरतो नहीं कहिणो॥ ५०० ए दोय सीख बींजराजजी दीधी, बीजै अवनीत मांने लीधी।
हीरालाल नै कही बहु वाय, ते पिण सरल जणाय ।। ५०१ ऋषि हीरालाल नै कहै सुविशेष, थारी म्हारी दृष्टि एक।
त्यारै आहार पाणी भेळो कहै ताहि, पिण इतरो फेर मांहो मांहि ।। ५०२ ते पिण तिण री न करै पिछांण, घणी फूट फजीती जांण।
साधु तो यांनै असाधज श्रद्धे, ते प्रत्यक्ष पिण नहीं पड़दै॥ ५०३ दीक्षा विण लेवा तणां पचखांण, ते पिण चोहै जांण।
तो पिण ए कर जोड खमावै, बलि स्वामीजी कही बोलावै॥ ५०४ बलि शासन सूं अनूकूल केई, बात कहै स्वमेई।
कोई कहै प्रतिकूल अधिक विशेष, इम आपस में नहीं एक॥ ५०५ श्रावक समझू आरै किया नाय, जब गया अधिक मुरझाय।
__ कहै चारित्र पिण म्हे लेवां अमूल, करां नवी दीक्षा पिण कबूल।। ५०६ पिण कायक तो म्हारी राखीजै, पांच च्यार बोल तो छोडीजै।
एहवा गृहस्थ कागद में लिख्या समाचार, जब जयगणि बोल्या तिवार।। ५०७ यांनै लेवा अर्थे यांरा कहिण सूं जाण, इक पिण बोल छोडण रा पचखांण।
नवी दीक्षा ले आवै गण मांहि, पोता में संजम सरध्यो नाहि।। ५०८ पोता में चारित्र सरधै जो एह, तो नवी दीक्षा किम लेह ।
मान बडाई नै काजै अयांण, करै बोल छोडावण री तांण॥ ५०९ दूजी वार सुण्यो बोल छोडो जो एक, तो म्हे नवी दीक्षा ल्यां विशेष।
नवी दीक्षा पिण करै अंगीकार, पिण यांरो मिटियो नहीं अहंकार॥ ५१० मान अहंकार पिण थोथो अथाय, ते तो विवेक विकळ कहिवाय ।
किण ही चोर नै महिपति प्रसिद्धो, सूळी तणों हुकम दीधो।। ५११ चोर कहै सूळी पिण अंगीकार, पिण नवी पाग बंधावो अबार।
सूली चढवो अंगीकार करै छै, बले थोथो अहंकार धरै छै।। ५१२ तिण सरिखा औ पिण मूरख धार, नवी दीक्षा करै अंगीकार ।
जाणै बोल छोडायां म्हारो रहै मांन, इण लेखै विकळ समान॥ ५१३ नवी दीक्षा लेणी धारी पिछांण, जब गळ गयो जाबक मांन।
बले करै बोल छोडावण री बात, तिण लेखै मूरख साक्षात॥ ५१४ अधिक अविनीत दोय वार टळीयो, नीकळ-नीकळ बोल्यो अळीयो।
बीजो अविनीत टळयो चिहुं वेला, नीकळ-नीकळ कीधा हेला।
लघु रास : ४१३
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५१५ तीजो अविनीत
टळ्यो वार तीन, नीकळ-नीकळ बोल्यो मलीन । चोथो अवनीत टळ्यो वार तीन, नीकळ-नीकळ नै हुआ दीन ॥ ५१६ पंचम अवनीत टळ्यो वार च्यार नीळ-नीकळ हुओ
खुवार ।
बोल्यो
विकार ॥
छठो अवनीत टळ्यो दोय वार, नीकळ-नीकळ ५१७ इसडा अनंत हुआ नै होसी, परभव
सांहमो विरला
बलि आरा अजूणा मांहि, म्हे पिण देख लिया ई मुनि पै सुणीया, केइ मुंहढी समाचार, सांभळ जोड़या उनमांन, कोइ
मुदो
पिछान ।
अधिको ओछो विरुद्ध आयो है कोय, तो मिच्छामि दुक्कडं मोय ॥ ५२० कही भिक्षु नीं जोड़ तणी गाथा केई, बाकी जयजश जोड़ करेही । उगणीसै इकवीसै उदार, वैशाख सुदि चोथ शनिवार ॥
५१८ ए भाव कह्या
गृहस्थ पास केइ ५१९ केइ देखी आसरो
छै
१. डेगाणे ग्राम ।
४१४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
जोसी ।
ताहि ॥
थुणीया ।
विचार ॥
५२१ निन्हव भागलां रो अधिकार, जोड्यो मरुधर देश मझार । ५२२ संवत उगणीसै बाइसै री बात, चोमासो उत्तरीयां विख्यात । बालोतरा कनै 'वीठोजो' गांम, त्यां थी दोय जणा चाल्यां तांम ॥ ५२३ चोथो छठो मन करी विचार, आया मेड़ता सैहर मझार । ताय, आवण अधिकाय ॥ इमवाय, थे टळ
ईडवै गणपति पासै ५२४ एक गृहस्थ बोल्यो
हर्ष टळ फिर गण आय ।
रह्यां आया दोय ||
घणो मन मांह्यो ।
थांनै लेसी कैन लैसी मांय, कह्या इत्यादिक वाय ॥ ५२५ इम सुण छठा रा फिरिया परिणाम, वचन परिसह पांम । वै गणपति पासै सोय, तीन कोस ५२६ पछै छठो न आयो नै चोथो आयो, हरष परतीत, धारी बहुजन मांहि, नवी दिख्या लीधी छेदोपस्थापनीक ग्रह्यो ताह्यो, पिण ते तो समझयो ५२८ चोथो
सूड़ी
रीत ॥
गणपति शासण री ५२७ माह विद बीज
ताहि ।
नाह्यो ||
आयो गणपति पास उदार, छठो कीयो दूजी दिश विहार । गणपति विहार करी सुखदाया, देघाणै' होय बाजोळी आया ॥ ५२९ ग्राम ग्राम रा बहुजन आया, दर्शण करण ऊम्हाया । जनवंद अधिक हुवा तिहां भेळा, च्यार तीर्थ रा मेळा || ५३० छठो नव कोस रो करी विहार, आय गयो तिण वार । आणी मन मांय, पगां पड़ियो छै आय ॥
अधिक
हरष
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५३१ सरधा आचार सर्व बात सीधी, पक्की आसता धार लीधी।
च्यार तीर्थ देखंता प्रसिधी, माह विद अष्टम दीक्षा दीधी।। ५३२ निज आतम ना अवगुण गावै, वारंवार अपराध खमावै।
कर्म जोग करि गण सूं टळीया, अवगुण बोल्या अलीया॥ ५३३ भाग्य दिशा अधिकेरी कहाय, तिण सूं आया शासण मांय।
तसुं न्यारा थका अवगुण बोलंता, हिव निज आतम निदंता ।। ५३४ आप तीर्थंकर देव समान, गुण इत्यादिक प्रधान।
आगै छोटा हुंता त्यां संतां नै जान, करै नमस्कर तज मांन।। ५३५ शासण री सहु रीत प्रसिधी, अंगीकार सहु कीधी।
बडै मोती ऋष चैत्र मास रै मांहि, कह्यो अधिक अवनीत नै ताहि।। ५३६ थे कुलवंत जातिवंत धार, किम निकळिया गण बार।
जद कहै मन में जांणी हुंती कांई, और री और हुय गई त्यांही॥ ५३७ गण बार मै रहिसां यांही, आ सुपनैई जांणी नांहि।
मोती ऋष कह्यो अवैई विचारी, आतम भणी सुधारो॥ ५३८ अधिक अविनीत बोल्यो इम वाय, अब तो धार लीधो मन मांय।
भीखणजी स्वामी नै श्रद्धो स्यूं जाणो, जद कह्यो तीर्थंकर समाणो॥ ५३९ भिक्षु भारीमाल ऋषिराय आराधूं, म्हां निकळियां पहिला सऊ साधू।
चैत्र मास में ए हुइ बात, मोती ऋषि सूं साख्यात।। ५४० अधिक अविनीत नै पंचम अविनीत, जद दोनूं भेळा कुपीत ।
थोडे दिवस तूंटण हुई प्रसिद्धो, अधिक अविनीत नै छोडी दीधो।। ५४१ पंचम अविनीत तिहां थी सीधी, गणपति नहीं दिशि लीधी।
घणां कोसां थी आयो चलाय, गणपति पासै ताय ।। ५४२ गणपति पूछयां उत्तर दियो एम, सांभळजो धर प्रेम।
अढी द्वीपना तस्कर घोर, त्यां सूं टाळोकर अधिका चोर॥ ५४३ हूं पिण अढी द्वीपना चोर, ज्यांसू अधिको घोर।
इम कहीनै नवी दिख्या लीधी, छेदोपस्थपनीक प्रसिधी॥ ५४४ वैशाख विद सातम लीधी दिख्या, घणा संत देखता सु सिख्या।
अधिक अविनीत री बहु कपटाई, तिण सूं जाणी दियो छिटकाई।। ५४५ ऊपर सूं तो मीठो बोलतो, पिण मन में छल खेलंतो।
बलि मुझ कहितो वच एम, थारै म्हारै ए प्रेम ।। ५४६ जाणक पूर्व भवनो रागो, तिण सूं मिल्यो ए सागो।
बलि कहितो थे बाजोट ऊपर बैसो नाहि,तो हूं पिण न बैतूं ताहि॥
लघु रास : ४१५
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५४७ थे मोनै बतळावो नहीं किणवारो, जब घणो दोहरो रहै जीव म्हारो।
तिण सूं थे मुझनै बतळावो, मोनै कदे मति छिटकावो।। ५४८ इत्यादिक अधिक धुरताई, ते देखी घणी कपटाई।
म्हानै पाना में अक्षर लिख दीधा, ते पिण लोप्या प्रसिद्धा।। ५४९ त्याग कीया ते पिण दीधा भांग, एहवा देख्या सांग।
मायावियो धूर्त्त जाण्यो कूडो, तिण सूं छोड़ आयो आप हजूरो।। ५५० तिण री संगत सूं हूओ खुराब, गई लोकां मांहि आब ।
हिवै हूं आप तणै सरणै आयो, चरण अमोलक पायो। ५५१ शेष रह्या जे तीन गण बारै, कदा मांहि आवण री धारै।
आर्जियांनै वंदणा किया विण ताहि, गण मांहि लैणा नांहि ।। ५५२ जय गणी त्याग किया इम ताम, पाड़ण यांरी मांम।
इतरै पश्चिम थली सूं आया समाचार, तीजा अवनीत ना तिणवार॥ ५५३ ते पिण कहै छै हूं पिण लेउं दिख्या, धारूं सतगुरु नी शिख्या।
अवगुण वाद न बोलै दाम, गावै शासण रा गुण ग्रांम।। ५५४ इण विधि भायां लिख्यो तिण वार, कागद में समाचार।
जोधांण सैहर तणो चउमास, तेजसी नै भळायो सुवास।। ५५५ साधा नै भेळा करी सुखदाय, जय गणपति कहे वाय।
दोयां नै दिख्या देवा री न आणा, राखजे याद सयांणा।। ५५६ तेजसी नै इम वचन कही तासो, करायो जोधांण चोमासो।
चोमासो मांहि भायो इक आय, कहै गणपति नै वाय।। ५५७ बीजै अवनीत मोनै कह्यो ताम, म्हारै दिख्या लेवा रा परिणाम ।
स्वामीजी आज्ञा देवै सुखदाय, तूं कीजै अर्ज अधिकाय॥ ५५८ ए गुण थांरो भूलसूं नांय, चरण साहज्य सुखदाय।
इत्यादिक विविध अर्ज तिण कीधी, जब जय गणी आज्ञा दीधी।। ५५९ चउमासो उत्तरियां धर खंत, तेजसी आदि दे संत।
पश्चिम थली कांनी विचरी तिवार, कियो पाली सैहर कांनी विहार।। ५६० बीजो तीजो बिहुँ अवनीत ताहि, मिलिया गांम दूंदाडा मांहि ।
बीजै अवनीत कह्यो तिणवार, मोनै दीजै संजम भार।। ५६१ दोय दिवस बहु कीधी अर्ज, इण री चारित्र लेवा री गरज।
परभव री इण रै चिंता प्रसिद्धी, तिण सूं आतमा सूधी कीधी।। ५६२ अर्जियां नै भाव सूं बे कर जोड, वंदणा कीधी मांन मोड ।
नरमाई विनय भक्ति बहु कीधी, तब तेजसी दीक्षा दीधी।।
४१६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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माह्यो ।
ताह्यो ।
५६३ नरक निगोद ना दुख सूं धडक्यो, तिण सूं चारित्र लेई हरख्यो । संवत उगणीसै तेवीसै वास, माह सुद बीज उजास ॥ ५६४ इम बीजै अवनीत नवी दिख्या लीधी, तेजसी कनै प्रसिद्धी । पछै विहार करी आया गणपति पायो, देश थली रे ५६५ तीजो अविनीत पिण साथै आयो, गणपति पासै बीजो अविनीत आत्म निज निंदै, पूर्व पाप ५६६ सइकडां लोक सुणंता तांम, करै शासण रा गुण ग्रांम | हु विधि दोष बताया, मोह ५६७ गण बारै नीकळ डूबण रो पंथ लीधो, मोटो म्हे गण बारै निकळिया ताह्यो, पिण हूं संजम
निकंदै ॥
कर्म उलझाया ॥ अकार्य कीधो । सरधत नाह्यो ।
५६८ टाळोकर में नहीं चरण रो खेरो, इम बोलै वचन सुमेरो । भाग्य जोगै मोनै तेजसी मिलियो, तिण सूं मन रो मनोरथ फळियो ॥ अन्य मार्ग नी गाथा
हरिदास नै हरि मिल्या रे, आडै खावण दधी मोठ बाजरी, दूध
रस पीवण नै
लजा हर राख आडै गेलै दीयो
आय ।
चित ल्याय ॥
ज्यूं तेज ऋषी मुझनै मिल्या रे, मुंह मांग्या पासा ढळ्याजी, चरण चरण जुग गणपति नाजी, हूंतो वांदू बे कर जोड़ || ५६९ २इम विविध प्रकार शासण नै दिढावै, बहु लोक सुणी हुलसावै । तीजा अवनीत भणी इम ताह्यो, जय गणि बोल्या वायो || ५७० तूं अधिक अविनीत तणी दिल धार, जो तिण दिस कियो विहार । तो शासण मांहि लेवा रा जाण, जावजीव पचखांण ॥ ५७१ मुझ पट्ट ए मघराज महा भाग्य, जावजीव तिण रै पिण त्याग । गिंवार नै जिम चरण न देवां, तिम तोनै पिण मांहि न लेवां ॥ ५७२ जब तीजै अविनीत हीया बीचतोली, गांठ अभ्यंतर खोली । दिन सारो, बोल्यो गणपति नै तिण वारो ॥ मोड, बोल्यो गणपति कर जोड़ । शिख्या, दीजै मोनै दीक्षा ॥
विद पक्ष चैत तेरस ५७३ आर्जियांनै वंदणा करी मान अमोलक सखरी
चरण
१. लय- दलाली लालन की...
२. लय - पुन्यवंतो जीव पाछल भव......
आय ।
गाय ॥
लेही ॥
लघु रास :
४१७
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५७४ गणपति पूछी श्रद्धा अमूल, आप कहो ते सर्व कबूल।
आज्ञा बारै त्यांने जाणूं महा पापी, स्थिर चित एहवी स्थापी।। ५७५ गणि कहै-अढी द्वीपना चोरो, तिण सूं टाळोकर अधिकेरो घोरो।
जब ओ कहै आप श्रद्धो ते सोय, तेहिज श्रद्धा मोय ।। ५७६ जब छेदोपस्थापनीक चरण दीधो, सफल जमारो कीधो।
सर्व संता रै आगै मान मोड़, वांदै बे कर जोड। ५७७ गुण गणपति ना गावै तज मांन, कहै आप तीर्थंकर समान।
षट जणा निकळिया तिण वार, अधिक अविनीत रह्यो गण बार। ५७८ पंच जणा इम गण में आय, नवो चरण लियो चित ल्याय।
गण बारै थकां तो अवगुण बोलता, हिव गण रा गुण गावंता॥ ५७९ अन्यमती स्वमती आगै अगाध, बहु बोलता अवर्णवाद।
हिव सईकडां लोकां में शासण दिढावै, निज अपराध खमावै॥ ५८० कह-टाळोकर गधा समांन, त्या में चरण रो खेरो म जान।
गधा रै मुंहपति बांधै कोय, तो चारित्र कदेय न होय॥ ५८१ तिम गण बार टाळोकर ताहि, त्यांमें पिण चारित्र नांहि।
इह विधि टाळोकरां नै निषेध, कर्म पूर्व कृत भेदै।। ५८२ उगणीसै तेवीसै वर्स उदार, सुदि वैशाख अष्टम चार।
भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसायो, जयजश जोड़ सुहायो।।
४१८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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टाळोकरों की ढाळ
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दूहा
भीखणजी स्वामी भला, करिवा जग उद्धार। भवि जीवां रा भाग सूं, अवतरिया इण आर ।। सिख सिखणी करणा सहु, इक गणपति रै नाम । संवत् अठार बतीस में, धुर मर्याद तांम।। कर्म जोग इक दोय तिण, नीकळे गण थी बार। तीरथ में गिणवा न तसु, ए भिक्खू वच सार।। क पैंताळीसै लिखत, गण माहै वा जाण। निकळ्यां अवगुण अंस ही, बोलण रा पचखांण।। गण थी निकल्यां अन्य प्रति, ले जावणां नहीं साथ। ए पिण तसु पचखांण छै, इम भिक्षु आख्यात ।। कह्यौ गुणस, लिखत फुन, कर्म जोग गण बार। निकळे तास न सरधq, तीरथ च्यार मझार ।। कदा सर्व साधु भणी, असाधु सरधावा ताहि। फैर दीक्षा लै तेह नैं, साधु सरधवू नाहि ।। कर्म उदय गण थी टळ्यां, हुंता अणहुंता जांण। अवगुणवाद ज अंस ही, बोलण रा पचखांण ।। किण ही मुनि अज्जा तणी, संक प. ज्यूं सोय। बोलण रा पचखांण छै, ए भिक्षु वच जोय॥ (कदा) त्याग भांग विटळ हुवै, हळुकर्मी न मानै ताहि। मांनै उण सरीखो विटळ, ते लेखा में नाहि ।। श्रद्धा रा क्षेत्रां मझे, रहिवा रा पचखांण। इक भाई बाई हुवै, त्यां पिण त्याग सुजाण।। बाटै बहितां एक निशि, रहै कारणै जांण। ते पांच विगै नै सूंखड़ी, खावण रा पचखांण।। गण में जाचै फुन लिखै, जो निकळे गण बार। साथै ले जावण तणां, तसु पचखांण विचार।। इत्यादिक भिक्षु भली, बांधी वर मर्याद। हळुकर्मी हरखै सुणी, पामै अति अह्लाद ।। भारीकर्मा जीवड़ा, सांभळ धरता द्वेष। ऊंधा अर्थ करै तिकै ज्यां रे, काळी कर्म कुरेख॥
टाळोकरों की ढाळ : ४२१
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दाल १ १६ 'कर्म उदय गण थी नीकळ नै, साधां रा अवगुण गावै रे । विविध प्रकारै दोष परुपै, मन मानै ज्यूं गोळा चलावै रे॥
निंदक टाळोकर रो संग न कीजै।। १७ स्वाम भीखणजी री मर्यादा भांगी, अवगुण बोलण लागो ।
बलि साधुपणा रो नाम धरावै, करै विविध प्रकारै ठागो ।। १८ कह्यो लिखत पैंताळीस अवर भणी जे, साथै ले जावण रो त्यागो।
ते पिण भिक्षु री मर्यादा भांगी, कुळ नै लगायो दागो॥ १९ हुंता अणहुंता अवगुण अंश पिण, बोलण रा पचखांणो।
ए लिखत गुणसठै भिक्षु मर्यादा, ते पिण भांगी मूढ अयाणो।। २० इण सरधा रा क्षेत्रां विषै रहिवा रा, त्याग कह्या भिक्षु स्वामी।
ए पिण वचन उथाप्यो अज्ञानी, क्षेत्रां में रहिवा लागो हरांमी।। २१ गण माहै पत्र लिखै फुन जाचै, ते पिण साथै ले जावणा नाहि ।
ए पिण भिक्षु नी मर्यादा भांगी, कुमति हिया में वसाइ।। २२ अनंत सिद्धां री साख करी नै, नित्य प्रति हाजरी मांह्यो।
अवगुण बोलण रा त्याग करतौ थो, ते पिंण दिया उड़ायो।। २३ बलि मुख सूं हुं तो भीखणजी नै, सरधु ववहार में साधो।
त्यां रा वचन उथापै अज्ञानी, तिण रै किण विधि होसी समाधो।। दोष अनेक बतावै टोळा में, तिण नै पूछा करै कोई।
थे दोषीला भेळा घणा वर्ष रहि नै, आत्मा काय बिगोई।। २५ थे घणा वर्षा लग दोषण सेवी, साधुपणा रो नाम धरायो।
एहवो कपट करी नै लोकां नै डबोया, थारो छूटकौ किण विधि थायो। २६ बलि टाळोकरै किण ही पूछा कीधी, थे गण थी नीकळ ताह्यो।
फैर दीक्षा लीधी कै नहि लीधी, जब औ कै दीक्षा लीधी नाह्यो। २७ म्है इतरा वर्ष रह्या दोषीला भेळा, तिण रो चिहुं मास नो दंड लीधो।
फैर दीक्षा म्हानै नही आवै, इह विधि उत्तर दीधो। २८ रिसिराय थकां इक गण थी नीकळीयो, ते नंदी उतस्यां कहितो पापो।
साधु मात्रो परठ्यां पिण पाप सरधतो, कीड़ी पूंज्या पिण पाप री थापो।। २९ तिण रा श्रावक साधां रा धेष रा घाल्या, जावा लागा है इण रै पासो।
पिण औ तो नंदी उतरीयां धर्म सरधै, त्यांनै इतरो विवेक न तासो।।
१. लय-चतुर विचार करी नै देखो......
४२२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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३० उण टाळोकर रा श्रावक इण नै पूछे, थे उण नै साधु सरधो कै नाह्यो।
जब कहै पाळयो है तो ते साधु छै, म्है तो देख्या नहीं ताह्यो। ३१ गण माहिलै एक साधु तसु पूछयौ, थे सरधो भिक्षु नै कांइ।
जब कहै चोखा साधु सरधू छू', इम सुद्ध बोल्यो त्यां ही ।। ३२ नंदी उतरयां पाप सरधतो तिण रौ, नाम लेइ पूछा कीधी।
जद कह्यो तिण नै हुँ असाधु सरधू छू, बात कही इम सीधी।। ३३ जब टाळोकर नै तिण साधु कह्यौ बलि, थे मन में तो असाधु जाणो।
लोक नै कहै पाळ्यो है तो साधु छै, इसड़ी क्यूं कह्यौ कपट थी वाणो। ३४ जब कहै द्रव्य क्षेत्र काळ भाव, देखी नै बोलणी वायो।
जब साधु जाण्यौ ओ तो कपट कर नै, लोकां नै न्हाखै फंदा माह्यो। जो नंदी उतरयां पाप सरधतो तिण रा, श्रावकां रे मूहढे कहै असाधो।
तो उण रा श्रावक इण नै नही मान, तिण सू करतो कपट विवादो।। ३६ नंदी उतस्यां पाप सरधतो तिण रा,श्रावका नैं कहै अवधारी।
किण नै कहै उवे हुंता आचारी, किण नै कहै क्रियावंत भारी॥ ३७ बलि किण नै कहै उवे तो उत्तम पुरुष छा, किण नै कहै कहां साधो।
किण नै कहै उणां रा बोल देखता, - साधु कहां निराबाधो।। ३८ किण नै कहै यां रा पोथी पाना, ए देख लेवो म्हारै पासो।
किण नै कहै भाया कहै ज्यूं पाळो, साधु कहां छा तासो॥ ३९ इम झूठ कपट करै विविध प्रकार, मायावियो डाकोत ज्यूं बोले।
तिण नैं पर भव री चिन्ता नहीं दीसै, मोह कर्म वशि झोलै। ४० जे टाळोकर नंदी उतरया पाप सरधतो, तिण नै मन में तो असाध जाणै।
पिण चौड़े असाधु परुपतो सकै, तिण रा श्रावका कनै उण नै वखाणै॥ ४१ स्वाम भिक्षु कह्यौ महाजन विण जे, अवर नै दीक्षा म दीजै ।
दुषम काल प्रभाव है तिण सूं, चरण पाळणौ दुकर कहीजै॥ ४२ ते पिण भिक्षु रौ वचन लोपी नै, दीधी अवर नै दीख्या।
मोह कर्म मदमस्तपणै रे, छोड़ दीधी वर भिख्या।। गण थी नीकळ्यां जाझा तीन वर्ष थया, सिरदारगढ़ थी ताह्यो।
नंदी उतरया पाप सरधतो तिण रो, श्रावक सुजाणगढ़ आयो॥ ४४ जयाचार्य तिण नै पूछा कीधी, थे इण नै सरधो छो कांई।
जब कह्यो म्हे तो साधु सरधा छां, इम दीयो उत्तर त्यांही। ४५ नंदी उतरीया पाप सरधतो, बलै तिण री पूछा कीधी ताह्यो।
जब कह्यो त्यां नै इ साधु सरधा छां, जब जयाचार्य कही वायो॥
टाळोकरों की ढाळ : ४२३
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असाध
सरधता, ए इता वर्ष रह्या म्हां मांही । मांहै, पिण साधुपणो थो नाही ॥
तो यां
५१
उ वे तो म्हांनै उणां रै लेखै ४७ थारे लेखे तो साधुपणो न हुंतो, नींकळीया पछै दीक्षा न लीधी । हिवै साधुपणो या में किण विधि आयो, आ देख लेवो बात सीधी ॥ ४८ थे संसार में करो लाखां रा लेखा, थाने इतरी समझ पड़ै नाह्या । जब इण कौ दीक्षा नवी तो नही लीधी, नवी लेणी तो चाहीजै ताह्यो। ४९ पछै ते सिरदारगढ़ में जइ नैं तिण नै, नवी दीक्षा, दिवरावी । दीक्ष न लेवै तो श्रावक न मांनै, तिण रै मोटी विपति पड़ी आवी ॥ महाजन विण पहिला दीक्षा दीधी थी, तिण नै पिण पाछी दीक्षा दीधी। श्रावक श्राविका रे अर्थे अज्ञानी, एहवी कपटाइ कीधी ॥ जद सिरदारगढ़ में आर्यावां हुंती, त्यां नै तिण श्रावक कही आयो । यां नै तो म्है सुद्ध कर दीधी छै, इम नवो साधुपणो दिवराव्यो । ५२ साधुपणों ते नवो अबै लीधो, गण थी नीकळ इता असाधु थका साधु नाम धरायो, एहवो मोटो ठागो गण मांहे तौ बहु दोष बतावता, मुख सूं कहता है साधो । लोकां नै समाई में वंदना कराई, डबोया बहु जन नै वाधो ॥ ५४ पोता नै बहिराया में धर्म परुपता, जब तौ देता अन्न पाणी । पेट रै काजै बहु लोक डबोया, आ दुर्गति नी नीसाणी ॥ ५५ साधुपणो तौ अबै लीधो छै, इतरा वर्ष तौ ठागो चलायो । यां ठग - ठग लोकां रा माल खाधा, यां रौ छूटकौ किण विधि थायो । नही संक्या, साधु वाजतां ते मूसावायो । बतावै, यां री प्रतीत किण विधि आयो ॥
वर्ष ताह्यो । चलायो ॥
इतरा वर्ष ठागो करता लै गण रा साधा में दोष ५७ इतरा वर्ष ठागा सूं
काम
५९
चलावतां, डरिया नही मन मांह्यो । बतावता, ए किण विध डरसी ताह्यो । मन में, दोष न जाणतां होसी ताह्यो । एक ओ पिण ठागो चलावता होसी, यां री प्रतीत किण विधि आयो ॥ जद कहै म्हाने तो खबर पड़ी नही, तिण सूं पहिला लियो छैदो । खबर पड़या पछै नवौ साधुपणो, लीधो है आण उमेदो ॥ ६० जो खबर पड़ी नही तो गण थी नीकळ, किम बहु दोष बताया । ते पिण जाझा तीन वर्ष लग, दोष कही बलि लोकां नै कहता सूत्र तौ, बरज्यो ए दोष सेवै छै विशेषो । पड़ी नही, ए प्रत्यक्ष झूठाबोला देखो ||
बहु जन भरमाया ॥
बलि कहै म्हानै तो खबर
४२४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
५०
५३
५६
तो गण मा दोष अहुंता ५८ ते साधां में दोष कहे ते
६१
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६२ साधां रै स्थानक आर्यां नै वेसणो, वो कहैता सूत्र मांही।
बलि कहै मौ नै तो खबर पड़ी नही, यां झूठा नै किम होसी मोखो। ६३ ते पिण जाझा तीन वर्ष लग, खबर पड़ी नही केमो।
ते पिण भोळा लोकां नै ठगवा काजै, झूठ बोलै छै एमो।। ६४ कोइ राजसभा में आयो धुतारो, एक मिनका नैं साथै लेइ।
कहै लाख रुपया कोइ देवो मोनै, तो देवू मिनको एही।। ६५ जद किण ही पूछ्यौ- इण में स्यूं गुण एहवो, जद कहै बारै कोस रे माही।
इण री बास थकी नही आवै उंदर, एहवो बोल्यो झूठ बणाई ।। ६६ उण मिनका रौ कान कट्यौ देखी तिण नै, किण ही बुद्धिवंत पूछ्यो ताह्या।
थां रे इण मिनका रो कान कट्यौ किम, ते कारण मोय बतायो। जब कहै इक दिन नींद में सूतां, कांन कुरट्यो उंदर आवी सीधो। तू कहतो बारै कोस में नही रहै मूसो, इण रा ठागा रौ उघाड़ कीधौ।। तिम जाझा तीन वर्ष लग दोष कह्या बहु, सूत्र रो नाम लेइ अजाणो।
बलि कहे खबर पड़ी नही मौने, ए प्रत्यक्ष ठागो पिछाणो।। ६९ कहै बारै कोस में नही उंदर, कान कुरट्यां री खबर न पाई।
ज्यूं गण मांहै थाप रा दोष केहतो बहु, बलि कहै खबर पड़ी नाही।। सिरदारगढ़ वाळा नै लेखे, जो साधु बतावता नाही। तौ घणां वर्षा लग त्यारै लेखे, ए ठागो चलावतो दीसै त्यांही।। न्याय मार्ग लेखे तौ गण सूं टळिया, तेहिज दिन सूं ठागो।
नवी दीक्षा लीधी ते पिण ठागौ, गण थी नीकळ लगायो दागो।। ७२ बलै कहै टाळोकर भीखणजी नै, सरधू ववहार में साधो।
बलै त्यांरा बोला में दोष परुपै, करै घणो विखवादो।। ७३ स्वाम भिक्षु छतां साधा रे स्थानक, अज्जा वेसती आयो।
तिण में सूत्र नां अर्थ री समझ पड्यां विण, अणहुँतो दोष बतायो।। ७४ कियो प्रथम चौमासो तिण ग्रामे, बलि द्वितीय वर्ष अवधारा।
तिण ग्रांम चौमासो करै बड़ां लारे, इम दोष कहै अविचारयो। ७५ वर्ष सत्तावनै भिक्षु रै साथै, हेम कीधौ पुर चउमासो।
हेम दीक्षा बड़ा वैणराम जी साथै, पुर कियो अठावनै बासो॥ ७६ ए पिण स्वाम भिक्षु रो बांध्यौ, सुद्ध जीत ववहारो।
तिण माहै मूर्ख दोष बतावै, कर-कर तांण गिमारो।। ७७ आसरै वर्ष पचासै टळिया, रूपचंद अखेरामो।
त्यां दोढ सै आसरै, दोष बताया, स्वाम भिक्षु में तामो॥
टाळोकरों की ढाळ : ४२५
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छतां
७८ तिहां पहिले दिवस साधां घर फरस्या छै, दिन बीजै नवा आयां पासो । आगला साधां अर्थे घर पर्शावता, स्वाम भिक्षु सुबिमासो ॥ साधां रे स्थानक बेसे साधवियां, ए भिक्षु रीत ताह्यो । बलि छोटो किमाड्यो खोलाय बहिरता, असणादिक मुनिरायो ॥ ए पिण भिक्षु में दोष बतायो, रूपचंद अखेरांमो । तेहिज दोष हिवै ए भाषै, सुद्ध ववहार में तामो ॥ ८१ बोल इत्यादिक भिक्षु छतां रा, तिण में कहै निश्चै दोषो । सुद्ध जीत ववहार उथाप्यो अज्ञानी, ते किणविधि जासी मोखो || ८२ छोटो किमाड्यो खोलाइ अनादिक, भिक्षु छता लेता ताह्यो । लगायो ॥
निश्चै दोष कहै छै
तिण
माहे,
कुड़ा कु
८३ ते टाळोकर किमाड़ नै ८४ किमाड़ नै
झूठी हुंडी वणाइ, छोटी मोटी लुगाइ री जाणो । किमाड़ीया ऊपर, दृष्टांत ध अयाणो ॥ किमाड़ीया
ऊपर, छोटा मोटा गर्भ रो दृष्टांतो । स्वाम भिक्षु दियो तेह उथापी, कर रह्यो खेंच अत्यंतो ॥ ८५ कहै छोटी लुगाई सरीषो किमाड्यो, मोटी बाई सरीषो किमाड़ो । छोटी मोटी रौ संघटो साधु नै न करणो, तिम बिहुं खोलाइ न लेणो आहारो ॥ ८६ बाबीस 'टोळा तणां भेषधारी, भिक्षु तेहो । किमाड़ अने किमाड़ीया उपर, ८७ टाळोकर पिण तेहीज दृष्टांत, देवा
स्वाम छता दृष्टांत देता लागो मूढ
हो । बाळो ।
बले कहै भिक्षु ने साधु सरधु छं, इण रे आयो अभ्यंतर जाळो || ८८ बलै किमाड्रीयो निषेद काजै, मोटी छोटी लुगाई रौ दृष्टांत देवै । यां दोया रौ साधु नै संघटो नही करणो, ज्यूं किमाड्रीयो इ आहार न लेवै । गुरु चिरत सुणो भव जीवां ॥ ८९ संवत् अठारै वर्ष तेतीसै, जेठ सुदि बारस मंगलवार । ए कुगुर तणां चारित्र प्रकट कीधा, सैहर पीपाड़ तिण रै मझार ॥ ९० छोटी लुगाई ज्यूं कहै किमाड्यो, बले कहै भीखणजी सो साधो । आप भाषा से आप अजाण, तिण रे मोटी मिथ्यात री व्याधो ।। ९१ छोटी लुगाई सरीषो किमायो केहतो, मूर्ख मूळ न लाजै । लैकहै भीखण जी नै साधु सरधुं छू, तिण रा अपजस बाजा बाजै ॥ ९२ छोटी लुगाई सरीखो किमाड्यो थाप्यो, दी उपमा अति भूंडी । एहवो अजोग तिण दृष्टांत दीधो, तिण री प्रत्यक्ष खोटी हुंडी ॥ ९३ छोटी लुगाई सरीखो किमाड्यो थाप्यो, ते तो असुभ कर्म प्रतापो । अधिक तांण करी दोष बतावै, तिण रै प्रगट्या पूर्व पापो ॥ ४२६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
७९
८०
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दोखो ।
९४ अनैक टाळोकर आगे हुआ था, केइ कह्यो किमाड़या पिण इसड़ो दिष्टांत दीधो नहीं सुणियो, इण ओ दृष्टांत दे घाली तोखो ॥ ९५ भिक्षु संथारो सीझौ ते वर्ष तणें, दिन करै टाळोकर उपवासो । उपवास न करै तो विगय छ टाळै, बले साधु कहै गुण रासो ॥ ९६ ते भिक्षु तौ किमाड़यो खोलाए बहिरता, तिण ऊपर भेषधारी । छोटी मोटी लुगाई रौ दृष्टांत देता, ओ पिण कहिवा लागौ अविचारी ॥ ९७ भेषधारी तो भिक्षु नै साधु न सरधै, तिण सूं लुगाई रो दृष्टांत देवै । पिण ओ तौ साध सरधै, दृष्टांत देइ इतरी पिण मूढ न बेवै ॥ ९८ ते टाळोकर ने कोई पूछा करै इम, कोइ छोटी लुगाई रो तेहो । जाणी संघटो करै ते साधु कै असाधु, जब कहै असाधु छै जेहो ॥ ९९ तूं छोटी लुगाई सरीखो कहै छै किमाड्यो ते किमाड्यो खोलाए आहारो । स्वाम भीखणजी लैता जिणां ने, तूं किम सरधै अणगारो ॥ १०० जब कहै ते तो किमाड़या रो लैता, जाणी नै सुद्ध ववहारो । त्यां तो दोष जांणी नही सेव्यो, तिण सूं ते सुद्ध अणगारो || १०१ तिण नै कहिणो त्यां दोष न जाणो, जो त्यांनै दोष नही लागै । तो हिवड़ा पिण साधु दोष न जाणे, त्यां रो व्रत किम भागे ॥ १०२ तिण टाणै तो रूपचंद टालोकर, किमाड़या में स्वाम भिक्षु तो निर्दोष जाण्यो, तिण सूं त्यां नै १०३ ज्यूं हिवड़ां टाळोकर किमाड़िया में, दोष पिण वर्तमांन गणी दोष न जाणै, तो त्यांनै १०४ इम पहिले दिन घर फरस्या, दूजै दिन और साधां अर्थे घर फरश्यावता, स्वाम १०५ बोल इत्यादिक भिक्षु सेवंता, ते स्वाम भीखणजी नै दोष न लागो, १०६ इम पूछ्यां थकां सुद्ध जाब न
दोष
बतायो ।
दोष नहीं
थायो ।
कहै छै
सोयो ।
दोष किम होयो । नवा साधा पासो । भिक्षु सुविमासौ ॥ निरदोष जाणी सोयो। तो हिवड़ा दोष किम होयो । आवै, जब अकल विकल मुख बौले ।
न्याय री बात कह्या बक १०७ शतक अष्टम अष्टमुदैशै बलि पंचमै ठाणा रे द्वितीय
ऊठै, मोह कर्म वस झोळे ॥ भगवती, बली सूत्र ववहार मझारो । उदेशै, प्रभु कह्या पंच ववहारो ॥ पंच ववहार सुणो भव जीवा । जीत पिछाणो ।
पंचमो आज्ञानो
आराधक जाणो ॥
१०८ आगम सूत्र ए पंच ववहार
"
आज्ञा
नै धारणा, प्रवचतो साधु,
टाळोकरों की ढाळ :
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पांच ववहार१०९ केवळ-अवधी ज्ञानी२ मन-पज्जव३ चउद४ पूर्व दस५ सारो। नव६ पूर्वधर ए षट विधि, है धुर-'आगम-व्यवहारो'।
आगम ववहार सुणो भव जीवां ।। ११० जघन्य थकी जे सूत्र निशीथज, तास जाण सुविचार |
आठ पूर्वधर उत्कृष्ट कहियै, द्वितीय-'सूत्र-व्यवहार'।। १११ देशांतर जे रह्या गीतार्थ, तेह नै पासे ताम ।
जेह अगीतार्थ साधू नै मूकीजै, तिण ठांम।। ११२ मूढै अर्थ- पद करि दूसण नो, प्रायश्चित पूछावै।
तास आज्ञा थी दीयै प्रायश्चित, ते- 'आज्ञा-ववहार' कहावै।। ११३ स्थविरादिक नै पास धारयो, जे प्रायःश्चित पिछाणी। तेह 'धारणा- व्यवहार' चउथो, धारणा थी करै जांणी ।।
तुर्य- 'धारणो- व्यवहार' कह्युए। ११४ पक्षपात रहीत स्थापै आचार्य, ते पंचम- 'जीत- ववहारो'।
द्रव्य क्षेत्र काळ भाव देखी नै, बलै संघयणादि विचारो॥ सोरठा११५ ठाणांग पंचम ठाण रे, द्वितीय उद्देशक वृत्ति में।
जीत व्यवहार सुजाण रे, आख्यौ इम कहिये तिको।। ११६ जे बहुश्रुत बहु बार रे, प्रवत्यौं वज्यौ नथी।
वर्ते वयाँ लार रे, कार्य है ए जीत करी।।
११७ ए पंच व्यवहार प्रवर्ततो साधु, आज्ञा नो आराधक होयो।
एहवो श्री जिनराज कह्यो छै, पाठ विषै अवलोयो।। ११८ सूत्र ववहार नी टीका विषै कह्यो, धुर च्यातूं ववहारो।
तीर्थ अंत तांई नहीं रहसी, जीत तीर्थ लग सारो। ११९ पंच व्यवहारपणे प्रवर्ततो आज्ञा नों, आराधक आख्यो।
इण लेखे धुर व्यवहार आगम छै एहवो, जीत प्रभु दाख्यो। १२० नवकार ना पद पंच परुप्या, पांचू इ छै वंदनीको।
तिमहीज ए ववहार पंच है, तंत न्याय तहतीको ।। १२१ साधु-साधवी रे लांबी पिछेवड़ी, सूत्र विषै कही नाहि।
लांबी पंच हाथ नी थापी, जीत ववहार थी त्यांही। .
१.लय-चतुर विचार करी नै देखो। ४२८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१२२ चौथे ठाणै आर्यांवा नै, पछैवड़ी च्यार कही जग तारो।
एक पिछेवड़ी बे कर चौड़ी, एक चोड़ी कर च्यारो॥ १२३ दोय पिछेवड़ी तीन हाथ नी, सूत्र विषै वच एहो।
जीत ववहार थी च्यारूं पिछेवड़ी, चौड़ी तीन हाथ नी करेहो।। १२४ बावन अणाचार कह्या सूत्र में, अंजन घाल्यां अणाचारो।
कारण अकारण रो नाम न खोल्यो, समचै वोँ जग तारो॥ १२५ कारण पड़िया अंजन घालै, साधु नै दोष नै लागै।
___ए पिण जीत ववहार थी जाणो, साधु रौ व्रत न भागै ।। १२६ सुंगध सूंध्यां अणाचार कह्यौ प्रभु, बलि लियां अणाचारो।
ते जीत ववहार थी कारण सेवें, दोष नहीं छै लिगारो।। १२७ गळा हेठला जे केश उपाइँ, तौ सूत्र में कह्यो अणाचारो।
ते जीत ववहार थी कारण पड़यां थी, उपाइयां नहीं दोष लिगारो॥ १२८ दंत धोयां अणाचार कह्यो प्रभु, ते कारण पड़िया सोयो।
जीत ववहार थी दांत धोवै, तो दोष नही छै कोयो। १२९ आरीसादिक में मुख देखै तो, अणाचार अवलोयो।
जीत ववहार थी कारण पड़िया, मुख देख्यां दोष न जोयो॥ १३० नित्य पिंड. लिया अणाचार कह्यो प्रभु, ते जीत ववहार थी जासो।
कारण पड़िया नितपिंड लैवै, दोष न कहियै तासो।। १३१ सूत्र में तो समचै नित्य पिंड वर्यो, कारण पड़िया लेणो कह्यो नाहि।
जीत ववहार थी स्वाम भीखणजी, लेणो कह्यौ कारण त्यांही ।। १३२ इमहिज नवा आया मुनि पासै, पहिलै दिन फरस्था घर फरसावै।
इमहिज अन्य क्षेत्रे लियै नित्य पिंड, ए जीत ववहार कहावै ।। १३३ इमहिज चौमासा ऊपर चौमासो, करै बड़ां रै लारै।
ए पिण जीत ववहार भिक्षु रो, बुधवंत न्याय विचारै ।। १३४ छोटो किमाइयो खोलाइ वहिरै, असणादिक चिहुं आहारो।
ए पिण जीत ववहार बाध्यौ छै, स्वामी भीखणजी सारो।। १३५ सवा हाथ रे आसरै बारी खोली, नै सैहर कांकरोली मांह्यो।
स्वाम भिक्षु निशि दिशां पधारयां, दोष कह्यो नहीं ताह्यो।। १३६ आर्यावां विहार करी नै आवै, उतरै खोली किमाड़ो।
अथवा तालो खोली नै उतरै, ए भिक्षु बांध्यो जीत ववहारो॥ १३७ सोजत सैहर में सात ठाणां सु, अज्जा बरजूजी आया।
स्वाम भीखनजी किमाड़ खोलाए, साथै आय उतराया।।
टाळोकरों की ढाळ : ४२९
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काळ सोल हाथ खंडियो, चौमासा में वीस हाथ खंडियो राखै, ए भिक्षु
बांध्य
अणगारो ॥ जीत ववहारो ॥
चौमासै कर पणवीसौ ।
नो, नवौ
जीत ववहार जगीसो ॥ बिछावण जाणी । पिछाणी ॥
ववहार
साधु-साधवियां राखै ते पिण जीत, १४१ खंडिया रा कळ्प रो करै, बिछावणो
पड़ला दोयो ।
तिण पेटै चौथी पिछेवड़ी चवदै हाथ नी, जीत ववहार थी जोयो । १४२ अधिक उपधि ग्यारै थिवर रै, कह्या ववहार आठमें बाणो । तेह विषै राखणौ भाख्यौ, पिण न कह्यो तास प्रमाणौ ॥ १४३ जीत ववहार थी जोगपटौ ए, साढा सात हाथ उनमानो । तेह थकी शिर वा पग बांधै, अथवा पहिरै ओढै १४४ आचारंगादिक कालिक सूत्र नी, दिवस रात्रि 'करणी, विच पहर पिण, सूत्र
जानो ।
नी ताह्यो । पर करणी नाह्यो ।
प्रथम चरम पैहर सज्झाय
१४५ जीत ववहार थी विचलै
अर्थ बिहु सोयो ।
वांचै सुणावै तो दोष नही छै, निकेवल पाठ गुणवुं न कोयो । भाख्यो, पिण तास प्रमाण 'न' कर, चौड़ो देह प्रमाण
निरणो ।
पंच
करणो ॥
१४६ साधां रै चोलपटो प्रभु जीत ववहार थी लांबो १४७ इमहिज आर्यावां रे साड़ी जीत ववहार थी लांबी आठ १४८ को उदक हाथां सूं लेणो, धुर
में, नहीं कह्यो
प्रमाणो ।
सूत्र करै, चोड़ी पिछाणो ।। अंगै ते जीत ववहार थी बेणो ।
देह प्रमाणे
सूखड़ी अन्य विगय नहीं लेणी, उपधि कारणे सूं लेणो ॥ १४९ द्वितीय आचारंग द्वितीय अध्ययनै, दूजा उद्देशा मझारो । मास खमण रहि पाछौ आवै तौ दुगणा दिन काढणा बारो || १५० जीत ववहार थी दुगणा दिन जे, विण काढ्यां आवै ताह्यो । तो एक दो रात्रि रहै साधु जी, दोष नही तिण मांह्यो । बिहु टक, कह्या पड़िलेहणा सारो । इकटक ए पड़िलेहै जीत ववहारो ॥ भिक्षु कृत
१५२ राख रेत पोथी आखो थान कपड़ा रौ, विण वावरयौ थान उपधि छै मांहि । ते पिण एक बार तौ अवश्य पड़िलेहै, विण पड़िलेह्यां न राखै कांइ ॥ झूठ बोलां रो संग न कीजै ॥
१३८ शेषै
१३९ शेषै काळ बीस हाथ अज्जा राखै ते भिक्षु नो
१४० हाथ रा पनां जे नव हाथ
१५१ आवश्यक चौथे भंड उपधि बिण वावस्या उपधि पोथ्यां,
४३० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
खंडियो, बांध्यो,
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१५३ वेहरी आया पछै आगली वस्तु, बलि वैहरै जइ बहु बारो।
ए पिण स्वाम भीखणजी बांध्यो, निरदोषण जीत ववहारो॥ १५४ शिर धोबा रो उदक, ढाळादिक रो-जळ गोबर कारखाना रौ पाणी।
पछै नीपनौ ते पिण बेहरै, जीत ववहार थी जाणी।। १५५ चौलपटा रो मुंहढो . सीवै, सूत्र विषै नही वायो।
जीत ववहार थकी ए जांणो, दोष नहीं तिण माह्यो ।। १५६ मुहपोतीयां तो कही सूत्र में, पिण नहीं कह्या पुड़ तासो।
जीत ववहार थी डोरो आठ पुड़, वाउकाय नी जयणां विमासो।। १५७ पाटी पटड्यां टोपसी प्रमुख, त्यां रंग रोगांन लगावै।
ते पिण जीत ववहार थी, जाणो, तिण रो कुण दोष बतावै ।। १५८ ताव प्रमुख नै मूर्छा मिटावण, राति रा राख लगावै।
ए पिण जीत ववहार थी जाणौ, बुद्धिवंत न्याय मिलावै ।। १५९ धुर पोहर तमाखू वहिरी पाड़ियारी, बलै ओषद वहिस्यो पाडियारो।
दुजैपोहरआज्ञा ले चौथे पोहर भोगवै, ए पिण जीत ववहारो।। १६० इमहीज पाडिया रा ओषधि तमाखू री, धणी री दोय कोस रै मांह्यो।
आज्ञा लेवै कोस उपरंत भोगवै, ए पिण जीत ववहार कह्यो। १६१ ओषधि रौ धणी जो और ग्रहस्थनै, कहै तूं आज्ञा दे दीजै।
तौ तिण री आज्ञा दूजै पोहर लियै मुनि, ते पिण जीत ववहार कहीजै। १६२ ओषधि रौ धणी जो कहै साधां नै, आप दूजा पोहर रे मांह्यो।
अन्य ग्रहस्थ री आज्ञा ले लीजो, ओषधि री तो आज्ञा लेइ भोगवणो नाह्यो। १६३ तड़कौ सीत टाळण दिन रात्रि, पिछेवड़ी बांधैहो।
बलै पाट बाजोटादिक आडा मेलै, जीत ववहार थी एहो ।। १६४ शेषै काळ चौमासो उतरिया बेहरी, सेज्झातर नो आहारो।
पछै जागा भौळावै ते पिण, जीत ववहार विचारो॥ १६५ सेज्झातर नौ बहरी ब्यार कियो मुनि, पाछा आया जइ गाम बारौ।
नवी आज्ञा लेइ तेह जागा भोगवै, ए पिण जीत ववहारो ।। १६६ केइ साधु घर फर्सी नै विहार कियो छै, थयो असूझतो घर जेहो।
पाछै साधु रह्या त्यां नै जे कल्पै, जीत ववहार थी एहो।। १६७ स्याही दिशां अर्थे जळ नित्यपिंड ल्यावै, बलै खंड्या धौवा नै काजो।
मुंहपति प्रमुख धौवा नै अर्थे, ए जीत ववहार समाजो॥ १६८ मेण रोगांन नै राते राखै, बलै लेइ लगायो पानो।
स्याही बणावै ते आली रहै निशि, ए जीत ववहार थी जांनो।
टाळोकरों की ढाळ : ४३१
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ओढे पहिरै रातो । धावै, ए जीत ववहार विख्यातो ॥ काजै, गोबर राख लगावै ।
साजी लगावै ते आली रहै निशि, ए जीत ववहार में आवै ।। लगावै, तै पिण रहै छै रातो । ओढै, ए जीत
रहै निशि जूं
ववहार कहातो ॥ आदि रक्षा काजो । ववहार समाजो ||
इमहिज तंतू रे साजी गुगलादिक, ए जीत
तिण मांहि दोष कहो
अथवा
१७३ इत्यादिक जीत ववहार तणां जे, कहि कहि किता कहूं बोलो । किम कहिये, आंख अभिंतर खोलो || वर्त्तमानज, अथवा अनागत काळो । आचार्य, ते अंगीकार करणां न्हालो । आचार्य ताही । आज्ञा सदाइ ॥ नै तो दोष न होई ।
बाधै
जीत
बाध्यां में, पछला
तुरत
छोड़ देणो, ए तसु सेव्यो आचार्य, त्यां
आचार्य बांधै ते किण
१७८ नित्यपिंड अंजण सुगंध कारण पड़िया आज्ञा दीधी १७९ उद्देसिक रात्रि भोजन
निर्दोष जाण सेवे तो, त्यां नै पिण दोष न कोई || सूत्र में वय, तेहनो जीत ववहारो । विधि मांनणो, हिव तसु उत्तर सारो ॥ झाड़ में, सूत्र विषै अणाचारो । आचार्य, ते किम मानो जीत ववहारो ॥ सिय्यातर, ने पिण को अणाचारो । सेवणो नहीं छै, बुद्धिवंत न्याय विचारो ॥ नीत वाळा जे गणपति महागुणवांनौ । किम थापै, समझो चतुर सुजानो ॥ जीत ववहार, जे किमाड़ियादिक बोलो ।
पिण
कारण पड़यां १८० पक्षपात रहित
ते जीत ववहार असुद्ध १८९ ते माटे भिक्षु बांध्यो
तिण नै छोटी लुगाई रो दृष्टांत देवै, तिण नै जाणजो फूटो ढोलो || १८२ असम्यक् पिण सम्यक् जाणी सेवै, ते मुनि नै सम्यक् आख्यो । आचारांगे' पंचमझयणे, पंचम उद्दे निर्दोषण
दाख्यो ॥
भोगवै अध्ययन, पाप
भाख्यो
१६९ खंडिया रा कळप रौ कपड़ो धोवै, ते धोयो मुंहपति पडला रस्तानांदि १७० पात्रादिक रंग उतारण
१७१ तन बड़ा रे आटादिक तावादि कारण तंतू अधिक १७२ अमल सूंठादि सिर रे लगायां,
१७४ अतीत अद्धा
जीत ववहार थी १७५ अतीत आचार्य दोष देखै तो
१७६ निरदोष जाण नै पछला पिण
१७७ कोइ कहै जै
१८३ आधा कर्मी निर्णय कर लीधु,
सुगडांग
इकसम
१. आयारो ५ ।५।९६
४३२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
न
जाणी ।
नाणी ॥
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१८४ आचार्य
कहो दोषो ।
कहै ज्यूं करणो, त्यांरो वचन उलघंणो नाही । दसवैकालिक नवमे अध्ययने, दूजा उद्देशा मांहि ॥ १८५ उत्तराध्येन रै चौथे अध्ययनै निज छांदो रुध्यां कही मोखो । तौ जीत ववहार बांध्यो जे गणपति, तिण मांहै क्यूं १८६ आचारंग रे पंचमे अज्झयणे, चौथे उद्देशै आचार्य नी दृष्ट प्रमाण, प्रर्वत्ते मुनि १८७ सर्व कार्य में आचार्य नै, आगल करी ए आज्ञा तीर्थकर के री, तिणहिज
पिछाणो ।
ठमे
१८८ आचार्य रा ज्ञान प्रमाण, वर्त्ते
मुनि
गुणवानो ।
सुविधानो ॥ गुणधारी । विचारी ॥
१९१ किमाड़ियादिक जीत
पिण आपणी मतिकरि नही प्रवर्त्ते, तिणहिज ठाम १८९ इत्यादिक बहु सूत्र विषै कह्यु, गणपति जे तेह तणां अभिप्राय प्रमाण, प्रवर्त्तेतुं १९० ते माटै स्वाम भीखणजी उजागर, आचार्य निरदोष जांणी जीत त्यां बांध्यो, जोय लो हृदय त्यांरो, तिण नै क्यूं दो खोटा दृष्टांतो। छोटी लुगाई रो सरीषो कह्यो ते, प्रत्यक्ष दुर्गति पंथो॥ १९२ जीत ववहार बांध्यो, तिण री आज्ञा दीधी जिनरायो । जिण जीत ववहार भणी नहीं मान्यो, तिण प्रभु वच मान्या नाह्यो । १९३ इम सांभळ उत्तम नर नारी, प्रभु कह्या पंच थापो, थे अंतर आंख बेसै, तो केवळियां थापी, मति कोइ झूठ सोहरी, भोगवणी अति राखौ, छोड़ देवौ झकझौड़ी ॥
ववहारो । उघाड़ो॥
नै भळावो ।
तेह विषै कोइ दोष म १९४ कदाचित् कोइ हीयै न पिण किमाड़िया में दोष १९५ असाता वेदनी बांधणी ते माटै मति सवळी
लगावो ॥
दोहरी ।
जांणो । आणो ॥
१९६ एक दिवस तो निश्चै करि नै, परभव मांहि ते माटै ऊंची तांण न करणी, थे दुख तणों डर १९७ संवत् उगणीसै वर्ष तेतीसै, सुदि बीज भिक्षु भारीमाल ऋषराय प्रशादै, जयजश
चैत मास जांणो । कल्याणो ॥
हर्ष
गुणखाणो ॥
विचरणो ।
निरणो ॥
गुणमाळो ।
निहालो ||
टाळोकरों की ढाळ : ४३३
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परिशिष्ट
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सं० १८३२ रो लिखत (युवराज-पद अरपण रो)
१-(पृष्ठ ३ से संबंधित)
ऋष भीखण सर्व साधा नै पूछ नै सर्व साध साधवियां री मरजादा बांधी। ते साधा नैं पूछ नैं साधां कनां थी कहवाय नैं, ते लिखीये छै
१ सर्व साधु-साधवी भारमल जी री आज्ञा माहै चालणो। २ विहार चोमासो करणो ते भारमल जी री आज्ञा सूं करणो।
३ दिख्या देणी ते भारमल जी रा नाम दिख्या देणी। मर्यादा निर्माण का उद्देश्य
चेला री कपड़ा री साताकारिया खेतर री आदि देइ नै ममता कर कर नै अनंता जीव चरित्र गमाय नै नरक निगोद माहै गया है। तिण सूं शिषादिक री ममता मिटावण रो नै चारित्र चोखो पाळण रो उपाय कीधो छै। विनय मूल धर्म नै न्याय मार्ग चालण रो उपाय कीधो छै। भेखधारी विकला नैं मूंड भेळा करै, ते शिषां रा भूखा एक-एक रा अवर्ण वाद बोले, फारा तोड़ो करै, कजिया राड़ करै, एहवा चरित देख नै साधां रे मर्यादा बांधी। शिष साषा रो संतोष कराय नै सुखे संजम पालण रो उपाय कीधो। समर्थन
साधां पिण इमहिज कह्यो-१. भारमल जी री आज्ञा में चालणो। २. शिष्य करणा ते भारमल जी रे करणा।
३. भारमल जी घणां रजाबंध होय नै ओर साध नै चेलो सूपै तो करणो, बीजू करण रो अटकाव कीधो छै।
४. भारमल जी पिण आप रे चेलो करै ते पिण तिलोकचंद जी चंदरभाण जी आदि बुधवान साध कहै- ओ साधपणा लायक छै बीजा साधां नै परतीत आवै तेहवो करणो, परतीत नहीं आवै तो नही करणो।
कीधां पछै कोई अजोग हुवै तो पिण तिलोक चंद चंदरभाण जी आदि बुधवान साधां रा कह्यां सूं छोड़ देणो, माहै राखणो नहीं।
५. नव पदार्थ ओळखाय नै दिख्या देणी। ६. आचार पाळां छा तिण रीते चोखो पाळणो,एहवी रीत परंपरा बांधी छै।
७. भारमलजी री इच्छा आवै गुरु भाइ चेलादिक नै टोळा रो भार सूपै ते पिण कबूल छै। ते पिण रीत परंपरा छै, सर्व साध-साधवियां एकण री आज्ञा माहै चालणों एहवी रीत बांधी छै।
८. कोइ टोळा मां सूं फारातोरो कर नै एक दोय आदि नीकळे, घणी धुरताइ करै बुगलध्यानी हुवै, त्यां ने साधु सरधणां नहीं। च्यार तीर्थ माहै गिणवा नहीं, ४३६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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यां नै चतुरविध संघ रा निंदक जाणवा। एहवा नै वादै पूजै तके पिण आज्ञा बारै छै।
९. चरचा बोल किण नै छोडणो, मेलणो, तिलोकचंद जी चंदरभाणजी आदि बुधवान नै पूछ नै करणो, सरधा रो बोल इत्यादिक पिण तिमहीज जाणवो।
१०. बलै कोइ याद आवै ते पिण लिखणो ते पिण सर्व कबूल कर लेणो। ____ए सर्व साधां रा परिणाम जोय नै रजाबंध कर नै यां कनां सूं पिण जुदो-जुदो कहवाड नै मरजादा बांधी छै। जिण रा परिणाम मांहिला चोखा हुवै ते मतो घालज्यो, कोइ सरमासरमी रो काम छै नहीं। मूंढै और ने मन में और इम तो साधु नै करवो छै नहीं, इण लिखत में चणो काढणो नही। पछै कोइ और रो और बोलणो नहीं, अनंता सिद्धां री साख सूं पचखाण छै।
संवत १८३२ मृगसिर विद ७ लिखतू ऋष भीखन रो छै। साख १ थिरपाल री छै। लिखतु वीरभांण जी उपर लिख्यो सही। लिखतू हरनाथ उपर लिख्यो सही। लिखतू ऋष सुखराम उपर लिख्यो सही। लिखत ऋष तिलोकचंद उपर लिख्यो सही। लिखतू चंदरभाण उपर लिख्यो सही। लिखतू अखेराम उपर लिख्यो सही। लिखतू अणदा उपर लिख्यो सही।
परिशिष्ट : लिखता री जोड़ : ४३७
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सं० १८३४ रो लिखत
(साधवियां रो) २. (पृष्ठ ६ से संबंधित)
आर्यां सर्व रे एक लिखत कीधो
१. माहां मांहि आर्यां आर्यां नै तूंकारो दे तिण नै पांच दिन पांचू विगै रा याग छै।
२. जितरा तूंकारा कादै जितरा पांच-पांच दिन रा विगै रा त्याग।
३. तूं झूठा बोली छै, एहवा वचन कादै जितरा पांच पांच दिन विगै रा त्याग।
४. प्रायछित आयो तिण रो मोसो बोले, जितरा पांच-पांच दिन रा त्याग।
५. ग्रहस्थ आगै टोळा रा साध आर्यां री निंद्या करै तिण नैं घणी अजोग जाणणी। तिण नै एक मास पांचू विगै रा त्याग। जितरी वार करै जितरा मास पांचू विगैरा त्याग।
६. आर्यां री मांहो मांहि री बातां कराय नै उणरो परतो वचन उण कनै कहै, उणरो मन भागै जिसो कहि नै, मन भागै तो १५ दिन पांचू विगै रा त्याग।
७. माहोमांहि कहै तूं सूंसां री भागल छै, एहवो कहै तिण रे १५ दिन विगै रा त्याग छै। जितरी वार कहै जितरा १५ दिनां रा त्याग छै।
आंसू कालै जितरी वार १० दिन विगै रा त्याग छै, कै पनरे दिन मांहे बेलो करणो। इत्यादिक करलो काठो वचन कहै तिण नै यथा जोग प्रायछित छै। स्पष्टीकरण
ए विगै रा त्याग छै ते उण री इच्छा आवै जद साधां सूं भेळा हुवां पहिली टाळणा। जो नहीं टाळे तो बीजी आर्या यूं कहिण पावै नही तूं टालइज। साधां नैं कहि देणो। साधां री इच्छा आवै तो द्रव्य क्षेत्र काळ भाव जाण नै और दण्ड देसी, अनै साधां री इच्छा आवसी तो विगै रो त्याग घणो करावसी।
८. बलै आर्यां रे माहोमांहि साध-साधवियां नै न कल्पै न शोभे तका लोकां नै अणगमती लागै उण री जातादिक रोखंचणो काढणो, जिण भाषा रो पिण साधां री इच्छा आवै जितरा दिन विगै रा त्याग देवै ते कबूल करणो छै।
९. जिण आ· नै और आ· साथै मेल्या ना न कहिणो। साथै जाणो। न जावै तो पांचू विगै खावा रा त्याग, न जाय जितरा दिन। बलै और प्रायछित जठा बारै।
१०. साधां रा मेलीयां बिना आर्यां ओर री और साथै जावै तो जितरा दिन रहै जितरा पांचू विगै रा त्याग, बलै और भारी प्रायछित जठा बारै।
४३८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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११.
जिण आय साथै मेल्या तिण आर्य्यां भैळी रहै, अथवा मांहिमांहि सेखे काळ भेळी रहै, अथवा चोमासे भेळी रहै, त्यांरा दोष है तो साधां सूं भेळाव देणो, न कहै तो उतरो ही प्रायछित उण नै छै । पछै घणां दिन आडा घाल नै कहै तो साचो है तो झूठ है तो उवा जाणै, कै केवली जाणे, पिण छदमस्थ रा व्यवहार में तो घणां दिन री बात उदेरे राग द्वेष रे वस, आप रै स्वार्थ न उदीरे, स्वार्थ न पूगां उदीरे तिण री प्रतीत मानणी नहीं आवै । ग्रहस्थां मांहै आमना जणाय नै मांहोमांहि एक-एक री आसता तर, ति में तो अवगुण घणाइज छै । बलै फतूजी नै मांहै लीधा तिको लिखत सगळी आर्य्यां रे कबूल छै।
बलै अनेक बोलां री करली मर्यादा बांधै ते पिण कबूल छै। ना कहिण रा त्याग छै। हिवै कर्म जोगे किण सूं इ आचार गोचार न पळै, मांहोमां स्वभाव न मिलै, तिण नै साध टोळा बारे काढै अथवा क्रोध वस टोळा थी अळगी परै तका तो कर्म वस अनेक झूठ बोलै कूड़ा कूड़ा आळ दे अथवा के इ भेषधारयां मांहै जाए तिण तो अनंत संसार औरै कीधो ते तो अनेक विविध प्रकार रो झूठ बोलैइज, काइ नही पिण बोलै,एहवी भेषभंडां री बात भेषधारी भारीकर्मां मानै, पिण उत्तम जीव न मानै । टोळा सूं छूट-न्यारी हुवां री बात , त्यां खीजै, त्यां नै चोर कहीजे अनेक-अनेक आळ दे, सूंस करण नै त्यारी नै हुवै, तो ही उत्तम जीव न माने इत्यादिक आंगुण घणा ज छै । एतावता टोळा मांहि सूं पिण टळ्यां पछै इ टोळा रा आंगुण बोलण रा अनंता सिद्धां री साख सूं पचखांण छै ।
ए लिखत सगळी आर्य्यं नै बचाय नैं, पहिला कहिवाय नै, मरजादा बांधी छै । ए लिखत प्रमाण सगळी आर्य्यां नैं चालणो, अनंता सिद्धा री साख सूं सगळा रे पचखांण छै । जिण रा परिणाम चोखा हुवै लिखत प्रमाणै चालै ते मतो घालजो। सरमासरमी रो काम छै नहीं । जावजीव रो काम छै ।
संवत् १८३४ जेठ सुदी ९.
१.
४.
लिखतू सुजाण २. लिखतू मटु ३ लिखतू कुसाला लिखतू सूंभा ५. लिखतू जीउ ६. लिखतू नंदू लिखतू गुमाना ८. लिखतू फतु ९. लिखतू अखु १०. लिखतू अजबा ११. लिखतू चंदू
७.
परिशिष्ट : लिखता री जोड़: ४३९
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सं० १८४१ रो लिखत (साधुवां रै पारस्परिक व्यवहार रो) ३. (पृष्ठ १२ से संबंधित)
साध - साध रे मरजादा री विध लिखिये छै
साध साध मां मांहि भेळा रहै, तिहां किण ही साध नै दोष लागै तो धणीं नै सताब सु कहि देणो अवसर देखने। पिण दोष भेळा करणा नहीं । धणी नें कह्यां थकां प्राछित लेवे तो पिण गुरां नै कहि देणो ।
२.
जो प्राछित न ले तो प्राछित रा धणी नैं आरै कराय नै जे जे बोल, लिखने उण नै सूंप देणो ।
इण बोल रो प्राछित थाने गुरु देवै तो प्राछित ले जो, जो इण रो प्राछित न हुवै तो ही कहिजो । थे गाळो-गोळो कीजो मती । 'थे न कह्यो तो म्हारा कहिण रा भाव छै । म्हे थांरा दोषा रो आगो काढ़सूं नही । संका सहित दोष भासै तो संका सहित कहिसूं, निसंकपणे दोष जाणू छू ते निसंक पणे कहिसूं । नहीं तो अजे ही पाधरा चालो, इम कहिणो, पिण दोष भेळा करणा नही । जो उ आरै न हुवै तो ग्रहस्थ पका भाई हुवै, त्यां नै जावणो उण बेठां इज कहिणो, पिण छांनै न कहिणो ।
ए तो चोमासो बंधीयो काळ हुवै जब छै। शेष काळ हुवै तो किण ही नै कहिणो नही, गुर हुवै जठे आवणो । पिण गुर कनै आय नैं वेदो घालणों नहीं। गुर किण नैं साचो करै नैं कि झूठो करै । गुरु तो इण बात मांहैं नहीं। एनाणां सूं कदाच एकण नै झूठो जाणे, एक नै साचो जाणे तो पिण निश्चै नही ते किणविध प्राछित देवै, आलोयां बिना पछै तो गुरु नै द्रव्य क्षेत्र काळ भाव जाण नै न्याय करणोइज छै । पिण उण नै तो एक थी दो दोष भेळा करणां नहीं। घणा दोष भेळा कर नै आवसी तो उ तो हाथां सूं झूठो परसी । पछै तो केवळी जाणे, छद्मस्थ रा ववहार मांहै तो 'दोष' भेळा करै तिण मह अवगुण नों भंडार छै।
लिखतू ऋष भीखन रो छै ।
संवत् १८४१ चेत विद १३.
• लिखतू ऋष हरनाथ ऊपर लिख्यो सही ।
लिख ऋष भारमल उपर लिख्यो सही । लिखतू अखेराम उपर लिख्यो ते सही । लिखतू सामजी उपर लिख्यो सही । लिखतू ऋष खेतसी उपर लिख्यो सही । लिखतू ऋष रामजी उपरलो लिख्यो सही । लिखतू संघजी उपर लिख्यो सही । लिखत ऋष नानजी ।
४४० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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सं० १८४५ रो लिखत
(सेवा व्यवस्था रो) ३. (पृष्ठ १४ से संबंधित)
सर्व साधां रे एक मर्यादा बांधी ते कहै छै
१ जो कोई साध कारणीक हुवै, आंखियादिक गरढो गिलाण हुवै, जद और साध उण री अगिलाणपणै वियावच करणी।
२ उणनै संलेखणा री ताकीद देणी नहीं उण नै वैराग वधै ज्यूं करणो।
३ उणरे विहार करण री रीत-निजर काची हुवै तो उणरे भरोसे निजर राखणी नही, उण नै घणी खप कर नै चलावणो।
४ रोगियो हुवै तो उणरो बोज उपारणो। उण रा घणां परिणाम चढता रहै ज्यूं करणो। पिण उण में साधपणो हुवै तो उण नै छेह देणो नही।
५ उ राजी दावै वैराग सुं संलेखणा करै तो पिण उणरी वियावच करणी। कदा एक जणो करतो उछट हुवै तो सगळा नै रीत प्रमाणे करणी। नहीं करै तो नषेध नै करावणी। जो उन करै, तो उण नै बीजा आगा सूं करावणी किण लेखे।
६ कारणीक नै-रोगियो नै रीत प्रमाणे आहार सगळा भेळा होय नै कहै ते देणो।
७ बलै किण ही रो सभाव अजोग हुवै, तिण नै कोइ टोळा माहै बेठण वाळो नही, साथै लै जावै नही, जद उण नै पेला ने घणी परतीत उपजावणी। घणी नरमाई करने हाथ जोड़नै कहिणो, थे मने निभावो यूं कहि नै साथे जाणो। आगलो चलावै ज्यूं चालणो। जको काम भळावे ते करणो। उणनै घणों रीझाय ने रहिणो। जो अतरी आसंग विनो नरमाइ करणरी न हुवै तो संलेखणा मंडणो। वेगो कारज सुधारणो। जो दोयां बोलां माहिलो एक बोल पिण आरै न हुवै तो उण सूं कलेश कर-कर नै कुण जमारो काढसी। उणनै साधु किम जाणीये-जो एकलो वैण री सरधा हुवै, इसरी सरधा धार नै टोळा माहै बेठो रहै छै-म्हारी इच्छा आवसी तो माहै रहिसु, म्हारी इच्छा आवसी जद एकळो हुसूं, इसरी सरधा सुं टोळा माहै रहै ते तो निश्चै असाध छै। साधपणो सरधै तो पहिला गुणठाणां रो धणी छै। दगाबाजी ठागा सूं माहै रहै, तिण नै माहै राखै जाण नैं, त्यां ने पिण महादोष छै। कदाच टोळा माहै दोष जाणै तो टोळा माहै रहिणो नही। एकळो होय नै संलेखना करणी। वेगो आत्मा रो सुधारो हुवै ज्यूं करणो। आ सरधा हुवै तो टोळा माहै राखणो, गाळा-गोळो कर ने रहै तो राखणो नहीं, उत्तर देणो बारै काढ देणो, पछै इ आळ दे नीकळे तो किसा काम रो।
८ टोळा माहै कदाच कर्म जोगे टोळा सूं न्यारो परै तो टोळा रा साधसाधवियां रा अंसमात्र आंगुण बोलण रा त्याग छै।
परिशिष्ट : लिखता री जोड़: ४४१
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९
यां री अंस मातर संका पडै ज्यूं, आसता उतरै ज्यूं, बोलण रा त्याग
छै।
१० टोळा मां सुं फार नै साथै ले जावण रा त्याग छ। उ आवे तो ही ले जावण रा त्याग छै।
११ टोळा माहै थी बारै नीकळ्या पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। माहोमां मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै।
१२ जे कोइ आचार रो, सरधा रो, सूत्तर रो अथवा कल्परा बोल री समझ न परै तो गुर तथा भणणहार साध कहै ते मान लेणो नहीं तो केवळी नै भळावणो। पिण और साधां रे संका घाल नै मन भांगणो नही।
टोळा माहै पिण साधां रा मन भांग नै आप आप रे जिलै करै ते तो महाभारी कर्मो जाणवो। विसवासघाती जाणवो। इसरी घात-पावड़ी करै ते तो अनंत संसार री साइ छै। इण मरजाद प्रमाणे चालणी नावै, तिण नै संलेखणा मंडणो सिरै छै।
धनै अणगार तो नव मास माहै आत्मा रो किळ्याण कीधो, ज्यूं इण नै पिण आत्मा रो सुधारो करणो। पिण अप्रतीतकारियो काम करणो न छै, रोगिया विचै तो सभाव रा अजोग नै माहौ राख्यो भूण्डो छ। चेतावनी
ए पचखांण पाळण रा परिणाम हुवै ते आरे हुयजो। विनय मारग चालण रा परिणाम हुवै, गुरु नै रीझावणा हुवै, साधपणो पाळण रा परिणाम हुवै, ते आरै हुयजो। ठागा सूं टोळा माहै रहणो न छै जिण रा परिणाम चोखो हुवै ते आरै हुयजो
आगै साधां रे समचै आचार री मर्यादा बांधी ते कबूल छै। बलै कोइ आचार्य मर्यादा बाधै तो याद आवै ते पिण कबूल छै। लिखतू ऋष भीखन रो छै। संवत् १८४५ रा जेठ सुदि १. १ ए मरजादा ऋष भारमल हरख सूं अंगीकार कीधी २ मर्यादा ऋष सखराम अंगीकार कीधी ३ ए मर्यादा ऋष अखेराम अंगीकार कीधी ४ ए मर्यादा ऋष सामजी अंगीकार कीधी। ५ ए मर्यादा ऋष खेतसी अंगीकार कीधी ६ ए मर्यादा ऋष राम जी अंगीकार कीधी। ७ ए मर्यादा ऋष नान जी अंगीकार कीधी। ८ ए मर्यादा ऋष नेमे अंगीकार कीधी। ९ ए मर्यादा ऋष वेणे अंगीकार कीधी छै।
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सं० १८५० रो लिखत (साधुवां री मरजादा रो) ५. (पृष्ठ १९ से संबंधित)
सर्व साध नै सुध आचार पाळणो नै मांहोमां गाढो हेत राखणो, तिण ऊपर मरजादा बांधी
१. कोई टोळा रा साध - साधवियां में साधपणों सरधो, आप मांहै साधपणो सरधो तको टोळा मांहै रहिजो ।
कोइ कपट दगा सूं साधां भेळो रहै, तिण नै अनंता सिद्धां री आण छै। पांचू पदां री आण छै ।
साध नांव धराय नै असाधां भेळो रह्यां अनंत संसार बधै छै ।
२. जिण रा चोखा परिणाम हुवै ते इतरी परतीत उपजावो। किण ही साध साधवियां रा ओगण बोल नै किण ही नै फार नै मन भांग नै खोटा सरधावण रा त्याग छै । किण सूं इ साधपणों पळतो दीसै नहीं, अथवा सभाव किण सूं इ मिलतो दिसे नहीं, अथवा कषाय, ठो जाण नै कोइ कने न राखै अथवा खेत्र आछो न बताया, अथवा कपड़ादिक रे कारण, अथवा अजोग जाण नै और साधु गण सुं दूरो करै, अथवा आपनै गण सूं दूर करतो जाण नै, इत्यादिक अनेक कारण उपनै टोळा सूं न्यारो परै तो किण ही साध साधवियां रा आंगुण बोलण रा हूंतो अधहूंतो खूंचणो काढण रा त्याग छै । रहिसे-रहिसे लोकां रे संका घाल नै आसता उतारण रा त्याग छै ।
३. कदा कर्म जोगे, अथवा क्रोध वस साधा नै साधवियां नै सर्व टोळा नै असाध सरधै आप में पिण असाधपणों सरधे, नैं फैर साधपणो लेवै तो ही पिण अठीरा साध - साधवियों री संका घालण रा त्याग छै । खोटा कहिण रा त्याग छै ज्यूं रा ज्यूं पाळणा छै । पछै यू कहिण रा पिण त्याग छै- “म्हें तो फैर साधपणो लीधो अबै म्हारै आगला सूंसा रो अटकाव कोइ नहीं" यूं कहिण रा पिण त्याग छै ।
४. किण ही साध आर्य्यां री आसता उतरै, साध आर्य्यां री संका पड़ै ज्यूं, असाधपणो सरधै ज्यूं बोलण रा त्याग छै ।
५. किण ही साध आर्य्या में दोष देखै तो ततकाळ धणी नै कहिणो, अथवा गुरां कहिणो, पण ओरा नै न कहिणो । घणां दिन आडा घाल नै दोष बतावै तो प्राछित रो धणी उ हीज छै। प्राछित रा धणी नै याद आवै तो प्राछित उण नै पिण लेणो, नही लेवै तो उण नै मुसकल छै ।
६. कोइ सरधा रो आचार रो नवो बोल नीकलै तो बड़ां सू चरचणो पिण औरां सूं चरचणो नही। ओरां सूं चरचनै ओरां रै संका घालणी नही । बडा जाब देवै आप रे ये
परिशिष्ट : लिखता री जोड़ : ४४३
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वैसे तो मान लेणो नही वैसे तो केवळियां ने भळावणो, पिण टोळा माहै भेद पारणो नहीं।
७. माहोमां जिलो बांधणो नहीं मिल-मिल नै। आप रो मन टोळा सूं उचक्यो, अथवा साधपणो पळे नहीं, तो किण ही नै साथे ले जावण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै पचखांण छै।
८. कोइ दिख्या लेतो देख नै, अथवा जाण नै आप न्यारो हुवै नै, चेलो कर नै, नवो मारग काढ नै, आप रो मत जमावण रा त्याग छै। आ सरधा नै ओ आचार चोखो पाळणो छै। किण ही रा परिणाम न्यारा होण रा हुवै, जद ग्रहस्थ आगै पैला री परती करण रा त्याग छै।
९. जिण रो मन रजाबंध हुवै चोखी तरे साधपणो पळतो जाणो तो टोळा माहै रहिणो। आप में अथवा पैला में साधपणों जाण ने रहिणो। ठागा सूं मांहि रहिवा रा अनंता सिद्धां री साख सूं पचखांण छै।
१०. टोळा माहै रहि ने पाना लिखे, अथवा लिखावै, अथवा कोइ देवै ते लेवे, ते टोळा माहै रहै जठा तांइ तो उण रा छै। टोळा सूं न्यारो हुवै जद पाना टोळा रा साधां रा छै। साथै ले जावण रा त्याग छ।
११. परत पाना जाचै ते पिण बडां री, टोळा री, नेश्राय जाचणा, आप री नेश्राय जाचण रा त्याग छै। जो कोइ अजाण पणै जाचणी आवै, तो पिण परत पाना बड़ा रा छै, टोळा रा छै, या नै पिण साथे ले जावण रा त्याग छै। पातरो लोट जाचै टोळा माहै थकां, ते पिण बडां री नेश्राय जाचणो, बड़ा देवै ते लेणो। ते पिण टोळा माहै छै जठा तांइ। टोळा बारै जाय तो साथे ले जावण रा त्याग छै। कपड़ो नवो हुवै ते पिण टोळा बारै ले जावण रा त्याग छै।
१२. दिख्या देणी ते पिण बड़ा रे नाव देणी, आप आपरै चेलो करवा रा त्याग
छै।
चेतावनी
आगै पानो लिखीयो छ, तिण में साधारै मर्यादा बांधी छै, तिण प्रमाणे सगळा रै त्याग छै। उवा मर्याद पिण उलंघण रा त्याग छै। जो किण ही साध मरजाद उलघंवो कीधो, अथवा आगन्यां माहै नहीं चालीयां, अथवा किण ही नै अथिर परिणामी देख्यो, अथवा टोळा माहै टिकतो न देख्यो, तो ग्रहस्थ नै जणावणरा भाव छै।
साध-साधवियां मैं जणावण रा भाव छै। पाछे कोइ कहोला म्हारी लोकां माहै टोळा माहै आसता उतारी, तिण सूं घणां सावधानपणे सुद्धपणे चालजो। एक-एक नै चूक पड्यां तुरत कहिजो, म्हां तांइ कजियो आणजो मती, उठ रो उठे निवेरजो, पूछयां अथवा अणपूछयां बीती बात कहि देणी, उठइज निवेरणी। कोइ टोळा मां सूं टळ नै साधसाधवियां रा दोष बतावै, अवर्णवाद बोले, तिण री मानणी नही। तिण नै झूठाबोलो
४४४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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जाणणो। साचो हुवै तो ग्यानी जाणै, पिण छद्मस्थ रा ववहार में झूठो जाणणो। एक दोष सूं बीजो भेळो करै ते अन्याइ छै। जिण रा परिणाम मेला होसी, ते साध आर्यां रा छिद्र जोय-जोय नै भेळा करसी, ते तो भारीकर्मां जीवां रा काम छै। डाहो सरल आत्मा रो धणी होसी ते तो इम कहसी-कोई ग्रहस्थ साध-साधवियां रो सभाव प्रकृति अथवा दोष(कोइ ग्रहस्थ) कहै, बतावै, जिण नै सूं कहिणो-मौ ने क्यानें कहो, कहो तो धणी नै कहो, कै स्वामी जी नै कहो, जो यां नै प्राछित देने सुद्ध करै, नही कहिसो तो थे पिण दोषीला गुरां रा सेवणहार छो। जो स्वामी जो नै नहीं कहिसो तो था में पिण बांक छै। थे म्हानें कह्यां काइ हुवै यूं कहि नै न्यारो हुवै पिण आप बैहिदा माहै क्यानै परै। पेला रा दोष धार नैं भेळा करै ते तो एकंत मृषावादी अन्याइ छ।
१३. किण ही नै खेत्र काचो बतायां, किण ही नै कपड़ादिक मोटो दीधां, इत्यादिक कारणै कषाय उठै, जद गुरवादिक री निंद्या करण रा, अवर्णवाद बोलणरा, एक एक आगै बोलण रा, माहोमां मिल नै जिलो बांधण रा, त्याग छै। अनंता सिद्धां री आण छै। गुरवादिक आगै भेळो तो आप रे मुतलब रहै, पछै आहारादिक थोड़ा घणां रो, कपड़ादिक रो, नाम लेइ नै अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै।
__ इण सरधा रा भायां रै कपड़ा रा ठिकाणा छै, बिना आग्या जाचण रा त्याग छै। नैड़ा दस बीस कोसां तांइ कपड़ो जाचै चोमासो उतरीयां, तो बड़ा आगै आण मेलणो, आप रे मते वावरणो नाही, वावरै तो सगळा कपड़ा मांहिलो ठलको हुवै ते वावरणो, पिण महीं वावरणो नही। जो अळगा हुवै गुरआदिक, तो माहोंमां सरीखो बरोबर बांट लेणो इधिको चाहीजै जिण नै परतो देणो। डाहा हुवै ते विचार जोयजो।
१५. लूखे खेत्र तो उपकार हुवै ते छोड़ नै न रहै, आछै खेतर उपकार न हुवै तो ही पर रहै, ते यूं करणो नहीं। चौमासो तो अवसर देखै तो रहिणो, पिण शेष काळ तो रहिणो। किण री खावा-पीवादिक री संका परै तो उण नै साध कहै, बड़ा कहै ज्यूं करणो। दोय जणा तो विचरै, नैं आछा-आछा मोटा-मोटा साताकारिया खेत्र लोळपी थका जोवता फिरै, गुर राखै तछै न रहै, इम करणो नहीं छै। घणा भेळा रहितो दुखी, दोय जणा में सुखी, लोळपी थको यूं करणो नही छै।
१६. आप किण ही नै परत पाना उपगरण देवै, ते तो आगाइज देणा, पिण न्यारो हुवै जद पाछा मांगण रा त्याग छै। जिण री आसंग हुवै ते देजो।
१७. आर्या सूं देवो लेवो लिगार मातर करणो नही, बड़ा री आग्या बिना आगै आर्यां हुवै जठै जाणो नहीं। जावै तो एक रात्रि रहिणो, पिण अधिको रहिणो नहीं। कारण पड़ियां रहै तो गोचरी ना घर बांट लेणा, पिण नित रो नित पूछणों नहीं। कनैं वैसण देणी नहीं। ऊभी रहिण देणी नहीं। चरचा बात करणी नहीं। बड़ा गुरवादिक रा
१. मोटा।
२. सामान्य।
परिशिष्ट : लिखता री जोड़: ४४५
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कह्यां थी कारण पड़यां री बात न्यारी छ।
१८. सरस आहारादिक मिले, तिहां पिण आज्ञा बिना रहिणो नही। बलै काइ करली मरजादा बांधा, तिण मैं ना कहिणो नही।
१९. आचार री संका पड्यां थी बांधा बलै कोइ याद आवै ते लिखां, ते पिण सर्व कबूल छै।
___ए मरजादा लोपण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै पचखांण छै। जिण रा परिणाम चोखा हुवै, सूंस पाळण रा परिणाम हुवै ते आरै होयजो। सरमासरमी रो काम छै नहीं।
संवत् १८५० रा माह विद १० लिखतु ऋष भीखन रो छै।
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सं० १८५२ रो लिखत (साधवियां री मरजादा रो) ५. (पृष्ठ २५ से संबंधित)
सर्व साधवियां रे मर्यादा बांधी छै आचार तो चोखो पाळणो नैं मांहोमां गाढो त राखणो । तिण ऊपर मर्यादा बांधी
१. टोळा रा साध - साधवियां में साधपणों सरधो, आप मांहै साधपणों सरधो तिका टोळा माहै रहिजो । काइ कपट दगा सूं साधवियां भेळी रहै तिण नै अनंता सिद्धां री आण छै। पांच पदां री आंण छै । साधवी नाम धराय नै असाधवियां भेळी रह्यां अनंत संसार बधै छै। जिण रा चोखा परिणाम हुवै ते इतरी प्रतीत उपजाओ।
२. किण ही साध साधवियां रा आंगुण बोल नै मन भांग नै फारण रा त्याग छै । खोटा सरधाय नै फारण रा त्याग छै । किण ही सूं साधुपणो पळतो दीसै नहीं अथवा कि
सूं सभाव मिलतो दीसे नहीं अथवा कषायण धेठापणो जाण नैं कोइ कनै न राखै, तिण नै अळगी करै, अथवा खैत्र आछो न बतायां अथवा कपड़ादिक रे कारण अजोग जाण नै टोळा सूं दूर करती जाणै इत्यादिक अनेक कारण ऊपनै टोळा सूं न्यारी पड़ै तो किण ही साध - साधवियां रा आंगुण बोलण रा त्याग छै ।
३. हुंता अणहुंता खूंचणां काढण रा त्याग छै।
४. रहिसै - रहिसै लोका नै संका घाल नै आसता उतारण रा त्याग छै ।
५. कदा कर्म जोगे तथा कषाय रे वस सर्व टोळा रा साध-साधवियां नै असाध सधै, आप में पिण असाधुपणों सरधै टोळा सूं न्यारी परै अथवा भेषधारयां मांहै जाए तो पिण अठरा साध-साधवियां रा आंगुण बोलण रा त्याग छै ।
६. किण ही साध आर्य्यां मांहै दोष देखे तो ततकाळ धणी नैं कहिणो, कै गुरां नै कहिणो, पण औरां ने कहिणो नहीं ।
७. किण ही रा टोळा सूं न्यारा होण रा परिणाम हुवै जब पिण ओरां री परती हिरा त्याग छै ।
८. आप में टोळा रा साध - साधवियां मैं साधपणों सरधो तका टोळा मांहि हिजो । ठागा सूं मां रहिण रा अनंता सिद्धां री साख कर नै पचखांण छै ।
९. टोळा माहै पाना लिखै बलै कोइ साधु-साधवियां देवै अथवा ग्रहस्थ आगे जाचै ते टोळा सूं छूटै न्यारी हुवै ते साथै लै जावण रा त्याग । परत पाना साधां नै संप देणा। पाना साधां रा छै, साथै ले जावणां नहीं ।
१०. पातरा लोट टोळा मांहै करै, जाचै ते पिण साथै ले जावणां नहीं टोळा री श्राय छै, टोळा माहै छै, त्यां लगै उणरा छै ।
परिशिष्ट : लिखता री जोड़ : ४४७
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११. कपड़ो ऊजलो वावरीयो नही छै, नवो छै, ते पिण साथ लै जावणो नहीं, टोळा री नेश्राय छै।
१२. परत पाना जाचणा ते बड़ा री नेश्राय जाचणा आप री नेश्राय जाचणा नहीं।
१३. कर्म रे जोगे टोळा बारै नीकळे अथवा बारै काढै तो टोळा मांहे उपगरण कीधा ते टोळा री नेश्राय छै ते बारै ले जावण रा त्याग छै। बड़ा नै सूंप देणां।
१४. आगै कागद माहै आर्यां रे मर्यादा बांधी छै ते सर्व त्याग पाळणा छै। १५. किण ही नै खेत्र आछो बतायां,रागधेष कर नै बात चलावण रा त्याग छै।
१६. खेत्र आश्री कपड़ा आश्री आहारपाणी आश्री ओषदादिक आश्री बात चलावण रा त्याग छ।
१७. चोमासो कहै तिहां चोमासो करणो, सेखे काळ बड़ा कहै तिहां विचरणो,
१८. कपड़ा जाचै ते बड़ा री आज्ञा विना वावरणो नही। कदा बड़ा अळगा हुवै कपड़ो जरूर चाहीजे तो ठलको-ठलको तो वावरणो मही-महीं परियो राखणो।
१९. किण ही नै महीं मोटो दीधां री बात चलावणी नही।
२०. गुरां री आज्ञा विना साधा भेळी रहिणो नहीं, कनै बेसणो नहीं, उभी पिण रहिणो नहीं।
२१. उपगरण रो देवो लेवो करणो नहीं, साधा नै सांभळे तिण गाम में जाणों नहीं।
कदाच जाण्यां बिना जाए अथवा मारग माहै गाम हुवै तो एक रात्रि सूं अधिको रहिणो नही। कारण परे जाए तो गोचरी रा घर बांट लेणा, पिण नित रो नित गोचरी पूछणी नहीं।
२२. वंदणा करण जाए तो अळगा थका वंदणा कर नै सताब सूं पाछो वळणो, ऊभो रहिणो नहीं।
२३. कोइ साधां रा समाचार पूछणां हुवे तो अळगा थी पूछ नै सताब सूं पाछो वळ जाणो, पिण उभो रहिणो नहीं। गुरां रा कह्यां थी, कारण पक्ष्यां री बात न्यारी।
२४. किण ही साधवी में दोष हुवै तो दोष री धणियाणी नै कहिणो, कै गुरां आगै कहिणो, पिण और किण ही आगै कहिणो नहीं। रहिसै-रहिसै और भंडी जाणै ज्यूं करणो नहीं।
२५. किण ही आर्यां दोष जाण नैं सेव्यो हुवे ते पाना में लिखिया बिना विगै तरकारी खाणी नहीं। कदाच कारण पड्यां न लिखे तो और आर्या नैं कहिणो, सायद कर ने पछै पिण वैगो लिखणो, पिण बिना लिख्यां रहिणो नहीं। आय नै गुरां नै मूंढा सूं कहिणो नही, माहोमां अजोग भाषा बोलणी नहीं।
४४८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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२६. कोइ साध-साधवियां रा आंगुण काढे तो सांभळण रा त्याग छै। इतरो कहिणो-'स्वामी जी नै कहिज्यो'। जिण रा परिणाम टोळा माहै रहिण रा हुवै ते रहिजो। पिण टोळा बारै हुवां पछै साध-साधवियां रा आंगुण बोलण रा अनंत सिद्धां री साख कर नै त्याग छै। कोइ टोळा बारै नीकळी री बात उण लखणो होसी ते माने, भेषधारी भागल जिन धर्म रा द्वेषी होसी ते मानसी, पिण उत्तम जीव तो न मानें।
२७. बलै कोइ याद आवै ते पिण लिखणो, बलै करली-करली मर्यादा बांधै त्यां में पिण अनंता सिद्धां री साख कर नै नां कहिण रा त्याग छै। चेतावनी
ए मर्यादा पालण रा परिणाम हुवै ते आरै होयजो कोइ सरमासरमी रो काम छै नहीं।
किण ही आर्यां आज पछै अजोगाइ कीधी तो प्रायछित तो देणो, पिण उण नै च्यार तीर्थ माहै हेलणी निंदणी परसी, पछै कहोला मनै भांडै छै, म्हारो फितूरो करै छै, तिण सूं पहिलाज सावधान रहिजो। सावधान नहीं रही तो लोका में झंडी दीसोला, पछै कहोला म्हांनै कह्यो नहीं।
लिखतू ऋष भीखन सं० १८५२ फागुण सुध १४
किण ही आर्यां नै मांहो मां संका परै जाणै कारण पड्यां बिना कारण रो नाम लेनै और आर्यां आगा सूं काम करावै छै, कारण रो नाम लेनै ओषध सूंठादिक उन्हो आहारादिक ल्यावै छै, इत्यादिक संका परै ते संका मेटण रो उपाय मर्यादा बांधी छै
१. जितरे गोचरी आप न उठै तिण सूं विवणो ऊठणो।
२. विहार मैं बोझ उपड़ावै, जितरा दिन विगै रा त्याग छै। बलै उण रो बोझ पाछो विवणो उपारणो, आछो आहार लेवै तो पाछो विवणो टाळ देणो।
३. किण रो इ वैहर नै मांग नै आणै तो पिण विवणो टाळ देणो तेहनी विगत लिखिये छै
(१) पांच लूंग खायै तो एक दिन विगै टाळणो। टका भर आप री पांती आवै जद इम बीजा बोल लिखै छै-त्यां रो पिण
(२) अधेला भर सूंठ रो (३) अधेला भर अजमा रो (४) खांड सूं विवणो घी (५) निवात' सूं चौगुणो घी (६) गूळ सूं विवणो गुळ के बरोबर घी (७) दूध दही सू विवणो दूध दही के अध सेर दूध दही रो एक दिन घी।
१. दुगुना। २. मिश्री।
परिशिष्ट : लिखता री जोड़: ४४९
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(८) पैला आगै उपगरण उपरावै तो एक दिन घी
(९) आथण रो उन्हो आणै, (१०) आंख्यां माहै काजल,
(११) पीपलामूळ टाक रो, (१२) आंख्यां मा ओषध रो
(१३) तीन बार दिसां जायै जब बीजै दिन एकासणो नै लूखो खाणो । (१४) रातै दिसां जाय, तिण रे दोय दिन लूखो ।
(१५) गतो' पीए तिण रे पनरै दिन विगै रा त्याग छै ।
जिण रो उघाड़ो कारण जाणै, अथवा उण नै धेठी न जाणै, अथवा उण नै सरल तिनै अथवार कहै तिण री बात न्यारी छै ।
१. लिखतू आर्या मेणां २. लिखत आर्यां सरूपां ३. लिखत आर्यां बरजू ४. लिखत आर्यां बींजा ५. लिखत आर्यां बनां ६. लिखत आर्यां धनु ७. लिखत आर्यां सदा ८. लिखतू बनां ९. अजबा ।
१. तत्कालप्रसवा गाय के फटे दूध से बना पदार्थ ।
४५० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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सं० १८५९ रो लिखत (सामूहिक मरजादा) ७. (पृष्ठ ३३ से संबंधित)
ऋष भीखन सर्व साधां रे मरजादा बांधी, सं० १८३२ रे वरस, तें तो सर्व कबूल छै। तिण मर्यादा मां सूं वीरभाण त्रिलोकचंद चंदरभाण ए मरजादा लोपनै भागल हुवा, ते तो जिण मार्ग सूं टळिया, त्यां नै दसमो प्राछित दिया बिना मांहि लेवा रा त्याग सर्व साधां रे छै।
हिव आगली मरजादा नै कायक फैर नवी मरजादा बांधी छै ते लिखिये छै। सर्व साध - साधवियां नै पूछी ने या कनै सूं कहिवाय नै मरजादा बांधी छै ते लिखिये छैसर्व साध - साधवी भारमल जी री आगन्या मांहे चालणो ।
शेखा काळ विहार चोमासो करणो ते भारमल जी री आगन्या सूं करणो । आगन्या लोप नै विना आगन्या कठै इ रहिणो नही ।
दीक्षा देणी ते पिण भारमल जी रे नामै देणी, दीख्या देने आण सूंपणो ।
उद्देश्य
चेला री कपड़ा री साताकारिया खेत्रां रो इत्यादिक अनेक बोला री ममता करकर नै अनंता जीव चारित्र गमाय नै नरक निगोद मांहै गया छै। बलै भेषधारयां रा एहवा चैह न देख्या तिण सुं शिषादिक री ममता मिटावण रो नै चारित्र चोखो पाळण रो उपाय छै। विनय धर्म नै न्याय मारग चालण रो उपाय कीधो छै । भेषधारी विकळा नै • मूंडे, भेळा करै ते शिषां रा भूखा एक-एक रा अवर्णवाद बोलै, फारा तोरो करै, मांहोमां जिया राड़ झगड़ा करै एहवा चिरत देखनै साधां रे मरजादा बांधी छै । शिष्य साषा रो संतोष राय नै सुखै संजम पाळण रो उपाय कीधो छै ।
समर्थन
साध साधव्यां पिण इमहीज को
१ भारमल जी री आगन्या मांहै चालणो ।
२ शिष्य करणा ते सर्व भारमल जी रे करणा ।
३ औरां रे चेला करण रा त्याग छै । जाव-जीव लगे।
४ भारमल जी पिण चेलो करै ते पिण बुद्धिवंत साध कहै - ओ साधपणा लायक छै, बीजा साधां नै प्रतीत आवै तेहवो करणो, बीजा साधां नै प्रतीत नहीं आवै तो नहीं करणो, कीधा पछै कोइ अजोग हुवै तो पिण बुद्धिवंत साधां रा कह्या सुं छोड़ देणो किण ही धेषीरा कह्या सूं छोड़णो नही ।
५ नव पदार्थ ओळखाय दिख्या देणी |
परिशिष्ट : लिखता री जोड़ :
४५१
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६ आचार पाळा छां तिण रीत चोखो पाळणो। इण आचार माहै खामी जाणो तो अबालूं कहि देणो। पछै मांहो मां ताण करणी नहीं। किण ही नै दोष भास जाय तो बुधवंत साध री परतीत कर लेणी, पिण खांच करणी नहीं।
७ भारमल जी री इच्छा आवै जद गुर भाइ अथवा चेला नै टोळा रो भार सूंपे जद सर्व साध-साधव्यां नै उणरी आगन्यां माहै चालणो एहवो रीत परंपरा बांधी छै। सर्व साध-साधवी एकण री आगन्या माहै चालणो। एहवी रीत बांधी छै साध-साधव्यां रो मार्ग चालै जठा तांइ।
८ कदा कोइ असुभ कर्म रे जोग टोळा मां सूं फारा तोड़ो करै नै एक दोय तीन आदि नीकळे, घणी धुरताइ करै, बुगलध्यानी हुवै, त्यांनै साध सरधणां नहीं। च्यार तीर्थ माहै गिणवा नहीं। त्यांनै चतुरविध तीर्थ रा निंदक जाणवा, एहवा नै वांदै ते जिण आग्या वारै छै।
९ कदा कोइ फेर दिख्या लै, ओरां साधां नै असाध सरधायवा नैं तो पिण उण नै साध सरधणो नही। उण नै छेरवियां तो उ आळ दे काढ़े। तिण री एक बात मानणी नहीं, उण तो अनंत संसार और कीधो दीसै।
१० कदा कर्म धको दीधां टोळा रा साध-साधव्यां रा अंसमात्र हुंता अणहुंता अर्णवाद बोलवा रा अनंता सिद्धां री नै पांचूं इ पदां री आण छै पांचूं इ पदां री साख सूं पच्चखांण छै।
११ किण ही साध-साधव्यां री संका पडै ज्यूं बोलण रा पचखांण। साधारण नीति
कदा उ विटल होय सूंस भांगै तो हळुकर्मी न्यायवादी तो न मानै उण सरीखो विटळ कोइ मानै, तो लेखा में नही।
१२ हिवै किण ही नै छोड़णो मेलणो परै, किण ही चरचा बोल रो काम परै तो बुधवान साध विचार नै करणो। बलै सरधा रो बोल पिण बुधवंत हुवै ते विचार नै संचै वैसाणणे। कोइ बोल न बैसे तो ताण करणी नहीं केवळिया नै भळावणो। पिण खांच अंसमात्र करणी नहीं।
... १३ बीस कोष चालीस अथवा अळगो दूर चोमासो उतरियां अथवा सेखाकाळ कपड़ो जाचियो हुवै तो आप रै मते फार तोड़ नै बैंट-बैंट नै पैहरणो नहीं। कदा जरूर रो काम पड़े तो जाडो-जाडो तो बांट लेणो। महीं तो आचार्य नी आगन्या बिना बांटणो नहीं। महीं तो आचार्य आगै आण नै मेलणो। आचार्य जथा जोग इच्छा आवै ज्यूं दे, ते लेणो,पिण तिण री पाछी बात चलावणी नही। इण नै महीं दीधो, इण नै मोटो दीधो, इम कहिणो नहीं।
१४ किण नै कर्म धको देवै ते टोळा सूं न्यारो परै, अथवा आपहीज टोळा सुं न्यारो हुवै, तो इण सरधा रा भाई बाई हुवै तिहां रहिणो नही। ४५२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१५ बलै टोळा माहै उपगरण करै ते, पाना परत लिखै ते, टोळा मांहि थकां परत पाना पातरादिक सर्व वस्तु जाचै ते साथै ले जावण रा त्याग छै। एक बोदो चोलपटो, मुहपती, एक बोदी पिछेवरी, खंडिया उपरंत बोदा रजोहरणां उपरंत साथे ले जावणों नहीं,उपगरण सर्व टोळा री नेश्राय रा साधां रा छै। और अंसमात्र साथै ले जावण रा पच्चखांण छै। अनंता सिद्धां री साख करनै छै। धारा १४ वीं का स्पष्टीकरण
__कोइ पूछे-यां खेतरां में रहिण रा सूंस क्यूं कराया, तिण नैं यूं कहिणो-रागा धेखो वधतो जाण नैं, कलैश वधतो जाण नै, उपगार घटतो जाण नै, इत्यादिक अनेक कारण जाण नै कराया छै।
१६ तिलोकचंद चंदरभाण नै दशमा प्रायछित दीया विण माहै लेवण रा त्याग छै। माहै लेवा जोग नही छै।
१७ बलै कोइ याद आवै ते लिखणो, तिण रो पिण ना कहिण रा त्याग छै। सर्व कबूल छै। चेतावनी
सर्व साधां रा परिणाम जोय नै रजाबंध कर यां कनां सूं जूदो-जूदो कहिवाय नै मरजादा बांधी छै। जिण रा परिणाम चोखा हुवै ते आ मर्यादा ने ए सूंस आरै होयजो, कोई सरमासरमी रो काम छै नहीं। मूंडे और नै मन में ओर इम तो साधु नै करणो छै नही, इण लिखत में कोइ खूचणो काढणो नहीं, पछै कोइ ओर रो ओर बोलणो नहीं। अनंता सिद्धां री साख कर नै सारा रे पचखांण छै, ए पचखांण भांगण रा अनंता सिद्धां री साख सूं पचखांण छै। किण ही टोळा माहै अनेरा किण ही माहै जावा रा पचखांण छै। मर खपणो, पिण सूंस न भांगणो। ओ एहवी लिखत लिखतू ऋष भीखन रो छै। संवत् १८५९ रा माह सुदि ७ वार शनीसर १ लिखतू ऋष सुखराम ऊपर लिख्यो ते सही। २ लिखतू ऋष अखेराम ऊपर लिख्यो ते सही। ३ लिखतू ऋष खेतसी ऊपरलो लिख्यो ते सही ४ लिखतू ऋष नान जी ऊपरलो लिख्यो सही ५ लिखतू ऋष सुखा ऊपरलो लिख्यो सही ६ लिखतू ऋष उदराम ऊपरलो लिख्यो सही ७ लिखतू ऋष कुसाल ऊपरलो लिख्यो सही छै ८ लिखतू ऋष ओटे उपर लिखियो सही कर मान्यो छै ९ लिखतू ऋष रायचन्द उपरलो लिख्यो सही १० लिखतू ऋष डूंगरसी उपरलो लिख्यो सही ११ लिखत ऋष भघा उपर लिख्यो ते सही।
परिशिष्ट : लिखता री जोड़ : ४५३
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सं० १८५९ रो दूसरो लिखत (विगय आदिक री मर्यादा रो)
८. (पृष्ठ ४१ से संबंधित)
१ एक दिन में दोय पइसा भर घी लेणो। २ च्यार पइसा भर मिष्ठांन-खांड, गुळ, पतासा, मिश्री, बूरौ, ओळा का लाडू ३ अध सेर दूध, दही, खीर, अधसेर आसरै धनागरो,
४ खाजा, साकुली, पापरीयांदिक पाव सीरा, लाफसी, चूरमादिक भेळी पावरीया माहिली थोड़ी-थोड़ी आवै तो पाव रा उनमान लेखव लेणा।
५ उपवास रे पारणे च्यार पइसा भर घी बीजा बोल उतराइज। ६ बेला तेला चोला रे पारणै घी छ पइसा भर बीजा उतराइज।
७ पांच उपवास आदि मोटी तपसारै पारणै ८ पइसा भर घी बीजा उतराइज। स्पष्टीकरण
कदाच टका भर सूं अधिकेरो खाय तो बीजा दिन घी न खाणो।
और दूध दही सुंखरीयादिक नी मर्यादा उपरंत अधिको खावै जद बीजै दिन जे जे वस्तु भोगवण रा त्याग छै।
कदाचित दोय तीन दिन विचे विगै न खाधो हुवै तो घी च्यार पइसा भर रो आगार छै।
__कदाच वांटता-वांटता अधेला पइसा भर वधै, तो एकण नै दे काढणों। तिण नै उतरो परो देणो, दूजै दिन पछै देण रो दावो नही।
कदाच आहार अणमिलियां आटादिक रो जोग मिलियां थी खांड गुळादिक अधिको लेवे तो अटकाव नहीं।
आचार्य कन साधु-साध्वी शेष काळ अथवा चोमासो रहै, त्यां रे विगै पांच नै सूंखरीयादिक री मर्याद नै सूंस नहीं है।
साध-साधवी घणा हुवै थोड़ा हुवै कदेइ आहार थोड़ो आवै कदै घणो। तिण रो तो आचार्य अवसर देख लेसी, त्यांरो कोइ बीजा साध नाम लेण पावै नहीं।
८ आगन्या बिना शेखे काळ चौमासे रहै तिण रे जितरा दिन रहै जितरा दिन पांचूइ विगै न सूंखड़ी रा त्याग छै। ए सूंस जाव-जीव तांइ छ।
९ कोइ टोळा मां सूं टकै अथवा वारै काढे तो पिण ए सूंस जावजीव रा छै। यूं कहिणो नहीं-"म्हारै तो यां भेळा थकां सूंस था, पछै म्हारै सूंस कोइ नहीं," यूं कहिण रा त्याग छ।
१० कदाच कोइ लोळपी थको खावां रे वास्ते बारै नीकळ तिण रे पिण ए सूस छै। ४५४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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सं० १८२९ रो लिखत ( अखेराम जी रो) ९. (पृष्ठ ४४ से संबंधित)
अखेराम जी रा टोळा मांहै आवण रा परिणाम साधपणो पाळण रा परिणांम दीठा, पण अप्रतीत धणीं ऊपनी तिण सूं एतली परतीत पूरी उपजावै अनंता सिद्धांरी साखे तो माहै लेणे ॥
१. सभाव आपरो फेरणो
२. बडा रे छांदे चालणो ।
३. आचार चोखो पाळणो । साधां रो आचार दीठाईज छै ।
४. ए टोळा सूं न्यारा थांय तो च्यार आहार नां पचखांण करै तो माहै ल्यां ।
५. खूंचणो काढ नै अळगा हवैण रा पचखांण करै तो ल्यां ।
६. साधां री इच्छा आवे तो संलेखणा संथारो करावै जद करणो, ना कहण रा पचखांण करै तो ल्यां ।
७. सभाव में धेठापणों देखे अथवा अवनीतपणों देखे, अथवा साधां रे चित न बेसै, इत्यादिक अनेक बोल सूं छोड़े तो च्यार आहार मुख माह घालण रा पचखांण करै तो ल्यां ।
८. टोळा माहै पानां लिखे ते साधां रा ।
९. साध साधवी श्रावक श्रावक - त्यां नै खूंचणो, दोष, हूंती अथवा अणहूंतो पेला नै भास जाए तो पेला रा कह्या थी प्राछित लेणो, ना कहण रा पचखांण करै तो ल्यां । १०. जिण साध साथै मेलियां तिण रा हुकम प्रमाण चालणों, आगन्या लोपणी
नहीं ।
११. जे कोइ साध साथे ले जावै घणो रजाबंध (करणो विश्वास) उपजै ज्यूं चालणो, अंस मात्र ओळंभो आवै ज्यूं न करणो । आ प्रतीत पूरी उपजावणी ।
१२. आज पांचमां आरा मांहै भारीकर्मा जीव घणां छै, त्यां सूं पोते आचार न पळै, सभाव न फिरै, पछै कर्म उदै एहवी भाषा बोले, एकला वैण रा परिणांम हुवै तरै बोले–‘टोळा माह्रै साधपणो दीसै नहीं, हूं किम माहै रहूं,' इम कही अनेक उपद्रव करै, अनेक अवर्णवाद बोले छै, तिम करण रा पंचखांण करै तो ल्यां ।
१३. मांहोमांहे सरधा में किण ही बोल रो फैर पड़े तो और बुधवंत साधां री परतीत सू मान लेणों, नां कहण रा पचखांण करै तो ल्यां ।
१४. ए आचार पाळा छां, जिण सूं विरुद्ध चालणो नही, जे कोइ चूक में पड़े तो ओरां साधा नै कहिणो, पिण तांण कर नै तोरण रा त्याग करै तो ल्यां ।
परिशिष्ट : लिखता री जोड़: ४५५
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१५. ओरा साधां री इच्छा आवै ज्यूं करणो, पाछो ओरो उत्तर करवा रा त्याग करै तो ल्यां ।
१६. अथवा एतावता टोळा सूं न्यारो होणो नहीं, एकलो अथवा दोयां तीनां आदि देइ नै पिण अलगो वैणो नही, एहवा पचखांण करै तो ल्यां ।
१७. सर्व शरीर साधां रे कारजपणे, पेला नै अणहुंता आप रा मन सूं ढीला तर तीन आहार त्याग करणो, पिण किण सूं मिल नै टोळा माहै भेद पाड़ नै अळगो न हुणो, ए पचखांण करै तो ल्यां ।
१८. सझाय तवन सूत्र बखाण रो कहै तो छती सकत ना कहण रा पचखांण करै तो ल्यां ।
१९. अंसमात्र धेठापणो तुरंग खिण रंग खिण विरंग न करणो ।
२०. इत्यादिक अनेक बोल बलै याद आवै तो बलै लिख लेणो, तेहनां नां कहवा रा पचखांण करै तो ल्यां एहवी पूरी परतीत उपजावै तो सगळां नै परतीत उपजै । २१. संवत् १८२९ रा फागुण सुदी १२ वार बहस्पत लिख ऋतु भीखन गांव सीमध्ये |
२२. ए लिखत श्री थिरपाल जी फतेचंद जी हरनाथ जी भारमल जी तिलोकचंद पण सुणायो ।
२३. ए पाछै कह्या लिख्या ते सगळाइ बोल अखेराम सुण नै अंगीकार कीधा । २४. चारित संघाते पचखांण कर नै साधां नै परतीत उपजाई । ऊपर लिख्यो सही । लिखत अखेराम ।
४५६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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सं० १८३३ रो लिखत (आर्या फतूजी आदि रो) १०. (पृष्ठ ४७ से संबंधित)
आर्य्या फतूजी आदि च्यारूं जणीयां नै दिख्या दीधां पैहली सीखामण आचारगोचर बतावण री विध लिखिये छै । ते चारित्र संघाते त्याग ।
१. उभी नै कीड़ी न सूझे जद संलेखणा मंडणो ।
२. विहार करण री सगत नही, जद संलेखणा मंडणो ।
३. आर्य्या रो विजोग पड़यां न कल्पे जद संलेखणा मंडणो ।
४. साध कहै जठे चोमासो करणो ।
५. साध कहै जठै सेखा काळ रहिणो ।
६. चेली करणी ते साधां रा कह्या सूं करणी आज्ञा बिना करणी नही ।
७. शिष्यणी कीधां पछे पिण कोइ साधपणा लायक न हुवे साधां रे चित्त न वेसै तो साधारा का सूं दूर करणी ।
८. साधां री इच्छा आवै जुदो विहार करावण री ओर आर्य्या साथै जुदी मेले तो ना कहिणो नही ।
९. साध - साधवियां रो कोइ खूंचणो दोष प्रकृतादिक रो ओगुण हुवै तो गुरां नै कहिणो पिण ग्रहस्थादिक आगै कहिणो नही ।
१०. आहारपाणी कपड़ादिक में साधां नै लोळपणां नी संका उपजै तो साधां नै परतीत उपजै ज्यूं करणो ।
११. अमल तम्बाखू आदि रोगादिक रे कारण पड़यां लेणो पिण विस्न रूप लेणो नहीं लीयांइज सझै ज्यूं करणो नही ।
१२. बलै सर्व साध - साधवियां ने आचार - गोचार मांहै ढीळा पड़ता देखे अथवा संका पड़ती जाणै जद समचै सर्व साध - साधवियां री करली मर्यादा बांधै तो पिण नां कहो नही । इत्यादिक सीखामण चारित्र संघाते अंगीकार कर लेणी ते जाव-जीव रा पचखांण छै ।
१३. संवत १८३३ मिगसर विद २ वार बुध ए लिखत बंचाय अंगीकार करायो नै सामायक चारित्र अंगीकार करीयो छै । बलै फैर छेदोपस्थापनी चारित्र दीधो जद पिण लिखत नै अंगीकार कीधो छै हरष सूं च्यार इ आर्य्यं ।
परिशिष्ट : लिखता री जोड़ :
४५७
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गणपति सिखावण ११. (पृष्ठ ६१ टिप्पण ३ से संबंधित)
मर्यादा पत्र
( परिषद् में वाचन के लिए आचार्य श्री तुलसी द्वारा प्राचीन मर्यादा पत्र के आधार पर संगृहीत) सर्व साधु-साध्वियां पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति की अखण्ड आराधना करें। ईर्या, भाषा, एषणा में विशेष सावधान रहें । चलते समय बात न करें। सावद्य भाषा न बोलें। आहार पानी पूरी जांच करके लें। शुद्ध आहार भी दाता का अभिप्राय देखकर हठ-मनुहार से लें। वस्त्र - पात्र आदि लेते व रखते समय तथा 'पूंजने' व 'परठने' में पूर्ण सावधानी बरतें, प्रतिलेखन व प्रतिक्रमण करते हुए बात न करें।
भिक्षु स्वामी ने सूत्र सिद्धान्त देखकर सेम्यक् श्रद्धा और आचार की प्ररूपणा की। त्याग धर्म, भोग अधर्म, व्रत धर्म, अव्रतअधर्म, आज्ञा धर्म, अनाज्ञा अधर्म, असंयति के की बांछा करना राग, मरने की बाच्छा करना द्वेष और संसार समुद्र से उस के तरने की बाच्छा करना वीतराग देव का धर्म है ।
भिक्षु स्वामी ने न्याय, संविभाग और समभाव की वृद्धि के लिए तथा पारस्परिक प्रेम, कलह - निवारण और संघ की सुव्यवस्था के लिए अनेक प्रकार की मर्यादाएं की उन्होंने लिखा
१ सर्व साधु साध्वियां एक आचार्य को आज्ञा में रहें ।
२ विहार, चातुर्मास आचार्य की आज्ञा से करें ।
३ अपना-अपना शिष्य (शिष्याएं) न बनाएं।
४ आचार्य भी योग्य व्यक्ति को दीक्षित करें। दीक्षित करने पर भी कोई अयोग्य निकले तो उसे गण से अलग कर दें।
५ आचार्य अपने गुरु, भाई या शिष्य को अपना उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियां सहर्ष स्वीकार करें।
गण की एकता के लिए यह आवश्यक है कि उसके साधु-साध्वियों में सिद्धान्त या प्ररूपणा का कोई मत भेद न हो। इसीलिए भिक्षु स्वामी ने कहा है- "कोई सरधा, आचार, कल्प या सूत्र का कोई विषय अपनी समझ में न आए अथवा कोई नया प्रश्न उठे वह आचार्य व बहुश्रुत से चर्चा जाए, किन्तु दूसरों से चर्च कर उन्हें शंकाशील न बनाया आचार्य व बहुश्रुत साधु जो उत्तर दे, वह अपने मन में जचे तो मान ले, न जचे तो उसे 'केवली' गम्य कर दें, किन्तु गण में भेद न डालें, परस्पर दलबन्दी न करें ।”
गण की अखण्डता के लिए यह आवश्यक है कि कोई साधु-साध्वी आपस में दल
४५८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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बन्दी न करें। इसीलिए भिक्षु स्वामी ने पैंतालिस के लिखत में कहा है “जो गण में रहते हुए साधु-साध्वियों को फंटाकर दलबन्दी करता है, वह विश्वासघाती और बहुलकर्मी है। स्वामी जी ने स्थान-स्थान पर दल बन्दी पर प्रहार किया है। पचास के लिखत में उन्होंने लिखा है-"कोई साधु साध्वी गण में भेद न डाले और दलबन्दी न करे।" स्वामी जी ने चन्द्रभाणजी और तिलोकचन्द जी को इसलिए गण से अलग किया कि वे जो साधुआचार्य से सम्मुख थे, उन्हें विमुख करते थे। छिपे-छिपे गण के साधु साध्वियों को फोड़फोड़ कर अपना बना रहे थे, दल बन्दी कर रहे थे। हमारा यह प्रसिद्ध सूत्र है “जिल्लो ते संयम ने टिल्लो"। गण में भेद डालने वाले के लिए भगवान ने दसवें प्रायश्चित का विधान किया है। तथा भिक्षु स्वामी ने कहा-"जी गण के साधु-साध्वियों में साधु-पन सरधे, अपने आप में साधु-पन सरधे, वह गण में रहे। छल कपट पूर्वक गण में न रहे।" पचास के लिखित में उन्होंने कहा-"जिस का मन साक्षी दे, भली भांति साधुपन पलता जाने, गण में तथा आप में साधुपन मानें तो गण में रहे, किन्तु वंचनापूर्वक गण में रहने का त्याग है।
गण में जो साधु-साध्वियां हो, उन में परस्पर सौहार्द रहे। कोई परस्पर कलह न करे तथा उपशान्त कलह की उदीरणा न करे। इसीलिए भिक्षु स्वामी ने कहा-"गण के किसी साधु-साध्वी के प्रति अनास्था उपजे, शंका उपजे वैसी बात करने का तयाग है। किसी में दोष देखे तो तत्काल उसे जता दे तथा आचार्य को जता दे किन्तु उस का प्रचार न करें। दोषों को चुन-चुन कर इकट्ठा न करें। जो जान पडै उसे अवसर देख कर तुरंत जता दे। वह प्रायश्चित का भागी है जो बहुत समय बाद दोष बताए। विनीत अवनीत की चौपाई में उन्होंने कहा है
"दोष देखे किण ही साध में, तो कह देणों तिण नैं एकन्त। जो मानें नहीं तो कहणों गुरू कने, ते श्रावक छै बुद्धिवन्त ।।
सुविनीत श्रावक एहवा।।१।। प्राश्चित दराय नै सुद्ध करै, पिण न कहै अवरां पास। ते श्रावक गिरवा गम्भीर छ, वीर बखाण्यां तास ।। दोष रा धणी नै तो कहे नही, उण रा गुरु नै पिण न कहै जाय। और लोकां आगै बकतो फिरै, तिणरी प्रतीत किण विध आय॥
अविनीत श्रावक एहवा ।।३।। तथा किसी साधु-साध्वी को जाति आदि को लेकर ओछी जबान न कहे। आपस में मन मुटाव हो, वैसा शब्द न बोले, एक दूसरे में सन्देह उत्पन्न न करे।
तथा गण और गणी की गुण रूप वार्ता करे। कोई गण तथा गणी की उतरती बात करे, उसे टोक दे और वह जो कहे उसे आचार्य को जता दे। कोई उतरती बात करता है
परिशिष्ट : गणपति सिखावण : ४५९
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और कोई उसे सुनता है, वह दोनों अविनीत है, विनीत वह होता है जो आज्ञा को सर्वोपरि माने
जिन शासन में आज्ञा बड़ी, आ तो बांधी रे भगवंता पाळ। सहु सज्जन असज्जन भेळा रहे, छान्दो रून्धे रे प्रभु वचन सम्भाळ।
बुद्धिवन्ता एकल संगत न कीजिए। छान्दो रून्ध्या विण संजम नीपजै, तो कुण चालै रे पर ही आज्ञा मांय। सहु आप मते हुवै एकला, खिण भेळा रे खिण बिखर जाय।
भगवान ने कहा है-"चइज्ज देहं न हु धम्म सासणं' मुनि शरीर को छोड़ दे, किन्तु धर्म-शासन को न छोड़े। जयाचार्य ने उसे पुष्ट करते हुए लिखा है
नन्दन वन भिक्षु गण में बसोरी, हे जी प्राण जाये तो पग म खिसौरी-१ गण माहे ज्ञान-ध्यान शोभै री, हे जी दीपक मन्दिर मांहे जिसोरी-२ टाळोकर नों भणवो न शोभै री, हे जी नाक बिना ओ तो मुखड़ो जिसोरी-३ भाग्य बले भिक्षु गण पायोरी, हे जी रतन चिन्तामणी पिण न इसोरी-४
गण पति कोप्यां ही गाढ़ा रहोरी, हे जी समचित शासण मांहे लसोरी-५ किन्तु कोई साधु-साध्वी क्रोधादिवश आज्ञा और अनुशासन का पालन नहीं कर सकने पर अथवा अन्य किसी कारण से गण से अलग हो जाये अथवा किसी को अलग किया जावे तो किसी साधु-साध्वी का मन भंग कर अपने साथ ले जाने का त्याग है। कोई जाना चाहे तो भी उसे साथ ले जाने का त्याग है। गण के साधु-साध्वियों की उतरती बात करने का त्याग है। अंशमात्र भी अवर्णवाद बोलने का त्याग है और छिपेछिपे लोगों को शंकाशील बना गण के प्रति अनास्था उपजाने का त्याग है, तथा वस्त्र, पात्र, पुस्तक- पन्ने आदि गण के होते हैं, इसीलिए उन्हें अपने साथ ले जाने का त्याग है।
गण से बहिष्कृत या बहिर्भूत व्यक्तियों के प्रति हमारा क्या दृष्टिकोण होना चाहिए, उसे स्पष्ट करते हुए भिक्षु स्वामी ने लिखा है-"गण से बहिष्कृत या बर्हिभूत व्यक्ति को साधु न सरधा जाये, चार तीर्थ में न गिना जाये, साधु मान वंदना न की जाये। श्रावक श्राविकाएं भी इन मर्यादाओं के पालन में सजग रहे।
भिक्षु स्वामी ने गण की सुव्यवस्था के लिए, मर्यादा की और उन्हें दीर्घ दृष्टि से देखा कि भविष्य में वर्तमान मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन आवश्यक हो सकता है, इसीलिए उन्होंने लिखा कि आगे जब कभी भी आचार्य आवश्यक समझे तो वे इन मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन करें और आवश्यक समझे तो कोई नई मर्यादा करें। पूर्व मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन हो अथवा नई मर्यादाओं का निर्माण हो, उसे सब साधु-साध्वियां सहर्ष स्वीकार करें।
सफल साधु वही होता है जो साधना में लीन रहे। निर्लेप रहने के लिए यह आवश्यक ४६० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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है कि साधु-साध्वियां गृहस्थों के संग-परिचय में न फंसे। जयाचार्य ने लिखा है:१ "थे तो चतुर सीखो सुध चरचा रे, थे तो परहर देवो परचा।
ए तो परचा आछा नाही, तूं तो समझ राख हिया मांहि।। २ परचो राखे ते नर भोळा, तिण रो जीव करे डाळा डोळा।
परचा स्यूं ओळंभो पावै, तिणरी क्यां ही शोभा नहीं थावे।। ३ परचा वाळो जो क्षेत्र भोळावै, तो मन रळियायत थावे ।
परचा वाळे क्षेत्र नहीं मेलै, दो दाव कपट बहु खेले।। ४ पछै आमण-दमण थको जावे, पिण मन में तो बह दुख पावे।
रात-दिवस जाये हिंजरतां, परचावाळां रो ध्यानज धरतां।। ५ एहवा परचा रा फळ जाणी, तिण ने परहरे उत्तम प्राणी।
जिणरे परचा रो पड़ियो सभावो, छूटण रो कठण उपायो।। ६ जबर समझ हुवै हिया मांड्यो, तो उ तुरंत देवै छिटकायो।
तिण रे प्रीत औरा स्यूं पूरी, गणपति स्यूं प्रीत अधूरी।। ७ परचावाळा साहमों नहीं जोवै, बले नयण वयण नहीं मोवै।
परचो छूटण रो एह उपायो, जय गणपति एम जणायो। ८ परचा वाळा री भावना भावे, जाणै दरशण करवा कद आवै।
__ आयां देख हिये अति हरषे, जाणै जंवरी नग नै परखै। ९ उगणीसे वर्ष उगणीसे, मृगसर विद सातम दिवसे।
प्रथम मरजादा दिन सुखदायो, परचा नै जयजश ओलखायो। निद्रा, हास्य, विकथा, ये साधना के विघ्न हैं, इसलिए नींद को बहुमान न दें, हास्य और विकथा का वर्जन करें तथा ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मा को भावित करें।
निदं च न बहुमन्नेज्जा, सप्पहासं विवज्जए।
मिहो कहाहिं न रमे सज्झायम्मि रओ सया।। सज्झाय-सज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स। विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणो॥ महाव्रतों, समिति-गुप्तियों तथा गण की छोटी बड़ी सभी मर्यादाओं का सम्यग् पालन करने वाला मुनि आचार्य की आराधना करता है, श्रमणों की आराधना करता है, और सब लोगों की दृष्टि में वह पूज्य होता है। तथा जो उनका सम्यग् पालन नहीं करता, वह न आचार्य की आराधना करता है और न लोकों की दृष्टि में पूज्य होता है।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं।। आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं॥
परिशिष्ट : गणपति सिखावण : ४६१
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इसीलिए विनीत साधु-साध्वियां आज्ञा, मर्यादा, आचार्य, गण और धर्म की सम्यक् आराधना करें और धर्म-शासन की गौरव-वृद्धि करें।
आंण सम्मं आराहइस्सामि। मेरं सम्म पालस्सामि॥ आयरियं सम्मं आराहइसामि। गणं सम्म अणुगमिस्सामि। धम्मं न कयावि जहिस्सामि।। आणं
सरणं गच्छामि। मेरं सरणं
गच्छामि॥ आयरियं सरणं गच्छामि॥ गणं सरणं गच्छामि। सरणं
गच्छामि॥
धम्म
४६२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१२. (पृष्ठ ६१ टिप्पण ४ से संबंधित)
लेखपत्र
मैं सविनय बध्दांजलि प्रार्थना करता हूं कि श्री भिक्षु, भारीमाल आदि पूर्वज आचार्य तथा वर्तमान आचार्य श्री तुलसीगणी द्वारा रचित सर्व मर्यादाएं मुझे मान्य है। आजीवन उन्हें लोपने का त्याग है ! आप संघ के प्राण हैं, श्रमण परम्परा के अधिनेता है, आप पर मुझे पूर्ण श्रद्धा है। आपकी आज्ञा में चलने वाले साधु-साध्वियों को भगवान महावीर के साधु-साध्वियों के समान शुद्धि साधु मानता हूं। अपने आपको भी शुद्ध साधु मानता हूं। आपकी आज्ञा लोपने वालों को संयम मार्ग के प्रतिकूल मानता हूं।
(१) मैं आपकी, आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूंगा। (२) प्रत्येक कार्य आपके आदेश पूर्वक करूंगा। (३) विहार चातुर्मास आदि आपके आदेशानेसार करूंगा। (४) शिष्य नहीं करूंगा। (५) दलबन्दी नहीं करूंगा। (६) आपके कार्य में हस्तक्षेप नहीं करूंगा। (७) आपके तथा साधु-साध्वियों के अंशमात्र भी अवर्णवाद नहीं बोलूंगा। (८) किसी भी साधु-साध्वी में दोष जान पड़े तो उसका अन्यत्र प्रचार किये बिना
. स्वयं उसे या आचार्य को जताऊंगा। (९) सिद्धान्त मर्यादा या परम्परा के किसी भी विवादास्पद विषय में आप द्वारा किये
निर्णय को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करूंगा। (१०) गण से बहिष्कृत या बहिर्भूत व्यक्ति से संस्तव नहीं रखूगा। (११) गण के पुस्तक पन्नों आदि पर अपना अधिकार नहीं करूंगा। (१२) पद के लिए उम्मीदवार नहीं बनूंगा। (१३) आप के उत्तराधिकारी की आज्ञा सहर्ष शिरोधार्य करूंगा।
पांच पदों की साक्षी से मैं इन सबके उल्लंघन का प्रत्याख्यान करता हूं। मैंने यह लेख-पत्र आत्मा-श्रद्धा व विवेकपूर्वक स्वीकार किया है। संकोच, आवेश या प्रभाववश
नहीं।
स्वीकर्ता..
संवत्"..."मास......"तिथि........
परिशिष्ट : गणपति सिखावण : ४६३
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टहुका
शेख अब्दुल मुफ्त रो साथी १३ (पृष्ठ १६१ से संबंधित)
एक शहर के बाहर धर्मशाला के पास कुछ भटियारिनें रहती थीं। राहगीर उनसे भोजन पकाते थे। वहां पर शेख अब्दुल नामक मुफ्तखोर रहता था। ज्यों ही यात्री भटियारिनों से रसोई बनवा कर भोजन के लिए बैठते त्यों ही वह बिना बुलाये जा धमकता और भोजन को चट कर जाता । यात्रियों के बचा खुचा हाथ आता। अच्छे गहने कपड़े देखकर उसे कोई कहने का भी साहस नहीं करता था। यह उसका रोज का धन्धा था। इस कारण वह 'शेख अब्दुल मुफ्त' के नाम से प्रसिद्ध हो गया । भटियारिनें यात्रियों को पहले से ही जता कर एक व्यक्ति का अधिक भोजन बनवाने के लिए कह देती थी ।
एक दिन एक पठान आया। भटियारिनों ने जब शेख के लिए भोजन बनाने का पूछा- तो उसने कहा- वह मेरे क्या लगता है? अगर जबरदस्ती करेगा तो मैं उसे देख लूंगा। तुम भोजन परोसो । सुरक्षा के लिए पास में अपने नये जूते रखकर बैठ गया ।
इधर दिन भर का भूखा शेख चक्कर लगा ही रहा था ज्यों ही भोजन की थाली आई कि उचक कर आ बैठा और दबादब भोजन करने लगा। क्रोधित पठान ने आव देखा न ताव जूते हाथ में लेकर मरम्मत करनी शुरू कर दी। पर शेख को तो इसकी परवाह ही नहीं थी। पूरा भोजन करके हाथ धोते हुए बोला- आज तबियत खुश भोजन हुआ है। पठान -यह कैसे ? शेख - मैं बचपन में भोजन नहीं करता तब मुझे मेरे माता पिता जूते मार-मार कर भोजन करवाते थे। आपने आज मुझे वैसा ही भोजन करवाया। यह सुनकर, पठान ने सोचा- यह तो महा निर्लज्ज है, और दूसरा आटा मंगवा कर रोटियां बना कर खाई ।
४६४ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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१४.(ढाळ ३ तथा ६ से संबंधित)
रूपचंदजी अखेरामजी द्वारा आचार्य भिक्षु में निकाले गये दोषों की विगत :
१ रजूहरण सूं माखी उडावणी नहीं। २ सूर्य उगां विण पडिलेहण करणी नहीं। ३ पांणी मोरो चुकावणो नहीं। ४ गोचरी नीकळ्या पछै ठिकाणे आंयां पेहिलां कठेइ वैसणो नहीं। ५ बायां ने थानक में बेसण देणी नहीं। ६ बायां सू चरचा बात करणी नहीं। ७ बायां साह्मो जोवणो नहीं। ८ बायां नै वैसाणे ते आछो खावा रे अर्थे । ९ आर्यां ने थानक में बेसाणणी नहीं। १० आर्यां सूं चरचा बात करणी नहीं। ११ आर्यां ने सूतर री वाचणी देणी नहीं। १२ आर्यां साह्मो जोवणो नहीं। १३ कारण विना आयाँ नें आहार देणो नहीं। १४ वैतकल्प में जाबक आर्यां ने साधा रे थानक वरज्या छै १७ बोल।
इम साधु नैं पिण १७ बोल आर्यां रै थानक वरज्या। १५ रात री आर्यां ने नेरी उतारे। १६ रात री बायां ने थानक में बैसारे नाथदुवारे। १७ गृहस्थ साथे विहार करै। १८ गृहस्थ साथे गोचरी जाए। १९ गृहस्थ जागां जोवै। २० गृहस्थ आय ने जागां बतावै। २१ गृहस्थ आय ने कहै अमकडियै घर अनादिक छै। २२ रोगिया में नितपिंड न लेणो। २३ खेतसीजी रे आथण रा तीन च्यार दिस दाल में जाता। २४ रोगी रै वासते आण्यो ते वधै तो बीजां नै खाणो नहीं।
परिशिष्ट : परम्परा री जोड़:४६५
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२५ छते पाणी रोगिया रे खातर नितपिंड ल्यावै ।
२६ इंदरगढ़ रो थानक असुध भोगव्यो ।
२७ पातरा रंगणा नहीं ।
२८ रोगान लगावणो नहीं ।
२९ सुगंध रो दुगंध करणो नहीं ।
३० सुवर्ण रो दुवर्ण करणो नहीं ।
३१ हींगलू धोवणो नहीं ।
३२ आर्यां नें मेली पछेवरी देणी नहीं ।
३३ काली धारी वालो लूंकार राखणो नहीं ।
३४ पडला रे बदले कपड़ो राखे ।
३५ स्याही उघाड़ी सुकावै।
३६ सुधिया पडिलेहण करै ।
३७ सुधिया पड़िकमणौ करै ।
३८ पड़िलेहण करै जठा तांइ जाबक बोलणो नही ।
३९ गोचरी सूं आयां पछै सझाय करणी।
४० पोहर - २ री च्यार काल री सझाय करणी ।
४१ पोहर सूं इधिकी नींद लेणी नहीं इधकी लेवे तो अठारै पाप माठा-माठा सुपना आवै पांच वैरी जागै छै ।
४२ सझाय बिना यूंही बेठो रहै तिण रा जोग सावज्ज छै । माठी लेस्या नें माठो ध्यान छै । इत्यादिक चारित रोधको छै ।
सेवणहार छै।
४३ कारण पड़ियां नित आहार पांणीयादिक आणै तो छ काय रो मारण हार छै।
४४ खंडिया धोवण नें नित पाणी ल्यावै ।
४५ स्याही रै खातर पाणी ल्यावे वधै ते पीयै ते नित (नितपिंड)
४६ आंथण रो पाणी घणो - २ पीयै ।
४७ आथण रो पांणी घणो परठै ।
४८ आथण रो पाणी मोरो चुकावै ।
४९ सरस आहार घणौ करै ।
५० पातरो कपड़ो कारण पड़ियां पिण दोढ मास सूं इधिको राखणो नहीं । ५१ कोइ नवो दिख्या ले तिणरै वास्ते पिण न राखणो ।
५२ नव चोकीयां जोवा गया।
५३ एक एक रा आंगुण दूजा आगे बोलै ।
५४ केलूरी जायगां में चौमासो करै ।
४६६ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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५५ दिख्या ले तिण रो रोगांन हींगलू बधै तो लेणो नहीं, इधिको लवै छै ।
५६ जिण में जाणपणो थोड़ो तिण ने दिख्या दै ।
५७ अजोग ने दिख्या दे छै, सुरतो, विगतो । ५८ धारवा जोग कपड़ो परठै।
५९ बे लंकार जैपुर मांहे परठ्या ।
६० उपगरण बिखरीया राखै ।
६१ थान आखौ राखै ।
६२ विना फारयां राखै।
६३ चिलमिलि राखै ।
६४ पाणी ठारै ।
६५ ऊंची जाण्गा रहै ।
६६ सेज्यातर भोगवै ।
६७ दोय रोटी परूपै । ६८ दोय वार दिसां जायै । ६९ टोळा रा आया छै ए ।
७० काना फार २ दिया । ७१ तीन पाव सपी खाए । ७२ वायरा में चालै । ७३ कसूंबल कपड़ो धोयो । ७४ आर्यां बेठां मात्रो करै । ७५ गेले खेतसी जी सूए । ७६ माथो ढांक नें चालै । ७७ भारी पाट उपारै ।
७८ पुर मांहे परठै जठै ।
७९ शरीर न पूंजै। ८० वीयावच घणी करावै ।
८१ राजनगर रा मैल जोया । ८२ दूजी वार धोवण ल्यावै । ८३ कवाड़ी रो आहार लै । ८४ विना पूज्या उटीगण लै । ८५ विना पूज्यां खाज खणै । ८६ सेवडी उतारै, भारमल ।
परिशिष्ट : परम्परा री जोड़ : ४६७
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८७ सुतर अडड बडड छै। ८८ मेह बरसतो रह्यां तुरत उठे। ८९ फुहरा(पर?) ९० गुठली आंबा री आंबली री परछै। ९१ पड़िकमणो आछी तरै करै नहीं। ९२ आमना जणावै समाचार री। ९३ अंजणा प्रमुख निषेधता ते कहै। ९४ रामचरित निषेधता ते जोवै छै। ९५ किण हीने प्राछित थोड़ो दै किण ने घणो। ९६ घणा साध साधवी भेळा रहै। ९७ चिणा रा होळा नै सेक्या मकिया रा कण लै। ९८ नाथदुवारा रो आहार मासखमण रह्या पछै खाधौ। ९९ गोधूंदा में ओषद रो लकरी वासी राखी। १०० चालतां बोलै। १०१ आधाकर्मी पांणी वैहरे कंवरजी प्रमुख रे। १०२ पाछली रात रा पग मात्रा सूं छोटै चोपडै। १०३ डावडो पड़ेला आमना जणाइ खेतसीजी। १०४ गृहस्थ री हाट माहै उपगरण पात्र मेल्या पुर माहै। १०५ हाट में उतरे कुणका उठावै। १०६ लिखत करावणौ नही। १०७ कोठास्या में पाणी रा ठांव मांहे चव्यो तिहां राते रह्या। १०८ पाणी रो ठाम खाली आफणी उरो ले ने मेलणो छैहरायौ। १०९ कपड़ो विना पडिलेह्या न वैहरणो। ११० कपड़ो रात रो ओढ़णो जब पूंजणो। १११ विना जोयां हाथ घालणो नही। ११२ आर्यां रे कपड़ो कह्यो ज्यूं पनो राखणो इत्यादिक घणा कह्या। ११३ खजूर वैहरया। ११४ रंगा चंगा नै डीळां सनूरा रहै। ११५ घी री मरजादा नही। ११६ आहार किती वार री मरजादा नहीं। ११७ आहार ने घी सूं चूरे तो सवाद आवै। ११८ कोरी रोटी न भावे तो तरकारी ल्यावै।
४६८ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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११९ दूध सूं रोटी मसलणी नहीं। १२० किवाड़ जड़े जठै रहै। १२१ बोता जयणा नहीं करै। १२२ थानक में कुणका उठावै। १२३ देव गांम में आर न ल्याया पिण मन में तो भाव। १२४ दोय साधां ने न रहिणो चौमासा माहै। १२५ तीन आर्यां ने न रहिणो चोमासा माहै। १२६ आर्यां ने आडो न जड़णो कवाड। १२७ आथण रा उचार पासवण री तीन जांगा जोवणी। १२८ आहार करै तरै जगा जोवणी। १२९ विना वचायां सुतर वाचै। १३० नसीत वाच्यां विना चौमासो करै। १३१ सुतर अनुक्रमै वाचणा। १३२ जोरी दावै हाथ जोड़ावै। १३३ आर्या रे गुरणी नही। १३४ गाम में धोवण पाणी वहिर ने विहार कीधो पाछो आवै तो त्यांरो वेहरणो
नहीं। १३५ ईर्या जोवतो वहरावण आयो पाछो जातो अजणा करे तो वहिरणो नहीं। १३६ सुखजी आश्री रूपचंद सोगांणी निषेध्या। १३७ भारमल जी ने नषेध्या बायां आश्री। १३८ भारमल जी ने वेणोजी नेडा बैठा त्यां निषेध्या नेणवा मांहे। १३९ लाडीजी न अजोग दिष्टंत सीखाया। १४० माधोपुर में पाणी री जोड़ कीधी। १४१ गुजरमल फेर व्रत भांग्या। १४२ रोछाड में आहार कीधो छांटां आइ। १४३ कोठारिया री नदी रो पांणी धोवण दाखल कह्यो। १४४ विरधमानजी रूपचंदजी री लोकां में घणी आसता उतारी लोगां आगै। १४५ दिख्या दीधी तरे ओर पछे ओर। १४६ बोल घणा पूछां तो कोइ जाब न देअठी उठी उतार दै। १४७ बोल पूछां तरे खेध धणी करता। १४८ कांकरोली में कुणका उठावण री चरचा कीधी तरे घणो हुवो। १४९ पुर में आर्यां ने बोल पूछ्या जाब नाया।
परिशिष्ट : परम्परा री जोड़: ४६९
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१५० बूंदी में मैणाजी नै परमाद आश्री चरचा पूछी जाब नाया। १५१ रावलियां में च्यार गावां रो आधाकर्मी ल्यावता। १५२ म्हने घणी चास पावता जको म्हारी आंख्या रो तेज हीण पस्यो। १५३ टोळा रा आर्यां री परतीत कोई नहीं यूं कह्यो। १५४ खेतसीजी रे आहार थोरो तेवरावै म्हने खबर नहीं, जिण सूं म्हे घणो
तेवरां, कपटाइ कर-कर दूध घणौ पावै, चोखो आहार वधै ते मनैभावै नहीं, तरै खेतसीजी ने देता। पछै म्हे पिण यांरो कपट जाण ने बरोबर तेवरता।
४७० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था
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प्रज्ञापुरुष जयाचार्य
छोटा कद, छरहरा बदन, छोटे-छोटे हाथ-पांव, श्यामवर्ण, दीप्त ललाट, ओजस्वी चेहरा--यह था जयाचार्य का बाहरी व्यक्तित्व।
अप्रकंप संकल्प, सुदृढ़ निश्चय, प्रज्ञा के आलोक से आलोकित अंतःकरण, महामनस्वी, कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति, इष्ट के प्रति सर्वात्मना समर्पित, स्वयं अनुशासित, अनुशासन के सजग प्रहरी, संघ व्यवस्था में निपुण, प्रबल तर्कबल और मनोबल से संपन्न, सरस्वती के वरदपुत्र, ध्यान के सूक्ष्म रहस्यों के मर्मज्ञ यह था उनका आंतरिक व्यक्तित्व।
तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के वे अनन्य भक्त और उनके कुशल भाष्यकार थे। उनकी ग्रहण-शक्ति
और मेधा बहुत प्रबल थी। उन्होंने तेरापंथ की व्यवस्थाओं में परिर्वतन किया और धर्मसंघ को नया रूप देकर विकास का दीर्घायु बना दिया।
जयाचार्य ने राजस्थानी भाषा में साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण साहित्य लिखा। साहित्य की अनेक विधाओं में उनकी लेखनी चली। उन्होंने भगवती जैसे महान् आगम ग्रंथ का राजस्थानी भाषा में पद्यमय अनुवाद प्रस्तुत किया। उसमें ५०१ गीतिका है। उसका ग्रंथमान है--साठ हजार पद्य प्रमाण। जन्म-वि.सं.१८६०,रोयट (पाली मारवाड़) दीक्षा-वि.सं.१८६६ जयपुर युवाचार्य पद-वि.सं.१८६४, नाथद्वारा आचार्य पद-वि.सं. १६०८, बीदासर निर्वाण-वि.सं. १६३८, जयपुर
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________________ 1803-2003 भिक्ष निर्वाण द्विशताब्दी वर्ष भिक्षु निर्वाण द्विशताब्दी समारोह निर्दिष्ट पांच अवदान सूत्र अनुशासन की चेतना का जागरण * सहिष्णुता की चेतना का जागरण * सामुदायिक चेतना का जागरण साधन शुद्धि के प्रति ध्यानाकर्षण * सार्वभौम धर्म का व्यापक प्रसार जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) वजा पमोवखो